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Joginder Singh Nov 2024
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
58 · Apr 26
सनातनी
मैं हूँ सनातनी
नहीं चाहता कभी भी
कोई तनातनी।

मेरा धर्म कर्मों के
हिसाब किताब पर आधारित है,
यह  भी माना जाता है
जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित है।
हम सब
जिन में
अन्य धर्मों के
मतावलंबी भी शामिल हैं ,
इस जीवन में
आध्यात्मिक उन्नति के लिए
आए यात्री मात्र हैं ,
जो अपने कर्मों में
सुधार करने के निमित्त
स्वेच्छा से आए हैं,
ये कतई जबरन नहीं लाए गए हैं।
यह बेशक मृत्युलोक है,
पर कर्म भूमि भी है।
इस जन्म के कर्म  
अगले जन्म का आधार बनते हैं।
इसी सिलसिले को सब आगे बढ़ाते हैं।
कभी हम उन्नति करते हैं
और कभी पतन का शिकार बनते हैं।
यह जन्मों का सिलसिला
हमारी आध्यात्मिक उन्नति पर
जाकर रुकेगा ,
तभी ईश्वरीय चेतना का हिस्सा
आत्मा बनेगी ,
उसे मुक्ति मिलेगी
अर्थात् चेतना परम चेतना में
समाहित होकर मोक्ष को होगी प्राप्त ,
जन्म मरण से मुक्ति मिलेगी।
पर इस क्षण
बहुत सी नव्य आत्माएं
अपनी यात्रा को
शुरू कर रहीं होंगी।
यह एक अद्भुत स्थिति है,
जिससे गुजरना कण कण की नियति है।
ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ एनर्जी
अर्थात् ऊर्जा का रूपांतरण ही तो
सृष्टि का खेल है।
सब का पिता
ईश्वर या अल्लाह है।
एक ही है परम चेतना ,
जिसे इस्लाम ,ब्रह्मवादियों,अन्य मतावलंबियों ने माना है।
हम सनातनी द्वैत और अद्वैत की बात करते हैं
तो बस इसलिए कि
हम भी एक ईश्वरवादी हैं,
पार ब्रह्म की बात करते करते
हम समय की धारणा को भी
अपने भीतर पाते हैं,
यह दशावतार के रूप में
जीवन के विकास क्रम को समझाने
लगता है हमें।
अनेक अवतार बस जीवनोत्सव के
प्रतीक भर हैं।
कुछ अन्य मतावलंबी इसे
अनेक ईश्वर वाद से जोड़ कर
हमें अपना विरोधी समझते हैं।
हम भी एक सत्ता के उपासक हैं
पर थोड़ा हट कर।
जल से जीवन उत्पन्न हुआ,
ईश्वर मत्स्यावतार के रूप में दिख पड़ा।
जैसे जैसे चेतना विकसित हुई ,  
उसी क्रम में अन्य अवतार भी अनुभूत हुए।
राम और कृष्ण , महावीर और बुद्ध ,हमारी चेतना में एक ही हैं।
वे महज अलग अलग समय में
मानवता के प्रतिनिधि भर रहे हैं।
उनके भीतर ईश्वरीय चेतना के कारण उनकी आराधना होती है।
यही नहीं गुरु नानक से लेकर दशमेश गुरु गोविंदसिंह में भी
उस एकेश्वरवादी परम सत्ता के दर्शन होते हैं।
इसी आधार पर निर्गुण और सगुण की उपासना हो रही है ।
देखा जाए तो वैचारिक धरातल पर परमसत्ता एक ही है।
सभी इस सत्य को समझें तो सही।
हमारे यहां कोई भेद भाव नहीं।
हम सनातनी हैं ,
शाश्वत सच की बात करते हैं ।
हमारा आहार व्यवहार
कार्य कारण पर आधारित हैं ,
हमारे ऋषि मुनि हवा में तीर नहीं छोड़ते।
उनके पास हरेक परंपरा का एक आधार है।
यही नहीं यदि कोई बौद्धिक प्रखर चेतना हमें पराजित कर दे ,
तो हम उसके चिंतन को भी मान्य करते हैं।
यही कारण है कि हमारी चेतना सदैव सक्रिय रही है ,
इसमें हरेक मजहब ,धर्म को स्थान देने की परंपरा रही है।
यदि हम पर जबरन धर्म या मजहब थोपने की किसी ने कोशिश की है
तो प्रतिरोध क्षमता भी भीतर भरपूर रही है।
हम महा बलिदानी और स्वाभिमानी रहे हैं।
हम सनातनी चेतना के साथ सदैव आगे बढ़े हैं।
हमारे चेहरे मोहरे काल सरिता में बह रही महाचेतना ने गढ़ें हैं।
तर्क चेतना के बूते कोई भी हम पर विजय पा सकता है ,
कोई शक्ति और तलवार के दम पर हमें बांधना और साधना चाहे, यह स्वीकार्य नहीं।
हम सनातनी प्रतिरोध के लिए भी खड़े हैं, एकजुट होने को उद्यत।


बेशक हम विनम्र हैं,
हम अपने हालात को
अच्छे से समझते हैं,
अस्तित्व की खातिर
हम सब सनातनी
आगे बढ़ने को हैं तत्पर।
एकजुटता से क्या हो सकता है बेहतर ?
इस की खातिर त्याग करना गए हैं सीख।
हम नहीं बने रहना चाहते लकीर के फ़कीर अब।
समय के साथ साथ आगे बढ़ने के लिए मुस्तैद।
२६/०४/२०२५.
58 · Nov 2024
वारिस
Joginder Singh Nov 2024
जिसे लावारिस समझा उम्र भर
वही मिला मुझे
सच्चा वारिस बनकर
आजकल
वह
मेरे भीतर जीवन के लिए
उत्साह जगाता है,
वह
क़दम क़दम पर
मेरे साथ निरंतर चलकर
मुझे आगे बढ़ा रहा है।
अब वह मेरी नज़र में
एक विजेता बनकर उभरा है,
जिसने संकट में
मेरे भीतर सुरक्षा का अहसास
जगाया है।
मैं पूर्वाग्रह के वशीभूत होकर
उसे व्यर्थ ही
दुत्कारता रहा।
नाहक
उसे शर्मिंदा करने को आतुर रहा।
जीवन में
शातिर बना रहा।
  ०४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
मुझे
अपने पास
बुलाता रहता है
हर पल
कोई अजनबी।
वह मुझे लुभाता है,
पल प्रति पल देता है
प्रलोभन।

वह
मृत्यु को सम्मोहक बताता है,
अपनी गीतों और कविताओं में
मृत्यु  के नाद की कथा कहता है
और  अपने भीतर उन्माद जगाकर
करता रहता है भयभीत।

यह सच है कि
मुझे नहीं है मृत्यु से प्रीत
और कोई मुझे...
हर पल मथता है ,
समय की चक्की में दलता है।


कहीं जीवन यात्रा
यहीं कहीं जाए न ठहर
इस डर से लड़ने को बाध्य कर
कोई मुझे थकाया करता है।

दिन रात, सतत
अविराम चिंतन मनन कर
अंततः चिंता ग्रस्त कर
कोई मुझे जीवन के पार
ले जाना चाहता है।
इसलिए वह
वह रह रह कर मुझे बुलाता है ।

कभी-कभी
वह कई दिनों के लिए
मेरे ज़ेहन से ग़ायब हो जाता है।
वे दिन मेरे लिए
सुख-चैन ,आराम के होते हैं।
पर शीघ्र ही
वह वापसी कर
लौट आया करता है।
फिर से वह
मुझे आतंकित करता है ।


जब तक वह या फिर मैं
सचमुच नहीं होते बेघर ।
हमें जीवन मृत्यु के के बंधनों से
मिल नहीं जाता छुटकारा।
तब तक हम परस्पर घंटों लड़ते रहते हैं,
एक दूसरे को नीचा दिखाने का
हर संभव किया करते हैं प्रयास,
जब तक कोई एक मान नहीं लेता हार।
वह जब  तब
मुझे
देह और नेह  के बंधनों से
छुटकारे का प्रलोभन देकर
लुभाया करता है।

हाय !हाय!
कोई मुझ में
हर पल
मृत्यु का अहसास जगा कर

और
जीवन में  मोहपाश से बांधकर
उन्माद भरा  करता है ,
ज़िंदगी के प्रति
आकर्षण जगा कर ,
अपना वफादार बना कर ,
प्रीत का दीप जलाया करता है।
कोई अजनबी
अचानक से आकर
मुझे
जगाने के करता है  
मतवातर प्रयास
ताकि वह और मैं
लंबी सैर के लिए जा सकें ।
अपने को भीतर तक थका सकें।
जीवन की उलझनों को
अच्छे से सुलझा सकें।
  २२/०९/२००८.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया भर में
मैं भटका ज़रूर,
मैंने बहुत जगह ढूंढा उसे
पर मिला नहीं
उसका कोई इशारा!

‌ जब निज के भीतर झांका ,
तो दिख गई उसकी सूरत,
बदल गई मेरी सीरत,
मिला मुझे एक सहारा !!

