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सचमुच
पहाड़ पर ‌जिन्दगी
पहाड़ सरीखी होती है
देखने में सरल
पर
उतनी ही कठिन
और संघर्षशील।
पहाड़ी मानस की
दिनचर्या
पहाड़ के वैभव को
अपने में
समेटे रहती है
और पहाड़ भी
पहाड़ी मानस से
बतियाता रहता है
कभी-कभी
ताकि
जीवन ऊर्जा और शक्ति,
जीवन के प्रति श्रद्धा और जिजीविषा
बनी रहे,
पहाड़ी मानस में
संघर्ष का संगीत
सदैव पल पल रचा बसा रहे।
पहाड़ी मानस मस्त मौला बना रहे।
जीवन में हर पल डटा रहे।

मैदान का आदमी
पहाड़ के सौंदर्य और वैभव के प्रति
होता रहा है आकर्षित,
वह पर्यटक बन
पहाड़ को समझना और जानना चाहता है
जबकि पहाड़ी मानस
पहाड़ को अपने भीतर समेटे
घर परिवार और रोज़गार के लिए
सुदूर मैदानों, मरूस्थलों और समन्दरों को ओर जाना।
कुदरत आदमी और अन्य जीवों के इर्द-गिर्द
चुपचाप सतत् सक्रिय रहकर
बुना करती है प्रवास का ताना-बाना,
उसके आगे नहीं चलता कोई ‌बहाना।
सब को किस्मत की सलीब ढोना पड़ती है,
जीवन धारा आगे ही आगे बढ़ती रहती है।
१०/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अभी मुमकिन नहीं
कम से कम.... मेरे लिए
खुली किताब बन पाऊं!
निर्भीक रहकर
जीवन जी जाऊं !!
समय के साथ
अपने लिए खड़ाऊं हो पाऊं!
उसके साथ अपने अतीत को याद कर पाऊं!!


अभी
मुमकिन है
खुद को जान जाऊं!
अपनी कमियों को सुधारता जाऊं !!
सतत् अपनी कमियों को कम करता जाऊं !!
जो मुमकिन है ,
वह मेरा सच है ।
जो नामुमकिन है
कम से कम.... मेरे लिए
झूठ है।
उतना ही मिथ्या
जितना रात्रि को देखा गया सपना,
जो हकीकत की दुनिया में
खत्म हो जाता है ,
ठीक वैसा ही
जैसे मैं चाहता हूं
सारे काम हों सही-सही।
हकीकत यह है कि
कुछ काम सही ढंग से हो पाते हैं,
और कुछ अधूरे ही रह जाते हैं।

मैं मुमकिन कामों को पूरा करना चाहता हूं ,
भले ही मेरे हिस्से में असफलता हाथ आए ।
बेशक विजयश्री कहीं पीछे छूट जाए !
क़दम दर क़दम नाकामी हाथ आए!!
दोस्तों को मेरी सोहबत भले न भाए !!

मेरी चाहत है,
मुमकिन ही मेरा स्वप्न बने ।
बेशक नामुमकिन
मरने के बाद राह का कांटा बने।

दोस्त,
मुमकिन ही हमारा संवाद बने  ,
नामुमकिन की काली छाया हमसे न जुड़े ।


२७/०८/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
बूढ़े के भीतर
रहना चाहिए
सदैव एक बच्चा ।
जो झूठ को झाड़ कर
करता रहे
जीवन धारा को सच्चा ,
ताकि अंत
शांतिपूर्वक हो सके
और बन सके बूढ़ा
अनंत के आनंद  की
अनुभूति का हिस्सा।
इसलिए आदमी के भीतर
रहना चाहिए
भीतर सदैव एक बच्चा।
Joginder Singh Dec 2024
आज  भी ,
कल  भी  ,  और  आगे भी
समाज  में  आग  लगी  रहेगी  न  !
हमारे  यहां  के  समय   में
समाजवाद  का  हो   चुका  है   आगमन  !
दमन  ,  वमन  ,  रमन  , चमन , गबन  और  गमन
आदि  सब  अपने  अपने  काम  धंधों  में  मग्न !
यदि   कोई  निठल्ला बैठा  है  तो  वह  है...
परिवेश  का  कोलाज ,
जो  समाज  और  समाजवादी  रंग  रूप
पर  रह  रह  कर
कहना  चाहता  है   अपवाद   स्वरूप  
कुछ मन के उद्गार!
आप के सम्मुख
रखना चाहता है मन की बात।
सुनिए   इस   बाबत  
आसपास   से   उठनेवाली  कुछ  ध्वनियां  !!

' निजता ' ,
' इज़्ज़त '  गईं   अब   तेल   लेने  !
ये  तो  बड़े  लोगों  की
बांदियां  हैं
और
छोटे-छोटे   लोगों   के   लिए
बर्बादियां  हैं   !!

