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हेट करते करते
डेटिंग
शुरू हो जाए,
इसकी मांगिए
दुआएं !

आज ज़माना
अपना दस्तूर भूला है ,
यहाँ अब सारे रीति रिवाज
उल्टा दिए गए हैं ,
शादी से पहले जो होते थे शेर कभी ,
आज मेमने बना दिए गए हैं !

अभी अभी
रद्दी में फेंक दिए
गए अख़बार में से
पढ़ी है एक ख़बर,
" नौ साल पहले हुई थी लव मैरिज ;
पति लन्दन गया तो....ने नया प्रेमी बनाया ,
लौटने पर हत्या कर पन्द्रह टुकड़े किए "
सोच रहा हूँ
आजकल ऐसा क्या हो गया है ?
लव मैरिज शादी के बाद
बन जाती है
जंग का मैदान !
यह संबंधों को ढोती हुई
जाती है हाँफ !
ज़िन्दगी होती जाती फ्लॉप !
यह एक मिस कैरेज ही तो है ,
जिसमें खुशियों का शिशु
असमय मार दिया जाता है !
वासना के कारण
पति परमेश्वर को
परमेश्वर से मुलाकात के लिए
षडयंत्र कर
भेज दिया जाता है !
ज़मीर और किरदार तक
सस्ते में बेच दिया जाता है !
आप ही बताइए
क्या आप को ऐसा समाज चाहिए ?
जहां वासना जी का जंजाल बन गई है ,
पति-पत्नी ,
दोनों के अहम् के टकराव की
वज़ह से ज़िंदगी नरक बन गई है।
आदमी के चेहरे से
मुस्कान छीनती चली गई है।
जीवन चक्र से
सौरभ और सौंदर्य हो गया है लुप्त !
संवेदना और सहानुभूति भी हैं अब लुप्त !!
किसी हद तक सभी जबरन सुला दिए गए !
संबंध , रिश्ते नाते तक भुला दिए गए !!
०९/०४/२०२५.
देह क्या है
एक आकार ,
पंच तत्वों से
निर्मित
एक पुतला भर !
या फिर कुछ ज़्यादा !!
चेतन की देह में उपस्थिति भर!!
देह के भीतर व्यापा चेतन
कहां से मन को नियंत्रित कर पाता है ?
इस बाबत सोचते पर
आदमी मूक रह जाता है।
वह अपनी देह से नेह के जुड़े होने की
जब जब अनुभूति करता है,
वह अचंभित होता हुआ
तब तब अपनी काया के भीतर
विराट की उपस्थिति को समझ पाता है।
वह बस इस अहसास भर से  
स्वयं को उर्जित पाता है
और अपनी संभावना को टटोल जाता है।
इससे पहले कि वह
आकर्षण के पाश में बंध कर
अपनी जीवन धारा को चलायमान रखने के निमित्त
दैहिक निमंत्रण की बाबत सोचना शुरू करे ,
वह स्वयं को दैहिक और मानसिक रूप से दृढ़ करे ,
और हां, वह दैहिक नियंत्रण के लिए
जी भर कर यौगिक क्रियाएं और व्यायाम करे
ताकि उसकी आस्था
जीवनदायिनी
चेतना के प्रति अक्षुण्ण बनी रहे।
यह जीवन में उतार चढ़ाव के समय भी
संतुलित दृष्टिकोण से पल्लवित और पोषित होती रहे,
जीवन धारा को आगे बढ़ाने में सक्षम बनी रहे।
जीवन पथ पर आगे बढ़ने के दौरान
कहीं कोई कमी न रहे ,
बल्कि  इस देह में
ऊर्जा बनी रहे।

देह के निमंत्रण को स्वीकार करने से पूर्व
आदमी का देह पर नियंत्रण बना रहे,
ताकि सफलता मतवातर मिले।
यह जिंदगी सदैव महकती रहे।
यह खुशबू बिखेरती रहे।
यह अपने सार्थक होने की
प्रतीति करा सके।
१९/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
महंगाई
अब जीवन शैली पर
बोझ बढ़ाती जा रही है !
जीवनयापन को
महंगा करती जा रही है।
आमदनी उतनी बढ़ी नहीं ,
जितने रोजमर्रा के खर्चे बढ़े ,
यह सब आदमी के अंदर
मतवातर
तनाव और चिन्ता बढ़ा रही है।
आदमी की सुख चैन नींद उड़ती जा रही है।

महंगाई
जीवन को और अधिक
महंगा न करे।
आओ इस की खातिर कुछ
प्रयास करें।
और इस के लिए
सभी अपने
वित्तीय साधनों को
बढ़ाएं ,
या फिर
अपने बढ़ते खर्चे
घटाएं ।


पूर्ववर्ती जीवन
सादा जीवन, उच्च विचार से
संचालित था
और अब फ़ैशन परस्ती का दौर है,
कर्ज़ लेकर, इच्छा पूर्ति की दौड़ लगी है,
भले ही मानसिक तौर पर होना पड़ जाए बीमार ।
इस भेड़चाल से कैसे मिलेगी निजात ?

अब एक यक्ष प्रश्न
सब के सामने
चुनौती बना हुआ है
कि कैसे महंगाई रुके ?
मांग और आपूर्ति में
कैसे संतुलन बना रहे ?
आदमी तनावरहित रहे!
उसकी औसत आय,उमर, कीमत बढ़े ।

अनावश्यक विकास जनक गतिविधियां
जनता और सरकारों पर बोझ बन जातीं हैं।
यह सब कर्ज़ के बूते ही संभव हो पाता है।
अगर कर्ज़ समय पर न लौटाया जाए
तो यह
सभी के लिए
जी का जंजाल बन जाता है !
सब कुछ सुख चैन,नींद, धन सम्पदा
कर्ज़े के दलदल में धंसता जाता है।
हर कोई /क्या आदमी/क्या देश/क्या प्रदेश
सब आत्मघात करते दिख पड़ते से लगते हैं ।
यह जीवन में चार्वाक दर्शन की
परिणिति ही तो है,
सब कुछ
वक़्त के भंवर में
खो रहा होता प्रतीत है।
यह हमारा अतीत नहीं ,
बल्कि वर्तमान है।
आज महंगाई ने
उठाया हुआ आसमान है!
इसके कारण कभी कभी तो
धराशाई हो जाता आत्मसम्मान है ,
जब व्यक्ति ही नहीं व्यवस्था तक को
मांगनी पड़ जाती है ,
सब इज़्ज़त मान सम्मान छोड़ कर
हर ऐरे गेरे नत्थू खैरे से भीख।
हमारा पड़ोसी देश, इस सबका बना हुआ है प्रतीक ।
क्या हम लेंगे
अपने पड़ोसी देशों में
घटते घटनाक्रम से
कुछ सीख ?
...या मांगते रहेंगे ...
दुनिया भर की अर्थ व्यवस्थाओं से भीख ?

आज
जहां प्रति व्यक्ति आय की
तुलना में
प्रति व्यक्ति कर्ज़
मतवातर बढ़ रहा है,
इस सब से अनजान आम आदमी
खास आदमी की निस्बत राहत महसूस करता है।
चलो कुछ तो विकास हो रहा है।
इसी बहाने कुछ लोगों को रोज़गार मिल रहा है।
वहीं कोई कोई संवेदनशील व्यक्ति
विकास की चकाचौंध और चमक दमक के बीच
खुद को ठगा महसूस करता है,
और हताशा निराशा के गर्त में जा गिरता है।
वह सोचता है रह रह कर
देश समाज पर कर्ज़ रहा है निरन्तर बढ़
कर्जे की बाढ़ और सुनामी
देश की अर्थ व्यवस्था को
विश्व बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की तरफ़
ले जा रही है,
ऐसे में
आम आदमी की चेतना क्यों सोती जा रही है ?
भला किसी को कर्ज़ जाल में फंसना कैसे भा सकता है ?

