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संवाद के
अभाव में
झेलना पड़ता है
संताप।
इस बाबत
क्या कहेंगे आप ?
आप मौन रहेंगे
या खुल कर
मन की बात कहेंगे
या फिर तटस्थ
बने रहेंगे।

संवादहीन रहकर
तनाव को झेलते रहेंगे।

आप मुखर होकर
सब के सामने रखें
मन की बात।
करना न पड़े
किसी को मतवातर
मनो मस्तिष्क को
खोखला करता हुआ
तनाव निर्मित दबाव ,
आत्मघात के लिए
होना न पड़े
किसी को बाध्य ,
बेशक संवाद रचना
अहंकार जनित आडंबर के दौर में
हो चुका है कष्ट साध्य।

मतभेद और मनभेद
भुलाकर
संवाद रचने का
करते रहिए
जीवनपर्यंत प्रयास
ताकि उड़ा न पाए
कोई कमअक्ल उपहास।
और...हां... छोड़िए अब
जीवन में करना
व्यर्थ का वाद विवाद
कायम किया जा सके
सार्थकतापूर्ण संवाद ही नहीं,
अंतर्संवाद भी बेहिचक , ख़ुशी ख़ुशी।
०१/०१/२०२५.
43 · Nov 2024
चोट
Joginder Singh Nov 2024
ज़िंदगी के सफर में
ठोकर लग गई,फलत: चोट लगी।
बेहिसाब दर्द है,रोओ मत,
जीवन धारा के भंवर में
स्वयं को खोओ मत।
ठोकरें और चोटें
जीवन जीने की सीख देती हैं।
जीवन की बहती धारा को बदल देती हैं।
बस! ये तो प्यार, विश्वास,हमदर्दी की मरहम मांगतीं हैं।
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
जीवन के मोह में पड़कर
अनियंत्रित हो जाता हूं ,
अपने आप पर काबू खोकर ,
अराजक होकर ,
एक भंवर में खो सा जाता हूं
और  
खुद की
निगाहों में ,
एक कायर
लगने लगता हूं ,
ऐसे में
एक हूक सी उठती है हृदय से
कुछ न कर पाने की ,
अच्छी खासी ज़िंदगी के
बोझ बन जाने की ,
खुद ‌को  न समझ पाने की ।

अचानक
अप्रत्याशित
उपेक्षित
अनपेक्षित घटनाक्रम की
करने लगता हूं
इंतज़ार ,
कभी तो पड़ेगी
समय की गर्द से सनी
मैली हुई देह पर
चेतना के बादल से
निस्सृत
कोई बौछार
मन की मैल धोती हुई ,
जीवन की मलिनता को
निर्मल करती हुई।
मन के भीतर से
कभी कभी सुन पड़ती है
अंतर्मन की आवाज़
जो रह रहकर
अंतर्मंथन की प्रेरणा देती है,
स्वयं से
अंतर्साक्षात्कार ‌के लिए
करती है धीरे धीरे तैयार।
स्वयं पर
नियंत्रण रखने को कहती है।
यह अंतर्ध्वनि
जीवन पथ
सतत् प्रशस्त होते रहने का
देती है आश्वासन।
फिर यह अचानक से अंतर्ध्यान हो जाती है
और वैयक्तिक सोच को
ज़मीनी हक़ीक़त की सच्चाई से
जोड़ जाती है।
सच! इस समय
इंसान को
अपने जीवन की
अर्थवत्ता
समझ में आ जाती है।
उसकी समझ यकायक बढ़ जाती है।
०९/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कार्टूनिस्ट
कमाल के साथ रखते हैं
प्रखर करने वाला विचार ,
यह जीवन के किसी भी क्षेत्र से
जुड़ा हो सकता है समाजोपयोगी से लेकर
राजनीतिक परिवर्तन तक।

अभी अभी
एक कार्टून ने
मेरे दिमाग से पूर्वाग्रह और दुराग्रह का
कचरा व कूड़ा कर्कट
कर दिया है साफ़ !

मुझे आम आदमी की
बेवजह से की गई
जद्दोजहद और कश्मकश
और
समान हालात में
नेतृत्वकर्ता के
लिए गये फैसले का बोध
कार्टून के माध्यम से
क्रिस्टल क्लियर हद तक
हुआ है स्पष्ट।

पशु को आगे बढ़ाने की
कोशिश में
आम आदमी ने
पशु को मारा , पीटा और लताड़ा ,
जबकि
नेतृत्वकर्ता ने
उसे चारे का लालच देकर ,
उसके सामने खाद्य सामग्री लटकाकर ,
उसे आगे बढ़ने के लिए
बड़ी आसानी से किया प्रोत्साहित।

इस एक कार्टून को देखकर
मुझे एक व्यंग्य चित्र का
आया था ध्यान ,
जो था कुछ इस प्रकार का, कि
भैंस को सूखा चारा खिलाने के निमित्त
ताकि कि उसका लग सके खाने में चित्त ।
भैंस की आंखों पर ,
हरे शीशों वाला चश्मा लगाया गया था।
इस चित्र और आज देखे कार्टून ने
मुझे इतना समझा दिया है कि
कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती ,
उसे हल करने की युक्ति
आदमी के मन मस्तिष्क में होनी चाहिए।

अब अचानक मुझे
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में
सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष द्वारा
जनसाधारण से
मुफ़्त की रेवड़ियां बांटने ,
लोक लुभावन नीतियों की बाबत
अथक प्रयास करने का सच
सहज ही समझ आ गया।
दोनों पक्षों का यह मानना है कि
हम करेंगे
अपने मतदाताओं से
मुफ़्त में
सुखसुविधा और "विटामिन एम " देने का वायदा !
ताकि मिल सके जीवन में सबको हलवा मांडा ज़्यादा !!
२९/१२/२०२४.
हमारे यहां
अज्ञान के अंधेरे को
बदतर
अंधा करने वाला
माना जाता है।
फिर भी
कितने लोग अपने भीतर
झांककर
उजास की
अनुभूति कर पाते हैं ?
बल्कि वे जीवन में
मतवातर
भटकते रहते हैं।
अचानक रोशनी जाने से
मैं अपने आस पास को ढंग से
देख नहीं पाया था,
फलत: मेरा सिर
दीवार से जा टकराया था।
कुछ समय तक
मैं लड़खड़ाया था,
बड़ी मुश्किल से
ख़ुद को संभाल पाया था।
बस इस छोटी सी चूक से
मुझे अंधेरा अंधा कर देता है ,
जैसा खयाल मनो मस्तिष्क में
कौंध गया था।
इस पल मैं सचमुच
चौंक गया था।
यह सच है कि
घुप अंधेरा सच में
आदमी की देखने की सामर्थ्य को
कम कर देता है।
वह अंधा होकर
अज्ञान की दीवार से
टकरा जाता है।
इस टकरा जाने पर
उठे दर्द से
वह चौकन्ना भी हो जाता है।
वह संभलने की कोशिश कर पाता है।
यकीनन एक दिन वह
गिरकर संभलना सीख जाता है।
वह अथक परिश्रम के बूते आगे बढ़ पाता है।
०७/०१/२०२५.
दोस्त!
अगले सप्ताह
आज के दिन
यानिकि
शुक्रवार अर्थात् जुम्मे को
बहुप्रतीक्षित
रंगों का त्योहार
होली है।
इस बार
हम सब होली खेलेंगे ,
मगर सलीके से !
पर्यावरण को ध्यान में
रखते हुए !
मानसिक शांति को
अपने मानस में
संभल संभल कर
धरते हुए !
ताकि फिर से
देश में संभल को
दोहराया न जा सके।
देश दुनिया के
सौहार्द पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित न किया जा सके।