कुछ कुछ ऐसा महसूस किया कि
ईश्वरीय सत्ता
कहीं बाहर नहीं,
बल्कि मन के भीतर
अवस्थित है,
वह
वर्तमान में
अपनी उपस्थिति
दर्शाती है,
यह अहसास
रूप धारण कर
अपना संवाद रचाती है।


भूतकाल और भविष्यत काल
ब्रह्म यानिकि ईश्वरीय सत्ता की छायाएं भर हैं।
एक दृष्टि अतीत से मानव को जोड़
विगत में भटकाती है,
उसे बीते समय के अनुभव के
संदर्भ में चिंतन करना सिखाती है।

दूसरी दृष्टि
आने वाले कल
के बारे में  
चिंता मुक्त होने
के लिए,
चिंतन मनन करने की
प्रेरणा बन जाती है ।
इस के साथ ही
सुख, समृद्धि, स्वर्णिम जीवन के
स्वप्न दिखाती है।
दोनों ही भ्रम भर हैं ।


यदि
कहीं सच है
तो
वह वर्तमान ही है
बस!
उसे श्रम से
प्रभावित किया जा सकता है,
सतत् मेहनत से वर्तमान को
अपने अनुरूप
किया जाता है,
परन्तु
भूतकाल की बाबत
इतिहास के माध्यम से
अतीत में विचरण किया जा सकता है,
उसे छूना असंभव है।

भविष्य की आहट को
वर्तमान के संदर्भ में
सुना जा सकता है,
मगर इसके लिए भी
बुद्धि और कल्पना की
जरूरत रहती है।

आदमी के सम्मुख
वर्तमान ही एक विकल्प बचता है।
जिसे संभाल कर
जीवन संवारा जा सकता है।
वह भी केवल श्रम करने से।
आज आदमी का सच श्रम है,
जो सदैव बनता सुख का उद्गम है।
और यही सुख का मूल है।
वर्तमान को संभालने,
इसे संवारने, से सुख के उद्गम की
संभावना बनती है।

वर्तमान को
समय रहते संभालने से
सुख मिलने ,बढ़ने की आस बनी रहती है।
वर्तमान के रूप में
समय सरिता आगे बढ़ती रहती है।

२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
कहते हैं
कानून के हाथ
बहुत लंबे होते हैं ,
पर ये हाथ
कानून के नियम कायदों से
बंधे होते हैं।

कानून
मौन रहकर
अपना कर्तव्य
निभाता है ,
कानून का उल्लंघन होने पर
अधिवक्ता गुहार लगाता है,
बहस मुबाहिसे,
मनन चिंतन के बाद
माननीय न्यायमूर्ति
अपना फैसला सुनाते हैं।
इसे सभी मानने को बाध्य होते हैं ।


न्याय की देवी की
आंखों पर पट्टी बंधी होती है,
उसे मूर्ति के हाथ में तराजू होता है,
जिसके दो पलड़ों पर
झूठ और सच के प्रतीक
अदृश्य रूप से सवार होते हैं
और जो माननीय न्यायाधीश की सोच के अनुसार
स्वयं ही  संतुलित होते रहते हैं।


एक फ़ैसलाकुन क्षण में
माननीय न्यायाधीश जी की
अंतर्मन की आवाज़
एक फैसले के रूप में सुन पड़ती है।

इस इस फैसले को सभी को मानना पड़ता है।
तभी कानून का एक क्षत्र राज
शासन व्यवस्था पर चलता है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपना कार्य करता है।
कानून के कान बड़े महीन होते हैं
जो फैसले के दूरगामी परिणाम
और प्रभावों पर रखते हैं मतवातर अपनी पैनी नज़र।
यह सुनते रहते हैं
अदालत में उपस्थित और बाहरी व्यवस्था की,
बाहर भीतर की हर आवाज़
ताकि आदमी रख सकें
कानून सम्मत अपने अधिकार मांगते हुए,
अपने एहसासों और अधिकारों की तख्तियां सुरक्षित।
आदमी सिद्ध कर सके
खुद को
नख‌ से शिख तक पाक साफ़!!

कानून के रखवाले
मौन धारण कर
करते रहते हैं लगातार
अपने अपने कर्म
ताकि बचे रह सकें
मानवीय जिजीविषा से
अस्तित्व मान हुए
आचार, विचार और धर्म।
बच्ची रह सके आंखों में शर्म।

०२/०६/२०१२.
Joginder Singh Nov 2024
कोई भी रही हो
वजह
रिश्ते बनने ,बिगड़ने की
उसकी
बेवजह ना करो पड़ताल ।


चुपचाप
अपने करते रहो काम,
बेवजह
दर्द अपनों के में
करते ना रहो इज़ाफ़ा ।


कोई भी रही हो
वजह
शत्रुता बढ़ाने की
या फिर
मित्रता निभाने की
बेवजह
उसे तूल ना देकर ,
तिल का ताड़ ना बनाकर ,
सच को करो स्वीकार ।
समझ लो,
बाकी है सब बेकार ।


कायम रखो मिज़ाज अपने को ,
ताकि बढ़ता रहे मतवातर
जिंदगी का जहाज,
समय के समन्दर में ,
उसे लंगर की
रहे ना जरूरत।

०२/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
हम लिखेंगे जरूर
काल के फलक पर
नित्य नूतन अनोखी पटकथाएं
खुद को संकटों में आजमाने की !


हम पढ़ेंगे जरूर
महाकाल की संवेदना में जीवित
जन जन की व्यथित करतीं
जिंदगी में लड़कर हार जाने की कथाएं।


हम करेंगे पहल और कोशिशें जरूर
जीवन के विशाल पटल पर
हारे हुए योद्धाओं ,लाचारों के  
दर्द को पढ़ पाने की,
उनके मन से भार हटाने की ।
जीवन में आगे बढ़ पाने की ।


हम जानते हैं जीवन का यह सच
कि अपना वज़न सभी उठाते हैं !
पर जो गैरों का वज़न उठा पाएं,
वही जीवन की राह सुझाते हैं !
जीवन की गुत्थी समझ पाते हैं!
जीवन में अपनी पहचान बनाते हैं!
थके हारे में उत्साह भर, आगे बढ़ाते हैं।


फिर आप , वह और मैं इसी पल
जीवन में कुछ सार्थक करने की,
जीवन की मलिनता को साफ करने की,
क़दम दर क़दम आगे बढ़ने की,
लगातार कोशिशें क्यों नहीं करते ?
जीवन के चौराहे पर असमंजस में हैं क्यों खड़े?


हम जानते हैं भली भांति ,
नहीं है भीतर कोई भ्रांति ,
हम लिखेंगे काल के फलक पर
नित्य नूतन नवीन पटकथाएं ।


हम समझेंगे इसी जीवन में संघर्ष करते
निर्बलों, शोषितो, वंचितों की व्यथाएं।
हम बनना चाहते हैं सभी का सहारा,
हम ज्ञान दान देकर, उनके भीतर आलोक जगाएंगे।
उनको जीवन की सुंदरता का अहसास कराएंगे।

हम परस्पर सहयोग करते हुए,
सब में उत्साह ,उमंग ,जोश भरते हुए,
पूरे मनोयोग से जीवन पथ पर आगे बढ़ेंगे।
कभी काली अंधेरी घटाओं से नहीं डरेंगे।
साथी, हम मरते दम तक, करते रहेंगे संघर्ष,
ताकि ढूंढ सकें कर्मठ रहकर, जीवन में उत्कर्ष सहर्ष !

०४/०१/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
यह
नितांत सच है कि
कोशिश
जीवन की कशिश है।
कोशिश करते-करते
सभी एक दिन
कामयाब हो जाते हैं,
वे अपने भीतर
जीवन की कशिश
भर पाते हैं,
अपने सपने
साकार कर जाते हैं।

कोशिश में ही
जीवन की कशिश
है छुपी हुई।

कोशिश, मतवातर कोशिशें
हैं सब जिजीविषा का उत्स,
जो जीवन को एक उत्सव
तुल्य बनातीं हैं।

कोशिशों ने ही
जीवन रण में संघर्षों की गाथाएं रचीं हैं।
ये कोशिशें ही हैं, जिन्होंने
मानव के भीतर कशिश भरी है।
जो जीवन का केंद्र बिंदु बनी है।

तुम सतत् अथक कोशिशें करते रहो।
अपने व्यक्तित्व में कशिश पैदा करो।
कामयाबी की एक अनूठी कथा रचो।
सुख समृद्धि के पंखों से नित्य नूतन उड़ान भरो।