आज आम आदमी तक
अपने आसपास की चमक दमक में उलझ
ले रहा है सुख समृद्धि के मिथ्या स्वप्न।
यही नहीं
अपने इर्द गिर्द की देखा देखी
अधिक से अधिक कर्ज़ लेकर ,
इसे अनुत्पादक कामों पर खर्च कर
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है,
अपने को अपंग और लाचार बना रहा है।

आज व्यक्ति हो
या फिर कोई भी साधन सम्पन्न देश
इस कर्ज़ के मकड़जाल ने पैदा किया हुआ है कलह क्लेश।
दुनिया भर में अराजकता का साम्राज्य कर रहा है विस्तार।
सभी कर्ज़ लें जरूर, मगर उसे लौटाएं भी,
अन्यथा कुछ भी नहीं रहेगा सही।
सब कुछ रेत के महल सा
वक़्त के साथ साथ ढेर होता जाएगा।
हरेक कर्ज़ लौटाना होता है,
वरना यह मर्ज़ बन कर
अंदर ही अंदर अर्थ व्यवस्था
और जीवन धारा को कमज़ोर करता रहता है।
एक दिन ऐसा भी आता है,
सब कुछ गिरवी रखना पड़ जाता है,
आदमी तो आदमी देश तक ग़ुलाम बन जाता है।


आज देश में कर्ज़ा माफ़ी की भेड़चाल है।
इसके लिए सारे राजनीतिक दलों ने
लोक लुभावन नीतियों के तहत
कर्ज़ माफ़ी को अपनाने के लिए
विपक्ष में रह कर बनाना शुरू किया हुआ है दबाव।
वे क्यों नहीं समझते कि
कोई भी देश,राज्य और व्यक्ति
अपनी आमदनी के स्रोतों पर कैसे लगा सकता है
रोक,प्रतिबंध,विराम!
यदि परिस्थितियों वश ऐसा होता है
तो क्या यह चिंतनीय और निंदनीय नहीं है ?
ऐसा होने पर
व्यक्ति ,देश और समाज में
अराजकता का होता हे प्रवेश।
यह सर्वस्व को
बदहाल और फटेहाल कर देती है ,
दुनिया इससे द्रवित नहीं होती ,
बल्कि वह इसे मनोरंजन के तौर पर लेती है,
वह खूब हँसी ठठ्ठा करती है।
वह जी भर कर उपहास, हास-परिहास करती है।

इससे देश दुनिया में
असंतोष को बढ़ावा मिलता है ,
बल्कि
देश , समाज , व्यक्ति की
स्वतंत्रता के आगे
प्रश्नचिह्न भी लगता है।
अराजकता के दौर में
महंगाई बेतहाशा बढ़ जाती है,
यह अर्थ व्यवस्था को अनियंत्रित करती है।

कभी-कभी यह
जीवन में
छद्मवेशी गुलामी का दौर
लेकर आती है,
ऐसे समय में
हरेक, आदमी और देश तक !
थके हारे, लाचार बने से
आते हैं नज़र  !
सब कुछ लगने लगता है
वीरान और बंजर  !!
अस्त व्यस्त और तहस नहस !!!
आज के जीवन में
क्या यह विपदा किसी को आती है नज़र?
लगता है कि  
नज़र हमारी हो गई है बेहद कमज़ोर !
यह आने वाले समय में
हमारा हश्र क्या होगा ?
इस बाबत , क्या ‌कभी बता पाएगी ?

आओ, हम सब मिलकर
महंगाई की आग को रोकें ,
न कि विकास के नाम पर
स्वयं को मूर्ख बनाएं।
एक दिन देश दुनिया को
अराजकता के मुहाने पर पहुंचाएं।
यह जोखिम हम कतई न उठाएं।
क्यों न आज  सभी अपने भीतर झांक पाएं ?
अपने अपने अनुभवों के अनुरूप
जीवन में
कुछ सार्थक दिशा में आगे बढ़ जाएं ।
आओ ,हम अपने सामर्थ्य अनुसार
महंगाई पर अंकुश लगाएं।
जीवन पथ पर
स्वाभाविक रूप से गतिमान रह पाएं।

१७/१२/२०२४.
महाभारत में कौन थी मत्स्य कन्या
जिसने किया था विवाह
राजा शांतनु से और
जिसका संबंध
भीष्म पितामह से
आजीवन ब्रह्मचर्य  का पालन करने
और कुरु वंश  का संरक्षक बने रहने के
वचन लेने से
जोड़ा जाता
है ?
इस बाबत मुझे सूचित कीजिए !
मेरे भीतर व्याप्त भ्रम को  तनिक दूर कीजिए !!
हो सकता है कि  मैं गलत हूं।
मां सत्यवती के बारे में
मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिए।

मरमेड की बाबत आपने सुना होगा।
अपने जीवन में भी एक जलपरी की खोज कीजिए।
सतरंगी इंद्रधनुषी मछली
और
गिप्पी मछली के बारे में भी
कुछ खोजबीन कीजिए ,
अपनी सोच में
एक मीन को भी जगह दीजिए।
शायद कोई मीन जैसी आंखों वाली
कोई गुड़िया दिख जाए।
जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ जाए।
जीवन में धरा पर ही नहीं जीवन है ,
बल्कि यह आकाश और जल में भी पनपता है ,
इस बाबत भी सोचिए।
उनके लिए भी सोचिए
जो धरा से इतर
जल और वायु में श्वास ले रहे हैं !
जीवन को आकर्षक बनाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं!!
०७/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन किसी को
कभी भीख में
नहीं मिला,
यही रही है
मेरे सम्मुख
बीते पलों की सीख।
अब जो
समय
गुजारना है,
उसमें अपने आप को
संभालना है,
बीते पलों से सीख लेकर
खुद को
अब निखारना है।
आने वाला कल बेशक अनिश्चित है
पर कभी तो अपने भीतर
पड़ेगा झांकना ,
यह करना पड़ेगा अब
हम सब को सुनिश्चित ,
ताकि तलाश सकें सब
भविष्य में सुरक्षित जीवन धारा के
आगमन की मंगलमयी
संभावना को,
तजकर भीतर सुप्तावस्था में पड़ीं
समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त
दुर्भावनाओं को।

आओ हम सब अपनी मौलिकता को
बरकरार रखकर जोड़ें ,
जीवन को, आमूल चूल परिवर्तन की
अपरिहार्य हवाओं से ,
अतीतोन्मुखी जड़ों से ,
ताकि हम सब मिलकर इस जीवन में
अभिन्नता सिद्ध कर सकें
परम्परा और आधुनिकता के समावेश की।
अंतर्ध्वनियां सुन सकें,
अपने बाहर और भीतर व्यापे परिवेश की।
०१/०१/२०२५.
वैसे तो लोग और देश
आपस में लड़ते हैं,
कभी हारते हैं तो कभी जीतते भी हैं।
मेरा देश आज़ादी के बाद
चार युद्ध लड़ चुका है ,
वह अपने पड़ोसी से शांति चाहता रहा है।
पर उसे अशांति ही मिलती रही है।

अब पांचवीं लड़ाई की तैयारी है ।
यह कभी भी शुरू हो सकती है।
कोई भी देश जीते या फिर हारे।
अवाम हर हाल में बदहाल होगी।
देश की प्रगति दशकों पीछे जाएगी।
फिर भी किसी को सुध बुध नहीं आएगी।
कुछ वर्ष ठहर कर क्या फिर से युद्ध लड़ा जाएगा ?
नेतृत्व का अहम् विकास को धराशाई करता नजर आएगा।
जीता हुआ देश हारे  हुए देश को चिढ़ाएगा।
हमारा अपना देश दुर्दिन और दुर्दशा झेलता देखा जाएगा।
व्यवस्था परिवर्तन के बावजूद किसी के हाथ पल्ले कुछ नहीं आएगा।
०३/०५/२०२५.
ज़िन्दगी के सफ़र में
बहुत से
उतार चढ़ाव आना
अनिवार्य है ,
पर क्या तुम्हें
ज़िन्दगी के सफ़र में
रपटीली सड़क पर
गड्ढे स्वीकार्य हैं ?
जो बाधित कर दें
तुम्हारी स्वाभाविक गति,
जीवन में होने वाली प्रगति।
अभी अभी
एक स्वाभिमानी
आटो चालक
कुशलनगर के
गुलज़ार बेग की बाबत पढ़ा है ,
जिन्होंने
प्रशासन के अधिकारियों से
सड़क सुरक्षा को
ध्यान में रखकर की थीं
शिकायतें कि
भर दो
क़दम क़दम पर
आने वाले सड़क के गड्ढे
ताकि अप्रत्याशित दुर्घटनाग्रस्त होने से
बचा जा सके।
परन्तु प्रशासन उदासीन बना रहा ,
उसने अपना अड़ियल रवैया न छोड़ा।
बल्कि फंड की कमी को
गड्ढे न भर सकने की वजह बताया।
इस पर
उन्होंने ठान लिया कि
अब वे कोई शिकायत नहीं करेंगे,
वह स्वयं ही सड़क के गड्ढे भरेंगे।
उस दिन से लेकर आज तक
अकेले अपने दम पर
उन्होंने साठ हजार से अधिक
सड़क के गड्ढे भर कर
जीवन को सुरक्षित किया है।
वह जिजीविषा की
बन गए हैं एक अद्भुत मिसाल।
अभी अभी पढ़ा है कि
गुलज़ार बेग साहब
रीयल लाइफ हीरो हैं।
सोचता हूं कि
यदि हमने उनसे कोई सीख न ली
तो हम सब जीरो हैं ,
आओ हम सार्थक जीवन वरें,
लोग क्या कहेंगे ?,
जैसी क्षुद्रता को नकारते हुए
जीवन पथ पर अग्रसर होने की ओर बढ़ें।
हम अपने भीतर की आवाज़ को सुनें।
उसके अनुसार कर्म करते हुए
अपने और आसपास के जीवन को सार्थक करें।
२७/०३/२०२५.
61 · Feb 12
श्राप
किसी की आस्था से
खिलवाड़ करना
ठीक नहीं है ,
यह न केवल
पाप कर्म है ,
बल्कि
यह अधर्म है ।
यदि ऐसा करने पर
सुख मिलता ,
तो सभी इस में
संलिप्त होते ,
वे जीवन के अनुष्ठान में
भाग न लेकर
भोग विलास में
लिप्त होते।

