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Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं ?
मन की ऊहापोह
तुम से !

सोचता हूं ,
आदमी ने
सदियों का दर्द
पल भर में सह लिया।
प्यार की बरसात में
जी भरकर नहा लिया।

कैसे कहूं ?
कैसे सहूं ?
मन के भीतर व्याप्त
अंतर्द्वंद्व
अब
तुम से!
तुम्हें देख देख
मन मैंने अपना
बहला लिया।
मन की खुशियों को
फूलों की खुशबू में
कुदरत ने समा लिया।
भ्रमरों के संग भ्रमण कर
जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य
अपने आप को
कुछ हदतक भरमा लिया।

कैसे न कहूं ?
तुम्हें यादों में बसा कर
मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से
संवेदना के लम्हों को पा लिया।
अपने होने का अहसास
लुका छिपी का खेल खेलते हुए,
उगते सूरज...!
उठते धूएं...!
उड़ते बादल सा होकर
मन के अन्दर जगा लिया।
कुछ खोया था
अर्से पहले मैंने
उसे आज अनायास पा लिया!
इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!

कैसे कहूं ?
संवेदना बिन कैसे जीऊं ?
आज यह अपना सच किस से कहूं ??
१४/१०/२००६.
47 · Dec 2024
संभावना
Joginder Singh Dec 2024
यदि
कोई बूढ़ा
बच्चा बना सा
पढ़ता मिले कभी
तुम्हें
कोई चित्र कथा !
तब तुम
उसे बूढ़े बच्चे पर
फब्तियां
बिल्कुल न कसना ।
उसे
अपने विगत के  
अनुभवों की कसौटी पर
परखना।
संभव है कि वह
अपने अनुभव और अनुभूतियों को
बच्चों को सौंपने के निमित्त
रचना चाहता हो
नवयुग की संवेदना को
अपने भीतर  सहेजे हुए
कोई अनूठी
परी कथा।
बल्कि तुम
उसकी हलचलों के भीतर से
स्वयं को गुजारने की
कोशिश करना ।
संभव है कि तुम
उसे बूढ़े बच्चे से
अभिप्रेरित होकर
चलने लगो
अपनी मित्र मंडली के संग
सकारात्मकता से
ओतप्रोत
जीवन के पथ पर ।


यदि
कोई बालक
हाथ में पकड़े हुए हो
अपने समस्त बालपन के साथ
कोई वयस्कों वाली किताब !
तब तुम मत हो जाना
शोक मग्न!
मत रह जाना भौंचक्का !!
कि तुम्हें उस मुद्रा में देखकर लगे
उसे अबोध को धक्का !!
संभव है-
वह
बूढ़े दादा तक
घर के कोने में
पटकी हुई एक तिरस्कृत
संदूकची में
युवा  काल की स्मृति को
ताज़ा करने वाली
एक प्रतीक चिन्ह सरीखी निशानी को ,
धूल धूसरित
कोई अनोखी किताब
दिखाने ले जा रहा हो।

और...
हो सकता है
वे,दादा और पोता
अपनी अपनी अपनी उम्र को भूलकर
हो जाएं
हंसते हुए खड़े
और देकर
एक दूसरे के हाथ में
अपने हाथ
चल पड़े साथ-साथ
करने
समय का स्वागत ,
जो सदैव हमारे साथ-साथ
चल रहा है निरंतर ,
हमें नित्य ,नए अनुभव और अनुभूतियां
देता हुआ सा ,
हमारे भीतर चुपचाप स्मृतियां बन कर
समाता हुआ ,
हमें  प्रौढ़ बनाता हुआ ।
हमें निरंतर समझदार बनाता हुआ।

०५/११/१९९६.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी
जीवन का वृक्ष
अज्ञानी से ज्ञानी
बना रहा लगता है
और
वृक्ष पर पल रहा जीवन
अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित
होकर सब को
हर्षित कर रहा लगता है।

मेरे घर के सामने
एक पीपल का वृक्ष
पूरी शान ओ 'शौकत से
एक स्वाभिमानी बुजुर्ग सरीखा
शांत सा होकर
आत्माभिमान से
तना हुआ
जीवन के उद्गम को
कर रहा है
मतवातर  इंगित
और रोमांच से भरपूर !
ऐसा होता है प्रतीत
कि अब जीवन
अपने भीतर जोश भरने को
है उद्यत।
जीवन
समय के सूक्ष्म
अहसासों से
सुंदरतम बन पड़ा है।
ऐसे पलकों को झपकाने के क्षणों में
कोयल रही है कूक
पल-पल
कुहू कुहू कुहू कुहू
करती हुई।
मानो यह सब से
कह रही हो
जीवन का अनुभूत सत्य,
इसे जीवन कथ्य बनाने का
कर रहा हो आग्रह
कि अब रहो न और अधिक मूक ।
कहीं हो न जाए  
जीवन में कहीं कोई चूक।
कहीं जीवन रुका हुआ सा न  बन जाए ,
इसमें से सड़ांध मारती कोई व्यवस्था नज़र आ जाए ।

वृक्ष का जीवन
कहता है सब से
जो कुछ भी देखो
अपने इर्द-गिर्द ।
उसे भीतर भर लो
उसका सूक्ष्म अवलोकन करते हुए ,
अपनी झोली
प्रसाद समझ भर लो।

इधर
पीपल के पेड़ की
एक टहनी पर
बैठी कोकिला
कुहू कुहू कुहू कुहू कर
चहक उठी है  ,
उधर हवा भी
पीपल के पत्तों से
टकराकर
कभी कभार ध्वनि तरंगें
कर रही है उत्पन्न ।
यह हवा छन छन कर
मन को महका रही है।
जीवन को
सुगंधित और सुखमय होने का
अहसास करा रही है।

कोकिला का कुहूकना,
पत्तों के साथ हवा के झोंकों का टकराना ,
मौसम में बदलाव की दे रहा है  सूचना ।
यह सब आसपास, भीतर बाहर
जीवन के एक सम्मोहक स्वरूप का
अहसास करा रहे हैं ,
ऐसे ही कुछ पल जीवन को
जड़ता से दूर ले जाकर
गतिशीलता दे पा रहे हैं।
जीवन के भव्य और गरिमामय
होने की प्रतीति करा रहे हैं।

वृक्ष का जीवन
किसी तपस्वी के जीवन से
कम नहीं है ,
यह अपने परिवेश को
जीवंतता से देता है भर ,
यह आदमी को
अपनी जड़ों से
जुड़े रहने की
देता रहा है प्रेरणा ।
१२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
आज
देश नियंता पर
लगा रहा है कोई आरोप
तानाशाह होने का ।

उसे नहीं है पता ,
देश दुनिया संक्रमण काल से गुजर रही ।
बदमाश
सदाशयता पर हावी
होना चाहते हैं ,
उसे
घर की दासी समझते हैं ।
देश की बागडोर संभालना,
नहीं कोई है सरल काम,
इसकी राह में
मुश्किलें आती हैं तमाम ,
अगर उनसे ना सुलझा जाए,
तो अपूर्ण रह जाते सारे काम।
मुझे कभी-कभी
अपना पिता भी एक तानाशाह
जैसा लगता है ।
पर नहीं है वह एक तानाशाह ,
इस सच को हर कोई जानता है !
जानबूझकर अपनी अकड़ दिखाता है !!
जनता में सत्ताधारी की गलत छवि बनाता है।
संविधान खतरे में है ,जैसी बातें कहकर
जनता जनार्दन को मूर्ख बनाता है ।
क्या ऐसा करना
विपक्षी नेता को
सत्ता का सिंहासन दिला पाता है ?
बल्कि
ऐसा करने वाला
देश को गर्त में  पहुंचाता है।
वह आरोप लगाने से पहले
अपने  गिरेबान में झांके ।
तत्पश्चात
सत्ता के नेतृत्व कर्ता को
तानाशाह  कहे ,
अपनी तानाशाही पर नियंत्रण करे।

आज असली तानाशाह
आरोप लगाने वाले हैं।
क्या ऐसा कर के
वे सत्ता के नटवरलाल
बनना चाहते हैं ?
मुझे बताओ।
आज मुझे बताओ।
असली तानाशाह कौन?
सत्ता पर काबिज व्यक्ति
या फिर आरोप लगाने वाला,
एक झूठा  नारेटिव सेट करने वाला ?
मुझे बताओ। मुझे बताओ ।मुझे बताओ।
असली तानाशाह कौन ?
यदि इसका उत्तर पास है आपके,
शीघ्रता से मुझे बताओ।
अन्यथा गूंगे बहरे हो जाओ।
अब और नहीं
जीवन को उलझाओ।
Joginder Singh Dec 2024
बहस करती है मन की शांति भंग
यह मतवातर भटकाती है जीवन की ऊर्जा को
इस हद तक कि भीतर से मजबूत शख़्स भी
टूटना कर देता है शुरू और मन के दर्पण में
नज़र आने लगती हैं खरोचें और दरारें !
इसलिए कहता हूँ सब से ...
जितना हो सके, बचो बहस से ।
इससे पहले कि
बहस उत्तरोत्तर तीखी और लम्बी हो जाए ,
यह ढलती शाम के सायों सी लंबी से लंबी हो जाए ,
किसी भी तरह से बहसने से बचा जाए ,
अपनी ऊर्जा और समय को सृजन की ओर मोड़ा जाए ,
अपने भीतर जीवन के सार्थक एहसासों को भरा जाए।