तुम कोशिशें कर, जीवन संघर्ष में कशिश उत्पन्न करो।
तुम अपने अस्तित्व को पूर्णरूपेण कर्मठता को सौंप दो।
  २८/०२/२०१७.
दविंदर ने
एक दिन अचानक
पहले पहल
शिवालिक की नीम पहाड़ी इलाके में
भ्रमण करते हुए
दिखाया था एक कीड़ा
जो गोबर को गोल गोल कर
रहा था धकेल।
आज उस का एक चित्र देखा।
उस की बाबत लिखा था कि
यह गोबर की गंध से
होता है आकर्षित
और इसे गोलाकार में
लपेटता हुआ
अपने बिल में ले जाने को
होता है उद्यत
पर गोबर की गेंद नुमा यह गोला
आकार में बिल के छेद से बन
जाता है कुछ थोड़ा सा बड़ा
वह इसे बिल में धकेलने की करता है कोशिशें
पर अंत में थक हार कर
अपनी बिल में घुस जाता है।
इस घटनाक्रम की तुलना
आदमी की अंतरप्रवृत्ति से की गई थी।
इस पर मुझे दविंदर का ध्यान आया था ।
मैंने भी खुद को गोबर की गंध से आकर्षित हुए
कीट की तरह जीवन को बिताया था
और अंततः मैं एक दिन सेवा निवृत्त हो घर लौट आया था
पर मैं ढंग से अपने इकट्ठे किए गोबर के गोले अर्थात् संचित सामान को सहेज नहीं पाया था।
मैं खाली हाथ लौट पाया था
जस का तस गोबरैला बना हुआ सा।
२०/०१/२०२५.
सच है
आजकल
हर कोई
कर्ज़ के जाल में
फँस कर छटपटा रहा है ,
वह इस अनचाहे
जी के जंजाल से
बच नहीं पा रहा है।

दिखावे के कारण
कर्ज़ के मर्ज में जकड़े जाना,
किसी अदृश्य दैत्य के हाथों से
छूट न पाना करता है विचलित।
कभी कभी
आदमी
असमय
अपनी जीवन लीला
कर लेता है
समाप्त ,
घर भर में
दुःख जाता है
व्याप्त।
आत्महत्या है पाप ,
यह फैलाता है समाज में संताप।
सोचिए , इससे कैसे बचा जाए ?
क्यों न मन पर पूर्णतः काबू पाया जाए ?
दिखावा भूल कर भी न किया जाए ।
जिन्दगी को सादगी से ही जीया जाए।
कर्ज़ लेकर घी पीने और मौज करने से बचा जाए।
क्यों बैठे बिठाए ख़ुद को छला जाए ?
क्यों न मेहनत की राह से जीवन को साधन सम्पन्न किया जाए ?
कर्ज़ के मर्ज़ से
जहां तक संभव हो , बचा जाए !
महत्वाकांक्षाओं के चंगुल में न ही फंसा जाए !
कर्ज़ के पहाड़ के नीचे दबने से पीछे हटा जाए !!
कम खाकर गुजारा बेशक कर लीजिए।
हर हाल में कर्ज़ लेने से बचना सीखिए।
१३/०३/२०२५.
58 · Mar 3
यात्रा
जीवन यात्रा में
कब लग जाए विराम ?
कोई कह नहीं सकता !
और आगे जाने का
बंद हो जाए रास्ता।
आदमी समय रहते
अपनी क्षमता को बढ़ाए,
ताकि जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न हो जाए।
मन में कोई पछतावा न रह जाए।
सभी जीवन धारा के अनुरूप
स्वयं को ढाल कर
इस यात्रा को सुखद बनाएं।
हरदम मुस्कान और सुकून के साथ
जीवन यात्रा को गंतव्य तक पहुँचाएं।
०३/०३/२०२५.
58 · Nov 2024
रंगीला
Joginder Singh Nov 2024
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
हरेक जीव
विशेष होता है
और उसके भीतर
स्वाभिमान कूट कूट कर
भरा होता है।
परंतु कभी कभी
आदमी को मयस्सर
होती जाती है
एक के बाद
एक एक करके
सफलता दर सफलता ,
ऐसे में
संभावना बढ़ जाती है कि
भीतर अहंकार
उत्पन्न हो जाए ,
आदमी की हेकड़ी
मकड़ी के जाल सरीखी होकर
उस मकड़जाल में
आदमी की बुद्धिमत्ता को
उलझाती चली जाए,
आदमी कोई ढंग का निर्णय
लेने में मतवातर पिछड़ता चला जाए।
उसका
एक अनमने भाव से लिया गया
फ़ैसला
कसैला निर्णय बनता चला जाए ,
आदमी जीवन की दौड़ में
औंधे मुंह गिर जाए
और कभी न संभल पाए ,
वह
बैठे बिठाए पराजित हो जाए।
वह
एकदम चाहकर भी
खुद में
बदलाव न कर पाए।
अंतिम क्षणों में
जीत
उसके हाथों से
यकायक
फिसल जाए।
उसकी हेकड़ी
धरी की धरी रह जाए।
उसे अपने बेबस होने का अहसास हो जाए।
हो सकता है
इस झटके से
वह फिर से
कभी संभल जाए
और जड़ से विनम्र होने की दिशा में बढ़कर
सार्थकता का वरण कर पाए।
०५/०४/२०२५.
कभी कभी
सच्ची और खरी बातें
समझ से परे होती हैं।
खासकर जब
ये देश हितों पर
कुठाराघात करती हैं ,
ऐसे में ये
आम आदमी के
भीतर असंतोष
पैदा करती हैं।

बात करने वाला
बेशक अभिव्यक्ति की आज़ादी के
नाम पर मानवीयता भरपूर
बातें कह जाता है ,
ये बातें मन को अच्छी लगती हैं।
इन्हें क्रियान्वित करना व्यावहारिक नहीं ,
देश समाज में घुसपैठ करने वाला
देश विशेष के नागरिकों के विशेषाधिकार
हासिल करने का अधिकारी नहीं।
पता नहीं क्यों
देश का
बुद्धिजीवी वर्ग
इस सच को समझता ?
कभी कभी बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है।
आम और खास आदमी तक
भावुकता में पड़ कर
देश हित को नज़र अंदाज़ कर जाता है ,
जिसका दुष्परिणाम
भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है।
देश समाज के हितों का हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए
नाकि मानवाधिकार के नाम पर
अराजकता की ओर अग्रसर होना चाहिए।
कभी कभी
समझ से परे के फैसले
चेतना को झकझोर देते हैं !
ये निर्णय यकीनन
देश समाज की अस्मिता की
गर्दन मरोड़ देते हैं ,
इंसानों को अनिश्चितता के
भंवर में छोड़ देते हैं ,
असुरक्षित और डरने के लिए !
ऐसे लोगों की बुद्धिमत्ता का
क्या करें ?
क्यों न उन्हें
उनकी भाषा में उत्तर दें ,
उनको गहरी नींद से जगाएं !
देश दुनिया और समाज के हितों को बचाएं !!
१४/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जाति के चश्मे से
देखोगे अगर तुम
आदमी को,
तो आदमियत से
दूर होते जाओगे !


विकास के नाम पर
चाहे अनचाहे ही
एक जंगल राज
खड़ा कर जाओगे!
बेशक पछताओगे!
खुद को कभी-कभी
मकड़जाल में जकड़ी
एक मकड़ी सरीखा
तुम खुद को पाओगे ।
अपनी नियति को कैद महसूस कर ,
तुम मतवातर अपनी भीतर ,
घुटन महसूस कर,तिलमिलाए देखे जाओगे।
तुम कब इस दुष्चक्र से
बाहर निकल कर आओगे?


ठीक है ,जाति तुम्हारी पहचान है।
कोई तुम्हें जाति में विचरने से नहीं रोकता ।
बेशक जाति पहचान रही है ,
परंपरावादी व्यवस्था की ।
आज जरूरत है ,
इस व्यवस्था में स्वच्छता लाने की ,
इसके गुणों व अच्छाइयों को, दिल से अपनाने की ।


यदि जाति के चश्मे से ना देखोगे आदमी को ।
सदैव साफ रखोगे नीयत तुम अपनी को ,
तो जाति तुम्हारी पहचान बनेगी ।
यह कभी विकास में बाधक न बनेगी ।
   ०८/०२/२०१७
Joginder Singh Nov 2024
शोषण के विरुद्ध
खड़े होने का साहस
कोई विरला ही
कर पाता है ,
अन्याय से जूझने का माद्दा
अपनी भीतर
जगा पाता है ।


तुम अज्ञानता वश
उसके खिलाफ़ हो जाओ ,
यह शोभता नहीं ।
ऐसे तो शोषण रुकेगा नहीं ।


शोषण न करो , न होने दो ।
अन्याय दोहन से लड़ने को ,
आक्रोश के बीजों को भीतर उगने दो ।
क्या पता कोई वटवृक्ष
तुम्हारा संबल बन जाए !
तुम्हें भरा पूरा होने का अहसास करा जाए !
दिग्भ्रम से बाहर निकाल तुम्हें नूतन दिशा दे जाए !!