किसी की आस्था पर
चोट करना सही नहीं ,
बेशक
तुम बुद्धि बल से
जीवन संचालित करने के
हो पक्षधर ,
तुम आस्थावादी के
मर्म पर अकारण
न करो चोट ,
न पहुंचाओ कोई ठेस,
न करो पैदा किसी के भीतर क्लेश।
यदि कोई अनजाने दुःखी होकर
कोई दे देता है बद्दुआ,
समझो कि
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार ली ,
अपने भीतर
देर सवेर बेचैनी को
हवा दी ,
अपने सुख समृद्धि और संपन्नता को
अग्नि के हवाले कर दिया ,
अपना जीवन श्राप ग्रस्त कर लिया।
किसी के विश्वास पर
जान बूझ कर किया गया आघात
है बरदाश्त से बाहर ।
यही मनोस्थिति श्राप की वजह बनती है।
भीतर की संवेदनशीलता
अंदर ही अंदर
पछतावा भरती है ,
जो किसी श्राप से कम नहीं है।
अतः आस्था पर चोट न करना बेहतर है ,
अच्छे और सच्चे कर्म करना ही
मानव का होना चाहिए ,
कर्म क्षेत्र है।
आस्था के विरुद्ध किया कर्म अधर्म है ,
न केवल यह पाप है ,
बल्कि तनावयुक्त करने वाला एक श्राप है,
मानवता के खिलाफ़ किया गया अपराध है।
12/02/2025.
60 · Nov 2024
थूकिए मत
Joginder Singh Nov 2024
जनाब
यहां थूकिए मत।

थू!थू! थूक ना!
जीवन में
आपात काल आ चुका है।
अगर
किसी ने देख लिया
आफत आ जाएगी ।
जान बचानी
मुश्किल हो जाएगी।
जुर्माना तो देना ही होगा,
बल्कि हवालात की
सैर भी करनी पड़ सकती है।
जीवन में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अच्छा होगा
भूल कर भी न थूक।
यह बन सकती है एक
सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चूक।
१४/०५/२०२०.क
कोरोना काल के भयभीत करने वाले काल खंड को ध्यान में रखते हुए कविता को पढ़ा जाए।
बचपन में
मां थपकी दे दे कर
बुला देती थी
निंदिया रानी को ,
देने सुख और आराम।
अब मां रही नहीं,
वे काल के प्रवाह में बह गईं।
अब बुढ़ापे में
निंदिया रानी
अक्सर झपकी बन
रह रह कर देती है सुला,
किसी हद तक
अवसाद देती है मिटा।
अब निंदिया रानी
लगने लगी है मां,
जो देने लगती है
सुख और आराम की छाया!
जिससे हो जाती है ऊर्जित
जीवन की भाग दौड़ में थकी काया !!
अब निंदिया रानी बन गई है मां!
जो सुकून भरी थपकी दे दे कर ,
मां की याद दिलाने लगती है,
सच में मां के बगैर
जिन्दगी आधी अधूरी सी लगती है।
अब निंदिया रानी अक्सर
कुंठा और तनाव से दिलाने निजात
मीठी मीठी झपकी की दे देती है सौगात।
आजकल निंदिया रानी मां सी बन कर
जीवन यात्रा में सुख की प्रतीति कराती है,
यह आदमी को बुढ़ापे में
असमय बीमार होने से बचाया करती है।
०४/०३/२०२५.
60 · Mar 7
मुस्कान
आदमी
मुख से
कुछ न कहे ,
तब भी उसकी
मुस्कान बहुत कुछ
चुपके से
सब कुछ कह देती है।
इसका अहसास
आज मुझे हुआ
जब ऑटो चालक
राज कुमार के संग
कर रहा था मैं यात्रा ,
साथ में मेरे साहिल बैठा था
जो मेरा विद्यार्थी था
और जिसे मैंने
बल्लोवाल सौंखड़ी में
आयोजित क्षेत्रीय कृषि मेले को
देखने के लिए अपने साथ ले लिया था
ताकि वह कृषि से संबंधित उत्पादों को जान ले,
और आगे चलकर कृषि को
अपनी रोजी रोटी का जरिया बना ले।

पास ही राजकुमार की
परिचिता दुकान में बैठी हुई थी
वह मुस्कुराईं ,
ऑटो चालक राजकुमार ने भी
मुस्कान के साथ
हल्के से सिर
दिया था हिला।
दोनों में से बोला कोई भी नहीं,
पर कुशल क्षेम का
हो गया था आदान-प्रदान।
ऑटो चालक रुका नहीं,
परिचिता भी उठी नहीं,
परंतु
उनकी मुस्कान ने
दिल का हाल चाल
बख़ूबी दिया था बता।
दोनों ने अपनी गहरी मुस्कान से
जीवन का सौंदर्य बोध
सहज ही दिया था जता।
मैं इस मूक मुस्कान के
आदान प्रदान से
मन ही मन हो गया था प्रसन्न।
मैने सहजता से
मुस्कान का जादू जान लिया था।

आप भी हर हाल में मुस्कुराया कीजिए!
अपने भीतर और आसपास की जीवंतता का
अहसास मौन रहकर किया कीजिए।
इस दुनिया में बहुत से लोग हैं परेशान,
पर यदि आदमी हर पल मुस्कराए
तो स्वत: ही देखा देखी
बहुत से लोग मुस्कुराना जाएं सीख!
और उनकी चेतना जीवन का सौंदर्य
अर्थात मुस्कान को आत्मसात कर पाए ,
और जीवन में आदमी
कठिनाइयों का सामना
ख़ुशी ख़ुशी सहजता से
मुस्कान सहित करता देखा जाए।

०७/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तुम मुझ से
स्व शिक्षितों की सामर्थ्य के विषय में
अक्सर पूछते हो।
उन जैसा सामर्थ्य प्राप्त कर लेना
कोई आसान नहीं।
इस की खातिर अथक प्रयास करने पड़ते हैं,
तब कहीं जाकर मेहनत
अंततः मेहनत फलीभूत होती है।


पर यही सवाल तुम मुझ से
अनपढ़ों की बाबत करते,
तो तुम्हे यह जवाब मिलता।

काश!अब
आगे बढ़ती दुनिया में
कोई भी न रहे अशिक्षित ।
कोई भी न कहलाए
अब कतई अंगूठा छाप।
अनपढ़ता कलंक है
सभ्य समाज के माथे पर।
यह इंसानों को
पर कटे परिंदे जैसी बना देती है,
उनकी परवाज़ पर रोक लगा देती है।

जन जन के सदप्रयासों से
अनपढ़ता का उन्मूलन किया जाना चाहिए।
शिक्षा,प्रौढ़ शिक्षा का अधिकार
सब तक पहुंचना चाहिए।

आप जैसा जागरुक
अनपढ़ों तक ,
'शिक्षा बेशकीमती गहना है,
इसे सभी ने पहनना है ।,'का पैगाम
पहुँचा दे,तो एक क्रांति हो सकती है।
देश,समाज,परिवार का कायाकल्प हो सकता है।
अतः आज जरूरत है
अनपढ़ों को
शिक्षा का महत्त्व बताने की,
उन्हें जीवन की राह दिखाने की
उनकी जीवन पुस्तक पढ़ पाने की।
यदि ऐसा हुआ तो
कोई नहीं करेगा खता।
उन्हें सहजता से सुलभ हो जाएगा,
मुक्ति का पता।
जिसे शोषितों, वंचितों से छुपाया गया,
उन्हें अज्ञानी रखकर बंधक बनाया गया।
60 · Nov 2024
काश!कोई...
Joginder Singh Nov 2024
काश!
कोई समय रहते
अपनी कर्मठता से
वसुंधरा पर
सुख के बीज
बिखेर जाए!
ताकि
सुख का वृक्ष
फलता फूलता
नज़र आए!!