अब   कहीं   भी   और   कभी   भी
निजता  बचनी   नहीं   चाहिए  ।
कहीं  कोई  इज़्ज़त   करनी  और   इज़्ज़त ‌  करवाने  की
परिपाटी   व  परम्परा   नहीं   होनी   चाहिए  ।


हर   घर   में   रोटी   पानी   चाहिए  ।
ज़िंदगी   में  अमन  चैन   बची  रहनी   चाहिए  ।
जीवन   अपनी   रफ्तार   और   शर्तों  से  
आगे   बढ़ना   चाहिए  ।
जी  भरकर  मनमर्ज़ियां  और  मनमानियां  की  
जानी   चाहिएं  ।
ज़िंदगी   खुलकर  जीनी   चाहिए  ।

अब   समाजवाद   आ   ही  जाएगा  ।
हर  कोई  समाजवादी  बन  ही  जाएगा  ।
जीवन   से  अज्ञानता  का  अंधेरा   छंट  ही  जाएगा  ।

कहीं  गहरे  से  एक  आगाह  करती
अंतर्ध्वनि  सुन  पड़ती  है ...,
'  वह  तो  आया  हुआ  है  जी  ! '
अब   उसे   मैं    क्या   कहूं    ?
रोऊं  या  हंसते हंसते रो पडूं ?

१६/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
सुख की खोज,
दुःख की खीझ,

सचमुच!

रूप बदल देती।

यह दर्द भी है देती!

यह मृगतृष्णा बनकर
सतत चुभती रहती।

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
अक्सर गलती करने पर
नींद ढंग से आती नहीं,
तुम ही बताओ,
सोने की खातिर
किस विध दूँ ,
निज को थपकी ।
बेचैनी को भूलभाल कर
सो सकूँ निश्चिंत होकर
और रख सकूँ  क़ायम
जिजीविषा को।
दूँढ सकूँ
अपना खोया हुआ
सुकून।  

०४/०८/२००९.
कभी कभी
पतंग किसी खंबे में अटक जाती है,
इस अवस्था में घुटे घुटे
वह तार तार हो जाती है।
उसके उड़ने के ख़्वाब तक मिट्टी में मिल जाते हैं।

कभी कभी
पतंग किसी पेड़ की टहनियों में अटक
अपनी उड़ान को दे देती है विराम।
वह पेड़ की डालियों पर
बैठे रंग बिरंगे पंछियों के संग
हवा के रुख को भांप
नीले गगन में उड़ना चाहती है।
वह उन्मुक्त गगन चाहती है,
जहां वह जी भर कर उड़ सके,
निर्भयता के नित्य नूतन आयामों का संस्पर्श कर सके।

मुझे पेड़ पर अटकी पतंग
एक बंदिनी सी लगती है,
जो आज़ादी की हवा में सांस
लेना चाहती है,
मगर वह पेड़ की
टहनियों में अटक गई है।
उसकी जिन्दगी उलझन भरी हो गई है ,
उसका सुख की सांस लेना,
आज़ादी की हवा में उड़ान भरना
दुश्वार हो गया है।
वह उड़ने को लालायित है।
वह सतत करती है हवा का इंतज़ार ,
हवा का तेज़ झोंका आए
और झट से उसे हवा की सैर करवाए ,
ताकि वह ज़िन्दगी की उलझनों से निपट पाए।
कहीं इंतज़ार में ही उसकी देह नष्ट न हो जाए ।
दिल के ख़्वाब और आस झुंझलाकर न रह जाएं ।
वह कभी उड़ ही न पाए।
समय की आंधी उसको नष्ट भ्रष्ट और त्रस्त कर जाए।
वह मन माफ़िक ज़िन्दगी जीने से वंचित रह जाए।
कभी कभी
ज़िंदगी पेड़ की टहनियों से
उलझी पतंग लगती है,
जहां सुलझने के आसार न हों,
जीवन क़दम क़दम पर
मतवातर आदमी को
परेशान करने पर तुला हो।
ऐसे में आदमी का भला कैसे हो ?
जीवन भी पतंग की तरह
उलझा और अटका हुआ लगता है।
वह भी राह भटके
मुसाफ़िर सा तंग आया लगता है।
सोचिए ज़रा
अब पतंग
कैसे आज़ाद फिजा में निर्भय होकर उड़े।
उसके जीवन की डोर ,
लगातार उलझने
और उलझते जाने से न कटे।
वह  यथाशक्ति जीवन रण में डटे।

२४/०१/२०२५.
आज
दूध  
पता नहीं
मन में चल रही
उधेड़ बुन से
या फिर वैसे ही
लापरवाही से
उबालते समय
बर्तन से बाहर निकल गया ,
यह डांट डपट की
वज़ह बन गया कि
घर में कोई
कब दूध की क़दर करेगा ?
एक समय था जब दूध को तरस जाते थे और
अब घोर लापरवाही !
आज भी आधी आबादी दूध को तरसती है।
और यहां फ़र्श को दूध पिलाया जा रहा है।

पत्नी श्री से कहा कि
घर में
आई नवागंतुक
जूनियर ब्लैकी को
दूध दे दो ,
बेचारी भूखी लगती है ।
वह ऊपर गईं
और फिसल गईं।
दूध का कटोरा
नीचे गिरा ,
दूध फ़र्श पर फैला,
डांट डपट का
एक और बहाना गढ़ा गया।
जैसे सिर मुंडाते ही ओले पड़ें !
न चाहकर भी तीखी बातें सुननी पड़ें !!