इससे पहले कि
बात बढ़ जाए,
अपने क़दम पीछे खींच लो ,
प्रतिद्वंद्वी से हार मानने का अभिनय ही कर लो
ताकि असमय ही कालकवलित होने से बच पाओ।
एक संभावित दुर्घटना से स्वयं को बचा जाओ।
आप ही बताएं
भला बहस से कोई जीता है कभी
बल्कि उल्टा यह अहंकार को बढ़ा देती है
भले हमें कुछ पल यह भ्रम पालने का मौका मिले
कि मैं जीत गया, असल में आदमी हारता है,
यह एक लत सरीखी है,
एक बार बहस में
जीतने के बाद
आदमी
किसी और से बहसने का मौका
तलाशता है।
सही मायने में
यह बला है
जो एक बार देह से चिपक गई
तो इससे से पीछा छुड़ाना एकदम मुश्किल !
यह कभी कभी
अचानक अप्रत्याशित अवांछित
हादसे और घटनाक्रम की
बन जाती है वज़ह
जिससे आदमी भीतर ही भीतर
कर लेता है खुद को बीमार ।
उसकी भले आदमी की जिन्दगी हो जाती है तबाह ,
जीवन धारा रुक और भटक जाती है
जिंदादिली हो जाती मृत प्राय:
यह बन जाती है जीते जी नरक जैसी।
हमेशा तनी रहने वाली गर्दन  
झुकने को हो जाती है विवश।
हरपल बहस का सैलाब
सर्वस्व को तहस नहस कर
जिजीविषा को बहा ले जाता है।
यह मानव जीवन के सम्मुख
अंकित कर देता है प्रश्नचिह्न ?
बचो बहस से ,असमय के अज़ाब से।
बचो बहस से , इसमें बहने से
कभी कभी यह
आदमी को एकदम अप्रासंगिक बनाकर
कर देती है हाशिए से बाहर
और घर जैसे शांत व सुरक्षित ठिकाने से।
फिर कहीं मिलती नहीं कोई ठौर,
मन को टिकाने और समझाने के लिए।
प्रशासन ने
आम जनता को
ब्लैक आउट के संबंध में
इस हद तक कर दिया है जागरूक

लोग निर्धारित समय तक
घर लौट आते हैं ,
समय रहते लाइट्स ऑफ कर देते हैं।
समय पर सोने और सुबह
जल्दी उठने की आदत को अपना रहे हैं।
अच्छा है
लोगों की सेहत सुधरेगी
रात जंगी सायरन बजा था
मैं थका हुआ गहरी नींद में सोया रहा
सुबह जगा तो देखा कि
खिड़कियों और रोशनदान पर
काले पर्दे टंगे थे
मुझे अच्छा लगा

सोचा कि समय रहते
ब्लैक आउट प्रिकॉशन ले लिया जाए !
जीवन की सार्थकता को समझा जाए !!
जीवन दीप को प्रकाशमान रखा जाए !!!
जीवन यात्रा को जारी रखने में ही है अक्लमंदी।
ब्लैक आउट प्रिकॉशन को तोड़ने का अर्थ होगा...
जीवन की संभावना को नष्ट करना।
सुख समृद्धि और संपन्नता के द्वार को असमय बंद करना।
१०/०५/२०२५.
आज समाज में
असंतोष की आग
दावानल बनी हुई
सब कुछ भस्मित करती
जा रही है ,
उसके मूल्य
दिनोदिन
अवमूल्यन की राह
बढ़ चले हैं,
सब भोग विलास की राह पर
चल पड़े हैं।
सभी के भीतर
डर,आक्रोश, सनसनी
उत्पन्न होती जा रही है ,
हर वर्ग में तनातनी
बढ़ती जा रही है।
ऐसे समय में
समाज क्या करे ?
वह अपने नागरिकों में
कैसे सार्थक सोच विकसित करे ?
वह किन से
सुख समृद्धि और संपन्नता की आस करे
ताकि उसका मूलभूत ढांचा
सकारात्मकता को
बरकरार रख सके ,
इसमें दरारें न आ सकें।
इसमें और अधिक बिखराव न हो।
कहीं कोई गुप्त तनाव न हो ,
जिससे विघटन की रफ्तार कम हो सके ,
समाज में मूल्य चेतना बची रह सके।

आज समाज
क्यों न स्वयं को
पुनर्संगठित करे !
समाज
निज को
समयोचित बनाकर
अपने विभिन्न वर्गों में
असंतोष की ज्वाला को
नियंत्रण में रखने के लिए
निर्मित कर सके कुछ सार्थक उपाय !
वह समायोजन की और बढ़े !
इसके साथ ही वह अंतर्विरोधों से भी लड़े !!
ताकि सब साम्य भाव को अनुभूत कर सकें !!
२३/०२/२०२५.
हार मिलने पर
उदास होना स्वाभाविक है।
यह कभी कभी
जख्मों को
हरा कर देती है।
यह मन में
पीड़ा भी पैदा करती है ,
जिससे बेचैनी देर तक बनी रहती है।
मन के कैनवास पर
अपनी हार को
किस रंग में
अभिव्यक्त करूं ?
इस बाबत जब भी सोचता हूँ ,
ठिठक कर रह जाता हूँ।
क्या हार का रंग
बदरंग होता है ,
जो कभी मातमी माहौल का
अहसास कराता है ,
तो कभी मिट्टी रंगी तितलियों में
बदल जाता है ,
भीतर मंडराता रहता है।
कभी कभी
हार को उपहार देने का मन करता है,
अपनी हरेक हार के बाद
आत्म साक्षात्कार की खातिर
भीतर उतरता हूँ ,
अपने परों की मजबूती को
तोलता हूँ
ताकि फिर से
जीवन संघर्ष कर सकूं
हार के बदरंग के बाद
तितली के रंगों को
मन के कैनवास पर उतार सकूँ !
हार ,जीत , हास परिहास , आम और ख़ास का
कोलाज निर्मित कर सकूँ ,
उस पर एक कल्पना का संसार उतार सकूँ।
क्या सभी के पास
हार का रंग बदरंग होता है या फिर अलग अलग !
जो करता रहा है  आदमी की कल्पना को वास्तविकता से अलग थलग !!
१२/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह ठीक है कि
फूल आकर्षक हैं और
डालियों पर
खिले हुए ही
सुंदर , मनमोहक
लगते हैं।
जब इन्हें
शाखा प्रशाखा से
अलग करने का
किया जाता है प्रयास
तब ये जाते मुर्झा व कुम्हला।
ये धीरे-धीरे जाते मर
और धूल धूसरित अवस्था में
बिखरकर
इनकी सुगन्ध होती खत्म।
इनका डाल से टूटना
दे देता संवेदना को रिसता हुआ ज़ख्म।
कौन रखेगा इन के ज़ख्मों पर मरहम ?

बंधुवर, इन्हें तुम छेड़ो ही मत।
इन्हें दूर रहकर ही निहारो।
इनसे प्रसन्नता और सुगंधित क्षण लेकर
अपने जीवन को भीतर तक संवारो।
अपनी सुप्त संवेदना को अब उभारो।

ऐसा होने पर
तुम्हारा चेहरा खिल उठेगा
और आकर्षण अनायास बढ़ जाएगा।
जीवन का उद्यान
बिखरने और उजड़ने से बच जाएगा।
यह जीवन तुम्हें पल प्रति पल
चमत्कृत कर पाएगा।

यह सच है कि
फूल सुंदरता के पर्याय हैं।
ये पर्यावरण को संभालने और संवारने का
देते रहते हैं मतवातर संदेश।
मगर तुम्हारे चाहने तक ही
वरना हर कोई इन्हें
तोड़ना चाहता है,
जीवन को झकझोरना चाहता है ,
अतः अब से तुम सब
फूलों को डालियों पर खिलने दो !
उन्हें अपने वजूद की सुगन्ध बिखेरने दो !!
इतने भी स्वार्थी न बनो कि
कुदरत हम सब से नाराज़ हो जाए ।
हमारे आसपास प्रलय का तांडव होता नज़र आए ।

११/०१/२००८.
तुम कभी
बहुत ताकतवर रहे होंगें कभी ,
समय आगे बढ़ा ,
तुम ने भी तरक्की की होगी कभी ,
जैसे जैसे उम्र बढ़ी ,
वैसे वैसे शक्ति का क्षय ,
सामर्थ्य का अपव्यय
महसूस हुआ हो कभी !
बरबस आंखों में से
झरने सा बन कर
अश्रु टप टप टपकने
लगने लगे हों कभी।
अपनी सहृदयता ही
कभी लगने  लगी हो
अपनी कमज़ोरी और कमी।
इसके विपरीत
धुर विरोधियों ने
कमीना कह कर
सतत् चिढ़ाया हो
और भावावेश में आकर
भीतर बाहर
यकायक
गुस्सा आन समाया हो।
इस बेबसी ने
समर्थवान को आन रुलाया हो।