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
जब दोस्त
बात बात पर
मारने लगें ताना,
तब टूट ही जाता है
दोस्ताना।
अतः
दोस्त!
दोस्ती
बचाने की खातिर
अपने आप को
संतुलित करना सीख।
अरे भाई!
तुम दोस्त हो
दोस्तों पर
तानाकशी से बच,
कभी कभी तो
बोला करो
खुद से ही सच।


२५/०४/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
चेतना
कभी नहीं कहती
किसी से
कभी भी
कि ढूंढों,
सभी में कमी।
बल्कि वह तो कमियों को  
दूर करती है,
भीतर और बाहर से
दृढ़ करती है।

चेतना ने
कभी न कहा,
  "चेत ना। "
वह तो हर पल
कहती रहती है,
" रहो चेतन,
ताकि तन रहे
हर पल प्रसन्न।"

सुनो,
सदैव जीवन से निकली
जीवंतता की
ध्वनियों को।

खोजो,
अपनी अन्तश्चेतना की
ध्वनियों को,
ताकि हर पल
चेतना के संग
महसूस कर सको,
आगे बढ़ सको,
जीवन धारा से
निकलीं उमंग भरी
तरंगों को,पल पल,
जीवन धारा की कल कल को
सुनकर
तुम निकल पड़ो
साधना के पथ पर
जीव मर्म,युग धर्म
आत्मसात कर
अंतर्द्वंद्वों से दूर रह
स्वयं को तटस्थ कर
महसूस करो
अंतर्ध्वनियों को,  
चेतना की उपस्थिति को।

अब सब कुछ
भूल भाल कर
ढूंढ लो निज की विकास स्थली।
शक्ति तुम्हारे भीतर वास कर रही।
उस की महता को जानो।
सनातन की महिमा का गुणगान करो।
अपने भीतर को  गेरूआ से रंग दो।
नाचो,खूब नाचो।
अपने भीतर को
अनायास
उजास से भर दो।
साथ ही
जीवन के रंगों से
होली खेलकर
अपनी मातृभूमि को
शक्ति से सज्जित कर दो।
ताकि जीवन बदरंग न लगे!
हर रंग जीवन धारा में फबे!!

१७/०७/२०१६.
60 · Nov 2024
आकांक्षा
Joginder Singh Nov 2024
हार की कगार पर
खड़े रहकर भी
जो जीत के स्वप्न ले!
ऐसा नेता
देश तुम्हें मिले !

हर पल सार्थकता से जुड़ा रहे,
ऐसा बंधु
सभी को मिले!
जिसकी उपस्थिति से
तन मन खिले!

०१/१२/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
ज़िंदगी
मौत को
देती है मात !
...

क्योंकि जीवन धारा में
मौत है
एक ठहराव भर !!
यहां
पल प्रतिपल
संशयात्मा
अपने भीतर
अंधेरा भर रही है !
जो खुद की
परछाइयों से
सतत् डर रही है !

अब आप ही बताइए
कि कौन मर रहा है ?
मौत का सौदागर
या ज़िंदगी का जादूगर ?

आखिरकार
ज़िंदगी
मौत को मात
दे ही देती है ,
क्योंकि जिंदगी के
क्षण क्षण में
जिजीविषा भरी है
सो यह जीवन धारा के
साथ बहकर आसपास
फैली गन्दगी को भी
बहाकर ले जाती है ।

ज़िंदगी
जब कभी भी
बिखेरती है
मेरे सम्मुख
अपने सम्मोहन के रंग !
रह जाता हूं ,
बाहर भीतर तक
हैरान और दंग !!

ज़िंदगी
परम प्रदत्त
एक सम्मोहक
चेतना है
जो आदमी को
खुदगर्ज़ी के दलदल से
परे धकेलती है,
और यह अविराम चिंतन से
अपने नित्य नूतन
आयामों से परिचित करवा कर
हमारी चेतना को प्रखर करती है।
१२/०६/२०१८.
60 · May 4
आरोप
आदमी पर
आरोप लगने
कोई नई बात नहीं।
बेशक वह कितना भी सही
क्यों न रहा हो ?
आरोप
आर से लगें
या पार से लगें ,
ये बस किसी आधार पर लगें।
झूठे और मिथ्या आरोप
किसी पर मढ़े न जाएं।
आरोप प्रत्यारोप की रस्सी पर
आदमी संतुलन बना कर चले
ताकि वह अचानक
कभी औंधे मुंह नहीं गिरे।
जीवन पर्यन्त
वह कालिख रहित  बना रहे।
वह पतन के गड्ढे में गिरने से
सुरक्षित बना रहे
और वह जीवन पथ पर डटा रहे।
वह निरंतर आगे बढ़ने का प्रयास करता रहे।
०४/०५/२०२५.
पिता पुत्र में
होता है
हमेशा प्यार
और अगाध विश्वास !
कभी कभी
इस हद तक
कि दोनों लगते
एक साथ ले रहे हैं श्वास !
पिता पुत्र के बीच
कभी कभी
होता  है विवाद !
लेकिन थोड़ी देर में
वे मतभेद भुला कर
जीवन यात्रा की बाबत
स्थापित कर लेते संवाद !

अभी अभी
मेरे पिता ने
मुझे एक बिस्किट दिया ,
जिसे मैंने लेने से मना किया।
वज़ह बस यही कि
आज मेरा व्रत है ,
मैने उन्हें याद दिलाया कि...!
वे सब समझ गए कि...!
... मैं एक बार अन्न ग्रहण कर चुका हूँ ,
बेशक ! मैं आज्ञा पालन में अभी चुका नहीं हूँ !
जीवन में कुछ सिद्धांतों से
निज को बांधना भी व्रत होता है!
पिता और पुत्र का रिश्ता
नेह और स्नेह के बंधनों से बंधा है ,
जिससे से जीवन का सन्मार्ग साधे सधा है ,
पिता पुत्र का पवित्र रिश्ता बना है।

सोचिए ज़रा ,
उन के बीच होता है
कितना प्यार ?
उन्हें एक दूसरे का हित
जीने का आधार लगता है।
इस सूत्र से बंधा उनका जीवन
धीरे धीरे मान मनव्वल के संग बढ़ता है।
17/03/2025.
59 · Dec 2024
अब तक
Joginder Singh Dec 2024
बस हमने अब तक
जीवन में विवाद ही किया है ,
ढंग से अपना जीवन कहां जिया है ?
यह अच्छा है और वह बुरा है !
छोटी-छोटी बातों पर ही ध्यान देकर
खूब हल्ला गुल्ला करते हुए
जीवन में व्यर्थ ही शोरगुल किया है।
समय आ गया है कि हम परस्पर सहयोग करते हुए
अपनी समझ को सतत् बढ़ाएं ।
जीवन धारा में निरुद्देश्य न बहे जाएं ,
बल्कि समय रहते अपने समस्त विवाद सुलझाएं।
आओ आज हम सब मिलकर जीवन से संवाद रचाएं।

अब तक बेशक हम अपने अपने दायरे में सिमटे हुए ,
एक बंधनों से बंधा , पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से जकड़ा , जीवन जीने को ही मान रहे थे , जीवन यापन का तरीका।
इस जड़ता ने हम सबको कहीं का नहीं है छोड़ा।

अर्से से हम भटक रहे हैं, उठा-पटक करते हुए ,
करते रहे हैं सामाजिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट अब तक।

आओ हम सब स्वयं पर अंकुश लगाएं।
समस्त विवादों को छोड़, परस्पर  संवाद रचाएं।
जीवन धारा में  कर्मठता का समावेश करते हुए ‌,
स्वयं को सार्थक जीवन की गरिमा का अहसास कराएं।
२७/१२/२०२४.
59 · Jan 9
विवशता
एक अदद कफ़न का
इस्तेमाल
कुर्ते पाजामा
बनवाने में
कर लिया तो क्या बुरा किया।
अगर कोई गुनाह कर लिया तो कर लिया।
वे देखते हो जिंदा इंसानों के मुर्दा जिस्म ,
जो मतवातर काम करते हुए
एक मशीन बने हैं।
घुट घुट कर जी रहे हैं।

वह देखते हो
अपनी आंखों के सामने
गूंगा बना शख़्श
जो घुट घुट कर जिया,
तिल तिल कर मर रहा ,
अंदर अंदर सुलग रहा।

वह कैसा शान्त नज़र आता है,
वह कितना उग्र और व्यग्र है,
वह भीतर से भरा बैठा है।
उसके अंदर का लावा बाहर आने दो।
उसे अभिव्यक्ति का मार्ग खोजने दो।

आज वह पढ़ा लिखा
बेरोजगारी का ठप्पा लगवाए है,
आगे बढ़ने के सपने भीतर संजोए हुए है।

पिता पुरखों की चांडालगिरी के धंधे में
आने को है विवश ,
एक नए पाजामे की
मिल्कियत का उम्मीदवार
भीतर से कितना अशांत है !!
महसूसो इसे !
सीखो ,इस जीवन की
विद्रूपता और क्रूरता को
कहीं गहरे तक महसूसने से !!
हमारे इर्द-गिर्द कितना
अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ है।
अभी भी हमें आगे बढ़ने के मौके तलाशने हैं।
इसी दौड़ धूप में सब लगे हुए हैं।
०६/१२/१९९९.
जीवन का अंत
कभी भी हो सकता है।
क्या पता कब
काल अपने रथ पर
होकर सवार
द्वार पर दस्तक देने
आ जाए ?
...और हमें
उनके साथ
जीवन से प्रस्थान
करना पड़ जाए।

इसी बीच जीवन
मतवातर बतियाता है सबसे
सभी को अपनी चेतना से
साक्षात्कार करवाता हुआ ,
काल के रथ पर
चढ़ने के लिए
स्वयं को हर पल
तैयार रखने के लिए ,
यात्रा पथ पर आगे बढ़ाने के लिए !