सोचता हूँ...
यह रह रह कर दूध का गिरना
किसी मुसीबत आने की अलामत तो नहीं ?
क्यों न समय रहते खुद को कर लूँ सही !
आजकल
मन में सतत उधेड़ बुन लगी रहती है,
फल स्वरूप
एकाग्रता में कमी आ गई है।
दूध उबलने रखूं तो पूरा ध्यान होना चाहिए
दूध के बर्तन पर
ताकि दूध  बर्तन से उबालते समय बाहर निकले नहीं।
वैसे भी दूध हम चुरा कर पीते हैं !
कुदरत ने जिन के लिए दूध का प्रबंध किया है ,
हम इससे उन्हें वंचित कर
बाज़ार के हवाले कर देते हैं।
और हाँ, मंडी में नकली दूध भी आ गया है,
आदमी की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाने के निमित्त।
फिर इस दौर में आदमी
कैसे रखे स्वयं को प्रसन्न चित्त ?
दूध का अचानक बर्तन से बाहर निकलना
आदमी के मन में ठहराव नहीं रहा , को दर्शाता भर है।
वहम और भ्रम ने आदमी को
कहीं का नहीं छोड़ा , यह सच है।
इसमें कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
२३/०१/२०२५.
50 · Dec 2024
झूमना
Joginder Singh Dec 2024
संवाद
अंतर्मन से
जब हुआ ,
समस्त
विवाद भूल गया !
सचमुच !
मैं झूम उठा !!

२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
ਬਹੁਤ ਵਾਰ
ਜਦੋਂ ਵੀ ਸੋਚਦਾ ਹਾਂ ,ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਤੇ ਮੌਤ ਬਾਰੇ ,
ਮੈਂ ਉਲਝ ਕੇ ਰਹਿ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ।
ਕਾਲ ਦੇ ਹਥੋੜੇ ਦੀ ਜਦ ਵਿੱਚ ਆ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ,
ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ ਇੱਕ ਸਿਹਰਨ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦਾ ਹਾਂ।


ਮੇਰੀ ਨਿਗਾਹ ਵਿੱਚ,
ਮੌਤ
ਦੇਹ ਦੇ ਮੋਹ ਪਾਸ਼ ਤੋਂ
ਆਜ਼ਾਦੀ ਹੈ।

ਮੌਤ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀਆਂ ਹਲਚੱਲਾਂ ਵਿੱਚੋਂ
ਆਪਣੀਆਂ ਜੜਾਂ ਨੂੰ ਖੋਜਣਾ ਹੈ ।


ਮੌਤ ਭਰਮਾਂ ਵਹਿਮਾਂ ਤੋਂ ਵੀ ਮੁਕਤੀ ਹੈ,
ਇਹ ਰੱਬੀ ਹੋਂਦ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਨ ਦੀ ਜੁਗਤ ਹੈ।
ਇਹ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰਨ ਦਾ ਇੱਕ ਅਦਭੁਤ ਮੌਕਾ ਹੈ।

ਮਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ
ਜੀਵ ਕਿੱਥੇ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,
ਕੀ ਉਹ ਆਪਣੇ ਰਿਸ਼ਤੇਦਾਰਾਂ ਦਾ
ਹਾਲ ਚਾਲ ਪੁੱਛ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ,,
ਇਸ ਬਾਬਤ ਜਦੋਂ ਵੀ ਮੈਂ
ਆਪਣੇ ਮਨ ਤੋਂ ਜਾਣਨਾ ਚਾਹਿਆ,
ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ
ਇੱਕ ਘੁੰਮਣ ਘੇਰੀ ਵਿੱਚ ਪਾਇਆ।


ਹਾਂ ,ਇਹ ਵੀ ਸੱਚ ਹੈ ਕਿ
ਆਤਮਾ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਵਿੱਚ ਘੁੰਮਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ।
ਸਾਡੇ ਸਾਰਿਆਂ ਦਾ ਸੱਚ ਹੈ ਕਿ
ਮੌਤ ਸਾਨੂੰ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੈ ।
Joginder Singh Nov 2024
देश तुम सोए हो गहरी नींद में ,
लुटेरे लूट रहे हैं तुम्हारा वैभव हाकिमों के वेश में ।

सत्ता बनी आज विपदा ,
रही जनसाधारण को सता,जनादेश जैसे भावावेगों से।

देश तुम जागो ,सोए क्यों हो ?
निद्रा सुख में खोये खोये से क्यों हो ?

उठो देश,धधक उठो आग होकर ,
बोल उठो, देश,आज युग-धर्म की आवाज़ होकर ।

देश उठो, वंचितों में जोश भरो,
शोषितों पीड़ितों की बेचारगी कुछ तो कम करो ।
50 · Nov 2024
ਪਰਵਾਸ
Joginder Singh Nov 2024
ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਕਦੀ ਕਦੀ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ,
ਘਰ ਪਰਿਵਾਰ ਤੋਂ ਦੂਰ
ਮਨ ਦੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਖੋਜਣ ,
ਕਰਦੇ ਸਨ ਚੁੱਪ ਰਹਿ ਕੇ ਪ੍ਰਵਾਸ।