२१/१०/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
सुनो उपभोक्ता!
बाजार का सच ।
आज
बाजार की गिद्ध नज़र
तुम्हारी जेब पर है।


हे उपभोक्ता जी,
अपनी जेब संभालो ,
उसमें बची खुची रेज़गारी भी डालो ।
भले ही
रेज़गारी को
आप नजरअंदाज करें,
इसे महत्व  न दें, लेकिन ना भूलें,
बूंद बूंद से घट भर जाता है,
व्यापारी भान जोड़कर ही  
धन कमाने का हुनर जान पाता है,
जब कि बहुत बार उपभोक्ता
अठन्नी जैसी रेज़गारी छोड़ देता है।
दिन भर की बीस अठन्नियां जुड़े,
तो दस रुपए की कीमत रखतीं हैं।
मत भूलो,
कभी-कभी खोटा सिक्का भी खुद को
कारगर साबित कर जाता है।  
कंगाली में नैया पार लगा देता है,
इज़्ज़त भी बचा देता है।

सुनो उपभोक्ता!
तुम उपभोग्य सामग्री तो कतई न बनना।
तुम उपभोगवादी सभ्यता में
जन्मे, पले-बढ़े,चमके हो,
उपभोग संयम से करो।
बाजार को
अपनी ताकत का अहसास करा दो।
उसे अपने चौकन्नेपन से चौंका दो ।

व्यापारी भ्रष्टाचार के पंख
आपसी मिली-भगत से फैला न पाएं ,
तुम्हारी जागरूकता है ,इस समस्या का सटीक उपाय।
बाजार का गणित
यानि अर्थशास्त्र
मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है।
इन दोनों में रहे संतुलन तो बाजार फलता-फूलता है।
ध्यान रहे,मांग और पूर्ति का संतुलन
उपभोक्ता के चित्त पर निर्भर करता है।
तुम्हारा चित्त डोला नहीं
कि बाजार तुम पर हावी हुआ।
बाजार में चोरी  , मक्कारी,
मंहगाई ,लूट खसोट,
हेराफेरी का दुष्चक्र शुरू हुआ।
भाई मेरे,
किसी के मकड़जाल
और उसके चालाकी से
निर्मित घेरे में न फंसना।
तुम फंसे नहीं कि
बाजार बहुत बड़ा खेल, खेल देगा।
इसे आजकल खेला (वस्तुत: झमेला)
कह  दिया जाता है।
ऐसे में
सुख ,सुरक्षा का भरोसा
छिन्न भिन्न होता है।
उपभोक्ता ठगा सा महसूस करता है,
और थक हार कर,सिर पकड़ कर बैठ जाता है,
उसका माथा ठनकता है,
वह हतप्रभ हुआ,हताश, निराश हुआ
स्वयं को अकेला करता जाता है।

कुछ ऐसा ही
खेला शेयरों में, सट्टेबाजी में भी है ,
जिस में
अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक
भरे पड़े हैं।
कल तक
जो हवा में उड़ रहे थे,
वे आज औंधे मुंह गिरे हुए पत्ते जैसा महसूस कर रहे हैं।
सुनो उपभोक्ता!
इस दुनिया के बाजार में
सब गोलमाल है।
यहां सतर्क रहना जरूरी है।
अन्यथा मन में
अंतर्कलह होने से
आदमी अन्यमनस्क हो जाता है।
वह खुद को रुका हुआ
और रूठा हुआ पाता है ।
उसे कहीं ठौर नहीं मिलता है,
वह भीतर तक
इस हद तक
हिल जाता है,
जैसे किसी ने उसे दिया हो
अचानक , अप्रत्याशित  घटनाक्रम बनकर
झकझोर और झिंझोड़,
ऐसे में
धरी की धरी रह जाती मरोड़।
सुनो उपभोक्ता, मेरी बात गौर से सुनो,
इस पर अमल भी करो
ताकि ठगे न जाओ।

बाजार से सामान लेने के बाद
सुरक्षित घर पहुंच पाओ।

डिजिटल खरीददारी भी
सोच समझकर करो ,
अपने भेद अपने भीतर रखो,
निडर,सतर्क रहना तुम्हारा दायित्व है,
कोई क्या करे, मामला वित्त और चित्त का है।१२/०८/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
'खुद को क्या संज्ञा दूं ?
खुद को क्या सजा दूं ?'
कभी-कभी यह सब सोचता हूं ,
रह जाता हूं भीतर तक गुमसुम ।
स्वत: स्व  से पूछता  हूं,
"मैं?... गुमशुदा या ग़म जुदा?"


ज़िंदगी मुखातिब हो कहती तब
कम दर कदम मंजिल को वर ,
निरंतर आगे अपने पथ पर बढ़ ।
अब ना रहना कभी गुमसुम ।
ऐसे रहे तो रह जाएंगी  राहें थम।
ऐसा क्या था पास तुम्हारे ?
जिसके छिटकने से फिरते मारे मारे ।
जिसके  खो जाने के डर से तुम चुप हो ।
भूल क्यों गए अपने भीतर की अंतर्धुन ?


जिंदगी करने लगेगी मुझे कई सवाल।
यह कभी सोचा तक न था ।
यह धीरे-धीरे भर देगी मेरे भीतर बवाल ।
इस बाबत तो बिल्कुल ही न सोचा था।
और संजीदा होकर सोचता हूं ,
तो होता हूं हतप्रभ और भौंचक्का।


खुद को क्या संज्ञा दू ?
क्या सजा दूं बेखबर रहने की ?
अब मतवातर  सुन पड़ती है ,
बेचैन करती अपनी गुमशुदगी की सदा ।
जिसे महसूस कर , छोड़ देता हूं और ज्यादा भटकना।
चुपचाप स्वयं की बाबत सोचता हुआ घर लौट आता हूं ।
जीवन संघर्षों में खुद को
बहादुर बनाने का साहस जुटाऊंगा।
मन ही मन यह वायदा स्वयं से करता हूं ‌।

०२/०१/२००९.
यह जीवन पथ
एक रंगमंच है , जहाँ
जहान तक को
किस्सा कहानी और कहानी का
विषय बनाकर
संवेदना को संप्रेषित करने के
मंतव्य से मन को हल्का करने में सक्षम खेल
नित्य प्रति दिन
हर पल ,
पलपल , हरेक क्षण
खेला जाता है ,
जहाँ पर
खेला हो जाता है !
जीव ठगा सा हतप्रभ
रह जाता है।
जीवन में
बेशक
कभी कभी
अच्छा होने का
नाटक करो
मगर कभी अच्छा होने का
प्रयास भी तो  किया करो
ताकि
दुनियावी झमेलों से
दूर रहकर,
जीवन के मंच पर
असमय
ठोकरें खाने से
बच सकें साधक ।
उनके जीवन में
किसी को
नीचा दिखाने के निमित्त
की गई हँसी ठिठोली
और हास परिहास
बनें न कभी भी बाधक।
सब जीव बन सकें
परम शक्ति के आराधक।
चेतना
समस्त सृष्टि में व्याप्त है ,
इसे जानने के प्रयासों के दौरान
भले ही
जीवन में  
कभी लगने लगे कि
अब सब समाप्ति के कगार पर है ,
मन में निराशा और हताशा भरती लगे ,
पर भूलो नहीं कि
जीवन में
कभी भी
कुछ भी समाप्त होता नहीं है,
बस पदार्थ अपनी अवस्था बदलता है।
कण कण में
जीवन नियंता और प्राणहंता
यहां वहां सब जगह
व्याप्त हैं।
फिर भी सोचो जरा कि
यह जीवन की अनुभूति  
भला हम से कभी
दूर रह पाएगी ?
बल्कि
यह जीवन के साथ भी
और बाद भी
चेतना बनकर
साथ रहेगी ,
जन्म जन्मांतर तक
हम सब को
कर्म चक्र से बांधें रखकर
समृद्ध करती रहेगी !
हमारा होना भी एक नाटक भर है ,
अतः इसे तन और मन से खेलो।
नाटक देखो ही नहीं , इसे जीयो भी ।
यहाँ सब कुशल अभिनेता हैं
और परम हम सब का निर्देशक!
और साथ ही दर्शक भी !
अपनी भूमिका को
निभाओ  दिल से!
जीवन को जीयो जी भर कर !
बेशक कभी कभी
नाटक भी करना पड़े
तो डरो कतई नहीं।
वर्तमान नाटक ही तो है !
अतीत यानिकि व्यतीत भी नाटक ही था!
आने वाले क्षण भी
नाटकीयता से भरपूर रहने वाले हैं !
भूल कर अपने समस्त डर !
निरन्तर आगे बढ़ना ही अब श्रेयस्कर है।
समय समर्थ है!
उसके सामने
कभी न कभी
गुप्त भेद भी प्रकट हो जाते हैं !!
अतः जीवन को भरपूर
नाटकीयता से जी लेना चाहिए।
कोई संकोच या बहानेबाजी से बचना चाहिए।
१३/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दर्पण
दर्प न  जाने।
वह तो
समर्पण को
सर्वोपरि माने ।

जिस क्षण
दंभी की छवि
उस पर आने विराजे,
उस पल
वह दरक जाये ,
उसके भीतर से
आह निकलती जाये।
उसका दुःख
कोई विरला ही जान पाये।

२०/०८/२०२०.
हम जंग के बाद भी
देश दुनिया और समाज में
टिके रहें ।
इसलिए अपरिहार्य है
हम युद्धाभ्यास के लिए
स्वयं को तैयार करें।

यह ठीक है कि
युद्ध देश विशेष की
सेनाएं लड़ती हैं।
उन्हें युद्धाभ्यास करने की
जरूरत होती है ,
परन्तु युद्ध में
सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए
आम जन बल का उत्साहवर्धन
बेहद ज़रूरी है।