इससे पहले कि
यह यात्रा वेला आए ,
जीवन बतियाता
रहता है सबसे धीरे-धीरे।

रह रहकर
जीवन बतियाता रहता है
यह जीवन धारा में
खुशबू और उजास
बिखेर कर
सबको चेतन बनाता है।
काल के आगमन से पूर्व
हमें सचेत करता रहता है।

यह ठीक है कि
मृत्यु हमें विश्राम करवाने के लिए
अपने मालिक काल के
रथ पर होकर सवार
हर पल तेजी से
हमारी ओर आ रही है
इससे पहले कि हमें
काल के रथ पर बैठना पड़े ,
हम अपने अधूरे कार्यों को पूरा करें।
कहीं यह न हो, हमें अधूरे कार्य छोड़ जाना पड़े।
१५/१०/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
सच
करता नहीं
आघात
कभी भी
किसी की अस्मिता पर।
वह तो प्रदाता है अद्भुत साहस का
कि जिससे मिले मतवातर
जीवन में उड़ान भरने का हौंसला।
सच तो अंतर्मन में
झांक झांक कर
करता रहता
सदैव सचेत
और आगाह...!
बने न रहो जीवन में
देर तक बेपरवाह
काल नदी का प्रवाह
तुम्हारी ओर
सरपट भागा चला आ रहा है,
वह सर्वस्व तक को
बहा ले जाने में सक्षम है
अतः खुद को श्रम में तल्लीन कर
अपने अस्तित्व को संभाल जाओ।

यही नहीं आगे
जीवन पथ पर
दुश्वारियों का समंदर
अथाह
कर रहा है
तुम्हारा इंतजार।

सुनो,संभल जाओ आज ,
नव जीवन का करना है आगाज़।

अपने भीतर की
थाह
पाने के लिए
करो
तुम सतत
चिंतन मनन,
सोच विचार।

ताकि
हो सकें तुम्हें
अपने स्वरूप के
दर्शन।

...और
कर सको तुम
इस जीवन को
शुचिता से सम्पन्न।

...और
निर्मित किया जा सके
एक ठोस जीवनाधार
करने जीवन का परिष्कार
जिससे अर्जित कर सको
जीवन में यश अपार।

०७/१२/२०२४.
59 · Nov 2024
Why Desires Die So Early?
Joginder Singh Nov 2024
I am a witness of the day to day activities of mind,
where
Some desires die so early
because of craziness of man
or of laziness in life.

How can a man find
his source of happiness and inspiration
in his routine activities of mind?

Is through concentrating for meditation ?
To increase and enhance mental energy existing in the mind.

In  such circumstances
sometimes
Inner consciousness guides him
by creating a constructive idea in the mind that he must involve himself in such activities where energy is required in great abundance.

Then and then only,
one can enter in the territory of calmness, contentment and the peace of mind while facing life.
Joginder Singh Dec 2024
अजी  जिन्दगी  का  किस्सा  है  अजीबोगरीब,
जैसे  जैसे  दर्द  बढ़ता है , यह आती  है करीब!

दास्तान  ए  जिन्दगी  को  सुलाने  के  लिए
कितनी  साज़िशें  रची  हैं ,  है  न  रकीब !

जिन्दगी  को  जानने  की  होड़  में  लगे  हैं लोग ,
जीतते  हारते  सब  बढ़े  हैं , अपने  अपने  नसीब ।

जिन्दगी  एक  अजब  शह  है , बना  देती  फ़कीर ,
इसमें  उलझा  क्यों   हैं  ? अरे ! सुन ज़रा ऱफ़ीक़ !

यह  वह  पहेली   है  ,  जो  सुलझती  नहीं   कभी ,
खुद  को  चेताना  चाहा ,पर  जेहन  समझता  नहीं।
२१/०६/२००७.
कल अख़बार में
एक सड़क दुर्घटना में
मारे गए तीन कार सवार युवकों की
दुखद मौत की बाबत पढ़ा।
लिखा था कि
दुर्घटना के समय
बैलून खुल नहीं पाए थे,
बैलून खुलते तो उन युवाओं के असमय
काल कवलित होने से बचने की संभावना थी।
इसके बाद
एक न्यूज बॉक्स में
ऑटो एक्सपर्ट की राय छपी थी कि
सीट बैल्ट बांधने पर ही
बैलून खुलते हैं , अन्यथा नहीं।
मेरे जेहन में
एक सवाल कौंधा था ,
आखिर सीट बैल्ट बांधने में
कितना समय लगता है ?
चाहिए यह कि
कार की अगली सीटों पर बैठे सवार
न केवल सीट बैल्ट लगाएं
बल्कि पिछली सीट पर
सुशोभित महानुभाव भी
सीट बैल्ट को सेफ़्टी बैल्ट मानकर
सीट बैल्ट को बांधने में
कोई कोताही न करें ।
सब सुरक्षित यात्रा का करें सम्मान ,
ताकि कोई गवाएं नहीं कभी जान माल।
सब समझें जीवन का सच
दुर्घटनाग्रस्त हुए नहीं कि
हो जाएंगे हौंसले पस्त !
साथ ही सपने भी ध्वस्त !!

अतः यह बात पल्ले बांध लो
कि किसी वाहन पर सवार  होते ही
सीट  बैल्ट और अन्य सुरक्षा उपकरणों को पहन लो।
आप भी सुरक्षित रहो ,
साथ ही जनधन भी बचा रहे।
ज़िन्दगी का सफ़र भी आगे बढ़ता रहे।
आकस्मिक दुर्घटना का दंश भी न सहना पड़े।
०२/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
खंडहर होते ख़्वाब
अब कभी कभी मेरे ख्यालों में आकर
मुझे तड़पाने लगे हैं।
मुझे अपने जैसा खंडहर बनाने पर तुले हैं।

खंडहर होते ख़्वाब
देने लगे हैं  
अब
आदमी की अकर्मण्यता को
मुंह तोड़ जवाब!

खंडहर होते ख्वाब
मांगते हैं अब
बीते पलों का हिसाब ,
ज़िन्दगी
अब
लगने लगी है  एक श्राप ।

कभी सोचा है आपने
ख्वाब खंडित क्यों होते हैं?
बिना ख्वाबों के जीने वाले लोग
मुरझाए फूल सरीखे क्यों होते हैं?
जबकि हकीकत यह है कि
ख्वाबों के मुरझाने से पहले
वे तीखे नश्तर होते हैं।
कहीं भीतर तक
असहिष्णु, लड़ने - लड़ाने,
मरने - मारने पर उतारू,
कहीं गहरे तक जूझारू।