ਉਸ ਵੇਲੇ
ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਜੀਵਨ  
ਸੁੱਚਾ ਤੇ ਸਾਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ।
ਹਰੇਕ ਬੰਦਾ
ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਕੀਤਾ ਵਾਇਦਾ
ਨਿਭਾਉਂਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ,
ਨਾ ਕਿ ਅੱਜ ਵਾਂਗ
ਬੇਵਜਹ ਮਨਾਂ ਚ ਦਹਿਸ਼ਤ ਭਰ ਕੇ
ਦਿਲ ਦੀਆਂ ਧੜਕਣਾਂ ਨੂੰ ਵਧਾਉਂਦਾ ਹੈ ।




ਉਸ ਵੇਲੇ ਦਾ ਫਲਸਫਾ ਸੀ ,
ਚਕਲਾ ਬੇਲਨ ,ਤਵਾ ਪਰਾਤ,
ਜਿੱਥੇ ਸੂਰਜ ਛੁਪਿਆ ਤੇ ਛਿਪਿਆ ,
ਉੱਥੇ ਕੱਟ ਲਵੋ ਰਾਤ ।



ਸਾਡੇ ਵੇਲੇ
ਆਲਾ ਦੁਆਲਾ ਬੜੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ
ਬਦਲ ਰਿਹਾ ਹੈ,
ਕੱਲ ਤੱਕ
ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਤੜਕੇ ਸਾਰ ਰੱਬ ਨੂੰ ਧਿਆਂਉਦੇ ਸਨ,
ਨਾ ਕਿ ਅੱਜ ਵਾਂਗ
ਮੋਬਾਇਲ ਉੱਤੇ ਆਪਣਾ ਧਿਆਨ ਲਗਾਉਂਦੇ  ਹਨ ।
ਕਈ ਵਾਰ
ਮੈਨੂੰ ਇੰਝ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ
ਅਜੋਕੇ ਆਦਮੀ ਨੇ
ਆਪਣੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ
ਮੋਬਾਈਲ ਨਾ ਫੜ ਕੇ
ਇੱਕ ਟਾਈਮ ਬੰਬ ਫੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ,
ਜਿਹੜਾ ਇਨਸਾਨੀ ਸਮੇਂ ਨੂੰ ਬੜੀ ਛੇਤੀ ਨਾਲ ਲੀਲ ਰਿਹਾ ਹੈ ,
ਸਾਡੀ ਹਮਦਰਦੀ, ਵੇਦਨਾ , ਸੰਵੇਦਨਾ ਨੂੰ ਸਾਥੋਂ ਛੀਨ ਰਿਹਾ ਹੈ।


ਸਾਡੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰਿਆਂ ਦਾ ਪ੍ਰਵਾਸ
ਆਲੇ ਦੁਆਲੇ ਦੇ ਪਿੰਡਾਂ, ਸ਼ਹਿਰਾਂ ,ਕਸਬਿਆਂ ਤੱਕ
ਸੀਮਿਤ ਹੁੰਦਾ ਸੀ,
ਮਨਾ ਦੇ ਅੰਦਰ ਅਸੀਮ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਸ਼ਾਂਤੀ ਦਾ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੁੰਦਾ ਸੀ।
50 · Nov 2024
तलाश
Joginder Singh Nov 2024
समय को
तलाश है
उस पीढ़ी की ।
जिसने पकड़ी न हो,
आगे बढ़ने की खातिर
भ्रष्टाचार की सीढ़ी।
Joginder Singh Dec 2024
कहीं सुदूर खिला है पलाश।
कहे है सब से अपनी संभावना तलाश।
रह रह कर दे रहा हो यह सन्देश!
अपनी जड़ों से जुड़ ,जीवन में आगे बढ़!
हो सकता है कि
छोटे शहरों, कस्बों, गांवों में
बड़े दिल वाले,
उदार मानसिकता वाले
मानुष बसेरा करते हों
जो संभावना के स्वागतार्थ
सदैव रहते हों तत्पर।
वे हमेशा मुस्कान बनाए रखते हों,
और सार्थक जीवनचर्या से जुड़े हों।

यह भी संभव है कि
बड़े शहरों,कस्बों और गांवों में तंगदिल,
संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त मानुष हों,
जो स्वयं से
संभावना के आगमन को परे
धकेलते हुए
भीतर तक
जड़ता के अंदर धंसे हों।

अच्छा रहेगा कि
हम सब का जीवन
सकारात्मक सोच से
संचालित होता रहे।
हमारा इर्द गिर्द और परिवेश
सर्वस्व को
सुख सुविधा, समृद्धि और संपन्नता से
जुड़े रहकर ही आह्लादित हो!
जबकि हम व्यर्थ की भाग दौड़ को
जीवन में सुख का मूल समझ कर
स्वयं को नष्ट करने पर तुले हों।
जीवन को जटिल बना रहे हों।
खुद को थका रहे हों
और किसी हद तक
संभावना के आगमन को
अपने जीवन से मतवातर दूर करते हुए
हाशिए से बाहर धकेले जा रहे हों।