युद्ध सीधे तौर पर
आपातकाल को न्योता देना है।
यह मंहगाई को
आमंत्रण देना भी है।
आज यह अस्तित्व रक्षा के लिए
अपरिहार्य लग रहा है।
आओ हम शपथ लें कि
हम संयमित रहकर
जीवन यापन करेंगे ,
अपने खर्चे कम करेंगे।
इससे जो धनराशि बचेगी ,
उसे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के हेतु
दान करेंगे।
यही नहीं ,
यदि जरूरत पड़ी तो
देश की अस्मिता की खातिर
स्वयं को कुर्बान करेंगे।
हम संकटकाल में
कार सेवा करते हुए
अपने जीवन को सार्थक करेंगे।
हम सर्वस्व के हितार्थ
युद्ध स्तर पर
सकारात्मक और सार्थक पहल करेंगे।
हम युद्धोपरांत
स्व राष्ट्र और पर राष्ट्र के कल्याणार्थ
नव निर्माण का कार्य  करेंगे
और युद्ध की भरपाई भी
तन ,धन ,मन से करेंगे
ताकि जीवन धारा पूर्ववत बह सके।
शांति की बयार देश दुनिया में बहे।
कोई भी अन्याय सहने को अभिशप्त न रहे।
३०/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
स्वेच्छा से
किया गया कर्म
हमें कर्मठ बनाकर
धर्म की अनुभूति
कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमारे जीवन के भीतर
ऊब और उदासीनता
पैदा कर
हमारी सोच को
बोझिल व थकाऊ
बनाकर भटकने के लिए
बाध्य करता है।

स्वेच्छा से
किया गया कार्य
हमें शुचिता के मार्ग का
अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित
करता है और यह हमें
जीवन पथ पर
उत्तरोत्तर
स्वच्छ मानसिकता का
धारणी बनाता है ,
हमें पवित्रता की निरंतर
अनुभूति कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमें अस्वाभाविकता का दंश देकर
पलायनवादी और महत्वाकांक्षी सोच
अपनाने को बाध्य कर
रसविहीन और हृदयहीनता को
बनाए रखता है।

आओ
आज
हम स्वाभाविकता को चुनें
ताकि जीवन में
कभी परेशान होकर
हताशा और निराशा में जकड़े जाकर
अपना सिर न धुनें ।
हम सदैव अपनी अन्तश्चेतना की ही सुनें।
अपनी अंतर्दृष्टि को
प्रखर करते हुए
जीवन पथ पर आगे बढ़ें।
हम सदैव कर्मठता का ही वरण करें।
२५/१२/२०२४.
आदमी को
मयस्सर होती रहे
ज़िन्दगी में
कामयाबी दर कामयाबी
बनी रहती भीतर
ठसक।
जैसे ही कामयाबी का
सिलसिला
कहीं पीछे छूटा ,
लगने लगता कि भाग्य भी
अचानक ही रूठा।
आदमी की
न चाहकर भी
टूट जाती ठसक।
भीतर ही भीतर
बढ़ती जाती कसक।
बेचैनी के बढ़ने से
झुंझलाहट बढ़ जाती !
ज़िन्दगी में उलझनें भी बढ़ने लगती !
ज़िन्दगी जी का जंजाल बन कर तड़पाने लगती !
ज़िन्दगी में भागदौड़ यकायक बढ़ जाती ,
आदमी एक अंतर्जाल में फंसता चला है जाता।
वह दिन हो या रात,
कभी भी सुकून का अहसास नहीं कर पाता।
०४/०५/२०२५.
57 · Nov 2024
संतुष्टि
Joginder Singh Nov 2024
सब्र,संतोष
भीतर
व्याप जाएं,
इसके लिए
कर्मठता जरूरी है।
कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए ।
इसे ढंग से निष्पादित किया जाए।
इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए।
सतत
सब्र, संतोष, सहृदयता,
व्यक्ति को संत सरीखा
कर देती है,
लालसा और वासना तक
हर लेती है।
कभी कभी
देह में से नेह और संतुष्टि का
नहीं होना,
मन को अशांत
कर देता है।
अतः
जीवन में संतुष्टि का होना
निहायत जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा
रह जाती अधूरी है,
जिससे
रिश्तों में
बढ़ जाती दूरी है,
इसी वज़ह से मन भटकता है,
आदमी क़दम क़दम पर अटकता है,
और जीव जीवन भर
संतुष्टि के द्वार पर
दस्तक देने की कोशिश करता है,
अपने भीतर कशिश भरना चाहता है,
परन्तु
कभो कभी ही
आदमी सफल हो पाता है,
हर कोई संतुष्टि को
अनुभव करना चाहता है।
Joginder Singh Nov 2024
शक की परिधि में आना
नहीं है कोई अच्छी बात,
यह तो स्वयं पर
करना है आघात।

अतः जीवन में
आत्महंता व्यवहार
कभी भी न करो,
अपने मन को काबू में करो।
अपने क्रिया कलापों को
शुचिता केन्द्रित बनाओ।
अपने नैतिकता विरोधी
व्यहवार को छोड़ दो।
खुद को संदिग्ध होने से बचाओ।
शक की परिधि में आने से खुद को रोको।
एक संयमित जीवन जीने का आगाज़ करो।

तुम सब अपना जीवन
कीचड़ में पले बढ़े
पुष्पित पल्लवित हुए
कमल पुष्प सा व्यतीत करो।

आज के प्रलोभन भरपूर
जीवन में शुचिता को अपनाओ।
यह मन को शुद्ध बनाती है।
यह व्यक्ति को प्रबुद्ध कर
मन के भीतर कमल खिला कर
जीवन को
जीवन्त और आकर्षण भरपूर
बनाती है,
यह शुचिता
व्यक्ति के भीतर
सकारात्मकता के बहुरंगी पुष्पों को
खिलाती है।

मित्र प्यारे,
तुम अपने भीतर
शुचिता के कमल खिलाओ। ताकि तुम स्वत:
जीवन को साधन संपन्नता का
उपहार दे पाओ ।
जीवन में
लक्ष्य सिद्धि तक
सुगमता और सहजता से
पहुंच पाओ।

दोस्त,
तुम अपने भीतर
शुचिता के कमल खिलाओ।
अंतर्मन में परम की अनुभूति कर पाओ।
  २८/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
वह धमकी बहादुर है।
उम्मीद है,
पूरा पूरा भरोसा है
वह अपने शब्दों पर
एकदम खरा उतरेगा,
गहरी मार करेगा,
चूंकि वह धमकी बहादुर है,
जिसे वह धमकी दे रहा है,
वह सिरे का कायर हो,
यह भला यकीन से
कैसे कहा जा सकता है?
कभी कभी
शेर को सवा शेर
मिल ही जाया करता है।
जिस से पराजित होने वाला डरता है।
न केवल डरता है, बल्कि दबता भी है।

मुझे यकीन है कि वह
गीदड़ भभकी नहीं दे रहा!
दिल से दहशत को हवा दे रहा !!

अब मेरी भी सुन लीजिए,
धमकी बहादुर को
हवा न दीजिए।
बल्कि उसका सामना कीजिए।
सौ बातों की एक बात कर रहा हूँ,
न कि भीतर डर भर रहा हूँ।
यहाँ
सब स्वाभिमानी हैं,
समय आने पर बनते बलिदानी हैं।
प्रतिक्रिया स्वरूप
हम भी
धमकी बहादुर और उसके गुर्गों पर
करना चाहते प्रबल प्रहार ।
हम उन पर
करेंगे
दिमाग से
घात प्रतिघात
और संहार...!
लौटाएंगे
उनको उनका उपहार
उनके ही अंदाज़ में।
हम उनसे उनकी बोली में
करेंगे संवाद।
निज भाषा का अपना स्वाद!!
हम चाहते हैं करना सामना
अपनी अतीत की पराजय को भूल कर
धमकी बहादुरों की आसुरी शक्तियों से दो दो हाथ।
हमारी रही है कामना,
सदैव शोषितों वंचितों को समय रहते थामना।
हम  मूलतः अहिंसक हैं,
नहीं चाहते मरना और मारना।
न ही चाहते कभी, धमकियों के आकाओं से ...
लड़ना, भिड़ना,मरना,डरना,
अपने सुकून को
खत्म होते देखना, बेशक
कभी धमकियों के बूते आगे बढ़ना पड़े,
कभी कभी समझौता करना पड़े।
१३/०५/२०२०
सुख में वृद्धि कैसे हो ?
दुःख में कमी कैसे हो ?
सुख और दुःख में
आदमी कैसे तटस्थ रहे ?
वह जीवन धारा में ‌बहकर
लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु
स्वयं को संतुलित कैसे करे ?