समर्थ के आंसू
पत्थर को
पिघलाने का
सामर्थ्य रखते हैं ,
पर जनता के बीच होने के
बावजूद
ये आंसू
समर्थ को सतत्
असुरक्षित करते रहते हैं ,
सत्तासीन सर्वशक्तिमान होने पर भी
निष्ठुर बने रहते हैं।
वे स्वयं असुरक्षित होने का बहाना
बना लेते हैं ,
वे बस जाने अनजाने
अपना उपहास उड़वा लेते हैं ,
मगर उन पर
अक्सर
कोई हंसता नहीं ,
उन्हें
अपने किरदार की
अच्छे से
समझ है कि
यदि कोई  
स्वभावतया भी हंस पड़ता है
तो झट से धड़
अलग हुआ नहीं ,
सब वधिक को ,
उसके आका को
ठहरायेंगे सही।
समर्थ को सतत् सक्रिय रहकर
आगे बढ़ना पड़ता है ,
क़दम क़दम पर
जीवन के विरोधाभासों से
निरंतर लड़ना पड़ता है।
समर्थ के आंसू
कभी बेबसी का
समर्थन नहीं करते हैं।
ये तो सहजता से
बरबस निकल पड़ते हैं।
हां,ये जरूर
मन के भीतर पड़े
गर्दोगुब्बार को धोकर
एक हद तक शांत करते हैं।
वरना समर्थ जीवन पर्यन्त
समर्थ न बना रहे।
वह अपने अंतर्विरोधों का
स्वयं ही शिकार हो जाए।
आप ही बताइए कि
वह कहां जाए ?
वह कहां ठौर ठिकाना पाए ?
०१/०४/२०२५.
47 · Dec 2024
सिमटना
Joginder Singh Dec 2024
'शब्द जाल '
बहुत बार
साहित्य के समंदर में
तुमने फैंके हैं , मछुआरे !

कभी कविता के रूप में ,
तो कभी कथा के रंग में ,
निज की कुंठाओं को ढाल ।

अब तू न ही बुन
कोई मिथ्या शब्द जाल ,
इससे नहीं होगा कमाल
बल्कि तू जितना डर कर भागेगा ,
उतना ही अंतर्घट का वासी
तुम्हारा दोस्त तुम्हें डांटेगा ।

अब
अच्छा रहेगा
तुम स्वयं से
संवाद स्थापित करो ।
यह नहीं कि हर पल
उल्टा सीधा , आड़ी तिरछी
लकीरों वाला
कोई शब्द चित्र
जनता जनार्दन के
सम्मुख प्रस्तुत करो ।

तुम समझ लो कि
जन अब इतना बुद्धू भी नहीं रहा कि
तुम्हारे ख्याली पुलावों को
न समझता हो ,
और वह न ही  
शब्दजाल के झांसे में
आनेवाली
कोई मछ्ली है।'
ऐसा मुझसे चेतना ने कहा
और यह सुनकर
मैं चुप की नींद सो गया।
अपने को जागृत
रखने की दुविधा से ,
लड़ने की कोशिश में ,
मैं एक कछुआ सरीखा होकर
निज के खोल में सिमट कर रह गया था।
निज को सुरक्षित महसूस करना चाहता था।

मैं समय धारा के संग बह गया था।
बहुत कुछ अनकहा सह गया था।

  १४/१०/२००७.
46 · Apr 25
प्यास
मजा
प्यास का तब ही है
जब प्यास लगी हो और पानी
पास न हो !
इसकी तीव्रता
इतनी हो कि बेचैनी
तीव्र से तीव्रतर होती जाए।
आदमी को
वातानुकूलित आबोहवा में
रेगिस्तान का अहसास दिलाए।
काश !
अचानक
कोई सहृदय
पानी लेकर आ जाए ,
बड़े प्यार से पिलाए ,
जीवन की मरूभूमि में
नखलिस्तान के ख़्वाब दिखा जाए।
सच बड़ी शिद्दत की प्यास लगी है ,
शायद कोई साकी जीवन में आ जाए ,
इस बेरहम प्यास से निजात दिला जाए।
यह भी संभावना है कि प्यास को ही बढ़ा जाए।
प्यास को मिराज़ के हवाले कर छूमंतर हो जाए...
...आदमी जीवन की सार्थकता को अनबुझी प्यास की
वज़ह से उड़ती रेत के हवाले होकर दबा दबा सा रह जाए।
२५/०४/२०२५.
46 · Mar 21
बेचना
किसी को
किसी के
ख़्वाब बेचना
आजकल
चोरी चकारी
कतई नहीं है,
यह अब एक कला है!
जिससे वह
तथाकथित जीनियस पला है !!
बुरा मत मानना
न ही बुरे को भूले से मनाना
यहाँ मना है ,
यहाँ हर कोई
निर्दोष के खून से सना है।
अब सब यहाँ व्यापारी हैं,
जिनके जेहन में
चोरी सीनाजोरी ही
नहीं बसी है,
वरन रग रग में मक्कारी है।
इस दुनिया के बाज़ार में
शराफ़त पग पग पर हारी है !
चोर चोर मौसेरे भाइयों से
लगा रखी मुनाफाखोरों ने यारी है  !!
मन में कहीं गहरे बसी अय्यारी है  !!
उनका वश चले तो आका को बेच खाएं !
यही नहीं बस ! वे गरीब के घर में भी सेंध लगाएं !
वे हर पल सुविधा ही नहीं ,दुविधा तक को बेचना चाहते हैं !
वे पक्के व्यापारी हैं, हर नायाब और वाहियात चीज़ को बेचने का हुनर रखते हैं !
वे बेचना चाहते हैं सब कुछ !
क्या श्रेष्ठ और क्या तुच्छ !
वे मोटी खाल वाले व्यापारी हैं !
और हम सब उनके मुनाफे की वज़ह !
जिन्हें वे भिखारी और आसान शिकार समझ करना चाहते जिब्ह बेवजह !!
बेचना पड़ेगा सभी को अपना सुख चैन, एक दिन उनके हाथों !
बचा ले अपना ईमान समय रहते ,भाई साधो !
बना न रह देर तक , कभी भी , मिट्टी का माधो !
वे चाहते हैं तुम्हे बेचना ,पर तुम सस्ते में खुद को न कभी बेचना।
बचा कर रख अपने पास ,अपना अनमोल धन चेतना।
अगर यह भी बिक गई तो बचेगी अपने पास महज वेदना।
अपनी संवेदना को आज सहेज कर रखना बेहद ज़रूरी है।
२१/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
कभी सोचा है आपने ?
यह कि शब्द
सहमत में
सहम भी छिपा है
जिसकी आड़ लेकर
लोगों ने
कभी न कभी  
परस्पर
एक दूसरे को छला है।
छल की छलनी और छलावे से
प्यार और विश्वास
बहुधा जीवन छल बल का हुआ शिकार।
कई बार
आज के खुदगर्ज इन्सान
सहम कर ही
हैं  सहमत होते।
वरना वे भरोसा तोड़ने में  
कभी देरी न करते।
Joginder Singh Nov 2024
जानवरों में
होती है जान!
पेड़ों,पक्षियों, सूक्ष्म जीवों में
होते हैं प्राण!!

आदमी
सरीखे पशु में
रहता आया है
सदियों सदियों से
आत्म सम्मान!


फिर क्यों हम
जीव जन्तुओं के वैरी बने हुए?
क्यों न हम सब
परस्पर सुरक्षित रहने की ग़र्ज से
एक विशालकाय
वानस्पतिक सुरक्षा छतरी बुनें?
आज हम सब पर्यावरण मित्र बनें।


बंधुवर! तुम आज इसी पल
पर्यावरण मित्र बनो
और संगी साथियों के साथ
प्रदूषण के दैत्य से लड़ो।
सच की रोशनी में ही आगे बढ़ो।
  १७/०९/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
एक कमज़ोर क्षण में बहकर
मैं जिंदगी से बेवफ़ाई कर बैठा!
सो अब पछता रहा हूं।
उस क्षण को वापस बुला रहा हूं,
जिस पल मैं सहजता से
अपनी ग़लती को कर लूं स्वीकार,
ताकि बना रहे जीवन में
अपनापन और अधिकार।