होली सभी का त्योहार है ,
अच्छा रहेगा इसे सब मनाएं ,
पर यदि किसी को रंगे जाना
दिल ओ दिमाग से पसंद नहीं ,
उसे बिल्कुल न रंगा जाना होगा सही।
बाहर से भले ही हम रंगों से करें गुरेज़!
कोशिश करें हम भीतर से रंगे जाएं !
हरगिज़ हरगिज़ नहीं
हम जीवन में किसी को
रंगे सियार से नज़र आएं !
हम दिल से होली का त्योहार मनाएं ,
बेशक हम किसी को जबरन रंग न लगाएं।
रंग जीवन के चारों तरफ़ फैले हुए हैं ,
मन को हम पावन रखें ,
हम करतार के रंगों से रंगे हुए हैं।
स्व निर्मित अनुशासन से बंधे हुए हैं।
हमारे क़दम संस्कारों से सधे हुए हैं।
जीवन में हम सब जिद्दी न बने।
आज देश दुनिया अराजकता के मुहाने पर है।
बहुतों की अक्ल ठिकाने पर नहीं है ,
अतः सब होली की सद्भावना को चुनें ,
किसी के उकसावे में आकर कतई न लड़ें!
परस्पर तालमेल कायम करते हुए सब आगे बढ़ें।
०७/०३/२०२५.
कितना अच्छा हो
इस उतार चढ़ाव भरे दौर में
हम सब आगे बढ़ते रहें,
हमारे मन प्रदूषण से दूर रहें,
हम परस्पर सहयोग और सहानुभूति से रहें।

जब कभी भी
आदमी के भीतर
थोड़ा सा लोभ, काम,लालच,ईर्ष्या
घर करता है ,
वह जीवन पथ पर
रूकावटें खड़ी कर लेता है।
आदमी और आदमी के बीच
एक दीवार खड़ी हो जाती है ,
वह सब कुछ को
संदेह और शक के
घेरे में लेकर देखने लगता है।
उसके भीतर कुढ़न बढ़ जाती है।
कल तक जो रिश्ते
प्यार और सुरक्षा देते लगते थे
वे घुटन बढ़ाते होते हैं प्रतीत।
सब कुछ समाप्त होता हुआ लगता है ,
जिससे भीतर ही भीतर
डर भरता चला जाता है।
संबंध दरकने लगते हैं।

आओ हम सब अपना जीवन
ईमानदारी और पारदर्शिता से व्यतीत करें ,
ताकि संबंध बचे रहें,
सब निर्द्वंद रहकर
जीवन को गरिमा  
और सुखपूर्वक जीएं।
दीर्घायु होकर सात्विकता के साथ
जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न करें।
हम सब
संबंधों में जीवन की
खुशबू की अनुभूति कर सकें।
११/०४/२०२५.
आज के तेज रफ़्तार के
दौर में
अंदर व्यापे
अशांत करने वाले
शोर में
अचानक लगे
ट्रैफिक जाम में
धीरे धीरे
वाहनों का आगे बढ़ना
किसी को भी अखर सकता है ,
तेज़ रफ़्तार का आदी आदमी
अपना संयम खोकर
भड़क सकता है।
वह
अचानक
क्रोध में आकर
दुर्घटनाग्रस्त हो ,
जाने पर परेशान हो ,
तनावग्रस्त हो जाता है।
इस दयनीय अवस्था में
आज का आदमी
सचमुच
नरक तुल्य जीवन में फंसकर
अपना सुख चैन गंवा लेता है।
ऐसी मनोस्थिति में
वह क्या करे ?
वह कैसे अपने भीतर धैर्य भरे ?
वह कैसे संयमित होने का प्रयास करे ?
आओ इस बाबत
हम सब मिलकर विचार करें।

संयम के
अभाव में
धीमी गति
असह होती है ,
यह मन में
झुंझलाहट भरती है।
कभी कभी तो यह
आदमी को
बिना उद्देश्य से चलने वाली
एक ब्रेक फेल गाड़ी की तरह
व्यवहार करने को
बाध्य करती है ,
इस अवस्था में
आदमी की बुद्धि के कपाट
बंद हो जाते हैं ।
आदमी
लड़ने झगड़ने पर
आमादा हो जाते हैं।
अच्छी भली ज़िन्दगी में
गतिहीनता का अहसास
पहले से व्याप्त घुटन में
इज़ाफ़ा कर देता है।
आदमी
रुकी हुई जीवन स्थिति का
न चाहकर भी
बन जाता है शिकार!
वह कुंठित होकर
जाने अनजाने
बढ़ा लेता है
अपने भीतर व्यापे मनोविकार,
जिन्हें वह सफ़ाई से
छुपाता आया है,
वे सब मनोविकार
धीरे-धीरे
लड़ने झगड़ने की स्थिति में
होने लगते हैं प्रकट !
जीवन के आसपास
फैल जाता है कूड़ा कर्कट!
धीमी गति से
आज के तेज़ रफ़्तार
जीवन में
स्थितियां परिस्थितियां
बनतीं जाती हैं विकट !
विनाश काल भी
लगने लगता है अति निकट !!
कभी कभी
जीवन में धीमी गति
कछुए को विजेता
बना देती है।
परन्तु
जिसकी संभावना
आज के तेज़ तर्रार रफ़्तार भरे जीवन में
है बहुत कम।
तेज़ रफ़्तार जीवन
आदमी को
न चाहकर भी
बना देता है निर्मम!
और जीवन में व्याप्त  धीमी गति
आदमी को बेशक
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाती है!
यह निर्विवाद सब को
गंतव्य तक पहुंचाती है !
तेज़ रफ़्तार वाले युग का मानस
इस सच को कभी तो समझे !
वह जीवन में
धीमी गति होने के बावजूद
किसी से न उलझे !
बल्कि वह शांत चित्त होकर
अपनी अन्य समस्याओं को सुलझाए।
व्यर्थ ही जीवन को
और  ज़्यादा  उलझाता न जाए।
वह अपने क़दम धीरे धीरे आगे बढ़ाए।
ताकि जीवन में
सुख समृद्धि और शांति को तलाश पाए।
०३/०४/२०२५.
42 · Apr 20
संतुलन
कितना अच्छा हो
सब कुछ सन्तुलन में रहे।
कोई भी अपने आप को
असंतुलित न करे।
इसके लिए
सब अपने मूल को जानें,
भूल कर भी
अज्ञान को चेतना पर
हावी न होने दें।
सब कुछ स्वाभाविक गति से
अपने मंतव्य और गंतव्य की ओर बढ़ें।
सब शांत रहें।
शांति को अपने भीतर समेट
परम की बाबत
चिंतन मनन करें।
सब संत बन कर
सद्भावना से
अपने आस पास को प्रेरित करें।
वे ज्ञान की ज्योति को
सभी के भीतर जागृत करें।
वे सभी को समझाएं कि
इस धरा पर उपस्थित आत्माएं
सब दीप हैं।
सब अपने प्रयासों से
अपने भीतर ज्ञान  का प्रकाश भरें
ताकि अज्ञान जनित भय कुछ तो कम हो सके।
लोग अधिक देर तक सोये न रहें।
वे जागृत होकर सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
वे कण कण में परम की उपस्थिति को अनुभूत कर सकें।
वे अपना जीवन सार्थक कर सकें।
वे जीवन सत्य को जान सकें।
वे अपनी मूल पहचान से वंचित न रहें।
वे यथासमय अपनी शक्तियों और सामर्थ्य को संचित कर सकें।
वे संतुलित जीवन को जीना सीख सकें।
वे यह जीवन सत्य समझें कि
जीवन में
यदि संतुलन है
तो ही सुरक्षा है ,
अन्यथा फैल सकती
चहुं ओर अव्यवस्था है।
अराजकता कभी भी
जीवनचर्या को असंतुलित कर सकती है ,
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को लील सकती है।
यह शांति के मार्ग को अवरूद्ध कर सकती है।
यह आदमी को आदमी के विरुद्ध खड़ा कर सकती है।
अतः जीवन में संतुलन जरूरी है।
मनुष्य के जीवन में संयम अपरिहार्य है।
जो सबको स्वीकार्य होना चाहिए।
इसके लिए
सभी को अपना अहंकार भुलाकर
संत समाज से जुड़ना होगा
क्यों कि
संत संयमित जीवन को जीते हैं,
वे शांतमय मनोदशा में की निर्मिति करते हैं।
वे मनुष्य को उसकी स्वाभाविक परिणति तक ले जाने में सक्षम हैं।
वे संतुलित
जीवन दृष्टि को
स्पष्ट रूप से
अपनी कथनी और करनी से
एक करते हुए दिखलाते हैं ,
उसे व्यावहारिक बनाते हुए जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
२०/०४/२०२५.
आदमी की सोच
सच की खोज से
जुड़ी रहनी चाहिए।
इस दिशा में बढ़ने से
पहले उसे अपने भीतर
हिम्मत संचित करनी चाहिए।
आदमी अपनी सोच का दायरा
जितना हो सके , उतना बढ़ाए
ताकि कोई भी बाधा उसे
दुःख न पहुँचा पाए।
वह खुद को
एक दिन समझ पाए ,
जीवन पथ पर
निरन्तर बढ़ता जाए ,
हमेशा सच की
समझ भीतर विकसित कर पाए।
वह सोच समझ कर
जीवन के उतार चढ़ावों के संग
सामंजस्य स्थापित कर पाए।
उसकी सोच का दायरा
तंग दिली से
सतत बाहर उसे निकाल कर
उन्मुक्त गगन की सैर कराए।
१६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
शब्द
हमारे मित्र हैं।
ये हैं सक्षम ,
संवेदना को बेहतर बनाने में।
ये रखते
हरदम हम पर पैनी नज़र,  
मन में उपजे भावों को,
  परिमार्जित करते हुए।
ये क़दम क़दम पर
बनते हमारे रक्षक ,
जोड़ हमें जीवन के धरातल से ।
ये मन में जो कुछ भी चलता है,
उसकी पल पल की ख़बर रखते हैं,
साथ ही हमें प्रखर बनाते हैं।