जब कभी इस बाबत सोचता हूं
तो आता है नज़र ,
आज का आदमी है प्रखर।
वह नींद में भी
कभी कभी सोच विचार कर
अत्यधिक चिंतित और विचारमग्न रहकर
कर लेता है खुद को बीमार।
वह नींद में चलने फिरने लगता है।
उसके जीवन में चोट लगने की
संभावना बढ़ जाती है।
जागने पर वह बहुत कुछ भूला रहता है।

नींद में चलना कतई ठीक नहीं।
यह आदमी को कहीं भी पहुंचा देता है।
यह आदमी को कभी कभार नुकसान पहुंचा देता है।
इस पर काबू पाया जा सकता है।
आदमी को जीवन में ठोकर लगने से पहले ही
सजग करते हुए बचाया जा सकता है।

वैसे नींद में चलना कोई ख़तरनाक बीमारी नहीं।
यह किसी को भी हो सकती है,
बचपन में ज्यादा और वयस्कों में बहुत कम।
यदि किसी को
नींद में चलने की बाबत
बताया जाता है
तो वह हैरान रह जाता है,
जब तक उसे प्रमाणित किया जाता नहीं।
और यह है भी सही,
कौन नींद में चलने के आरोप को सहे ?
वैसे सच है कि अज्ञान की नींद में सोया हुआ
व्यक्ति और समाज तक
तकलीफ़ के बावजूद
मतवातर आगे बढ़ते देखे गए हैं।
नींद में चलने वाला आदमी भी  
अचेतावस्था में आगे बढ़ता है।
बेशक ‌जागने पर
वह अपनी इस अवस्था की बाबत
सिरे से इंकार करे।
नींद में चलना बिल्कुल स्वाभाविक है,
बेशक यह चेतन व्यक्ति को अच्छा न लगे।
जीवन धारा हरेक अवस्था में आगे बढ़ी है,
यह रोके से न कभी रुकी है।
यह सोई ही कब थी ?
जो अपनी नींद से जगने पर
हड़बड़ाए आदमी सी जगी है।
नींद में चलना स्वप्न में जीवन जीने जैसा है।
स्वप्न भंग हुआ नहीं कि
सब कुछ नष्ट प्रायः और भूल-भुलैया में खोने सरीखा ,
कुछ कुछ फीका
और
कुछ कुछ तेज़ मिर्ची सा तीखा और तल्ख।
२९/०१/२०२५.
अचानक
युद्ध विराम की घोषणा ने
सच कहूँ ...
कर दिया है स्तब्ध
अभी राष्ट्र के प्रारब्ध का शुभारंभ हुआ है
और शत्रु पक्ष ने
कर दिया शीघ्र आत्म समर्पण।
सोमवार को
बुध पूर्णिमा के दिन
दोनों पक्षों में होगी संवाद की शुरुआत
होगी सहज और मित्रता पूर्ण वातावरण में वार्तालाप!
उम्मीद है दोनों देश बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करेंगे!
यदि शत्रु पक्ष ने कुटिल चाल खेली
और आतंकवाद को दिया बढ़ावा
तो देश मां रण चंडी का आह्वान कर
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का धैर्य धारण कर
संपूर्ण अवतार श्री कृष्ण की कूटनीति को आत्मसात कर
महादेव की तरह विषपान कर
शत्रु के संहार को होगा तत्पर
और समस्त देशवासी करेंगे
भविष्य के संघर्षों की खातिर स्वयं को तैयार।
अब फिलहाल युद्ध विराम
शुभ आकांक्षा का सबब बने।
इस बाबत सभी पक्ष सकारात्मक सोच अपनाएं ,
ताकि सब अपनी आकांक्षाओं पर लगाम लगाकर
अपने अपने राष्ट्र के कल्याणार्थ
सुख समृद्धि और सम्पन्नता भरपूर
संभावना के द्वार समय रहते खोल पाएं।
१०/०५/२०२५.
57 · Nov 2024
काश!
Joginder Singh Nov 2024
काश!
यह जगत
होता एक तपोवन
न कि जंगल भर,
जहां संवेदनाएं रहीं मर,
नहीं बची अब जीने की ललक।

तपोवन में
बनी रहनी चाहिए शांति।
मित्र,
जीवन में
कोई कार्य ऐसा न करें,
जिससे उत्पन्न हो भ्रांति
जो हर ले
सुध बुध और अंतर्मन की शांति ।
२६/०२/२०१७.
आओ मिल बैठ कर
अपने समस्त
मनभेद और मतभेद
दूर कर लें।
जीवन में
खुशियों को
भर लें।
वरना जड़ता हमें
लड़ाई की ओर
लेकर जाती रहेगी।
हमें मतवातर
कमज़ोर बनाती रहेगी।
फिर कैसे होगा सुधार ?
आओ सर्वप्रथम
हम जड़ता पर करें प्रहार
ताकि हम जागृत हो सकें ,
एक रहकर जीना सीख सकें।
हम जागरूक बनें ,
जड़ता और निष्क्रियता से लड़ें।
सब समय रहते अवरोध दूर करें।
सब निज की जड़ता से डरें
और समय रहते उसका नाश करें।
सब अपने भीतर
सतत सुधार कर
जड़ता पर प्रहार करें !
स्वयं को चेतना युक्त करें !!
२२/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
इस संसार में
आपको कुछ लोग
ऐसे मिलेंगे
जो कहेंगे कुछ ,
करेंगे कुछ और !
ऐसे ही लोग
जीवन को अपनी कथनी
और करनी में अंतर कर
बना देते हैं पूर्णतः तुच्छ।
उनकी बातों से लगेगा,
जीवन होना चाहिए
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
असल में स्वर्ग से भी अनुपम
यह जीव जगत और जीवन
बन गया है इस वज़ह से नर्क।
दोहरेपन और दोगलेपन ने ही
चहुं ओर सबका कर दिया है बेड़ा ग़र्क।
आज संबंध शिथिल पड़ गए हैं।
लगता है कि सब
इस स्थिति से थक गए हैं।
यह जीवन का वैचारिक मतभेद ही है,
जिसने जीवन में मनभेद
भीतर तक भर दिया है।
आदमी को बेबसी का दंश दिया है।
उसका दंभ कहीं गहरे तक
चूर चूर कर, चकनाचूर  कर दिया है।
इस सब ने मिलकर मनों में कड़वाहट भर दी है।
जीवन की राह में कांटों को  बिखेरकर
ज़िन्दगी जीना , दुश्वारियों से जूझने जैसी ,
दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कर दी है।
ऐसी मनोदशा ने आदमी को
किंकर्तव्यविमूढ़ और अन्यमनस्क बना दिया है।
उसे दोहरी जिंदगी जीने और जिम्मेदारी ने विवश किया है।
जीवन विपर्यय ने आज आदमी की
आकांक्षाओं और स्वप्नों को तहस नहस व ध्वस्त किया है।
३१/१२/२०२४.
जूझने
आदमी के पास
एक संतुलित दृष्टिकोण हो
और साथ ही
हृदय के भीतर
प्रभु का सिमरन एवं
स्मृतियों का संकलन भी
प्रवेश कर जाए ,
तब आदमी को
और क्या चाहिए !
मन के आकाश में
भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की
अनुभूतियों के प्रतिबिंब
जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत !
समस्त संसार परम का
करवाने लगे अहसास
दूर और पास
एक साथ जूम होने लगें !
जीवन विशिष्ट लगने लगे !!
इससे इतर और क्या चाहिए !
प्रभु दर्शन को आतुर मन
सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर
करने लगता है रह रह कर नर्तन।
यह सृष्टि और इसका कण कण
ईश्वरीय सत्ता का करता है
पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान !
पतित पावन संकीर्तन !!
इससे बढ़कर और क्या चाहिए !
वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर
स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण!
१७/०१/२०२५.
मटर छिलते समय
कभी नहीं आते आंसू ,
जबकि प्याज काटते समय
आँखें आंसुओं को बहाती है !
ऐसा क्यों ?
कुदरत भी अजीब है,
यह सब और सच के करीब है !
कोई बनता है मटर ,
कोई रुलाने वाला,
कोई कोई प्याज और टमाटर भी।
यह सब कुदरत का है खेल।
इसे देखता जा, और सीखता जा।
जीवन सभी से कहता है,
वह मतवातर समय के संग बहता है।

मटर छिलते समय
कोई कोई दाना छिपा रह जाता है,
मटर के छिलके
कूड़ेदान में फेंकते समय
मटर का दाना
अचानक दिख जाता है ,
आदमी सोचता है कभी कभी
यह कैसे बच गया ?
बिल्कुल इसी तरह
सच भी
स्वयं को
अनावृत्त करने से
रह जाता है,
वह मटर के दाने की तरह
पकड़ में आने से बच जाता है।
15/03/2025.
यह संभव नहीं
कि कभी मनुष्य
पूर्णतः विकार रहित हो सके।
फिर भी एक संभावना
उसके भीतर रहती है निहित,
कि वह अपने जीवनशैली
धीरे धीरे विकार रहित बना सके,
ताकि वह अपनी स्वाभाविक कमजोरियों पर
नियंत्रण करने में सफल रहे।