आओ हम सब इस
अराजकता के दौर में
अपना ठौर ठिकाना संभालें।
अपनी अपनी संभावना को तलाशें!
कुछ हद तक निज के जीवन को तराशें!!
२८/१२/२०२४.
मनुष्य के समस्त  कार्यकलापों का
है आधार,
भावनाओं का व्यापार।
कोई भी
व्यवसाय को
देखिए और समझिए,
एक सीधा सा
गणित नज़र आता है,
वह है
भावनाओं को समझना
और तदनुरूप
अपना कार्य करना ,
अपने को ढालना।
यह भावनाएं ही हैं
जो हमें जीवन धारा से
जोड़े रखती हैं,
हमारे भीतर जीवंतता
बनाए रखती हैं।
जिसने भी
इन्हें समझ लिया,
उसने अपना उन्नति पथ
प्रशस्त कर लिया।
यह वह व्यापार है
जो कभी फीका नहीं पड़ता,
इसे करने वाला
जीवन में न केवल प्रखर
है होता रहता ,
बल्कि वह संतुलित दृष्टिकोण से
निरन्तर आगे ही आगे है बढ़ता।
भावनाओं का व्यापारी
दर्शन और मनोविज्ञान का
है ज्ञाता होता ,और वह सतत्
अपना परिष्कार करता रहता,
जीवन यात्रा को
आसानी से गंतव्य तक पहुंचाता।
०८/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
49 · Dec 2024
द्वंद्व
Joginder Singh Dec 2024
न्याय प्रसाद
और
अन्याय प्रसाद
के बीच जारी है द्वंद्व ।

न्याय प्रसाद
सबका भला चाहता है ,
वह सत्य का बनना  
चाहता है पैरोकार ,
ताकि मिटे जीवन में से
अत्याचार , अनाचार, दुराचार।

अन्याय प्रसाद
सतत् बढ़ाना चाहता है
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपना रसूख और असर।
वह साम ,दाम ,दंड , भेद के बलबूते
अपना दबदबा रखना चाहता है क़ायम ।

इधर न्यायालय में
न्याय प्रसाद
अन्याय प्रसाद से पूरी ताकत से
लड़ रहा है ,
उधर जीवन में
अन्याय प्रसाद
न्याय प्रसाद का विरोध
डटकर कर रहा है।
आम आदमी क्या खास आदमी तक
इन दोनों की
आपसी खींचतान के बीच
पिस रहा है,
घिस घिसकर मर रहा है।
जैसे चलती चक्की में गेहूं के साथ
घुन भी पिस रही हो ।
१२/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
मुझ में
कोई कमी है
तो मुझे बता ,
यूं ही
दुनिया के आगे
गा गा कर ,
ढोल पीट पीट कर
मुझे न सता ।

चुगलखोर!
हिम्मत है तो!
बीच मैदान आ !
अब अधिक बातें  न बना।
अपनी खूबियों और कमियों सहित
दो दो हाथ करके दिखा ,
ताकि बचे रह सकें
हम सब के हित !
हम रह सकें सुरक्षित!!
१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
लगता है
आज आदमी
आधा रह गया है,
उसमें लड़ने का माद्दा नहीं बचा है।
इसलिए जल्दी ही
देता घुटने
टेक।
कई दफा
बगैर लड़े
मान लेता हार,
उसकी बुजदिली पर कोई करेगा चोट
तो मुमकिन है
वह लड़ने के लिए
करे स्वयं को
तैयार
थाम ले हथियार ।
करअपना परिष्कार !!
तुम उसे उकसाओ तो सही।
उसे उसकी ताकत का
अहसास कराओ तो सही।
उसे सही दिशा दिखाओ तो सही।
उसे लड़ाकू होने की प्रतीति करवाओ  तो सही।
उसे, सही ढंग से समझाओ तो सही।
उसकी समझ की बही में सही होने,रहने का गणित लिखवाओ तो सही।
उस के भीतर मनुष्य होने का आधार बनाओ तो सही।
आज
बस उसके अहम् को खरा बनाओ तो सही।
समन्दर किनारे घर न बनाने के लिए
उसे समझाओ तो सही।
उसकी खातिर ,उसे उसके सही होने की ख़बर सुनाओ तो
सही।
कुछ और नहीं कर सकते तो उसे सही राम बनाओ तो सही।
उसे सही कुर्सी पर बैठाओ तो सही,
ठसक उसके भीतर भर  ही जाएगी जी।
जिजीविषा उसके भीतर
सही सही मिकदार में उत्पन्न हो ही जाएगी जी।
वह बिल्कुल सही है जी।
हम ही सहीराम को गलत समझे जी।
उसको करने दो  अपनी मनमर्जी जी।
जी लेने दो उसे जी भर कर जी।
... क्यों कि वह पूरा आदमी नहीं,
आधा अधूरा आदमी है जी।
परम्परा और आधुनिकता का सताया आदमी है जी,
जो बस रिरियाना और गिड़गिड़ाना जानता है जी।
२९/११/२०२४.
आदमी के भीतर
बहुत सारी संभावनाएं
निहित हैं और उन को उभारना
चरित्र पर करता है निर्भर।
है न !
एक बात विचित्र
बूढ़े आदमी के भीतर
स्मृति विस्मृति के मिश्रण से
निर्मित हो जाता है
एक कोलाज ,
जो जीवन के आज को
दर्शाता है ,
कोई विरला इससे
रूबरू हो पाता है ,
बूढ़े आदमी की व्यथा कथा को
समझ पाता है,
उसके अंदर व्याप्त
समय के आधार पर
वृद्धावस्था की मानसिकता को
कहीं गहरे से जान पाता है।