अब मैं
एक काम की बात
बताना चाहता हूँ।
शब्द यदि जिंदा हैं
तो हम अस्तित्व मान हैं,
ये हमारा स्वाभिमान हैं।
  
जब शब्द रूठ जाते हैं,
हम ठूंठ सरीखे बन जाते हैं।
शब्द ब्रह्म की
यदि हम उपासना करें,
कुछ समय निकाल कर ,
इनकी साधना करें ,
तो  ये अनुभूति के शिखरों का
दर्शन कराते हैं,
हमें सतत परिवर्तित करते जाते हैं।

शब्द
हमें मिली हुईं
प्रकृति प्रदत्त शक्तियां हैं,
जो अभिव्यक्ति की खातिर  
सदैव जीवन धारा को जीवन्त बनाए रखतीं हैं।
आओ,  
आज हम इनकी उपासना करें।
ये देव विग्रहों से कम नहीं,
इनकी साधना से बुद्धि होती प्रखर,
अनुभव,जैसे जैसे मिलते जाते,
वे अंतर्मन में विराजते जाते,
भीतर उजास फैलाते जाते।
अपने शब्दों को  
अपशब्दों में कतई न बदलो।
यदि बदलना ही है,
तो खुद को बदलो ,
हमारी सोच बदल जाएगी,
हमें जीवन लक्ष्य के निकट लेती जाएगी।
आओ, बंधुवर,आओ,
आज
शब्दों में निहित
अर्थों के जादू से
स्वयं को परिचित कराया जाए।
और ज्यादा स्व सम्मोहन में जाने से
खुद को बचाया जाए।
पल प्रति पल
शब्दों की उपासना में
अपना ध्यान लगाया जाए
और जीवन को
उज्ज्वल  बनाया जाए,
अवगुणों को
आदत बनने से रोका जाए
ताकि आसपास
सकारात्मक सोच का विकास हो जाए,
संवेदना जीवन का संबल बन जाए।
Joginder Singh Nov 2024
हमें
जो संस्कार मिले हैं,
वे हमें सच से जोड़ते हैं,
झूठ से मुख मोड़ना बतलाते हैं।

हम
सच बोलने के आदी हैं
ना कि
ज़ुल्म ओ सितम के आगे
घुटने टेकने वाले
नैतिकता के अपराधी हैं।


हम तो बस फरियादी हैं।
जीवन के रस से पले बढ़े हैं!
जीवन संघर्षों में सीना तान खड़े हैं!!

हमें जो संस्कार मिले हैं,
उनसे हमें जीवनाधार मिला है।
इन संस्कारों ने हमें निर्मित किया है ,
और बतौर उपहार , हमारा व्यक्तित्व गढ़ा है।
  १४/०५/२०२०.
देश दुनिया और समाज
खूब तरक्की कर रहा है,
अच्छी बात है
परन्तु चिंतनीय है कि
चारों तरफ़
गन्दगी के ढेर बढ़ रहे हैं,
लोग बीमार होकर
असमय मर रहे हैं।
हमें मुगालता है कि
हम विकास कर रहे हैं।
यह कभी नहीं सोच पाते कि
भीतर तक सड़ रहे हैं,
घुट घुट कर मर रहे हैं।

यही नहीं
आसपास फैला
कूड़ा कर्कट कचरा,
स्वास्थ्य के लिए बना है खतरा।
इस ओर हम अक्सर दे नहीं पाते ध्यान,
जब कोई हमारी आवाज़ नहीं सुनता,
भीतर तक होते परेशान।
चाहते कोई तो करे ,
परेशानियों का समाधान।
आओ हम सब मिलकर
कूड़ा कर्कट प्रबंधन से जुड़ें
ताकि बची रहें
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की जड़ें,
सब सकारात्मक जीवन की ओर बढ़ें।

कूड़ा कर्कट प्रबंधन का
है एक सीधा सादा सरल तरीका,
हम अपनाएं जीवन में
सादगीपूर्ण जीवन जीने का सलीका।
हम कूड़ा कर्कट तत्क्षण समेट लें ,
कोई इसे आकर उठाएगा ,
आसपास साफ़ सुथरा बनाएगा।
हम करें न इसका इन्तज़ार,
हम स्वयं ही इसे यथास्थान पहुंचा दें।
यही नहीं, कूड़े कर्कट को भी उपयोगी बनाएं।
इसके लिए समुचित प्रोद्यौगिकी को अपनाएं।
इस सबसे बढ़कर हम
अपने मनोमस्तिष्क को
भूलकर भी कभी कूड़ा दान न बनाएं ,
ताकि आदमी को कचोटे न कभी कोई कमी।
हम सभी अपना ध्यान जीवन में
कूड़ा कर्कट प्रबंधन में लगाएं।
मतवातर
बढ़ता जा रहा
कूड़े कर्कट के ढेर
कभी जी का जंजाल न बन पाएं ,
आदमी कभी तो
सुख का सांस ले पाएं।
०१/०२/२०२५.
42 · Nov 2024
शरण स्थली
Joginder Singh Nov 2024
जैसे-जैसे
जीवन में
उत्तरोत्तर
बढ़ रही है समझ,
वैसे-वैसे
अपनी नासमझी पर
होता है
बेचारगी का
अहसास ।

सच कहूं ,
आदमी
कभी-कभी
रोना चाहता है ,
पर रो नहीं पाता है ।
वह अकेले में
नितांत अपने लिए
एक शरण स्थली
निर्मित करना चाहता है ।
जहां वह पछता सकें ,
जीवन की बाबत
चिंतन कर सके ,
अपने भीतर
साहस भर सकें ,
ताकि
जीवन में संघर्ष
कर सके।

शुक्र है कि
कभी-कभी
आदमी को
अपने ही घर में
एक उजड़ा कोना
नज़र आता है!
जहां आदमी
अपना ज़्यादा
समय बिताता है ।

शुक्र है कि
जीवन की
इस आपाधापी में
वह कोना अभी बचा है,
जहां
अपने होने का अहसास
जिंदगी की डोर से
टंगा है,
हर कोई
इस डोर से
बंधा है ।
शरण स्थली के
इस कोने में ही
सब सधा है।

आजकल यह कोना
मेरी शरण स्थली है,
और कर्म स्थली भी,
जहां बाहरी दुनिया से दूर
आदमी अपने लिए कुछ समय
निकाल सकता है,
जीवन की बाबत
सोच विचार कर सकता है,
स्वयं से संवाद रचा सकता है ।