कोई भी विकार
सब किए धरे को
कर देता है बेकार ,
अतः व्यक्ति जीवन में संयमी बने
ताकि वह किसी हद तक
विकार रहित होकर
मन को शुद्ध रख सके,
जीवन धारा में शुचिता का
संस्पर्श कर सके।
वह सहज रहते हुए आगे बढ़ सके,
ताकि उस पर  लंपट होने का
कभी भी दोषारोपण न लग सके।
वह जीवन में
स्वयं के अस्तित्व को
सार्थक कर सके।
विकार रहित जीवन को
अनुभूति और संवेदना से
जोड़ कर
अपने व्यक्तित्व में
निखार ला सके।
वह प्यार और सहानुभूति को
चहुं ओर फैला सके,
चेतना से संवाद रचा सके,
अज्ञान की निद्रा से जाग सके।
२१/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
बेशक चलो
सभी से हंसी-मजाक करते हुए ,
प्यार और लगाव से बतियाते हुए ,
क़दम क़दम पर
स्वयं को
जीवन के उतार चढ़ाव से भरे सफर में
हरदम चेताते हुए ।
पर
हर्गिज न बोलो
कभी किसी से
बड़बोले बोल ।
यह
जीवन
अनिश्चितताओं से भरा हुआ है ,
क्या पता?
कब क्या घट जाए?
कहीं बीच सफ़र
ढोल की पोल खुल जाए ।
अतः सोच समझ कर बोलना चाहिए।
कठिनाइयों का सामना
बहादुरी से किया जाना चाहिए।

भूलकर भी मत बोल ,
कभी भी बड़बोले बोल।
कुछ भी कहो,
मगर कहने से पहले
उसे अंतर्घट में लो तोल।
इस जहान में
जीवन की गरिमा बची रहे ,
इस अनमोल जीवन में
अस्तित्व को कोई झिंझोड़ न सके,
आदमी अपनी अस्मिता कायम  रख सकें ,
इसकी खातिर हमेशा
बड़बोले बोलों से बचा जाना चाहिए।
ऐसे बिना सोचे-समझे
कुछ भी कहने से
ख़ुद का पर्दाफाश होता है।
और दुनिया को
हंसी ठिठोली का अवसर मिलता है,
ऐसे में
आत्म सम्मान मिट्टी में मिल जाता है,
आत्म विश्वास भी डांवाडोल हो जाता है।
यही नहीं, आदमी देर तक
भीतर ही भीतर
लज्जित और शर्मिंदा होता रहता है।

०८/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
अभी अभी
मोबाइल सन्देश से
पता चला है कि
देश भर में
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार  
पहले की तुलना में,
गुरबत में आई है कमी।
कोविड से लड़ने में देश रहा है सफल।
उसका सुफल है देश भर में
ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों
की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है,
फलत: गुरबत में कमी दे
रही है दिखाई ।
आम आदमी की समझ और
जागरूकता
अब तेजी से बढ़ रही है।
अर्थव्यवस्था भी
अब तेजी पकड़ती जा रही है।
ग़रीबों के उत्थान हेतु
सरकार आमजन और सम्पन्न वर्ग के मध्य
एक सेतु की भूमिका निभा रही है।

देश दुनिया और समाज में
कोई कमी न रहे,
देश दुनिया
संसार भर में फैले
भ्रष्टाचार के पोषकों से बचें।
फिर कैसे नहीं लोग
गुरबत छोड़ कर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वरें ?
इस बाबत हम-सब
सकारात्मक सोच को अपनाकर आगे बढ़ें।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तुम मुझे बार-बार छेड़ते हो ,
क्या है ?
तुम मुझे हाथ में पड़े अखबार की तरह
तोड़ते मरोड़ते हो ,
क्या है ?
तुम मुझे जीवन से
अनुपयोगी समझ कर फेंकना चाहते हो ,
यह सब क्या है ?


पहले तुम मुझे
क़दम क़दम पर
जीवन के रंग
दिखाना चाहते थे ,
और अब एकदम तटस्थ ,
त्रस्त और उदासीन से गए हो ,
यह सब क्या है ?

और अब
तुम्हारे रंग ढंग
कुछ बदले बदले नज़र आते हैं ।
तुम मुझे गीत सुनाते हो।
कभी हंसाते और रुलाते हो ।
कभी अपनी कहानी सुनाते हो।

आखिर तुम चाहते क्या हो ?

मैं तुम्हारे इशारों पर
नाचूं, गाऊं , हंसूं,रोऊं।
तुम ही बता दो , क्या करूं?

मैं अब
'क्या है ? ' नहीं कहूंगी।
यह तुम्हारे जीवन के प्रति
तुम्हारे प्यार और लगाव को दर्शाता है।
मुझे जीवन से जोड़ जाता है।
मेरे जीवन को नया मोड़ दे जाता है।

सच कहूं , तो यह वह सब है ,
जो हर कोई अपने जीवन में चाहता है।
इसकी खातिर अपने मन में कोमलता के भाव जगाता है।

अरे यार!
अब कह भी दो ना !
व्यक्त कर दो मन के सब उदगार।
अब कह ही दो , अपना अनकहा सच ।
मैं तुम्हारे मुख से
कुछ अनूठा और अनोखा
सुनने को  हूं बेचैन ।

अब चुप क्यों हो?
गूंगे क्यों बने हुए हो?
अच्छा जी! अब कितने सीधे सादे , भोले बने हो ।

क्या यही प्यार हे?
इसके इर्द गिर्द घूम रहा संसार है।
यही जीवन की ऊष्मा और ऊर्जा का राज़ है।
ऐसा  कुछ कुछ
एक दिन
अचानक
मेरे इर्द-गिर्द फैली
जीवन धारा ने
मुझे गुदगुदाने की ग़र्ज से कहा।
प्रतिक्रियावश मैं सुख की नींद सो गया !
जीवन के इस सुहाने सपने में खो गया!!
२९/११/२०२४.
कर्म चक्र
समय से पहले
कभी भी
आगे बढ़ने की
प्रेरणा नहीं देता।
आदमी
कितना ही
ज़ोर लगा लें ,
मन को समझा लें।
मन है कि यह
साधे नहीं सधता।
यह अड़ियल
बना रहता है।
अकारण
तना रहता है ,
खूब नाच नचाता है।

समय आने पर
यह भटकना
छोड़ देता है ,
अटकना और मचलना
रोक कर
यह स्वयं को
अभिव्यक्त करने की
पुरजोर कोशिश करता है ,
अपने भीतर कशिश भरता है।
ठीक इसी क्षण
आदमी के
प्रारब्ध का शुभारंभ होता है।
हर रुका हुआ काम
सम्पन्न होने लगता है ,
जिससे तन मन में
प्रसन्नता भरती जाती है।
यह आगे बढ़ने के
अवसरों को ढंग से
बटोर पाती है।
यह सब कुछ न केवल
आदमी को सतत्
कामयाबी की अनुभूति कराता है ,
बल्कि सुख समृद्धि और सम्पन्नता के
जीवन में आगमन से
व्यक्ति जीवन दिशा  को
भी बदल जाता है।
यही प्रारब्ध का शुभारंभ है ,
जहां सदैव रहते आए
उत्साह ,जोश और उमंग  की तरंगें हैं।
इन्हीं के बीच सुन पड़ती
जीवन की अंतर्ध्वनियां हैं।
३०/०४/२०२५.
56 · Mar 23
लताड़
इतिहास से खिलवाड़
करते हुए
आजकल
हमें कुछ चतुर सुजान लोगों
और बिकाऊ इतिहासकारों के लिखे
इतिहास को
पढ़ने को किया गया है
बाध्य।
ख़ूब ख़ूब उल्लू
बनाया गया हमें ,
इसे हम जड़ से समझें ,
ताकि हम अपनी अस्मिता को
पहचान सकें ,
भुला दी गई
गौरव गाथा का
स्मरण कर सकें ,
इसे अपनी स्मृतियों में
जीवंत बनाए रख सकें
और हम सब
अपने आप को
गंतव्य तक पहुंचा सकें।
ऐसा षडयंत्र
जिन्होंने किया ,
उनको लताड़ लगा सकें।
नव्य इतिहास लेखन
और खोजों के आधार पर
उपनिवेशवादी मानसिकता के
राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों को
सकें  समय रहते लताड़
ताकि वे
और ज़्यादा न कर सकें
जनभावनाओं और आकांक्षाओं के
साथ खिलवाड़।
हम सब सच का दें साथ ।
हम इतिहास से छेड़छाड़ होने देकर ,
न करें ,भूले से , सभी
कभी भी
राष्ट्र हितों पर कुठाराघात।
हम ऐसे दोगली मानसिकता पर
करें सतत् प्रहार।
२३/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
Joginder Singh Dec 2024
क्या
दुनिया में
सच खोटे सिक्के
सरीखा हो गया है ?

क्या
दुनिया में
झूठ का वर्चस्व
कायम हो गया है ?
परन्तु
सच तो आदमी का
सुरक्षा कवच है ,
कोई विरला ही
इस पर
भरोसा करता है।

तुम सदैव
सच पर
भरोसा करोगे
तो यकीनन जीवन में
शांतिपूर्वक जीओगे।
अतः आज से ही तुम
झूठ बोलने से गुरेज करोगे,
जीवन में ‌शुचिता वरोगे।

बेशक!
आज ही तुम
अपने भीतर
दुनिया भर का  
दुःख दर्द समेट लो।

सच की उम्र
लंबी होती है।
झूठे की चोरी सीनाज़ोरी
थोड़े समय तक ही चलती है,
क्यों कि ज़िन्दगी
अपनी जड़ों से जुड़कर ही
आगे यात्रा पथ पर अग्रसर होती है।
यह कभी भी  
खोटे सिक्कों के सम्मुख
समर्पण नहीं करती है।
१८/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
लगने लगती पहाड़ !

इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
करने लगती चीर फाड़!!

सबकी ,
सर्वस्व की!
वर्चस्व की!!
चीरफाड़... ज़िन्दगी  में  हालात देखकर
की जानी चाहिए।
यह तो जिंदादिली से जी जानी चाहिए।
१०/०३/२०११.
राजनीति में
मुद्दाविहीन होना
नेतृत्व का
मुर्दा होना है।
नेतृत्व
इसे शिद्दत से
महसूस कर गया।
अब इस सब की खातिर
कुछ कुछ शातिर बन रहा है।
यही समकालीन
राजनीतिक परिदृश्य में
यत्र तत्र सर्वत्र
चल रहा है।
बस यही रोना धोना
जी का जंजाल
बन रहा है।
नेता दुःखी है तो बस
इसीलिए कि
उसका हलवा मांडा
पहले की तरह
नहीं मिल रहा है।
उसका और उसके समर्थकों का
काम धंधा ढंग से
नहीं चल रहा है।
जनता जनार्दन
अब दिन प्रतिदिन
समझदार होती जा रही है।
फलत:
आजकल
उनकी दाल
नहीं गल रही है।
समझिए!
ज़िन्दगी दुर्दशा काल से
गुज़र रही है।
राजनीति
अब बर्बादी के
मुहाने पर है!
बात बस अवसर
भुनाने भर की है ,
दुकानदारी
चलाने भर की है।
मुद्दाविहीन
हो जाना तो बस
एक बहाना भर है।
असली दिक्कत
ज़मीर और किरदार के
मर जाने की है ,
हम सब में
निर्दयता के
भीतर भरते जाने की है।
इसका समाधान बस
गड़े मुर्दों को
समय रहते दफनाना भर है ,
मुद्दाविहीन होकर
निर्द्वंद्व होना है
ताकि मुद्दों के न रहने के बावजूद
सब सार्थक और सुरक्षित
जीवन पथ पर चलते रहें।
वे सकारात्मक सोच के साथ
जीवन में दुविधारहित होकर आगे बढ़ सकें ,
आपातकाल में
डटे रहकर संघर्ष कर सकें।
०४/०४/२०२५.
वह इस भरे पूरे
संसार में
दुनियावी गोरखधंधे सहित
अपने वजूद के
अहसास के बावजूद
कभी कभी
खुद को
निपट अकेलेपन से
संघर्ष करते ,
जूझते हुए
पाता है ,
पर कुछ नहीं कर
पाता है,
जल्दी ही
थक जाता है।
वह ढूंढ रहा है
अर्से से सुख
पर...
उसकी चेतना से
निरन्तर दुःख लिपटते जा रहे हैं ,
उसे दीमक बनकर
चट करते जा रहे हैं।
जिन्हें वह अपना समझता है,
वे भी उससे मुख मोड़ते जा रहे हैं।
काश! उसे मिल सके
जीवन की भटकन के दौर में
सहानुभूति का कोई ओर छौर।
मिल सके उसे कभी
प्यार की खुशबू
ताकि मिट सके
उसके अपने किरदार के भीतर
व्यापी हुई बदबू और सड़ांध!
वह पगलाए सांड सा होकर
भटकने से बचना चाहता है ,
जीवन में दिशाहीन हो चुके
भटकाव से छुटकारा चाहता है।

कभो कभी
वह इस दुनियावी झंझटों से
उकता कर
एकदम रसविहीन हो जाता है ,
अकेला रह जाता है,
वह दुनिया के ताम झाम से ऊब कर
दुनिया भर की वासनाओं में डूबकर
घर वापसी करना चाहता है,
पर उस समझ नहीं आता है,
क्या करे ?
और कहां जाए ?
वह दुनिया के मेले को
एक झमेला समझता आया है।
फलत:
वह भीड़ से दूर
रहने में
जीवन का सुख ढूंढ़ रहा है,
अपना मूल भूल गया है।
वह अपने अनुभव से
उत्पन्न गीत
अकेले गाता आया है,
अपनी पीड़ा दूसरों तक नहीं
पहुँचा पाया है।
सच तो यह है कि
वह आज तक
खुद को व्यक्त नहीं कर पाया है।
यहाँ तक कि वह स्वयं को समझ नहीं पाया है।
खुद को जानने की कोशिशों को
मतवातर जारी रखने के बावजूद
निराश होता आया है।
वह नहीं जान पाया अभी तक
आखिर वह चाहता क्या है?
उसका होने का प्रयोजन क्या है?
निपट अकेला मानुष
कभी कभी
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है,
वह खुद को असंमजस में पाता है।
अपनी बाबत कोई निर्णय नहीं कर पाता है।
सदैव उधेड़ बुन में लगा रहता है।
१६/०३/२०२५.
( १६/१२/२०१६).
Joginder Singh Nov 2024
रात सपने में
मुझे एक मदारी दिखा
जो 'मंदारिन ' बोलता था!
वह जी भर कर कुफ्र तोलता था!!
अपनी धमकियों से वह
मेरे भीतर डर भर गया ।
कहीं
गहराई में
एक आवाज सुनी ,
'.. डर गया सो मर गया...'  
मैं डरपोक !
कायम कैसे रखूं अपने होश ?
भीतर कैसे भरूं जिजीविषा और जोश?
यह सब सोचता रह गया ।
देखते ही देखते
सपने का तिलिस्म सब ढह गया।
जागा तो सोचा मैंने
अरे !मदारी तो
सामर्थ्यवान बनने के लिए कह गया।
अब तक मेरा देश
कैसे जुल्मों सितम सह गया?
Joginder Singh Nov 2024
महंगाई ने
न केवल किया है,
जनसाधारण को
भीतर तक परेशान ,
बल्कि
इसने पहुंचाया है
आर्थिकता को भारी-भरकम
नुक्सान ।

दिन पर दिन
बढ़ती महंगाई ,
ऊपर से
घटती कमाई ,
मन के अंदर भर
रही आक्रोश ,
इस सब की बाबत
सोच विचार करने के बाद
आया याद ,
हमारी सरकार
जन कल्याण के कार्यक्रम
चलाती है,
इसकी खातिर बड़े बड़े ऋण भी
जुटाती है।
इस ऋण का ब्याज भी
चुकाती है।
ऊपर से
हर साल लोक लुभावन
योजनाएं जारी रखते हुए
घाटे का बजट भी पेश
करती है।


यही नहीं
शासन-प्रशासन के खर्चे भी बढ़ते
जा रहे हैं ।
भ्रष्टाचार का दैत्य भी अब
सब की जेबें
फटाफट ,सटासट
काट रहा है।

चुनाव का बढ़ता खर्च
आर्थिकता को
तीखी मिर्च पाउडर सा रहा है चुभ।

यही नहीं बढ़ता
व्यापार घाटा ,
आर्थिकता के मोर्चे पर
पैदा कर रहा है
व्यक्ति और देश समाज में
सन्नाटा।


ऊपर से तुर्रा यह
कर्ज़ा लेकर ऐश कर लो।
कल का कुछ पता नहीं।
व्यक्ति और सरकार
आमदनी से ज़्यादा खर्च करते हैं,
भला ऐसे क्या खज़ाने भरते हैं?

फिर कैसे मंहगाई घटेगी?
यह तो एक आर्थिक दुष्चक्र की
वज़ह बनेगी।
जनता जनार्दन कैसे
मंहगाई के दुष्चक्र से बचेगी ?
देखना , शीघ्र ही इसके चलते
देश दुनिया में अराजकता और अशांति बढ़ेगी।
व्यक्ति और व्यक्ति के भीतर असंतोष की आग जलेगी।

२९/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
तमाम खाद्यान्न पदार्थों में
खिचड़ी का मिलना
किसी वरदान से कम नहीं।
इसे खाकर तो देख सही।



गले में खिचखिच     खा खिचड़ी
जीवन में खिचखिच  गा   और
खिचड़ी भाषा में पढ़   कबीर जी का सच
कैसे नहीं होगा प्राप्त ?
जीवन में आस्था का सुरक्षा कवच !अगर म
अनायास सीख पाओगे स्वयं को रखना शांत।

खिचड़ी खा, खिचड़ी भाषा के कवि को गुन
और... हां...तूं  मन मेरे
अपने भीतर का राग सुनाकर, उसे ही गुनाकर !

जीवन भरने करना दूर अपने को खिचड़ी से
बनना मस्त मलंग खाकर, जीकर खिचड़ी के संग
मिलेंगे जीवन के खोये रंग,
जीवन न होगा और अधिक बदरंग, मटमैला,
यह जीवन नहीं होगा प्रतीत एक मेला -झमेला ।
०९/१०/२००८.
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