ख्वाबगाह
जब तक गुलज़ार रहती है,
हिम्मत हर पल छलकने और भड़कने को
तैयार रहती है,
जैसे ही यौवन ढला,
जिस्म तनिक कमज़ोर हुआ,
हिम्मत ज़वाब दे जाती है।
ख़्वाब की तरह खंडहर होने की
नियति से जूझने को अभिशप्त
हर समय तना रहने वाला आदमी
ज़िंदगी की सांझ में
झुकता चला जाता है ,
वह समाप्त प्रायः हो जाता है।
अपने पुश्तैनी घर की तरह
शांत, अकेला, चुपचाप सा वीरान हो जाता है।
वह करता रहता है इंतज़ार
खंडहर होते ख़्वाब के खंड खंड होकर खंडित होने का,
प्रस्थान वेला आने का।
ज़िंदगी के मेले झमेले के बीत जाने का।
खुद के रीत जाने का।
खुद के गुज़रा हुआ कल होने का।
रीतते  रीतते ,बीतते बीतते,
अतीत बन ,
समय के भीतर खो जाने का अहसास भर होना
खंडहर होते ख़्वाब को जीना नहीं तो क्या है ?
यह सब अपने भीतर घटता महसूस करने से मैं चुप हूं।
०२/१२/२०२४.
आदमी की जिन्दगी
और जिंदगी में आदमी
एक अद्भुत संतुलन बनाए हैं ,
वे एक दूसरे के साथ
अंतर्गुंफित से हो गए हैं,
दोनों एक दूसरे से
होड़ा होड़ी करने को हैं तैयार
बेशक आस पास उनके
यार मार करने की चली जा रही चाल।
वे अपने आप में तल्लीन
सब कुछ भूले हुए हैं।
बस उन्हें है यह विदित
कि वे दोनों
डांट डपट
छल कपट
आसपास की उठा पटक के
बावजूद
अपने अपने वजूद को
बनाए रखने के निमित्त
कर रहे हैं सतत संघर्ष
और नहीं बचा है कोई विकल्प।
आदमी की जिन्दगी
और
जिन्दगी में आदमी
सरपट भागे
जा रहें हैं अपने पथ पर।
अवसर
अक्सर
अचानक एक अजगर सा होकर
जाता है उनसे लिपट
इस हद तक कि
आदमी की जिन्दगी ,
और जिन्दगी में आदमी  को
समेट कर
बढ़ जाता है सतत
अपने पथ पर।
समय एक अजगर सा होकर
लिपटा जा रहा है
आदमी की जिन्दगी से
इस हद तक कि
उसकी जिन्दगी का किस्सा
लगने लगा है बड़ा अजीब और अद्भुत
बिल्कुल एक शांत बुत सा।
आदमी को
जिन्दगी की तेज़ रफ़्तार के दौर ने
जीने की होड़ ने ,
रोजमर्रा की दौड़ धूप ने
बना दिया है
एक बाज़ीगर सरीखा ।
वह अपनी मूल शांत प्रवृत्ति को छोड़ कर
वह बनता चला जाता है
पल पल तीखा ,एकदम तेज़ तर्रार
हरपल क़दम क़दम पर
अपने प्रतिस्पर्धी को चोट पहुंचाने को उद्यत।
आदमी लड़ता है मतवातर
परस्पर एक दूसरे से
इस हद तक
कि वह हरदम  
करना चाहता उठा पटक ।
वह जैसे ही अपने हिस्से पर
झपटने के बाद
अपने ठौर ठिकाने में लौट कर आता है ,
वह और ज़्यादा अपने भीतर सिमटता जाता है ।
जिन्दगी पर से उसका भरोसा
लगातार पीछे छूटता जाता है ,
वह निपट अकेला रह जाता है।
उसकी जिन्दगी को यह सब नहीं भाता है,
फिर भी वह आदमी का साथ नहीं छोड़ती है।
जिन्दगी का किस्सा है बड़ा अजीबोगरीब ,
आदमी जितना इससे पीछा छुड़ाना चाहता है ,
यह उतना ही
आती जाती है
आदमी के क़रीब।
आदमी कभी भी पीछा नहीं छुड़ा पाता है।
इस डांट डपट छल कपट के दौर में भी
जिन्दगी आदमी के साथ साथ
उसके समानांतर
दौड़ी जा रही है
अपने पथ पर।
यह आदमी को
निरन्तर आगे ही आगे
है बढ़ा रही ,
यह सुख समृद्धि और संपन्नता की ओर
उसे अग्रसर है कर रही।
आदमी के भीतर की बेचैनी
इस सब के बावजूद  
लगातार बढ़ती जा रही है।
यही बेचैनी उसे दरबदर कर ,
ठोकरें खाने को विवश कर
मतवातर भटका रही है।
१८/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में  
सुख ढूंढते ढूंढते
जीव
उठाता है
दुःख ही दुःख ।

आखिरकार
जीव
छोटी-छोटी उपलब्धियों में
ढूंढ लेता है प्रसन्नता दायक सुख।

यह सुख देता है
कुछ समय तक
समृद्धि और सम्पन्नता का अहसास
फिर अचानक
निन्यानवे के फेर में पड़ कर
उठाने लगता है
कष्टप्रद ‌जीवन में
सुख की आस में
दुःख , दर्द , तकलीफ़
आखिरकार थक-हारकर
जब देने लगती
जीवन के द्वार पर
मृत्यु धीरे-धीरे दस्तक ,
जीवात्मा
झुका देती अपने समस्त
सुख और वैभव ‌भूल भाल कर
मृत्यु के सम्मुख
अपना मस्तक।
जब जीव
आखिर में
जीवन की उठकर पटक ,
भाग दौड़ को भूलकर
अपने मूल की ओर
लौटना है चाहता
मन में तीव्र चाहत उत्पन्न कर,
तब अचानक
अप्रत्याशित
जीवन में जीव के सम्मुख
होता है मृत्यु का आगमन।
ऐसे में
जीवात्मा
रह जाती चुप ,
वह ढूंढ लेती मृत्यु बोध में चरम सुख ,
समाप्त हो ही जाते तमाम दुःख दर्द।

मृत्यु का आगमन
जीवन को सार्थक करने वाला
एक क्षण होता है,
निर्थकता के बोध से लबालब भरा
जीवन शीघ्रातिशीघ्र
समाप्त होता है।
लगता है मानो कोई दीपक
अपना भरपूर प्रकाश फैला कर
गया हो अपने उद्गम की ओर लौट ,
और गया हो बुझ !
जीवन में और बहुत से
दीपकों को ज्योतिर्गमय कर ।

इस बाबत सोचता हूं तो रह जाता चुप।
आदमी सुख की नींद पाकर
पता नहीं कब सो जाता है ?
गूढ़ी नींद सोया ‌ही रहता है ,
जब तक मृत्यु आकर
जीवात्मा को यमलोक की सैर
कराने के लिए
नहीं जगाती।
मृत्यु का आगमन
जीवात्मा को निद्रा सुख से जगाना भर है ,
जीवन धारा अजर अमर है,
जन्म और मरण अलौकिक क्षण भर हैं ।
०३/०८/२००८.
किसी की शक्ति
यदि छीन जाए
तो वह क्या करे ?
वह बस मतवातर डरे !
ऐसा ही कुछ
पड़ोसी देश के साथ हुआ है।
वह बाहर भीतर तक हिल गया है।

खोखला करता है
बहुत ज़्यादा ढकोसला।
वह भी क्या करे ?
भीतर बचा नहीं हौंसला।
अशक्त किस पर हो आसक्त ?
वह आतंक को दे रहा है बढ़ावा,
इस आस उम्मीद के साथ
ज़ोर आजमाइश करने से
बढ़ जाए उसको मिलने वाला चढ़ावा
वह एक लुटेरा देश है।
धर्म के नाम पर वह अलग हुआ,
कुछ खास तरक्की नहीं कर सका।
यही उसके अंदर का क्लेश है।
अशक्त देश किस पर हो आसक्त ?
क्या धर्म पर या फिर ठीक उल्टा आतंकी मंसूबों पर ?
वह कोई फ़ैसला नहीं कर पा रहा।
इसी वज़ह से खोखला देश
हिम्मत और हौंसला छोड़
आतंक और विघटनकारी ताकतों को
दे रहा मतवातर बढ़ावा।
वह भीतर ही भीतर विभक्त होने की राह पर है।
आज वह हार की कगार पर है।
०५/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
नीत्शे!
तुम से पूछना
चाहता हूं कुछ ,
अपनी जिज्ञासा की बाबत।
कहीं इस दुनिया में
ईश दिखा क्या ?
फिर ईश निंदा का
आरोप लगा कर इस
कायनात के भीतर
बसे जन समूहों में डर
क्यों भरा  जा रहा है ?
उन में से कुछ को
क्यों मारा जा रहा है?

ईश्वर पर
निंदा का असर हो सकता है क्या ?
असर होता है
बस! कुछ बेईमानों पर।
वे पर देते कतर
परिंदे उड़ न पाएं !
अपने लक्ष्य को हासिल न कर पाएं !!
०१/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
मजाक उड़ाना ,
मजे की खातिर
अच्छे भले को मज़ाक का पात्र बनाना ,
कतई नहीं है उचित।

जिसका है मज़ाक उड़ता ,
उसका मूड ठीक ही है उखड़ता।
यही नहीं,
यदि यह दिल को ठेस पहुंचाए ,
तो उमंग तरंग में डूबा आदमी तक
असमय ही बिखर जाए ,
मैं उड़ाना तक भूल जाए ।


मजाक उड़ाना,
मज़े मज़े में मुस्कुराते हुए
किसी को उकसाना ।
उकसाहट को साज़िश में बदलना,
अपनी स्वार्थ को सर्वोपरि रखना,
यह सब है अपने लिए गड्ढा खोदना।


मज़ाक में कोई मज़ा नहीं है ,
बेवजह मज़ाक के बहाने ढूंढना
कभी-कभी आपके भीतर
बौखलाहट भर सकता है ,
जब कोई जिंदा दिल आदमी
आपकी परवाह नहीं करता है
और शहर की आपको नजर अंदाज करता है,
तब आप खुद एक मज़ाक बन जाते हैं ।
लोग आपको इंगित कर ठहाके लगाते हैं !
आप भीतर तक शर्मसार हो जाते हैं

आप मज़ाक उड़ाना और मज़े लेना बिल्कुल भूल जाते हैं।


पता है दोस्त, नकाब यह दुनिया है नकाबपोश,
जहां पर तुम विचरते हो ,
वहां के लोग नितांत तमाशबीन हैं।
दोस्त, भूल कर मजाक में भी मजा न ढूंढ,
यह सब करना मति को बनाता है मूढ़!
ऐसा करने से आदमी जाने अनजाने मूढ़ मति  बनता है।
वह अपने आप में मज़ाक का पात्र बनता है।
हर कोई उस पर रह रह कर हंसता है।
ऐसा होने पर आदमी खिसिया कर रह जाता है।
अपना दुःख दर्द चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाता है।
आदमी हरदम अपने को एक लूटे-पीटे मोहरे सा पाता है।
०९/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से
हो जाते थे तृप्त !
उन दिनों हम थे संतुष्ट।