अब अपनी कमज़ोरी पर
विजय हासिल करना चाहता हूं,
रह रह कर भीतर से कराहता हूं
पर अंदर मेरे, मानवीय कमजोरियों की
एक सतत् श्रृंखला चलायमान रहकर
मुझे कर रही है लहूलुहान,
लगता है कि खुद से मतवातर बतियाना कर देगा ,
मेरी तमाम चिन्ताओं, परेशानियों का समाधान।
१३/०६/२०१८.
बेहयाई
बेशक मन को ठेस
पहुंचाए
परन्तु
यह समाज में
व्याप्त
गन्दगी और बदबू
जितनी खतरनाक नहीं।
पहले इस की सफ़ाई पर
ध्यान देंगे,
फिर बेहयाई पर
किसी हद तक
रोक लगाएंगे।
तन ,मन,धन की शुचिता
पर अपनी ऊर्जा और ध्यान केंद्रित
करने का प्रयास करेंगे।
अपने को संयमित कर
जीवन शैली को संतुलित कर
मानवीय गरिमा का वरण करेंगे ,
जीवन यात्रा को सार्थक करेंगे
ताकि सब स्व से जुड़ सकें !
आत्मानुसंधान करते हुए आगे बढ़ सकें !!
०६/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
चुनाव जनतंत्र का आधार है।
इसमें होना चाहिए सुधार है।
जिन्हें देश से प्यार है,
वह इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते।
आज चुनाव का जनतंत्र में,
है कोई विकल्प नहीं ।
इसमें ना हो धांधली ,
यह हमारा संकल्प नहीं।
दोस्तों ,चुनाव हमें चुनना सिखाता है।
देश प्रेम की मजबूती दिखलाता है।
चुनो ,चुनो, चुनो ,सही प्रतिनिधि चुनो।
कभी ईमानदार नेता चुनने से ना डरो ।
यदि कोई चुनाव में झूठ ,मकर, फ़रेबी करता है,
उसके खिलाफ धरना प्रदर्शन करो।
कभी भी अपना मत देने से पीछे ना हटो ।
Joginder Singh Nov 2024
अर्थ
शब्द की परछाई भर नहीं
आत्मा भी है
जो विचार सूत्र से जुड़
अनमोल मोती बनती है!
ये
दिन रात
दृश्य अदृश्य से परे जाकर
मनो मस्तिष्क में
हलचलें पैदा करते हैं,
ये मन के भीतर उतर
सूरज की सी रोशनी और ऊर्जा भरते हैं।


अर्थ
कभी अनर्थ नहीं करता!
बेशक यह मुहावरा बन
अर्थ का अनर्थ कर दे!
यह अपना और दूसरों का
जीना व्यर्थ नहीं करता!!
बल्कि यह सदैव
गिरते को उठाता है,
प्रेरक बन आगे बढ़ाने का
कारक बनता है।
इसलिए
मित्रवर!
अर्थ का सत्कार करो।
निरर्थक शब्दों के प्रयोग से
अर्थ की संप्रेषक
ध्वनियों का तिरस्कार न करो।
अर्थ
शब्द ब्रह्म की आत्मा है ,
अर्थानुसंधान सृष्टि की साधना है ,
सर्वोपरि ये सर्वोत्तम का सृजक है।
ये ही मृत्यु और जीवन से
परे की प्रार्थनाएं निर्मित करते हैं।

तुम अर्थ में निहित
विविध रंगों और तरंगों को पहचानो तो सही,
स्वयं को अर्थानुसंधान के पथ का
अलबेला यात्री पाओगे।
अपने भीतर के प्राण स्पर्श करते हुए
परिवर्तित प्रतिस्पर्धी के रूप में पहचान बनाओगे।
कल की तरह
आज का दिन भी
बीत गया ,
बहुत कुछ भीतर भरा था
पर वह भी
लापरवाही के छेद की
वज़ह से
रीत गया।
अब पूर्णतः खाली हूँ ,
सो अपनी बात रख रहा हूँ।

कल
मैं घर पर ही रहा ,
बाहर चलने वाली
ठंडी हवाओं से डरता रहा।
सारा दिन अख़बार,
टेलीविजन,मोबाइल ,
बिस्तर या फिर चाय के
आसरे बीत गया।
फिर भी मैं रीता ही रहा।
देश, समाज, परिवार पर
बोझ बना रहा।

आज दफ़्तर में
कुछ ज़रूरी काम था,
सो घर से समय पर निकला
और ...
दफ़्तर छोड़ आगे निकल गया
जहां एक मित्र से मिलना हुआ
उसने हृदय विदारक ख़बर सुनाई।
मेरे गाँव का एक पुलिसकर्मी
नशे में डूबे बड़े घर के बिगड़ैल बच्चों की
लापरवाही का शिकार हो गया।
वह नाके पर डयूटी दे रहा था।
उसने कार में सवार लड़कों को
रुकने का इशारा किया ही था कि
वे लड़के उसे रौंदते हुए
कार भगा कर ले गए।
पता नहीं वे क्यों डर गए ?
घबराहट में वे अनर्थ कर गए।
फलत: वह बुरी तरह से घायल हुआ।
पहले उसे रूपनगर के राजकीय हस्पताल ले जाया गया ।
उसके बाद उन्हें चंडीगढ़ स्थित पीजीआई में
दाखिल करवाया गया।
जहां ऑपरेशन होने के बावजूद
उन्हें बचाया न जा सका।

आज उनका अंतिम संस्कार है।
यह सब कुछ जानकर
मैं उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ।
बड़ा हृदय विदारक माहौल था।
एक संभ्रांत परिवार का कमाऊ सदस्य
अराजक तत्वों की भेंट चढ़ गया ।
परिवार पर अचानक दुःख का पहाड़ टूट पड़ा।

शाम सात बजे घर पहुंचा
तो मैं थोड़ा उदास और निराश था।
जिस सहृदय आदमी की विनम्रता को
सब कल तक सराहते थे ,
वह आज अचानक मानवीय क्रूरता का
बन गया था शिकार।
वह जन रक्षक था
पर अराजकता के कारण
खुद को बचा नहीं पाया।
वह दुर्घटना ग्रस्त होकर
जीवन में संघर्ष करते करते
चिर निद्रा में सो गया।
एक संवेदनशील व्यक्ति
काल के भंवर में खो गया।

मोबाइल पर उनके दाह संस्कार की बाबत
एक वीडियो डाली गई थी,
जिसमें अंतिम अरदास से लेकर
पुलिस कर्मियों के सैल्यूट करने,
सलामी देने की प्रक्रिया दर्शाई गई थी।

पुलिस के जवान
जब तब
चौबीसों घंटे
कभी भी
कहीं भी
अपनी डयूटी ढंग से निभाते हैं
तब भी वे
असुरक्षित क्यों होते जाते हैं ?
असमय
वे हिंसा का शिकार बन जाते हैं।
इस संबंध में
सभी को सोचना होगा।

इस समय मैं
कल और आज के दिन के बारे में
विचार कर रहा हूँ ,
आदमी अपने को हर पल व्यस्त रखे
तो ही अच्छा ,
वरना सुस्ती में
दिन कुछ खो जाने का अहसास कराता है।
आदमी के जीवन का एक और दिन
काल की भेंट चढ़ जाता है।
आदमी के हाथ पल्ले कुछ नहीं पड़ता है।
उसका जीवन पछतावे में बीतने लगता है।
आदमी कर्मठता की राह चले तो दिन भी अच्छे भले लगें।
वह कल ,आज और कल का भरपूर आनंद ले।
ताकि जीवन में सुख समृद्धि का अहसास
तन और मन को प्रफुल्लित करता रहे।
२३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब जेबें खाली हो गईं,
बैठे बैठे खाते रहे,
कमाया कुछ नहीं,
घरों में बदहाली आ गई,
तब आई
गाँव में रह रहे
सगे संबंधियों की याद।
सोचा, अपनों के पास जाकर ,
फरियाद करेगें ,
उधार के रूप में
मदद के लिए
अनुरोध करेंगे,
बंधु बांधवों के सम्मुख ।
चल पड़े जैसे तैसे पैदल
थके हारे, प्रभु आसरे,गिरते पड़ते,
एक के पीछीक सभी लोग,
तज के सारे लालच लोभ ।
बहुत सारे बीच मार्ग में
भूख और लाचारी,
लूटपाट, मारा मारी ,
धोखाधड़ी का बने शिकार ।
ऊपर से कोरोना का भय विकराल,
लगा कर रहे ताण्डव महाकालेश्वर
बाबा भोलेनाथ
सब की परीक्षा ले रहे,
क्रोध में हैं महाकाल।

देख दुर्दशा बहुतों की,
सुख सुविधा वंचित दिन हीनों की,
बहुतों की आँखों में अश्रु आए झर।
उन्होंने मदद हेतु हाथ बढ़ाए,
वे मानवता के सेतु बन पाए ।
देख, महसूस, दुर्दशा,उन सभी की,
बहुतों को रोना आ गया।
सोचते थे घड़ी घड़ी।
यह कैसा आपातकाल आ गया।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का अप्रत्याशित भय
उनकी संवेदना, सहृदयता,
सहयोग, सौहार्द,
सहानुभूति को खा गया।
सब सकते में थे।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का भय
सबके मनों में घर कर गया।मृत्यु का चला
अनवरत सिलसिला
बहुतों के रोजगार खा गया।
सामाजिक सुरक्षा की मज़बूत दीवारों को ढा गया।
रिश्तेदारों ने दुत्कार दिया।
सोचते थे सब तब
अब कैसे प्राप्त होगी सुरक्षा ढाल?
सब थे बेहाल,
बहुत से मजदूर वर्ग के
बंधु बांधव थे फटेहाल।
कौन रखेगा अब
आदमी और उसकी आदमियत का ख्याल ?