२२/०२/२०१७.
आज जब देश दुनिया
अराजकता के मुहाने पर खड़ी है
एक समस्या मेरे जेहन में चिंता बनी हुई है।
सब लोग इतिहास को
फुटबाल बना कर अपने अपने ढंग से खेल रहे हैं।
सब धक्कामुक्की ,  जोर-जबरदस्ती कर
अपनी बात मनवाने में लगे हैं।
सब स्वयं को विजेता सिद्ध करना चाहते हैं।
अपना नैरेटिव गढ़ना चाहते हैं।
वे गड़े मुर्दे कब्रों से निकालना चाहते हैं।
ऐसे हालात में
एक पड़ोसी देश के मान्यनीय मंत्री महोदय ने
सच कह कर बवाल मचा दिया।
हंगामेदार शख़्सों को सुप्तावस्था से जगा दिया।
उन्होंने आक्रमणकारी महमूद गजनवी की
बाबत अपना नज़रिया बताया और
अपने वतनवासियों को चेताया कि
अब सच को छुपाया जाना नहीं चाहिए।
इस की बाबत यथार्थ को स्वीकारा जाना चाहिए।

इतना सुनते ही वहां बवाल हो गया।
इतिहास के बारे में अबूझ सवाल खड़ा हो गया।
इतिहास की अस्मिता के सामने अचानक
अप्रत्याशित रूप से एक प्रश्नचिह्न लगा देखा गया।
मैंने इस घटनाक्रम को लेकर सोचा कि
अब और अधिक देर नहीं होनी चाहिए।
इतिहास का सच जनता जनार्दन के सम्मुख आना चाहिए।
इतिहास के विशेषज्ञों और मर्मज्ञों द्वारा
उपेक्षित इतिहास बोध को पुनर्जीवित करने के निमित्त
इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना चाहिए
ताकि इतिहास अतीत का आईना बन सके।
इसके उजास से
अराजकता और उदासीनता को
घर आने से रोका जा सके।
सब अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकें।

आखिरकार सच का सूरज
बादलों के बीच से बाहर निकल ही आता है ,
जब संवेदनशील राजनेता
इतिहास की बाबत सच को उजागर कर देता है।
वह जाने अनजाने सबको भौंचक्का कर ही देता है।
इतिहास अब चिंतन मनन का विषय बन गया है।
यह जिज्ञासुओं के दिलों की धड़कन भी बन गया है।
इसके सच की अनुभूति कर गर्व से सीना तन गया है।
०२/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
मुस्कराते चेहरे पर
रह रह कर
टिक जाती है नज़र
पर
चेहरे के 'चेहरे' पर
जब सचमुच पड़ती नज़र,
तब हक़ीक़तन
उड़ती चेहरे की मुस्कान!
खोने लगती पहचान !!
मुख पर परेशानी की
लकीरें दिखने लगतीं ।
खूबसूरती बदसूरती में
बदलती है जाती ।
यह मन मस्तिष्क को
बदस्तूर बेंधने लगती।
पल प्रतिपल
ऐसी मनोदशा में
नींद में सेंध लगने लगती !
रातें बेचैनी भरी जाग कर कटतीं!!
दिन में रह रह कर नींद आने लगती!!!
काम करने की कुशलता भी है घटती जाती।
२१/१२/२०१६.
अनंत काल से
दुनिया का नक्शा
राजनीतिक हलचलों की
वज़ह से
बदला गया है
पर जमीन और समन्दर
दिशाएं कौन बदल पाया है ?
कोई सम्राट और विश्व विजेता तक !
सब उन्माद और अभिमान के कारण भटके हुए हैं।
इतिहास की पुस्तकों में अटके हुए हैं।

आज मुझे
अपनी बिटिया के लिए
चार्ट पर
दुनिया का नक्शा
बनाना पड़ा।
मैं उलझ कर रह गया।
दुनिया का नक्शा
मुझे बहुत कुछ कह गया।

देश, समन्दर और जमीन,
नदियां, झीलें, झरने ,
पहाड़, मैदान, मरूस्थल, पठार
सब नक्शे में दर्शाए जाते हैं,
कागज़ के ऊपर बनाए और मिटाए जाते हैं,
मज़ा तो तब है
जब उनकी निर्मिति को
दिल से समझा जाए,
उन्हें बचाया जाए।
उन्हें देखने के लिए  
देश और दुनिया भर में घूमा जाए।
ऐसा चुपके-चुपके
दुनिया के नक्शे ने  
मुझसे गुज़ारिश की ,
मैंने भी मौन रहकर
दुनिया घूमने और मतभेद भुलाने की
आंकाक्षा अपने भीतर भरी,
और चुपचाप
अहसास की दुनिया में बह गया।
सच! दुनिया का नक्शा
मुझसे बरबस संवाद रचा गया।
संवेदना को बचाने के लिए
मूक याचना कर गया।
मुझे चेतन कर गया।
०७/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तू जिंदगी की राह में
राहत क्यों ढूंढता ‌है?
तुम्हें उतार चढ़ाव से भरी
डगर पर चलना है।
आखिरकार लक्ष्य हासिल कर
मंज़िल तक पहुंचना है।
सकारात्मक सोचना है।
शोषण को भी रोकना है।
सच से नाता जोड़ना है।
निज अस्मिता को खोजना है।
ताकि मिले खोई हुई पहचान,
बना रहे जीवन में आत्मसम्मान।
हरेक की चाहत है कि
उसके जीवन में
कभी न रहे
कोई कमी।
उसे मयस्सर हों
सभी सुख सुविधाएं
कभी न कभी।
लेकिन जीवन यात्रा में
शराब की लत
आदत में
शुमार हो जाती है,
तब यह एक श्राप सी होकर
जोंक की तरह
आदमी का खून पीने के निमित्त
उसके वजूद से
लिपट जाती है।

यही नहीं
कभी कभी
शबाब भी उसकी
चेतना से लिपट जाता है,
उसे अपनी खूबसूरती पर
अभिमान हो जाता है,
उसे अपने सिवा कोई दूसरा
नज़र नहीं आता है,
वह औरों के वजूद को
कभी न कभी
नकारने लग जाता है,
आदमी की अकाल पर
पर्दा पड़ जाता है।
उसे हरपल मदिरा से भी
अधिक नशीला नशा भाता है,
वह शानोशौकत और आडंबर में
निरन्तर डूबता जाता है।
इस दौर में आदमी का
सौभाग्य
हरपल हरक़दम उसे
विशिष्टता का अहसास कराता है,
वह एक मायाजाल में फंसता चला जाता है।

शराब और शबाब
जिन्दगी का सत्य नहीं !
इस जैसा भ्रम
झूठ में भी नहीं !!
इस दौर के
आदमी का सच यह है कि
आज जीवन में
सच और झूठ
मायावी संसार को लपेटे
झीने झीने पर्दे हैं
जिनसे हमारे जीवनानुभव जुड़े हैं।
हम सब दुनिया के
मायावी बाज़ार में
लोभ और संपन्नता के आकर्षणों से
बंधे हुए निरीह अवस्था में खड़े हैं।
कभी कभी
अज्ञानतावश
हम आपस में ही लड़ पड़ते हैं,
अनायास जीवन में दुःख पैदा कर
जीवन यात्रा में जड़ता उत्पन्न कर देते हैं।
ये हमारे जीवन का
विरोधाभास है
जो हमें भटकाता रहा है,
अच्छी भली जिंदगी को
असहज बनाता रहा है।
इस मकड़जाल से बचना होगा।
कभी न कभी
नकारात्मकता छोड़
सकारात्मकता से जुड़ना होगा।
हमें जीवन ऊर्जा को संचित करने के लिए
सादा जीवन, उच्च विचार की
जीवन पद्धति की ओर लौटना होगा,
ताकि जीवन के प्रवाह में
बेपरवाह होने से बच सकें,
जीवन को पूरी तन्मयता से
जीने का सलीका सीख सकें।
...और कभी जीवन में
कोई कमी हमें खले नहीं!
सभी सुख समृद्धि
और
संपन्नता को छूएं तो सही!!
२४/०२/२०२५.
आदमी के इर्द गिर्द
जब अव्यवस्था फैली हो
और उसने विकास को
लिया हो जड़ से जकड़।
हर पल दम घुट रहा हो
तब आदमी के भीतर
गुस्सा भरना जायज़ है ।
उसे प्रताड़ित करना
एकदम नाजायज़ है।

देश अति तीव्र गति से
सुधार चाहता है ,
इस दिशा में
संकीर्ण सोच और स्वार्थ
बन जाते बहुत बड़ी बाधाएं हैं,
जिन्हें लट्ठ से ही साधा जा सकता है।