अब दिन बदल गए क्या?
नहीं ,दिन तो वही हैं।
हम बदल गए हैं।
थोड़े स्वार्थी अधिक हुए हैं ।

उन दिनों
दिन भर खाने पीने की जुगत भिड़ाकर ।
इधर बिल्ली ,उधर कुत्ते को परस्पर लड़ा कर ।
हेरा फेरी, चोरी सीनाज़ोरी ,
मटरगश्ती, मौज मस्ती में रहकर ।
समय बिताया करते थे,
चिंता फ़िक्र को अपने से दूर रखा करते थे।
परस्पर एक दूसरे के संग
उपहास , हास-परिहास किया करते थे।


आजकल
सूरज की पहली किरण से लेकर,
दिन छिपने तक रहते असंतुष्ट !
कितनी बढ़ गई है हमारी भूख?
कितने बढ़ गए हैं हमारे पेट?
हम दिन रात उसे भरने का करते रहते उपक्रम।
अचानक आन विराजता है, जीवन में अंत।
हम आस लगाए रखते कि जीवन में आएगा वसंत।
हमारे जीवन देहरी पर,मृत्यु है आ  विराजती।
किया जाने लगता,
हमारा क्रिया कर्म।



कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से,
हो जाते थे तृप्त!
उन दिनों हम सच में थे संतुष्ट!!



अब अक्सर सोचता रहता हूं...
... दिन तो वही हैं...
हमारी सोच ही है प्रदूषण का शिकार हुई,
हमारे लोभ - लालच की है जिह्वा बढ़ गई,
वह ज़मीर को है हड़प  कर गई,
और आदमी के अंदर -बाहर गंदगी भर गई!
चुपचाप उज्ज्वल काया को मलिन कर गई!!



काश! वे दिन लौट आएं!
हम निश्चल हंसी हंस पाएं!!
इसके साथ ही, चाय पकौड़ी से ही प्रसन्न और संतुष्ट रहें।
अपने जीवन में छोटी-छोटी खुशियों का संचय करें।
जिंदगी की लहरों के साथ विचरकर स्वयं को संतुष्ट करें ।

  १८/०१/२००९.
अचानक मेरे मनोमस्तिष्क में
कौंधा है एक ख्याल कि
क्या होगा
यदि यह जीवन
पूर्णतः मृत्युहीन हो जाए ?
मन ने तत्क्षण अविलम्ब उत्तर दिया
इस जीवन में बुझ ही जाएगा
आनंद का दिया।
जीवजगत निर्जीवता से
ज़िंदगी को ढ़ोता नज़र आएगा।
जीना साक्षात नर्क में रहने जैसा लगेगा।
सर्वस्व का आंतरिक विकास
जड़ से रुक जाएगा।
जीवन उत्तरोत्तर बोझिल होता जाएगा।
जीना दुश्वार हो जाएगा।
समस्त वैभव
अस्त व्यस्त ,‌ तहस नहस
बिखरा हुआ दिखाई देगा।
जीवंतता का अहसास तक लुप्त होगा।
जीवन में सर्वांग सुप्तावस्था की प्रतीति कराएगा।
मृत्युशैयाविहीन जीवन
भले ही
मृत्युहीनता का अहसास कराए ,
यह जीवन को निर्थकता से भर जाएगा।
जहां हर कोई त्रिशंकु होगा ,
अधर में लटका हुआ।
०८/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
59 · Jan 29
कुंठा
आदमी के पीछे
यदि कुंठा
किसी पिशाच सरीखी होकर
पड़ जाए तो आदमी
कहां जाए ?
उसे हरेक दिशा में
अंधेरा नज़र आए !
मन के भीतर
मतवातर
सन्नाटा पसरता जाए !!
कुंठित आदमी
अपने आसपास
नागफनी सरीखी
कांटेदार वनस्पति को
जाने अनजाने रोपता है।
उसका संगी साथी भी
भय के आवरण से भीतर तक
जकड़ा हुआ
उसे अत्याचार करने से
रोक नहीं पाता है।
वह अपार कष्ट सहता जाता है !
कभी मन की बात नहीं कह पाता है !!
मित्रवर ! जीवन को सहजता से जीयो।
असमय कुंठित होकर स्वयं को न डसो।
२९/०१/२०२५.
59 · Nov 2024
While Writing A Poem
Joginder Singh Nov 2024
Sometimes I need
complete silence to write a poem for Time.
He usually demands to check the potential of creativity in poets
and creators.

In such moments,
I   starts  addressing to The Time...,
Respected Time.
I have no words to express my feelings regarding you.
You are the origin of my all activities.
It is your will to encourage me as a poet otherwise I am not more than like a parrot who repeats some phonetic sounds after practising a whole series of repeating, some words only.

It is true that I can't choose  to write
a poem in copy paste style.

I have respect for you
because you have provided me a complete freedom to express myself and surroundings.
Joginder Singh Nov 2024
समय समर्थ है
और आदमी
उससे ,जब लेने लगता है होड़
तब कभी-कभी
जीत अप्रत्याशित ही
उसका साथ देती छोड़।


अपनी हार
सदैव होती है
बर्दाश्त से बाहर
इससे करेगा कौन इन्कार?


आदमी ने कब नहीं
वजूद की खातिर
किया समझौता स्वीकार ?
पर अंतरात्मा रही है साक्षी,
सांसें रहीं घुटी घुटी।
अंततः होना ही पड़ा
आदमी और आदमियत को
शनै: शनै: हाशिए से बाहर।
आदमी भूलता गया
वसंत का मौसम!
उसे करना पड़ा
पतझड़ का श्रृंगार !


सच! मैं अब
उस समझौता परस्त
आदमी सा होकर
खड़ा हूं बीच बाज़ार,
बिकने की खातिर
एकदम
घर और दफ्तर की चौखट से बाहर।
साथ ही सर्वस्व
हाशिए से बाहर
होते जाने को अभिशप्त है ,
अंदर बाहर तक हड़बड़ाया !!
जो करता रहा है इंतज़ार,
जीवन भर !
बहार का नहीं ,
बल्कि
पतझड़ का,
ताकि
हो सके संभव
पतझड़ का श्रृंगार!!
भले ही वसन्त
देह के करीब से
हवा का झोंका होकर
जाए गुजर ,
पर
छोड़ न पाएं
अपना कोई असर।

सो आदमी करने
लगता है
कभी कभी सीधे ही
जीवन में
वसंत को
छोड़ कर ,
पतझड़ का इंतजार
ताकि
कर सके  वह
पतझड़ का श्रृंगार।
उसके लिए भी वसन्त की ही
करनी पड़ती है प्रतीक्षा,
तभी संभव है
कि आदमी
वसंत ऋतु में
देख ले मन की
आंखों  के भीतर से,
वसन्त कर रही है
चुपचाप
अपने आगमन की
प्रतीति कराकर ,
अपनी उज्ज्वल काया से
पतझड़ का श्रृंगार ।
०६/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
प्राप्य को
झुठलाते नहीं ,
उसे दिल से स्वीकारते हैं ।
अगर वह ना मिले तो भी
उसे हासिल करने की
चेष्टा करना ही
मानव का सर्वोपरि धर्म है ।
यह जीवन का मर्म है ।
प्राप्य की खातिर
जीवन में जिजीविषा भरना ,
परम के आगे की गई
एक प्रार्थना है ।


जिसके भीतर
प्राप्य तक
पहुंचने की बसी हुई
संभावना है!!

जीवन अपने आप में
बहुत बड़ी प्राप्ति है,
जन्म और मरण के बीच
नहीं हो सकती
इसकी समाप्ति है ।

अतः आज तुम कर लो
खुद पर तुम यक़ीन
कि यकीनन
जीवन की समाप्ति
असंभव है,
मृत्यु भी एक प्राप्ति ही है
जो मोक्ष का मार्ग है ,
शेष
परमार्थ के धागे से बंधा
इच्छाओं के जाल में
फंसे आदमी का स्वार्थ भर है।
इसे न समझ पाने से
जीवन का नीरस होना
मरना भर है!
अपने अंदर डर भरना भर है !