आज वह दौर बीत गया है।
बहुत कुछ सब में से रीत गया है।
अब भी
बहुल से लोग
कोरोना का दंश झेल रहे हैं।
उनकी आर्थिकता बिल्कुल चरमरा चुकी है,
अब भी  कभी कभी
बीमारी,लाचारी, हताशा, निराशा ,
उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती है,
कमज़ोर हो चुकी मानसिकता
आत्मघात के लिए उकसाती है।
अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पड़ोसी ने
रात्रि तीन बजे करोना काल में आई बीमारी, कमज़ोरी के कारण कर लिया था आत्मघात ।
अब भी कभी कभी
पोस्ट कोरोना  का दुष्प्रभाव
देखने को मिल जाता है।
इसे महसूस कर
अब भी भीतर
भूकंपन सा होता है,
भीतर तक हृदय छलनी हो जाता है।

कोरोना महामारी अब भी जिंदा है,
बेशक आज इंसान,देश,दुनिया,समाज
इस महामारी से उभर चुका है।
मानवता  अभी भी शोकग्रस्त और पस्त है।
कोरोना काल में
बहुत से घरों में
जीवन का सूरज अस्त हुआ था,
वहाँ आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है।
वहां बहुत कुछ बिखरा हुआ है,
जिसे समेटा नहीं जा सकता।
Joginder Singh Dec 2024
बेकार की बहस
मन का करार लेती छीन
यह कर देती सुख समृद्धि,
धन संपदा को
तहस नहस।
अच्छा रहेगा
बेकार की बहस से
बचा जाए ,
सार्थक दिशा में आगे बढ़ा जाए।
क्यों न बंधुवर!
आज
जीवन धारा को
तर्कों की तुला पर
तोलते हुए
चंचल मन को
मनमर्ज़ियां करने से
रोकते हुए
जीवन खुलकर
जिया जाए
और
स्वयं को
सार्थक कार्यों में
लगाया जाए।

आज मन
सुख समृद्धि का
आकांक्षी है ,
क्यों न इसकी खातिर
ज़िंदगी की किताब को
सलीके से पढ़ा जाए
और
अपने को
आकर्षण भरपूर
बनाए रखने के निमित्त
स्वयं को
फिर से गढ़ा जाए ,
बेकार की बहस के
पचड़े में फंसने से,
जीवन को नरक तुल्य बनाने से
खुद को बचाया जाए।

आज आदमी अपने को
सत्कर्मों में लीन कर लें
ताकि इसी जीवन में
एक खुली खिड़की बनाई जाए,
जिसके माध्यम से
आदमी के भीतर
जीवन सौंदर्य को
निहारने के निमित्त
उमंग तरंग जगाई जाए।

आओ,आज बेकार की बहस से बचा जाए।
तन और मन को अशांत होने से बचाया जाए।
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाया जाए। आदमी को अभिव्यक्ति सम्पन्नता से युक्त किया जाए ।

मित्रवर!
बहस से बच सकता है तो बहसबाजी न ही कर।
बहस से तन और मन के भीतर वाहियात डर कर जाते घर।
१५/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
आज
बिटिया ने अपना सारा स्नेह
भोजन परोसते समय
प्यार भरी मनुहार के साथ
ढेर सी सब्जी
थाली में डाल कर किया।
मेरे मुख से
बरबस ही
  समस्त स्नेह भाव
एक अद्भुत वाक्य बन प्रस्फुटित हुआ,
" अब सारा प्यार मेरी थाली में
उड़ेल दोगी क्या!"
पास ही उसके पापा बैठे थे, विनोद,
जिन्हें
मैं
कभी-कभी
मनोविनोद के नाम से
संबोधित करता हूं!
यह पल
मुझे
प्यार का सार बता गया।
इसके साथ ही
संसार का सार भी समझा गया।
सच! इस पल को जीकर
मैं भाव विभोर हुआ ।
46 · Feb 9
भोलू
आदमी
आज का
कितनी भी
कर ले चालाकियां ,
वह रहेगा
भोलू का भोलू!
कोई भी अपने बुद्धि बल से
चतुर सुजान तक को
दे सकता है
मौका पड़ने पर धोखा।
भोलू जीवन में
धोखे खाता रहा है,
ठगी ठगौरी का शिकार
बनता रहा है,
मन ही मन
कसमसाकर
रह जाता रहा है ।
एक दिन
अचानक भोलू सोच रहा था
अपनी और दुनिया की बाबत
कि जब तक
वह जिन्दगी के
मेले में था,
खुश था,
मेले झमेले में था ,
उसकी दिनचर्या में था।

भीड़ भड़क्का !
धक्कम धक्का !!
वह रह जाता था
अक्सर हक्का बक्का !!
अब वह इस सब से
घबराता है।
भूल कर भी भीड़ का हिस्सा
बनना नहीं चाहता है।
०८/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
खरा
कभी नहीं सोचता
कि खोट मन में रही होगी
सो पहन लिया था
उसने अचानक मुखौटा ।
मगर
खोटा क्या कभी सोचता है
कि खोट करने से
वह दिखने लगेगा
छोटा ,
सभी के सम्मुख ही नहीं ,
स्वयं के समक्ष भी ।

वह हमेशा
हरि हरि कहता है,
एक दिन खरा बन पाता है ।
फिर वह हर बार
पूर्ववत विश्वास पर
अडिग रहते हुए
खरी खरी बातें
सभी से कहता है।

मगर
खोटा।
खोट को भी शुद्ध बताता है,
वह खोट में भी
शुद्धता की बात करता है ,
और अपनी साख गवां देता है।
मगर विदूषक पैनी नज़र रखता है,
वह अपने अंतर्मुखी स्वभाव से
मुखौटे का सच
जान जाता है।

वह कभी हां की मुद्रा में सिर हिलाकर,
और कभी न की मुद्रा में सिर हिलाकर,
मतवातर हां और न की मुद्राओं में सिर हिला,हिला कर
खोटे के अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देता है।
खोटा अपने मकड़जाल में फंसकर सच उगल देता है।

अपने इस हुनर के दम पर
विदूषक हरदिल अजीज बन पाता है।

वह सभी के सम्मुख
दिल से ठहाके लगाने लगता है,
यही नहीं वह सभी से ठहाके लगवाता है।
इस तरह
विदूषक
सभी को आनंदित कर जाता है।

   ०९/०५/२०२०
Joginder Singh Dec 2024
जब-जब युग
युगल गीत गुनगुनाना
चाहता है
लेकर अपने संग
जनता जनार्दन की उमंग तरंग ,
तब तब
मन का
बावरा पंछी
उन्मुक्त गगन का
ओर छोर
पाना चाहता है !
पर...
वह उड़ नहीं पाता है
और अपने को भीतर तक
भग्न पाता है।

और
यह मसखरा
उन्हें  उनकी  
नियति व बेबसी की
प्रतीति कराने के निमित्त
प्रतिक्रिया वश अकेले ही
शुगलगीत
गाता है,
मतवातर
अपने में डूबना
चाहता है !!

पर
कोई उसे
अपने में डूबने तो दे!
अपने अंतर्करण को
ढूंढने तो दे !
कोई उसे
नख से शिख तक
प्रदूषित न करे !!

२५/०४/२०१०.
यह ठीक नहीं कि
बदले माहौल में ,
हम पाला बदल कर
कर दें आत्म समर्पण ,
यह तो कायरता है।
अपना पक्ष जरूर साफ़ करें ,
पर खुद को दिग्भ्रमित न करें।

बिना वज़ह का विरोध ठीक नहीं,
अच्छा रहेगा कि हम खुद में सुधार करें।
अपनी दशा और दिशा को
अपने स्वार्थों से ऊपर उठाकर
निज की जीवन शैली को समय रहते
परिवर्तित कर और प्रतिस्पर्धी बनकर
स्वयं को परिष्कृत करें,
जीवन में ज़्यादा देर न रुके रहकर  
जीवन पथ पर अपनी संवेदना को बढ़ाकर
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करें।
हम अहंकार और दुराग्रह से पोषित होकर
जीवन की शुचिता का कभी तिरस्कार न करें ।
हम जीवन की शिक्षा को भीतर तक आत्मसात करें।
०१/०१/२०२५.
समय को किसने देखा ?
समय दिखता नहीं ,
पर इसे किया जा सकता है महसूस।
रेत पर पड़ जाते हैं
पाँवों के निशान
और उन का अनुसरण करते हुए
पहुँचा जा सकता है
एक नतीजे पर ,
एक मंज़िल पर ,
किया जा सकता है एक सफ़र
सिफ़र होने तक।
यह सब समय रेखा तक
पहुँचने की
हो सकती है एक कोशिश ,
जिसमें छिप जाए
कभी कभी  
समय को जानने पहचानने की कशिश।

हर आदमी ,देश,दुनिया, समाज, घटना,दुर्घटना,
और बहुत कुछ
जुड़ी हुई है
समय रेखा से।
इसे देश धर्म के विकास और पतन के केन्द्र में
किया जा सकता है
विवेचित और व्याख्यायित।
समय चेतना , समायोचित क़दम बढ़ाना है।
और समयरेखा निर्मित करना समय को
समझने बुझने का एक सुंदर पैमाना है।
०७/०१/२०२५.
45 · Jan 21
कुछ लोग
यहाँ वहाँ सब जगह
कुछ लोग
अपनी बात
बेबाकी से रख
आग में घी
डालने का काम
बहुत सफाई से करते हैं।
ऐसे लोग
प्रायः सभी जगह मिलते हैं!
लोग भी
इनकी बातों का समर्थन
बढ़ चढ़ कर करते हैं।