नाजायज़ खर्चे
अराजकता को
बढ़ावा देते हैं ,
ये विकास कार्यों को
रोक देते हैं।
अर्थ व्यवस्था की
श्वास को
रोकने का
काम करते हैं ,
ये व्यर्थ के अनाप शनाप ख़र्चे
न केवल देश को  
मृत प्रायः करते हैं ,
बल्कि
ये देश को निर्धन करते हैं।
ये देश दुनिया को निर्धन रखने का
दुष्चक्र रचते हैं ,
इसे रोकने का
प्रयास किया जाना चाहिए ,
ताकि देश
विपन्नावस्था से
बच सके ,
आर्थिक दृष्टि से
मजबूती हासिल कर सके।


देश हर हाल में
सुख सुविधा, संपन्नता और समृद्धि को बढ़ाए
इसके लिए सब यथा शक्ति प्रयास करें ,
अन्यथा जीवन नरक तुल्य लगने लगेगा
इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
बस इस डर से
आम और ख़ास आदमी का
गुस्सा करना एकदम जायज़ है,
इस सच से आँखें मूंदे रहना ठीक नहीं।
समय रहते नहीं चेतना , सोए रहना नाजायज है।

अव्यवस्था और अराजकता
अब किसी को बरदाश्त नहीं।
इससे पहले की गुस्सा विस्फोटक बने ,
सब समय रहते अपने में सुधार करें
ताकि देश और समाज पतन के गड्ढे में गिरने से बच सकें।
सब गुस्सा छोड़ शांत मना होकर जीवन पथ पर बढ़ सकें।
१७/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
अच्छे का निधन
सबको कर देता है निर्धन !
सोच के स्तर पर
मृत्यु लगा जाती एक नश्तर ।
यही नहीं, वह मानव के कान के पास
अपनी अनुभूति का आभास करा कर
चुपचाप फुसफुसाते हुए कराती है अपनी प्रतीति कि-
" बांध ले भइया! अपना बोरिया बिस्तर ,
आत्मा करना चाहती है , अब धारण नए वस्त्र!"
मौत जीवन की सहचरी है ,
जिसने  जीवन में करुणा भरी है।
यह वह क्षण है ,
जब आत्मा अपने उद्गम की ओर
लौट जाती है।
यह हमें हतप्रभ कर जाती है ।

०६/०१/२०१७.
सबसे मुश्किल है ,
सभी से बना कर रखना।
सबसे आसान है ,
समूह से दूर रखकर ,
खुद को अकेले करना।
सबसे महत्वपूर्ण है ,
लगातार पड़ते व्यवधानों के बावजूद
संवाद स्थापना की
दिशा में आगे बढ़ना।
इसके लिए
अपनी लड़ाई आप लड़ना।
इस सब से अपनी हार की
आशंका को निज से दूर रखना।
इन सब से अपरिहार्य है
जीवन में हरदम मुस्कुराते रहना ,
आलोचना और डांट को
खुशी खुशी सहने के लिए
अपने भीतर हिम्मत और साहस जुटाना।
डांट डपट आलोचना को
जीवन का भोजन समझते हुए
अपना हाजमा दुरुस्त बनाना।

इस जीवन में
सबसे मुश्किल है
खुद को बगैर लक्ष्य के
ज़िन्दा रख पाना।
सबसे आसान है
स्वयं को भूलकर
जीवन की आरामगाह में रहना,
निज को सुरक्षित रखना,
कुछ भी करने से बचना।
सबसे अपरिहार्य है
सबको अपनी मौजूदगी का
बराबर अहसास करवाते रहना।
अपने घर परिवार और समाज के हितों के रक्षार्थ
अपने सर्वस्व को समर्पित कर पाना।
अतः सबके लिए अपरिहार्य है
अपने भीतर की यात्रा करते हुए
सब्र के अमृत कलश को ढूंढते रहना।
असंतोष की अग्नि को
अपने तन और मन से दूर रख पाना,
ताकि आदमी भूल पाएं
जीवन में डरते हुए मरना,
इस अनमोल जीवन को व्यर्थ कर जाना।
इन सबसे महत्वपूर्ण है
सभी का सकारात्मक सोच को वर पाना।
२८/०५/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
गंगा प्रसाद
अक्सर सोचता है,
आज
अपना गंगा प्रसाद,
रह रह कर यह सोचता है
कि दंगा फसाद  
और नफरत से फैली आग,
दोनों के मूल में
छिपा रहता है विवाद ।
यह विवाद
संवाद में बदलना चाहिए ।
अपना गंगा प्रसाद
इस बाबत सोचता है ।
विवाद
हों ही न!
ऐसा होना चाहिए
जन गण का प्रयास!
दंगा फसाद
नहीं होता अनायास
इसके पीछे होता है
धीरे-धीरे बढ़ता असंतोष
और अविश्वास।
या फिर
सत्य को झूठलाने ,
जनता को बहकाने की खातिर
रची गई साजिश!
जो कर देती
कभी-कभी
व्यक्ति देश समाज को अपाहिज ।
दंगे फसाद के पीछे
कौन सक्रिय  रहता है ?
इस बाबत सोचते सोचते
गंगा प्रसाद सरीखा आदमी
कभी-कभी
निष्क्रिय हो जाता है।
नकारात्मक सोच का शिकार होकर
आज का आदमी
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार लेता है ।
११/८/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को तोड़।
याद कर
उस ऐतिहासिक क्षण को,
जब धर्म बचाने को ,
निर्बल को सबल बनाने को,
दिया था
दशमेश पिता ने ,
इतिहास को
नया मोड़ ।

समय रहा है बदल
तू उसके साथ चल,
न्यूटन जीवन मूल्य अपनाकर,
आज आडंबर छोड़।

वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को छोड़ ।


किसी सरकार से,
न रख कोई अपेक्षा,
अपने पैरों पर
खड़ा होना सीख ।

तू धरा पुत्र है,
अन्नदाता है।
तू क्यों मांगे भीख?


वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़।


आज निराशा छोड़कर
जिसके भीतर
कर्मठता भरकर
जीवन को दे
नया मोड़।



वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़, और
समय से कर ले होड़।

१०/०४/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी ने
मुझे अक्सर
क़दम क़दम पर
झिंझोड़ा है
यह कहकर,
"वक़त तो
अरबी घोड़ा है,
वह सब पर
सवार रहता है,
कोई विरला
उसे
समझ पाता है।
जो समझा,वह कामयाब
कहलाता है,और....
नासमझ उम्रभर
धक्के खाता है,
ज़ुल्म और ज़लालत सहता है।"


यह सुनना भर था कि
बग़ैर देर किए
बरबस मैं
जिन्दगी के साए को महसूस
वक़्त को
संबोधित करते हुए
अदना सी गुस्ताख़ी कर बैठा ,
"तुम भी बाकमाल हो,यही नहीं लाजवाब हो,
हरेक सवाल के जवाब हो ।"
वक़्त ने मुझे घूरा।
फिर अचानक न जाने मैं कह गया,
सितम ए वक़्त सह गया...!,
"तुम सदाबहार सी जिन्दगी के अद्भुत श्रृंगार हो।
यही नहीं तुम एक अरबी घोड़े की रफ्तार सरीखे
मतवातर भाग रहे हो ।तुम चाह कर भी रुक न पाओगे।जानते हो भली भांति कि रुके नहीं कि
धरा पर विनाश, विध्वंस हुआ समझो । "
महसूस कर रहा हूं कि वक़्त एक शहंशाह है ...
और वह एक दरिया सा सब के अंदर बह रहा है...
......