और इस सबसे ज़रूरी है कि
बूढ़े आदमी के भीतर
सदैव रहना चाहिए
एक मासूमियत से लबरेज़ बच्चा
जो जीवन यात्रा के दौरान
इक्ट्ठा किए झूठ बोलने से हुए निर्मित
धूल मिट्टी घट्टे को झाड़कर
कर सके क़दम दर क़दम
आदमी की जीवन धारा को
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
आदमी दिखाई दे सके
नख से शिख तक सच्चा!
ताकि निश्चिंतता से
आदमी अपनी भूमिका को
ढंग से निभाते हुए
कर सके प्रस्थान!
बिल्कुल उस निश्छलता के साथ
जिसके साथ अर्से पहले
हुआ था उसका आगमन।
अब भी करे वह उसी निर्भीकता से गमन।
भीतर बस आगमन गमन का खेल
लुका छिपी के रहस्य और रोमांच सहित चलता है।
इस मनोदशा में राहत
उनींदी अवस्था में
सपन देख मिलती है।
बूढ़े के भीतर एक परिपक्व दुनिया बसती है।
क्या उसके इर्द-गिर्द की दुनिया
इस सच की बाबत कुछ जानती है ?
या फिर वह बातें बनाने में मशगूल रहती है !
०४/०१/२०२४.
49 · Nov 2024
जीना
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी
जी रहा है
वह भी
जो रहा सदैव
अभावग्रस्त
करता रहा
सतत् संघर्ष ।


जिन्दगी
जी रहा है
वह भी
जो रहा सदैव
खुशहाल।
पर रखा उसने
बहुतों को
फटेहाल!
लोभ , मद,मोह के
जाल में फंसा कर
किया बेहाल।



जिन्दगी
तुम भी रहे
हो जी,
अपने अभावों की
वज़ह से
मतवातर
रहते
हमेशा
खीझे हुए।
सोचो
ऐसा क्यों?
क्या
चेतना गई सो? ऐसा क्यों?
ऐसा क्यों ?
चेतना को
जागृत करो।
अपने जीवन लक्ष्य की
ओर बढ़ो।
१९/०२/२०१३.
जन्म और मरण
इन्सान के हाथ में नहीं।
जैसे जन्मना और मरना
किसी के वश में नहीं।
बीमार -लाचार  
हताश-निराश
आदमी
कभी कभी
मरना चाहता है
पर यह कतई आसान नहीं।
असमय मरने को तुला व्यक्ति
यदि मर भी जाता है
तो वह करता है
किसी पर
कोई अहसान नहीं।
बल्कि वह दुनिया में
कायर ‌कहलाता है,
और उसे भुला दिया जाता है।

आदमी अपने को सक्रिय रखें
ताकि वह सहजता से जीवन पथ पर आगे बढ़े,
अपने अंतर्मन को दृढ़ करते हुए ,
अपनी क्षुद्रताओं से लड़ने का हौसला मन में भरे ,
वह जीवन में संयम से काम लेते हुए
सुख समृद्धि और सम्पन्नता का वरण कर सके।
सक्रियता जीवन है और निष्क्रियता मरण।
कर्मठता से आदमी बन सकता है असाधारण।
मरना और जीना,संघर्ष करते हुए टिके रहना, आसान नहीं।
जीवन को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना ही है सही।
२७/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
बेबस आदमी
अक्सर
अराजकता  के माहौल में
हो जाता है
आसानी से
धोखाधड़ी और ठगीठौरी का शिकार।

बार बार
ठगे जाने पर
अपनी बाबत
गहराई से विचार
करने के बाद
मतवातर
सोच विचार करने पर
आदमी के अंदर
स्वत : भर ही जाता है
संदेह और अविश्वास !
वह कभी खुलकर
नहीं ले पाता उच्छवास !!

आदमी धीरे धीरे
अपने आसपास से
कटता जाता है ,
वह चुप रहता हुआ ,
सबसे अलग-थलग पड़कर
उत्तरोत्तर अकेला होता जाता है।
संशय और संदेह के बीज
अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं ,
जो भीतर तक असंतोष को बढ़ाते हैं।


यही नहीं कभी कभी
आदमी अराजक सोच का
समर्थन भी करने लगे जाता है।
उसकी बुद्धि पर
अविवेक हावी हो जाता है।
वह अपने सभी कामों में
जल्दबाजी करता है ,
जीवन में औंधे मुंह गिरता है।
ऐसी मनोदशा में
अधिक समय बिताते हुए
वह खुद को लुंज-पुंज कर लेता है।
वह क्रोधाग्नि से
स्वयं को असंतुष्ट बना लेता है।
वह कभी भी अपने भीतर को
समझ नहीं पाता है।
यही नहीं वह अन्याय सहता है,
पर विरोध करने का हौसला
चाहकर भी जुटा नहीं पाता है।
और अंततः अचानक
एक दिन धराशायी हो जाता है।
ऐसा होने पर भी
उसका आक्रोश
कभी बाहर नहीं निकल पाता है।
वह अपनी संततियो को भी
किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है।
वे भी अनिर्णय का दंश
झेलने के निमित्त
लावारिस हालत में तड़पते हुए
अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं।
वे मतवातर यथास्थिति बनाए
अशांत और बेचैनी से भरे
भीतर तक कसमसाते रहते हैं।

आप ही बताइए कि
लावारिस शख्स देश दुनिया में
अराजकता नहीं फैलाएंगे ,
तो क्या वे सद्भावना का उजास
अपने भीतर से
कभी उदित होता देख पाएंगे ?
...या वे सब जीवन भर भटकते जाएंगे !!
कभी तो वे अपने जीवन में सुधार लाएंगे !!
कभी तो वे समर्थ और प्रबुद्ध नागरिक कहलाएंगे !!