उनके लिए
लोग बेशक
लड़ते झगड़ते रहें ,
पर वे अपनी बात पर
डटे रहते हैं!
ऐसे लोग
प्रायः जनता जर्नादन के
प्रिय बने रहते हैं!
कुछ लोग
बड़े प्यार और सहानुभूति से
दुखती रग को
सहला कर
सोए दुःख को जगा कर
अपने को अलग कर लेते हैं !
वे अच्छे और सच्चे बने रहते हैं !
उन्हें देख समझ कर
आईना भी शर्मिंदा हो जाता है,
परंतु कुछ लोग सहज ही
इस राह पर चल कर
दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते हैं।
वे आँखों का तारा बने चमकते रहते हैं।

कुछ लोग
बात ही बात में
अपना उल्लू सीधा कर जाते हैं।
जब तक हकीकत सामने आती है,
वे सर्वस्व हड़प जाते हैं ,
चुपके से अराजकता फैला जाते हैं।
वे मुश्किल से व्यवस्था के काबू में आते हैं।

कुछ लोग
किसी असाध्य रोग से
कम नहीं होते हैं,
आजकल उनकी गिनती बढ़ती जा रही है,
व्यवस्था उनके चंगुल में फंसती जा रही है।
फिर कैसे जिन्दगी आगे बढ़े ?
या वह उन दबंगों से मतवातर डरती रहे ।
इस बाबत आप भी कभी अपने विचार प्रकट करें।
२१/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी
सपनों की स्याही
उत्तरी भी न थी
कि खुल गई नींद ।


फिर क्या था
चाहकर भी
जल्दी सो न पाया ,
मैं खुद को
जागने वालों ,
जगाने वाले दोस्तों की
सोहबत में पाया ।
सच !  जीवन का लुत्फ़ आया ।
अपने इस जीवन को
एक सपन राग सा पाया ।
अपने इर्द गिर्द की
दुनिया को
मायाजाल में  उलझते पाया ।

वैसे दुनिया
यदि जाग रही हो
तो उतार देती है
जल्दी ही
सपनों की खुमारी से स्याही !
चहुं ओर दिखने लगती तबाही !!

दुनिया जगाती रहे तो...
कर देती है हमें सतर्क ,
फिर उसके आगे नहीं चलते कुतर्क ।
यह दुनिया तर्क वितर्क से चालित है ।
वह सपने लेने वालों को
ज़िंदगी की हक़ीक़त के
रूबरू कराती है ।
दुनिया सभी में
कुछ करने की जुस्तजू जगाती है ।
वह आदमी को, आदमी बनाती है ।
उसमें संघर्ष की खातिर जोश भर जाती है।
यही नहीं दुनिया कभी-कभी
आदमी के सपनों में रंग भर जाती है ।

१२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
आज सड़क पर
जीवन के रंग मंच पर
जिंदाबाद मुर्दाबाद की नारेबाजी
सुनकर लगता है,
अब कर रही है
जांबाज़ों की फ़ौज ,
अपने ही देश के
ठगों, डाकुओं, लुटेरों के ख़िलाफ़ ,
अपनी आखिरी जंग
लड़ने की तैयारी।

पर
मन में एक आशंका है,
भीतर तक
डर लगता है ,
कहीं सत्ता के बाजीगरों
और देश के गद्दारों का
आपस में  न हो जाए गठजोड़ ।

और और देश में होने लगे
व्यापक स्तर पर तोड़-फोड़।
कहीं चोर रास्ते से हुई उठा पटक
कर न दे विफल ,
हकों की खातिर होने वाली
जन संघर्षों और जन क्रान्ति को।
कहीं
सुनने न पड़ें
ये शब्द  कि...,
' जांबाज़ों ने जीती बाज़ी,
आंतरिक कलह ,
क्लेश की वज़ह से
आखिरी पड़ाव में
पहुंच कर हारी।'

देश मेरे , यह कैसी लाचारी है?
जनता ने आज
जीती बाजी हारी है ।
इस जनतंत्र में बेशक जनता कभी-कभी
जनता जनार्दन कहलाती है, ... लोकतंत्र की रीढ़ !
पर आज जनता 'अलोक तंत्र' का होकर शिकार ,
रही है अपनी अपनी जिंदगी को किसी तरह से घसीट।
अब जनता दे रही है  दिखाई, एकदम निरीह और असहाय।
महानगर की सड़कों पर भटकती,
लूट खसोट , बलात्कार, अन्याय से पीड़ित ,
एक पगली  सी होकर , शोषण का शिकार।

देश उठो, अपना विरोध दर्ज करो ।
समय रहते अपने फ़र्ज़ पूरे करो।
ना कि निष्क्रिय रहकर, एक मर्ज  सरीखे दिखो।
अपने ही घर में निर्वासित जिंदगी बिता रहे
अपने  नागरिकों के भीतर
नई उमंग तरंग, उत्साह, जोश , जिजीविषा भरो।
उन्हें संघर्षों और क्रांति पथ पर
आगे बढ़ने हेतु तैयार करो।  
  २६/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
हो  सके
तो  विवाद  से  बच
ताकि
झुलसे  न  कभी
अंतर्सच ।

यदि
यह  घटित  हुआ
तो  निस्संदेह  समझ
जीवन  कलश  छलक  गया  !
जीवन  कलह से  ठगा गया  !

हो  सके
तो  जीवन  से   संवाद   रच  ,
ताकि   जीवन  में  बचा  रहे   सच  ।
प्राप्त होता रहे  सभी को  यश ....न  कि  अपयश  !

    २९/११/२००९.
हमने अज्ञानता वश
कर दी है एक भारी भरकम भूल ,
जिस भूल ने
जाने अनजाने
चटा दी है बड़े बड़ों को धूल
और जो बनकर शूल
सबको मतवातर
बेचारगी का अहसास
करवा रही है ,
अंदर ही अंदर
हम सब को
कमजोर
करती जा रही है।

हमने
लोग क्या कहेंगे ,
जैसी क्षुद्रता में फंसे रहकर
जीवन के सच को
छुपा कर रखा हुआ है ,
अपने भीतर
अनिष्ट होने के डर को भर
स्वयं को
सहज होने से
रोक रखा है।
यही असहजता
हमें भटकाती रही है ,
दर दर की ठोकरें खाने को
करती रही है बाध्य ,
जीवन के सच को
छुपाना
सब पर भारी पड़ गया है !
यह बन गया है
एक रोग असाध्य !!
आदमी
आजतक हर पल
सच को झूठलाने की
व्यर्थ की दौड़ धूप
करता रहा है ,
वह
स्वयं को छलता रहा है ,
निज चेतना को
छलनी छलनी कर रहा है !
स्व दृष्टि में
गया गुजरा बना हुआ सा
इधर उधर डोल रहा है ,
चाहकर भी
मन की घुंडी खोल
नहीं  रहा है ,
वह
एक बेबस और बेचारगी भरा
जीवन बिता रहा है ,
और
अपने भीतर पछतावा
भरता जा रहा है।
अतः
यह जरूरी है कि वह
जीवन के
सच को  
बेझिझक
बेरोक टोक
स्वीकार करे ,
जीवन में छुपने छुपाने का खेल
खेलने से गुरेज करे।
वह
इर्द गिर्द फैली
जीवन की खुली किताब को
रहस्यमय बनाने से परहेज़ करे।
इसे सीधी-सादी ही रहने दे।
इसे अनावृत्त ही रहने दे।
ताकि
सब सरल हृदय बने रह कर
इसे पढ़ सकें ,
जीवन पथ पर
आगे बढ़ सकें।
आओ , इस की खातिर
सब चिंतन मनन करें।
जीवन में कुछ भी छिपाना ठीक नहीं,
ताकि हम अपनी नीयत को रख सकें सही।
०१/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
ਪ੍ਰੇਮ ਨੂੰ ਸਮਝਣਾ,
ਉਸ ਵਿੱਚੋਂ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਖੋਜਣਾ,
ਤੇ ਸੰਵੇਦਨਾ ਨੂੰ ਜਗਾ ਪਾਉਨਾ,
ਫੇਰ ਇੱਕ ਜਾਦੂ ਭਰੇ ਸਪਰਸ਼ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਣਾ
ਪੈਰਾਂ ਤੋਂ ਸਿਰ ਤੱਕ
ਤਨ ਮਨ ਦਾ ਰੰਗਿਆ ਜਾਣਾ
ਆਸਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿਆ।


ਪ੍ਰੇਮ ਦੇ ਅਹਿਸਾਸਾਂ ਦੀ
ਪੜਚੋਲ ਕਰਨਾ
ਉਸ ਵਿੱਚੋਂ ਮੌਤ ਦੀ ਗੰਧ ਨੂੰ ਲੱਭਣਾ
ਚਾਹੁੰਦੇ ਹੋਇਆ ਵੀ
ਤਨ ਮਨ ਦੀ ਹਲਚਲਾਂ ਦਾ
ਅਣਗੋਲਿਆਂ ਤੇ ਅਣਕਿਹਾ ਰਹਿ ਜਾਣਾ
ਕਿਸੇ ਖੁਰਦਰੇ ਅਹਿਸਾਸ ਵਰਗਾ
ਹੁੰਦਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿਆ।