धरा पर वक़्त एक अरबी घोड़े सा भाग रहा है।
हर पल वो , अंतर्मन का आईना बना हुआ
सर्वस्व के भीतर झांक रहा है।

सब को खालीपन के रु ब रु करा रहा है।

११/८/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
चलो
सीधी डगर
न करो तुम
अगर मगर।
कौन सच्चा है
और
कौन है झूठा ?
इस बाबत लड़ो न  अब ,
ढूंढो ,खोजो अपना सच ।
सच बने
आज
एक सुरक्षा कवच।
इस के निमित्त
करो तुम और सभी मिलकर
नियमित प्रयास।

करो न अब
कोई बहाना,
समय सरिता में
सभी को है नहाना।


धोकर अपना मैल मन का ,
तन और मन भी
उज्ज्वल करना है,
लेकर साथ सभी का
हमें अपने लक्ष्यों को वरना है।
इस जगत में लगा रहता
जीना और मरना है,
हम सभी को
अपने अपने भीतर
उजास भरना है।
शुचिता का संस्पर्श करना है।
आज सभी को कर्मठ बनना है।
समय के संग संग चलना है।
२७/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
Joginder Singh Nov 2024
ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਰਾਂਝੇ
ਅਕਲੋਂ ਸਖਣੇ
ਸਾਨੂੰ ਪਿਆਰ ਦਾ ਪਾਠ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਜੀ।

ਇਹ ਠੀਕ ਹੈ ਕਿ
ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਗੱਲਾਂ ਸੁਣ ਕੇ
ਸਾਡੇ ਵੀ ਜੀਅ ਮਚਲਾਉਣ ਜੀ।


ਅਸੀਂ ਸੋਚਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ
ਕਿ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਵੀ ਰਾਂਝੇ ਬਣ ਜਾਂਦੇ,
ਕਿਸੇ ਹੀਰ ਸਲੇਟੀ ਨੂੰ ਲੱਭ ਲਿਆਉਂਦੇ।

ਸਾਡੇ ਬੱਚੇ ਦੇਖ ਸਾਨੂੰ ਲੱਗਣ ਮੁਸਕਰਾਉਂਦੇ ,
ਉਹਨਾਂ ਵੱਲ ਅਸੀਂ ਵੀ ਤੱਕ ਕੇ ਥੋੜਾ ਜਿਹਾ ਸ਼ਰਮਾਉਂਦੇ,
ਫੇਰ ਇਕੱਠੇ ਮਿਲ ਬੈਠ ਕੇ ਠਹਾਕੇ ਕੇ ਅਸੀਂ ਲਗਾਉਂਦੇ।
Joginder Singh Nov 2024
ਅਜੋਕੇ ਸਮੇਂ ਚ ਰਹਿਣਾ ਬਹੁਤ ਔਖਾ ਹੈ,
ਜਿੱਥੇ ਕਦਮ ਕਦਮ ਤੇ ਮਿਲਦਾ ਧੋਖਾ ਹੈ ,
ਅੱਜ ਫਿਰਕਾ ਪ੍ਰਸਤੀ ਨੇ ਖੁੰਝ ਲਿਆ ਸਾਥੋਂ
ਅੱਗੇ ਵਧਣ, ਤਰਕੀ ਕਰਨ ਦਾ ਮੌਕਾ ਹੈ।
ਅਜੋਕੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਰਾਂਝੇ, ਅਕਲ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ,
ਕਰਦੇ ਮਾੜੀਆਂ ਹਰਕਤਾਂ, ਕਿੰਵੇ ਹੋਊ ਬਰਕਤਾਂ।

ਸਮਾਂ ਤਾਂ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਚੰਗਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ,
ਫਿਰ ਸਾਨੂੰ ਅਜੋਕਾ ਸਮੇਂ ਕਿਉਂ ਮਾੜਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ,
ਲੱਗਦਾ ਹੈ , ਸਾਡੀ ਬੇਅਕਲੀ ਨੇ, ਮਨਾਂ ਵਿੱਚ,
ਹਰ ਵੇਲੇ ਚੋਰੀ ਸੀਨਾ ਜ਼ੋਰੀ ਦਾ ਜ਼ਹਿਰ ਭਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
ਤਾਂ ਹੀ ਤਾਂ ਅਜੋਕੇ ਸਮਿਆਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣਾ ਔਖਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ।
Joginder Singh Nov 2024
देश की
आर्थिकता
आजकल बैसाखियों के आसरे
चल रही है ,
सोचता हूं,
देश के भीतर
तभी आर्थिक अपराध बढ़े हैं,
सभी भीतर तक भ्रष्ट हुए हैं।


देश समाज और दुनिया में
सभी अपनी आर्थिकता को
सुदृढ़ कर रहे हैं
मतवातर
हम ही धनार्जन की दौड़ में
पिछड़े हुए हैं।
आखिरकार ऐसा क्यों है?


आजकल
सत्ताधारी दल
और
विपक्षी दल
परस्पर लड़ रहे हैं ,
नूरा कुश्ती कर रहे हैं।

परस्पर
एक दूसरे पर हेराफेरी करने,
भ्रष्टाचारी होने के
आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
इन दोनों की लड़ाई का
कुछ आर्थिक शक्तियां
लाभ उठा रही हैं।
देश भर में निवेश, शेयरों को
अपने हाथों में लेकर
रक्त चूसने की हद तक लाभ कमा रही हैं।
उपभोक्ताओं को सस्ते सामान मुहैया कर लुभा रही हैं।
अंदर ही अंदर
देश की आर्थिकता को
दीमक सी होकर
खोखला करती जा रही हैं।


आज
देश का व्यापार संतुलन
बिगड़ चुका है,आयात अधिक, निर्यात कम है।
इस स्थिति को
समझते बूझते हुए भी सत्ता पक्ष और विपक्ष
चोरी-चोरी ,चुपके-चुपके
अपना अपना खेल, खेल रहे हैं।
जन साधारण इन सब के बीच पिस रही है।
देश की आर्थिकता
चुपचाप परित्यक्ताओं सी  होकर
सिसकियां भर रही है।
हाय! देश की शासन व्यवस्था क्या कर रही है?
39 · Jan 20
तकलीफ़
अपनी तकलीफ़ को
बता पाना नहीं है
कोई आसान काम।
सुख में खोया आदमी
नहीं दे सकता  
दूसरों के दुःख,दर्द, तकलीफ़ की
ओर ध्यान।
वह रहता अंतर्मगन।
वह आवागमन के झंझटों से दूर रहना चाहता है।
वह अपनी दुनिया में खोया रहता है,
उसका अंतर्मन अपने आप में तल्लीन रहता है।
छोटा बच्चा रोकर
अपनी तकलीफ़ बताता है।
किसान मजदूर धरना प्रदर्शन करने से
सरकार को अपनी तकलीफें बताना चाहते हैं।
और बहुत से लोग तकलीफ़ बताता तो दूर ,
वे संकुचा कर रह जाते हैं।
वे अपनी तकलीफ़ कह नहीं पाते हैं।
वे इस पीड़ा को सहते हुए
और ज्यादा जख्मी होते रहते हैं।
कहीं आप भी तो उन जैसे तो नहीं ?
आप मुखर बनिए।
जीवन में अपनी तकलीफ़ बताना सीखिए।
20/01/2025.
Joginder Singh Nov 2024
मुझे
पाश्चात्य जगत
आकर्षित
करता रहा है,
अपने अंतर्द्वंद्वों से इतर
वह मुझ में
जीवन चेतना और नैतिकता भी
भर रहा है।
आज वह अद्भुत जगत क्यों
परस्पर लड़ रहा है ?
वह
संपन्नता,खुशहाली की
प्रेरणा बना रहा है,
अब क्यों वह
नफरत कीआग से
जल रहा है?
वहाँ का नेतृत्व
क्या कर  रहा है ?
जन साधारण के भीतर
डर भर रहा है।
वहां भी
यहां की तरह
भाई भाई परस्पर
लड़ रहे हैं।
मानव जीवन नर्क बनता
जा रहा है।
दोस्त! कुछ समझ
आ रहा है ?
यह जीवन अपने
अंतर्द्वंद्वों की वज़ह से
निष्फल बीता जा रहा है।
38 · Apr 26
संकोच
किसी से जाति पूछते समय
मैं हो जाया करता था असहज,
जब काम के दौरान
किसी कॉलम को भरने के समय
जाति से संबंधित कोड भरने का जिम्मा रहता था ।
मुझे लगता रहा है आज तक
जाति व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है ,
इसे आम बोलचाल में न ही पूछा जाए।
जाने अनजाने किसी की संवेदना को क्यों कुरेदा जाए ?
आज जब विपक्ष द्वारा जातिगत जनगणना का मुद्दा
रह रह कर उठाने का प्रयास किया जा रहा है।
सत्ता पक्ष द्वारा इसे पूछने वाले की जाति को पूछा जा रहा है।
तर्क है कि पहले खुद की जाति बताई जाए ,
इसके बाद ही कोई जाति से संबंधित बात की जाए।