११/०५/२०२०.
यदि कोई अच्छा हो या बुरा ,
वह पूरा हो या आधा अधूरा।
उसे कोसना कतई ठीक नहीं ,
संभव है वह धूरा बने कभी।

हर जीव यहाँ धरा पर है कुछ विशेष
अच्छे के निमित्त,हुआ हो वह अवतरित।
हो सकता है वह अभी भटक रहा हो ,
उसे मंज़िल पर पहुंचाओ, करें पथ प्रदर्शित।

सब लक्ष्य सिद्धि को हासिल कर सकें ,
आओ , हम उनकी राह को आसान करें।
हम उनकी संभावना को सदैव टटोलते रहें ,
इसके लिए सब मतवातर प्रयास करते रहें।

किसी को कोसना और कुछ करने से से रोकना,
कदापि सही नहीं, हम प्रोत्साहित करें तो सही।
१४/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
वह कितना चतुर हैं!
झटपट झूठ
परोस कर
बात का रुख
बदल देता है ,
जड़ से समस्या को
खत्म करता है।
यह अलग बात है कि
झूठ को छिपाने की
एक और समस्या को
दे देता है
जन्म !
जो भीतर की
ऊर्जा को करती रहती है
धीरे धीरे कम !
किरदार को
कमजोर करती हुई ,
आदमी को
अंदर तक
इस हद तक
निर्मोही करती हुई
कि उसका वश चले
तो हरेक विरोधी को
जीते जी एक शव में
कर दे तब्दील !
उसे झंड़े की तरह लहरा दे !
उसे एक कंदील में बदल
झूठे सच्चे के स्वागतार्थ
तोरण बना लटका दे !
झूठा आदमी ख़तरनाक होता है।
वह हर पल सच्चे के कत्ल का गवाह
बनने के इरादे में मसरूफ रहता है
और दिन रात
न केवल साजिशें रचता है
बल्कि मतवातर
गड़बड़ियां करता है,
ताकि वह हड़बड़ी फैला सके ,
मौका मिलने पर
हर सच्चे और पक्के को
धमका सके ,
मिट्टी में मिला सके।

०४/०४/२०२५.
58 · Nov 2024
वारिस
Joginder Singh Nov 2024
जिसे लावारिस समझा उम्र भर
वही मिला मुझे
सच्चा वारिस बनकर
आजकल
वह
मेरे भीतर जीवन के लिए
उत्साह जगाता है,
वह
क़दम क़दम पर
मेरे साथ निरंतर चलकर
मुझे आगे बढ़ा रहा है।
अब वह मेरी नज़र में
एक विजेता बनकर उभरा है,
जिसने संकट में
मेरे भीतर सुरक्षा का अहसास
जगाया है।
मैं पूर्वाग्रह के वशीभूत होकर
उसे व्यर्थ ही
दुत्कारता रहा।
नाहक
उसे शर्मिंदा करने को आतुर रहा।
जीवन में
शातिर बना रहा।
  ०४/०८/२००९.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
58 · Nov 2024
रंगीला
Joginder Singh Nov 2024
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया भर में
मैं भटका ज़रूर,
मैंने बहुत जगह ढूंढा उसे
पर मिला नहीं
उसका कोई इशारा!

‌ जब निज के भीतर झांका ,
तो दिख गई उसकी सूरत,
बदल गई मेरी सीरत,
मिला मुझे एक सहारा !!

कुछ कुछ ऐसा महसूस किया कि
ईश्वरीय सत्ता
कहीं बाहर नहीं,
बल्कि मन के भीतर
अवस्थित है,
वह
वर्तमान में
अपनी उपस्थिति
दर्शाती है,
यह अहसास
रूप धारण कर
अपना संवाद रचाती है।


भूतकाल और भविष्यत काल
ब्रह्म यानिकि ईश्वरीय सत्ता की छायाएं भर हैं।
एक दृष्टि अतीत से मानव को जोड़
विगत में भटकाती है,
उसे बीते समय के अनुभव के
संदर्भ में चिंतन करना सिखाती है।

दूसरी दृष्टि
आने वाले कल
के बारे में  
चिंता मुक्त होने
के लिए,
चिंतन मनन करने की
प्रेरणा बन जाती है ।
इस के साथ ही
सुख, समृद्धि, स्वर्णिम जीवन के
स्वप्न दिखाती है।
दोनों ही भ्रम भर हैं ।


यदि
कहीं सच है
तो
वह वर्तमान ही है
बस!
उसे श्रम से
प्रभावित किया जा सकता है,
सतत् मेहनत से वर्तमान को
अपने अनुरूप
किया जाता है,
परन्तु
भूतकाल की बाबत
इतिहास के माध्यम से
अतीत में विचरण किया जा सकता है,
उसे छूना असंभव है।

भविष्य की आहट को
वर्तमान के संदर्भ में
सुना जा सकता है,
मगर इसके लिए भी
बुद्धि और कल्पना की
जरूरत रहती है।

आदमी के सम्मुख
वर्तमान ही एक विकल्प बचता है।
जिसे संभाल कर
जीवन संवारा जा सकता है।
वह भी केवल श्रम करने से।
आज आदमी का सच श्रम है,
जो सदैव बनता सुख का उद्गम है।
और यही सुख का मूल है।
वर्तमान को संभालने,
इसे संवारने, से सुख के उद्गम की
संभावना बनती है।

वर्तमान को
समय रहते संभालने से
सुख मिलने ,बढ़ने की आस बनी रहती है।
वर्तमान के रूप में
समय सरिता आगे बढ़ती रहती है।

२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
शोषण के विरुद्ध
खड़े होने का साहस
कोई विरला ही
कर पाता है ,
अन्याय से जूझने का माद्दा
अपनी भीतर
जगा पाता है ।


तुम अज्ञानता वश
उसके खिलाफ़ हो जाओ ,
यह शोभता नहीं ।
ऐसे तो शोषण रुकेगा नहीं ।


शोषण न करो , न होने दो ।
अन्याय दोहन से लड़ने को ,
आक्रोश के बीजों को भीतर उगने दो ।
क्या पता कोई वटवृक्ष
तुम्हारा संबल बन जाए !
तुम्हें भरा पूरा होने का अहसास करा जाए !
दिग्भ्रम से बाहर निकाल तुम्हें नूतन दिशा दे जाए !!

२१/१०/२०२४.
कुर्सी का आकर्षण
कितना प्रबल होता है, यह कुर्सी पर काबिज़
मानुष अच्छे से जानता है,
वह इसे अपने पास रखने की खातिर
सच्चे पर लांछन लगाता है,
और जब सच्चा घायल पंछी सा तड़पता है,
वह ज़ोर आजमाइश के साथ साथ
करता है उपहास और अट्टहास!
परन्तु सच्चा कुछ भी नहीं कर पाता है,
वह अपना सा मुँह लेकर रह जाता है।
कुर्सी की चाहत में
इतिहास की किताबें
कत्ल ओ गैरत की अनगिनत कहानियां
कहती हैं ,
बड़ी मुश्किल से
संततियां इस ज़ुल्मो सितम को सहती हैं।
आज इस देश में
हरेक आम और ख़ास आदमी
कुर्सी का सताया है,
जब तक समझते समझते समझ आती है
सत्ता की अंदरूनी बात
तब तक आदर्शों का सफ़ाया
हो जाता है,
आदमी के हिस्से पछतावा आता है।
कुर्सी की चाहत
मनुष्य को दानव बना देती है,
वह अपने आदर्शों और सिद्धांतों को
भूल भालकर समझौता करने को
होता है बाध्य।
कुर्सी को साधना बड़ा कठिन होता है,
जिसे यह मिल जाए ,
वह इस से बंध जाता है।
फिर कुर्सी ही सगी हो जाती है ,
बाकी सब कुछ पराया और अप्रासंगिक हो जाता है।
इसे बनाए रखने की खातिर
आदमी शतरंजी चालें चलने में
होना चाहता माहिर,
इस के लिए स्वतः आदमी
दिन प्रति दिन होता जाता शातिर।
जब अंततः एक दिन
कुर्सी अपनी वफादारी बदलती है,
तब कुर्सी का न होना अखरता है,
यह भीतर तरह तरह के डर भर देती है,
तब जाँच का आतंक भी
मतवातर मन के भीतर दहशत भरता है,
यह अंतिम श्वास तक न केवल नींद हरता है ,
बल्कि यह आदमी को हैरान,परेशान,अवाक करता है।
फिर भी दुनिया भर में कुर्सी की चाहत बढ़ रही है।
वह आदमी को देश, दुनिया और समाज से बेदखल भी करती है।
आदमी आजकल कुर्सीदास हो गया है ,
जिसे मिले कुर्सी ,वह कोहिनूर सा अनमोल नजर आता है।
वहीं मानस आजकल सभी को भाता है।
नहीं जानते कुर्सी के प्रशंसक कि
कुर्सी का क्रूरता से अटूट नाता है।
यह किसी पर दया नहीं करती।
कुर्सी बेशक देखने में कोमल लगे ,
यह निर्णय लेते समय कठोरता की मांग करती है।
१८/०३/२०२५.
58 · Mar 3
यात्रा
जीवन यात्रा में
कब लग जाए विराम ?
कोई कह नहीं सकता !
और आगे जाने का
बंद हो जाए रास्ता।
आदमी समय रहते
अपनी क्षमता को बढ़ाए,
ताकि जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न हो जाए।
मन में कोई पछतावा न रह जाए।
सभी जीवन धारा के अनुरूप
स्वयं को ढाल कर
इस यात्रा को सुखद बनाएं।
हरदम मुस्कान और सुकून के साथ
जीवन यात्रा को गंतव्य तक पहुँचाएं।
०३/०३/२०२५.
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