ਤੁਸੀਂ ਪ੍ਰੇਮ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਿਆ ਕਰੋ।
ਹਰ ਵੇਲੇ ਨਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਤੋਂ ਡਰਿਆ ਕਰੋ।
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀ ਜਗ੍ਹਾ ਬਣਾ ਲਵੇਗਾ।
ਸੁੱਤੇ ਹੋਏ ਅਹਿਸਾਸਾਂ ਨੂੰ ਜਗਾ ਦੇਵੇਗਾ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਭਟਕਦਿਆਂ ਹੋਈ
ਮਿਲੀ ਨਫਰਤ ਨੂੰ ਮਿਟਾ ਦੇਵੇਗਾ।
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਰਹਿਣ ਯੋਗ ਬਣਾ ਦੇਵੇਗਾ।

22/09/2008.
Joginder Singh Nov 2024
बाप   कैसा भी हो,
बच्चा   करता है उसे पर विश्वास
वह किसी भी हद तक जाकर
बिना झिझक देता है मन की बात बता।
एक झलक प्यारे पापा की देख
अपना दुख देता दक्षिण भुला ,
पापा के प्यार को अनुभूत कर
बहादुर देता है दिखला।



मां।   कैसी भी हो
बच्ची करती है उसे पर विश्वास
वह किसी भी हद तक जाकर
बिना झिझक देती है मन की बात बता ।
प्यारी मम्मी का स्पर्श कर महसूस
अपनी उदासी को  देती है भुला ।
अभाव तक को देती है बिसरा ।



परंतु
समय की आंधी के आगे
किसकी चल?
अचानक अप्रत्याशित आकर वह
छीन लेती है कभी
मां-बाप की ठंडी छाया बच्चों से ।


सच ! उसे समय
जीवन होता प्रतीत
क्रूर व हृदय विहीन बच्चों को !


समय की मरहम
सब कुछ देती है भूल बिसरा ,
जीवन के घेरों में  ,चलना देती सीखा ।




समय की चाल के साथ-साथ
बच्चे धीरे-धीरे होते जाते हैं बड़े
मैं ढूंढना शुरू कर देते हैं
ममत्व भरी मां की छाया ,
सघन घने वृक्ष सा ‌बाप का साया ,
आसपास के समाज में विचरते हुए,
पड़ोसी और पड़ोसिनों से सुख,
सुरक्षा के अहसास की आस !
पर बहुत कम दफा मिल पाता है,
अभाव ग्रस्त बच्चों को , समाज से,
बिछुड़ चुके बचपन का दुर्लभ प्यार ,
पर उन्हें हर दर से ही मिलता
कसक , घृणा और तिरस्कार।


यह जीवन का सत्य है,
और जीवन धारा का कथ्य है ।
बच्चा     बड़े होने तक भी ,
बच्ची      बड़ी होने पर भी ,
सतत्...बिना रुके...
अविराम...निरन्तर ... लगातार...
ढूंढ़ते रहते हैं -- बचपन से बिछुड़े  सुख !
पर... अक्सर... प्रायः...
सांझ से प्रातः काल तक
सपनों की दुनिया तक में
सतत् मिलते रहते हैं दुःख ही दुःख!
जीवन में हर पल बढ़ती ही जाती है
सुख ढूंढ़ पाने की भूख ।
पर ...
एक दिन
बच्चों के सिर से
ढल जाती है समय की धूप।
वे जिंदगी भर  
पड़ोसी पड़ोसिनों में खोये
रिश्तों को ढूंढ़ते रह जाते हैं, पर
मां की ममता
और पिता के सुरक्षित साये से
ये बच्चे  वंचित ही रहते है,
लगातार अकेलेपन के दंश सहते हैं।


कुदरत इनकी कसक को करना चाहती है दूर।
अतः वह एक स्वप्निल दुनिया में ले जाकर
करती रहती है इन बच्चों की कसक और तड़प को शांत।


उधर उनके दिवंगत मां बाप
बिछड़ने के बावजूद चाहते सदैव उनका भला।
सो वे स्मृतिलीन
आत्माएं
अपने बच्चों के सपनों में
बार-बार आकर देखतीं हैं संदेश कि
तुम अकेले नहीं हो, बच्चो!
हम सदैव तुम्हारे आजू बाजू रहती आईं हैं।
अतः डरने की ज़रूरत नहीं है ।
जीवन सदैव सतत रहता है चलायमान।
हमारे विश्राम लेने से मत होना कभी उदास।
समय-समय पर
तुम्हारी हताशा और निराशा को
करने समाप्त
हम तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए
सदैव तुम्हारे सपनों में आती रहेंगी।
तुम्हें समय-समय पर संकटों से बचाती रहेंगी।


बच्चे बच्चे अपने मां-बाप को
स्वप्न की अवस्था में देखकर हो जाते पुलकित,
वे स्वयं को महसूसते सुरक्षित ।


बच्चो ,
ढलती धूप के साए भी
अंधेरा होने पर
जीव जगत के सोने पर
स्वप्न का हिस्सा बनकर
बच्चों को
तसल्ली व उत्साह देने के निमित्त
स्वपन में बिना कोई आवाज़ किए
आज उपस्थित होते हैं
बच्चों के सम्मुख
अनुभूति बनकर।


सच ! सचमुच ही!!
जीवन खिलखिलाता हुआ
बच्चों की नींद में
उन्हें स्वप्निल अवस्था में ले जाता हुआ
हो जाता है उपस्थित।
यह उनके मनों में
खिलती धूप का संदेश लेकर !
जीवन में उजास बनकर !
आशा के दीप बनकर !
प्यार के सूरज का उजास होकर!!
उनसे बतियाने लगता है,
मुझे लड़ दुलार करने लगता है।
सच ! ऐसे में...
सोए बच्चों के चेहरे पर
स्वत: जाती है मुस्कान तैर !
अभाव की कसक जाती धुल !!
दिवंगत मां-बाप के साए भी
लौट जाते अपने लोक में
संतुष्ट होकर। ब्रह्मलीन ।
यह सब घटनाक्रम ,देख और महसूस।
प्रकृति भी भर जाती सुख संतोष के अहसास से।
वह निरंतर देखा करती है
ऐसी अनगिनत कथा यात्राओं का बनना ,बिगड़ना
हमारे आसपास से।
वह कहती कुछ नहीं,
मैं देखना चाहती सबको सही।
२८/०९/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
आज
आदमी ने
अपने भीतर
गुस्सा
इस हद तक
भर लिया है कि
वह बात बेबात पर
असहिष्णु बनकर
मरने और मारने पर
हो जाता है उतारू ,
उसकी यह मनोदशा
आदमी को भटका रही है।
निरंतर उसे बीमार बना ‌रही है।
Joginder Singh Dec 2024
देश दुनिया में से
ग़रीबी
तब तक
नहीं हटेगी ,
जब तक
खुद मुफलिसी से
जूझने वाले
नहीं चाहेंगे ।
वे अपने भीतर
इससे लड़ने का साहस नहीं
जुटायेंगे ।
तभी देश दुनिया
ग़रीबी उन्मूलन अभियान
चला पायेंगे।
वैसे हमारे समय का
कड़वा सच है कि
यदि देश दुनिया में ग़रीबी न रहेगी
तो बहुत से
तथाकथित सभ्य समाजों में
खलबली मच जाएगी ,
उनकी तमाम गतिविधियों पर
रोक लग जाएगी।
सच कहूं तो
दुनिया
जो सरहदों में बंटी हुई है
वह एकीकृत होती नज़र आयेगी।
सब लोगों में
आत्मिक विकास एवं आंतरिक शांति की
ललक बढ़ जाएगी।
देश दुनिया सुख समृद्धि संपन्नता सौहार्दपूर्ण माहौल में
अपने को जागृत करती हुई नजर आएंगी।
ज़ंग की चाहत और आकांक्षा पर
पूर्ण रूपेण रोक लग जाएगी।
यह असम्भव दिवास्वप्न नहीं,
इस ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में
सभी एक एक करके बढ़ें तो सही।
२९/१२/२०२४.
44 · Nov 2024
पथ की खोज
Joginder Singh Nov 2024
यह सच है कि
घड़ी की टिक टिक के साथ
कभी ना दौड़  सका,
बीच रास्ते हांफने लगा।

सच है यह भी कि
अपनी सफलता को लेकर
रहा सदा मैं
आशंकित,
अब केवल बचा रह गया है भीतर मेरे
लोभ ,लालच, मद और अहंकार ।
हर पल रहता हूं
छल कपट करने को आतुर ।
किस विधि करूं मैं अंकित ,
मन के भीतर व्यापे भावों के समुद्र को
कागज़,या फिर कैनवास पर?
फिलहाल मेरे
दिल और दिमाग में
धुंध सा छाया हुआ है डर ,
यह बना हुआ
आजकल
मेरे सम्मुख आतंक ।
मन के भीतर व्यापे अंधेरे ने
मुझे एक धुंधलके में  ला खड़ा किया है।
यह मुझे मतवातर करता है
भटकने को हरदम विवश !
फल स्वरूप
हूं जीवन पथ पर
क़दम दर कदम
हैरान और परेशान !!

कैसे, कब और कहां मिलेगी मुझे मंजिल ?