देश की एकता में जाति व्यवस्था बाधक है।
मगर इस से पिंड छुड़ाना फिलहाल असंभव है।
यह उम्मीद भी है कि आने वाले समय में
युवा पीढ़ी इस जाति के कोढ़ का इलाज़ ढूंढ ही लेगी ।
वह समानता और सद्भावना से मनुष्यता को चुनेगी।
हमारी पीढ़ियां सर्वप्रथम सुख समृद्धि और संपन्नता को वरेंगी।
इसके बाद ही बाकी कुछ को वरीयता मिलेगी।
उम्मीद है कि वर्तमान के संदर्भ में
जाति व्यवस्था स्वयं में
समयानुरूप सुधार करेगी ,
तभी देश दुनिया और समाज में
आदमजात की ज़िन्दगी सुरक्षित
और उसके आगे बढ़ने की
संभावना बनी रहेगी।
अन्यथा अराजकता हावी होकर
सर्वस्व को लील लेगी।
फिर कैसे नहीं
चहुं ओर विनाश लीला होगी ?
यह ज़िन्दगी रुकी सी  लगने लगेगी !
आगे बढ़ने की अंधी दौड़
कब कब नहीं पागलपन कराती रहेगी ?
अतः आम हालात में
जाति पूछने से किया
जाना चाहिए संकोच ,
वरना झेलना पड़ सकता है विरोध।
२६/०४/२०२५.
श्राद्ध पक्ष में
परंपरा है देश में
अपने पुरखों को याद करते हुए
भोजन जिमाने की !
अपने पुरखों से जुड़ जाने की !

किसी ने कहा था ,
" गुरु जी! हम ब्राह्मण हैं। ..."
मेरे मुखारविंद से
बरबस निकल पड़ा था ,
" यहां पढ़ने वाले
ब्रह्मचारी ही असली ब्राह्मण है
चाहे ये किसी भी समूह से संबद्ध हों।
अतः क्षमा करें।"
यह कह मैं अपने काम में
हो गया था तल्लीन।
फिर अचानक मन में
कुछ दया भाव उत्पन्न हुआ।
बाहर जाकर देखा तो वह भद्र पुरुष जा चुका था।
सेवा का एक मौका हाथ से निकल चुका था।
मैं देर तक पछताया था।
मैंने याचक को अज्ञानवश द्वार से लौटाया था।
एक घटना ने घट कर मुझे कुछ सिखाया था
कि आगे से अज्ञान की पोटली  
मन और चेतना में लिए न फिरो,
बल्कि अपने को मेरे तेरे के भावों से ऊपर उठाओ,
धरा को समरसता की दृष्टि संचित कर अनुपम बनाओ।
हो सके तो लोक जीवन के साथ
स्वार्थहीन होकर रिश्ता जोड़ जाओ।
२३/०२/२०२५.
स्वप्न में घटी घटना की स्मृति पर आधारित ।
यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि
जल है तो कल है,
सुखद भविष्य के लिए
जल का संचयन करें ,
कुदरत माँ को समृद्ध करें।
परंतु आदमी के क्रिया कलाप
विपरीत ही ,
पूर्णतः विरोधाभासी होते हैं,
समय पर वर्षा न होने पर
सब रोते कुरलाते हैं,
उन्हें अपने कर्म याद आते हैं।
आज विश्व जल दिवस के दिन
माली जी ने मुझे चेताया कि
साहब , मैं छुट्टियां लेकर क्या घर गया !
पौधों को पानी न मिलने के कारण
सारा बगीचा मुरझा गया।
आप जो लीची का जो पौधा लेकर आए हैं ,
यह भी सूख गया है !
आप का पैसा बर्बाद हुआ।

अब गर्मी आ गई है ,
पानी ज़्यादा  चाहिएगा ,
वरना पौधे कुमल्हा जायेंगे!
वे बिन आई मौत मारे जायेंगे!!
जैसे लीची का पौधा
पानी न मिलने से मर गया।

मुझे ख्याल आया कि
जल का संरक्षण कितना अपरिहार्य है।
यह जीने की शर्त अनिवार्य है।
फिर हम सब क्यों कोताही करें?
क्यों न सब अपनी संततियों के लिए
कुछ समझदार बनें ,
जल को यूं ही न बर्बाद करें।


माली जी ने मुझे चेताया था।
कुछ कुछ अक्लमंद बनाया था।
थोड़ी सी लापरवाही ने लीची के पौधे की
जान ले ली थी।
भविष्य की समृद्धि पर भी
कुछ रोक लग गई थी।
बेशक इसे आदमी चंद रुपयों का नुकसान समझे,
पर सच यह है ,
पेड़ एक बार पल जाने पर
सालों साल समृद्धि का उपहार देते हैं!
वे जीवन को खुशहाली का वरदान भी देते हैं!!
२२/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.
ਸੁਣਿਆ ਹੈ ,ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਧਰਨਾ ਲਗਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ।
ਇਹ ਨੌਬਤ ਕਿਉਂ ਆਈ ?
ਕਿਸਾਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵੀ ਗ਼ਰੀਬ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ
ਉਹ ਸਾਰੇ ਕੰਮ ਧੰਦੇ ਛੱਡ ਕੇ
ਆਪਣਾ ਵਿਰੋਧ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨ ਲਈ
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲਵੇ
ਇਹ ਸਭ ਕੁੱਝ ਵਾਪਰਿਆ ਹੈ
ਤਾਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਆਪਣੀਆਂ ਗ਼ਲਤੀਆਂ ਦੇ ਕਾਰਨਾਂ ਕਰਕੇ
ਮੈਨੂੰ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ
ਨਿੱਕੇ ਨਿੱਕੇ ਬੱਚਿਆਂ ਵਾਂਗੂੰ
ਜੀਵਨ ਦੀ ਪ੍ਰੀਖਿਆ ਵਿੱਚ
ਸਫ਼ਲ ਹੋਣ ਦੇ ਲਈ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਦੇਣਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ  ਪੇਪਰ,
ਉਹ ਅੱਜ ਤੇ ਕੱਲ੍ਹ ਵੀ
ਪ੍ਰੀਖਿਆਵਾਂ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ,
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਜਦ ਤੱਕ ਉਹ ਸਮਝਣਗੇ ਨਹੀਂ ਆਪਣਾ ਸੱਚ ,
ਉਹ ਆੜਤੀਆਂ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਭਟਕਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਭ੍ਰਸ਼ਟ ਵਪਾਰੀਆਂ ਦੇ ਇਸ਼ਾਰਿਆਂ ਤੇ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਦੁੱਖੜਾ ਕਿਸ ਨੂੰ ਕਹਿ ਸਕਣਗੇ ?
ਉਹ ਤਾਂ ਹਰ ਵੇਲੇ ਆਪਣਿਆਂ ਹੱਥੋਂ ਰੁੱਲਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਲਗਾਤਾਰ ਬਿਨਾਂ ਰੁਕੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ।

ਅੱਜ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ,
ਉਹ ਸਮਝਣ ਆਪਣੇ ਹਾਲਾਤਾਂ ਨੂੰ ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਆਪ ਸੰਭਾਲੀ ਰਖੱਣ,
ਉਹ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਜੰਜਾਲ ਵਿੱਚੋਂ
ਨਿਕਲਣ ਦਾ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਉਪਰਾਲਾ ਕਰਨ।
ਮੁਸੀਬਤ ਵਿੱਚ ਪਇਆ ਹੋਇਆ ਬੰਦਾ
ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਕੇ ਹੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਪਾਰ ਪਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
05/01/2025.
36 · Nov 2024
आशंकित मन
Joginder Singh Nov 2024
बेघर को
यदि
घर का
तुम दिखाओगे सपना
तो उसे कैसे नहीं
लगेगा अच्छा?
वह कैसे नहीं,
समझेगा तुम्हें अपना?
परंतु
आजकल
घर के बाशिंदों को
बेघर करने की
रची जा रही हैं साजिशें,
तो किसे अच्छा लगेगा ?
सच!
ऐसे में
भीतर उठती है
पीड़ा, बेचैनी,दर्द,कसक।
इन्सान होने की ठसक क्या!
सब कुछ मिट्टी में मिलता लगता है।
सब कुछ तहस नहस होता लगता है।
कभी कभी रोने का मन करता है,
परंतु दुनिया की निर्मम हंसी से डर लगता है।


मन मनन चिंतन छोड़ कर
करता है महसूस
वह घड़ी रही होगी मनहूस
जब किसी उत्पाती ने
दी थी आधी रात घर की देहरी पर दस्तक
और कर दिया था हम सब को
बेघर और अकेला।
दे दी थी भटकन सभी को।
बस! तभी से है मेरा मन आशंकित।
मुझे हर समय एक दुस्वप्न
घर की देहरी पर दस्तक देता लगता है।
मैं भीतर तक खुद को हिला और डरा पाता हूं।
इस भरी पूरी दुनिया में खुद को अकेला पाता हूं।
मुझे कहीं कोई ठौर ठिकाना नहीं मिलेगा,
बस इसी सोच से पल पल चिंतित रहता हूं।


आजकल मैं एक यतीम हुआ सा
सतत् भटकता हुआ आवारा बना घूमता हूं।
मन मेरा बेघर है ।
उसके भीतर बिछुड़न का डर  कर गया घर है।
अतः अंत के आतंक से भटक रहा गली गली डगर डगर है।
०२/०१/२०१२.
हे मन!
तुम कुछ अच्छा नहीं कर सकते
तो क्या हुआ ?
बुरा तो कर सकते हो ?
बस !
एक काम करना।
वह है !
हरेक बुरे काम के बाद
विष्णु का नाम लेना !
यहां तक कि
अपने परिवारजनों के नाम भी
विष्णु के सहस्रों नामों पर रखना !
अपने मित्रों और दुश्मनों के नाम भी
मन ही मन बदल देना ,
उनके नाम भी विष्णु जी के
प्रचलित नामों पर रखना!
और हां!
दिन रात उठते बैठते
चलते फिरते
सोते जागते
हरि हरि करना !
तब स्वयंमेव बदल जाओगे !
अपने को जान जाओगे !
हे मन !
तुम तम के समंदर को
लांघ जाओगे !
अपनी क्षुद्रताओं को
भस्मित कर पाओगे !
मन के गगन के ऊपर
स्वचेतना को हर पल
पुलकित होते पाओगे।
अपनी क्षमता को
जान जाओगे।
१३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
आजतक
स्वयं से
की है प्रीत।
फलत:अब
हूँ भीतर तक
भयभीत।
चाहता हूँ,
करना
औरों से भी
निस्वार्थ प्रीत!
ताकि जीवन में
रह सकूँ सहज।
नित्य सीख सकूँ
कुछ नवीन,
बन सकूँ
प्रवीण
और स्वयं को
लूँ जीत।
रचूँ जीवन में
एक नई रीत।
न रहूँ कभी
भयभीत।
२/६/२०२०.
देखते देखते
जीवन के रंगमंच पर
बदल जाता है
परिदृश्य।
जीवन
जो कभी लगता है
एक परिकथा जैसा,
इसमें
स्वार्थ का दैत्य
कब कर लेता है
प्रवेश,
ख़ास भी आम
लगने लग जाता है,
देखते देखते
मधुमास पतझड़ में
तब्दील हो जाता है,
जीव में भय भर जाता है।
वह मृत्य के
इंतज़ार में
धीरे धीरे गर्क हो जाता है।
अब तो बस
स्वप्नावस्था में
वसंत आगमन का
ख्याल आता है।
देखते देखते ही
जीवन बीत जाता है,
नव आगंतुकों के स्वागतार्थ
यह जीवन का
अलबेला रंगमंच
खाली करना पड़ जाता है,
प्रस्थानवेला का समय
देखते देखते आन खड़ा होता है
जीवन के द्वार पर
यह जीवन का दरबार
बिखर जाता है।
कल कोई नया राजा
अपना दरबार लगाएगा,
जीवन का परिदृश्य
चित्रपट्ट की
चलती फिरती तस्वीरों के संग
फिर से एक नई कहानी दोहराएगा।
इसका आनंद और लुत्फ़
कोई तीसरा उठाएगा।
समय ऐसे ही बीतता जाएगा।
वह सरपट सरपट दौड़ रहा है।
इसके साथ साथ ही वह
जीवन से मोह छोड़ने को कह रहा है।
२४/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
सांझ का आगमन
मन के आकाश में हो गया है।
कुछ देर बाद
रात भी आ जाएगी।
जिंदगी आराम करने के लिए सो जाएगी।
जब कभी भी
शाम होती देखता हूं
तो मुझे जिंदगी की शाम
नज़दीक खड़ी होने का होता है अहसास।

पल दो पल के लिए
मैं सिर्फ पछता और छटपटा जाता हूं।

रात होने से पहले
संध्या
दिन के अंत का संकेत देती सी
जब यह उतरती है
दिन की छाती पर ,
तब दिल में
कुछ पीछे छूटने का
होता है अहसास ।
एक हल्का सा दर्द
दिल में उठता है।

मुझे संध्या के झुटपुटे में
अपनी कब्र
दिख पड़ती है,
एक कसक भीतर से उठती है।
अपनी ही सिसकारी की
भीतर से प्रतिध्वनि
सुन पड़ती है।
जो न केवल मेरे भीतर डर भरती है ,
बल्कि यह
अंत की आहट देती सी लगती है ।
  १०/०३/२०११.
Joginder Singh Nov 2024
आज
अचानक मां की याद आई ,
मेरी आंखें भर आईं।
मां
आखिरी समय में
कुछ-कुछ
जिद्दी हो गईं थीं
मानो
उन्हें इस
जगमग जगमग करते जगत से
विरक्ति हो गई हो।
उन्हें समस्त
सांसारिक चमक दमक
फीकी और बेकार
लगने लगी हो।
वह
तस्वीर खिंचवाने से
कतराने लगी थीं।

आज
अचानक
नए वर्ष के दिन
बस में यात्रा करते हुए
उगते सूरज का
अक्स
खिड़की के शीशे में देखकर,
इसके साथ ही
अपनी काया में
बुढ़ापे के लक्षण महसूस कर
अपनी देह के भग्नावशेष
दर्पण में देख
मैं रह गया था सन्न !
मुझे मां की याद आई थी ।
मेरी आंखें भर आईं थीं ।
वर्षों बाद
अब अचानक
मां की व्यथा
मेरी समझ में आई थी।
मां क्यों तस्वीर खिंचवाने से
कतराईं थीं।
मां
मौत की परछाई को
आसपास मंडराते देख
आगत की आहट को समझ पाई थीं।
शायद यही वजह रही हो
मां के जिद्दी हो जाने की ।
मेरी चेतना में
अचानक मां की जो तस्वीर उभरी थी
उसे मैंने नमन किया ।
देखते ही देखते
मां की वह स्मृति अदृश्य हुई।
आंखें खुलीं
तो मुझे एहसास हुआ
कि मैं बस में हूं
और
मेरा गंतव्य आ गया है।
मैं बस से उतरने की तैयारी करने लगा ।
मां मेरी स्मृतियों में सदैव बसी हैं।
मेरी आंखें भरी हैं।
31 · Jan 30
सहसा
सहसा
जब कोई अचानक
भीतर ही भीतर
कसमसाकर
पल पल टूटता जाए ,
जीवन से रूठता जाए ,
साहस कहीं पीछे छूटता जाए ,
तब आप ही बताइए
आदमी क्या करे ?
क्या वह जीवन में स्वयं को
आगे बढ़ने से रोक ले ?
क्यों न वह निज में बदलाव करे ?
और वह अपनी समस्त ऊर्जा को
लक्ष्य सिद्धि की खातिर
कर्मठ बनने में खपा दे ,
जब तक वह निज को न थका दे ।
जीवन में साहसी बनकर
सुख समृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है ,
जीवन पथ की दुश्वारियों से लड़ा जा सकता है ,
सहसा साहस भीतर भर कर डटा जा सकता है।
जीवन पथ पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं।
साहस और सहजता से उनका सामना किया जाता है , संघर्ष के दौर में टिके रह कर विजेता बना जा सकता है।
३०/०१/२०२५.

— The End —