कभी-कभी
थक हारकर
मैं सोचता हूं कि
मेरा घर से बेघर होना ,
ख़ानाबदोश सा भटकना ही
क्या मेरा सच है?
आखिर कब मिलेगा मुझे
आत्मविश्वास से भरपूर ,एक सुरक्षा कवच ,
जो बने कभी
मुक्तिपथ का साथी
इसे खोजने में मैंने
अपनी उम्र बिता दी।
मुझे अपने जीवन के अनुरूप
मुक्तिपथ चाहिए
और चाहिए जीवन में परमात्मा का आशीर्वाद ,
ताकि और अधिक जीवन की भटकन में
ना मिले
अब पश्चाताप और संताप।
मैं खोज लूं जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए ,
सुख और सुकून के दो पल,
संवार सकूं अपना वर्तमान और कल।
मिलती रहे मुझे जीवन में
आगे बढ़ने की शक्ति और आंतरिक बल।
०६/०१/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
पुत्र!

तुम्हारा  विकास

मेरे  सम्मुख  है   खास  ,

तुम   कल   तक   थे   बीज  ,

आज   बनने   को   हो   उद्यत  ,

एक   लम्बा   चौड़ा  ,   कद्दावर  ,

छायादार   ,   फलदार   वृक्ष   बनकर  ।

तुम   अपनी   व्यथा  -   कथा   कहो   ।

मैं   इसे   ध्यान   से   सुनूंगा   ।

बस   बीच  -  बीच   में

आवश्यकता   अनुसार   टिप्पणियां   करूंगा   ।

मैं   तुम्हारी   हैसियत   से   कतई   नहीं   डरूंगा  ।

तुम्हारा  ,

जनक  ।

२३/०६/२००५.
रिश्ते निभाना सीखते हुए ,
जीवन जाता है बीत।
यह सब को
बहुत
देर में समझ
आते आते आता है,
जीवन का सुनहरी दौर
अति तीव्रता से
जाता बीत।
आदमी
खाली हाथ
मलता रह जाता है ,
वह पछताता हुआ
मन मसोस
कर रह
जाता
है , 
आओ
हम रिश्ते
निभाने की
दिशा में सतर्क
रहते हुए
इस पथ पर आगे बढ़ें।
रिश्तों को न ढोएं ,
बल्कि इसमें
प्यार और दुलार भरें।
इसके लिए
भीतर लगाव के
साथ  जीवन को जीने का
आगाज़ करें,
कभी भी
न लड़ें
अपनी बात
खुलकर कहें
और अपने इर्द-गिर्द
व्याप्त स्वार्थ की
अंधी दौड़ से  
बचें।
हमेशा सच की
राह पर चलें
ताकि  
बुराई से
बच सकें।
अपने भीतर
सुरक्षा,
सुख चैन का अहसास
भरपूर मात्रा में
भर सकें।
निडर बन सकें,
धीरे-धीरे धीरज धरें,
शांत मना बन सकें।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
44 · Nov 2024
Protest
Joginder Singh Nov 2024
In a brutal and barbarous world,raising a banner to protest is not so easy as it seems to some of us.

It needs courage.
Without it,our identity merged into nothingness .
So show your support for protest against cruelty, exploitation,discrimination ,
in a gentle way.
All of us want to see the rays of hope during these dark days of present life.
Always raise your banners to protest in such a manner that anarchists can't make access to us.

We have civil rights to protest.
Protests always protect rights .
43 · Dec 2024
परीक्षा
Joginder Singh Dec 2024
सफलता का इंतज़ार
किसी परीक्षा से कम नहीं है।
बड़ी मुश्किल से मुद्दतों इंतज़ार के बाद
सफल कहलाने की घड़ी आती है।
परीक्षा देते देते उम्र बीत जाती है।
०७/१२/२०२४.
43 · Nov 2024
पतन
Joginder Singh Nov 2024
एक पत्ता
पेड़ से गिरा ही था कि
मुझे हुआ अहसास,
कोई अपना पता भूल गया है,
उसे तो सृजनहार से मिलने जाना था।
जाने अनजाने ही!
शायद गिरने के बहाने से ही!!

सोचता हूं...
वो कैसे
उस सृजनहार को
अपना मुख दिखला पाएगा।
कहीं वह भी तो नहीं
डाल से गिरे पत्ते जैसा हो जाएगा।
कभी मूल तक न पहुंच पाएगा।
१४/०५/२०२०.
43 · Nov 2024
मर्यादा
Joginder Singh Nov 2024
मर्यादा
माया से डरे नहीं
बल्कि
वह अपनी सीमा से बंधी रहे।
कुछ ऐसा
तुम पार्थ करो,
सार्थक जीवन के लिए
जन जन के
प्रेरक बनो ।
कहे है इतिहास सभी से
कृष्ण सा चेतना पुंज बनो।
जीवन युद्ध के संघर्षों में  
शत्रुहंता होने के निमित्त
धनुष पर राम बाण से होकर तनो ।
जीवन के वर्चस्व को  
राष्ट्र प्रथम के सिद्धांत की तरह चुनो।
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
जीवन के मोह में पड़कर
अनियंत्रित हो जाता हूं ,
अपने आप पर काबू खोकर ,
अराजक होकर ,
एक भंवर में खो सा जाता हूं
और  
खुद की
निगाहों में ,
एक कायर
लगने लगता हूं ,
ऐसे में
एक हूक सी उठती है हृदय से
कुछ न कर पाने की ,
अच्छी खासी ज़िंदगी के
बोझ बन जाने की ,
खुद ‌को  न समझ पाने की ।

अचानक
अप्रत्याशित
उपेक्षित
अनपेक्षित घटनाक्रम की
करने लगता हूं
इंतज़ार ,
कभी तो पड़ेगी
समय की गर्द से सनी
मैली हुई देह पर
चेतना के बादल से
निस्सृत
कोई बौछार
मन की मैल धोती हुई ,
जीवन की मलिनता को
निर्मल करती हुई।
मन के भीतर से
कभी कभी सुन पड़ती है
अंतर्मन की आवाज़
जो रह रहकर
अंतर्मंथन की प्रेरणा देती है,
स्वयं से
अंतर्साक्षात्कार ‌के लिए
करती है धीरे धीरे तैयार।
स्वयं पर
नियंत्रण रखने को कहती है।
यह अंतर्ध्वनि
जीवन पथ
सतत् प्रशस्त होते रहने का
देती है आश्वासन।
फिर यह अचानक से अंतर्ध्यान हो जाती है
और वैयक्तिक सोच को
ज़मीनी हक़ीक़त की सच्चाई से
जोड़ जाती है।
सच! इस समय
इंसान को
अपने जीवन की
अर्थवत्ता
समझ में आ जाती है।
उसकी समझ यकायक बढ़ जाती है।
०९/१२/२०२४.
संवाद के
अभाव में
झेलना पड़ता है
संताप।
इस बाबत
क्या कहेंगे आप ?
आप मौन रहेंगे
या खुल कर
मन की बात कहेंगे
या फिर तटस्थ
बने रहेंगे।

संवादहीन रहकर
तनाव को झेलते रहेंगे।

आप मुखर होकर
सब के सामने रखें
मन की बात।
करना न पड़े
किसी को मतवातर
मनो मस्तिष्क को
खोखला करता हुआ
तनाव निर्मित दबाव ,
आत्मघात के लिए
होना न पड़े
किसी को बाध्य ,
बेशक संवाद रचना
अहंकार जनित आडंबर के दौर में
हो चुका है कष्ट साध्य।

मतभेद और मनभेद
भुलाकर
संवाद रचने का
करते रहिए
जीवनपर्यंत प्रयास
ताकि उड़ा न पाए
कोई कमअक्ल उपहास।
और...हां... छोड़िए अब
जीवन में करना
व्यर्थ का वाद विवाद
कायम किया जा सके
सार्थकतापूर्ण संवाद ही नहीं,
अंतर्संवाद भी बेहिचक , ख़ुशी ख़ुशी।
०१/०१/२०२५.
आदमी का दंभ
जब कभी कभी
अपनी सीमा लांघ जाता है,
तब वह विद्रूपता का
अहसास कराता है,
यह न केवल उसे जीवन में
भटकने को बाध्य करता है,
बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से
किसी हद तक बेदखल कर देता है।
यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर
अकेला करता चला जाता है,
आदमी दहशतज़दा होता रहता है।
वह अपना दर्द भी
कभी किसी के सम्मुख
ढंग से नहीं रख पाता है।

कोई नहीं होना चाहता
अपने जीवन में
विद्रूपता के दंश का शिकार,
पर अज्ञानता के कारण
जीवन के सच को जान न पाने से,
अपने विवेक को लेकर
संशय से घिरा होने की वज़ह से  
वह समय रहते जीवन में
ले नहीं पाता कोई निर्णय
जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए ,
उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए ,
उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।

विद्रूपता का दंश
आदमी की संवेदना को
लील लेता है,
यह उसे क्रूरता के पाश में
जकड़ लेता है,
आदमी दंभी होकर
एक सीमित दायरे में
सिमट जाता है ,
फलत: वह अपने मूल से
कटता जाता है ,
अपनी संभावना के क्षितिज
खोज नहीं पाता है !
दिन रात भीतर ही भीतर
न केवल
हरपल कराहता रहता है,
बल्कि वह अंतर्मन को
आहत भी कर जाता है।
उसका जीवन तनावयुक्त
बनता जाता है ,
वह शांत नहीं रह पाता है !
असमय कुम्हला कर रह जाता है !!
२८/०१/२०२५.
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