आजकल भले ही आदमी अपनी बेबसी से जूझ रहा है ,
उसकी बेबस ज़िंदगी इतनी भी उबाऊ और टिकाऊ नहीं
कि वह इस यथास्थिति को झेलती रहे।
रह रह कर असंतोष की ज्वाला भीतर धधकती रहे।
अविश्वास के दंश सहकर अविराम कराहती हुई
अचानक अप्रत्याशित घटनाक्रम का शिकार बनकर
हाशिए से हो जाए बाहर।
आदमी और उसकी आदमियत को
सिरे से नकार कर
एक दम अप्रासंगिक बनाती हुई !
आदमी को अपनी ही नज़रों में गिराती हुई !!
कहीं देखनी पड़ें आदमी की आंखें शर्मिंदगी से झुकीं हुईं !!


बेबसी का चाबुक
कभी तो पीछे हटेगा,
तभी आदमी जीवन पथ पर
निर्विघ्न आगे बढ़ सकेगा।
अपनी हसरतें पूरी कर सकेगा।

कभी तो यथास्थिति बदलेगी।
व्यवस्था
परिवर्तन की लहरों से
टकराकर अपने घुटने टेकेगी।
जीवन धरा फिर से स्वयं को उर्वर बनाएगी।
जीवन धारा महकती इठलाती
अपनी शोख हंसी बिखेरती देखी जाएगी।
इस परिवर्तित परिस्थितियों में
प्रतिकूलता विषमता तज कर
आदमी के विकास के अनुकूल होकर
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाएगी।
सच ! ऐसे में बेबसी की दुर्गन्ध आदमी के भीतर से हटेगी।

२१/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
ਜਿਹੜਾ ਵੀ
ਇਸ਼ਕ ਦੇ ਚੱਕਰ ਚ ਪੈ ਜਾਵੇ,
ਸਚ ਕਹਾਂ ਤਾਂ ਉਹ ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਰੁਲ ਜਾਵੇ।

ਉਹ ਹਮੇਸ਼ਾ ਕਹਿੰਦਾ ਰਹੇਗਾ ਕਿ
ਇਸ਼ਕ ਸੀ,
ਇਸ਼ਕ ਹੈ,
ਇਸ਼ਕ ਰਹਿੰਦੀ ਵਸਦੀ ਦੁਨੀਆਂ ਤੱਕ ਰਹੇਗਾ ।
ਪਰ ਉਹਦੀ ਕਿਸਮਤ ਚ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਕਿ
ਉਹ ਪੱਥਰ ਦਾ ਸਨਮ ਬਣਿਆ ਰਹੇਗਾ
ਅਤੇ ਉਹ ਘੁੱਟ ਘੁੱਟ ਕੇ ਜੀ ਲਵੇਗਾ,
ਮਗਰ ਆਸ਼ਿਕ ਬਣਨ ਤੋਂ ਕਦੇ ਨਾ ਹਟੇਗਾ ,ਨਾ ਹੀ ਪਿੱਛੇ ਰਹੇਗਾ।
ਜੇਕਰ ਉਹ ਪਿੱਛੇ ਹਟ ਗਿਆ ਤਾਂ ਭੈੜਾ ਜਮਾਨਾ ਕੀ ਕਹੇਗਾ ।

ਅੱਜ ਆਸ਼ਕ ਆਪਣੇ ਦੁੱਖ ਮੋਢਿਆਂ ਤੇ ਚੁੱਕੇ
ਪਿੰਡ ਪਿੰਡ, ਗਲੀ ਗਲੀ, ਸ਼ਹਿਰ ਸ਼ਹਿਰ,ਘੁੰਮਦਾ ਪਿਆ ਹੈ ।
ਉਸ ਦੀ ਦੁੱਖ ਭਰੀ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਕੋਈ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸਮਝ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਉਹ ਮਰ ਜਾਏਗਾ ਪਰ ਇਸ਼ਕ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਾ ਹਟੇਗਾ ।
ਜੇਕਰ ਉਹ ਪਿੱਛੇ ਹਟ ਗਿਆ ਤਾਂ ਭੈੜਾ ਜਮਾਨਾ ਕੀ ਕਹੇਗਾ।


ਅੱਜ ਵੀ ਉਸ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ
ਆਸ਼ਕਾਂ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ
ਇੱਕ ਚਾਨਣ ਮੁਨਾਰਾ ਬਣ ਕੇ ਖੜਾ ਹੈ ,
ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਜਜਬਾ ਹੀ ਸਭ ਜਜਬਿਆਂ ਤੋਂ ਬੜਾ ਹੈ।

ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਦੇ
ਪਾਕ ਜਜ਼ਬਿਆਂ ਦੀ ਖਾਤਰ
ਅੱਜ ਆਸ਼ਿਕ ਬਣਿਆ ਹੈ ਪ੍ਰੇਮ ਲਈ ਪਾਤਰ ।
ਉਸ ਦੀ ਝੋਲੀ ਚ ਹਮਦਰਦੀ ਦੇ ਕੁਝ ਬੋਲ ਦਿਲੋਂ ਦੇ ਦਿਓ ।
ਉਹ ਉਲਫਤ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਦੀ ਪਵਿੱਤਰਤਾ ਦੇ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਸੱਦਾ ਦੇ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਵੇ ਰੱਬਾ, ਤੂੰ ਉਹਨਾਂ ਪਾਕ ਰੂਹਾਂ ਦੀਆਂ ਧੜਕਣਾਂ ਨੂੰ
ਆਸ਼ਕਾਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ਅੰਦਰ ਸੰਭਾਲ ਕੇ ਰੱਖੀਂ।
ਆਸ਼ਕ ਹਮੇਸ਼ਾ ਗੂੰਗਾ ਤੇ ਜੜ ਬਣ ਕੇ ਰਹੇਗਾ ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਦੁੱਖ ਦਰਦ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਕਹੇਗਾ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਸਾਰੇ ਮੌਸਮਾਂ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀ ਖੁਸ਼ੀ ਸਹੇਗਾ।
ਇਸ਼ਕ ਲਈ ਜੀਏਗਾ ਤੇ ਇਸ਼ਕ ਲਈ ਮਰੇਗਾ।
ਉਹ ਪ੍ਰੇਮ ਨਗਰ ਵੱਲ ਆਪਣੇ ਕਦਮਾਂ ਨੂੰ ਚੁੱਕਦਾ ਰਹੇਗਾ।
ਓਹ ਕਦੇ ਵੀ ਉਫ਼ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗਾ।
ਉਹ ਦੁਨੀਆਂ ਦੇ ਤਾਨੇ ਮਿਹਣੇ ਖੁਸ਼ੀ ਖੁਸ਼ੀ ਸਹੇਗਾ ।
Joginder Singh Dec 2024
कोई चीख
रात के अंधेरे में से
उभरी है
और
अज्ञान का अंधेरा
इसे कर गया है जज़्ब।

कोई , एक ओर चीख
अंतर्मन के बियाबान में से
उभरी है
और व्यस्त सभ्यता
इसे कर गई है नजरअंदाज।

कोई , और ज़्यादा चीखें
धरा के साम्राज्य में से
रह रह कर उभर रहीं हैं
और अस्त व्यस्त
दार्शनिकता ने
इन चीखों को
दे दिया है
इनकी पहचान के निमित्त
एक नाम "समानांतर चीखें" ।

क्या ये आप तक
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद
आप के पास गुहार लगा रहीं हैं ?
श्रीमंत !
अपनी सामंतवादी सोच को विराम दो ।
उनके लिए कुछ सार्थक काम करो
ताकि कहीं तो
आज की आपाधापी के बीच
अशांत मनों को
सुख चैन और सुकून के अहसास मिलें ।
ये चीखें
हमारे अपनों की
कातर पुकार हो सकती हैं ।
कोई तो इन्हें सुने ।
इनके भीतर आशा और आत्मविश्वास जगे ।
१७/०७/१९९६ .
Joginder Singh Nov 2024
आदमी के भीतर
उम्मीद बनी रहे मतवातर ,
तो आदमजात करती नहीं
कोई शिकवा, गिला ,शिकायत ।

अगर
कभी भूल से
जिंदगी करने लगे ,
ज़रूरत के वक्त
बहस मुबाहिसा
तो भी भीतर तक  
आदमी रहता है शांत ,
वह बना रहता धीर प्रशांत ।

वह कोई बलवा
नहीं करता।
उम्मीद उसे
ज़िंदादिल बनाए रखती है,
'कुछ अच्छा होगा। ',
यह आस
उसे कर्मठ बनाए रखती है ।
जीवन की गति को बनाए रखती है ।
३०/११/२०२४.
49 · Nov 2024
विवाहिता
Joginder Singh Nov 2024
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
49 · Mar 11
परवाज़
जीवन में
अपने बच्चों को
आज़ादी दे कर
उन्मुक्त रहकर उड़ने दो।
उन्हें जीवन में एक लक्ष्य दो।
फिर उन्हें बगैर हस्तक्षेप
मंज़िल की ओर बढ़ने दो।
उन्हें जी भरकर
अपने रंग ढंग से
जीवनाकाश में
परवाज़ भरने दो।

समय रहते
मोह के बंधनों से
उन्हें मुक्त कर दो
ताकि वे अपने परों को
भरपूर जीवन शक्ति से
खोल सकें,
मन माफ़िक दिशा में
उड़ारी भर सकें।
जीवन यात्रा में
अपनी मंज़िल को
सहर्ष वर सकें।


तनाव रहित जीवन चर्या से
अच्छे से परवाज़ भरी जाती है,
अतः बच्चों के भीतर
आत्मविश्वास भरने दो,
उन्हें अपने सपने साकार करने दो।
उन्हें परवाज़ के लिए खुले छोड़ दो
ताकि उनका जीवन यात्रा पथ के लिए
अपने को कर सके समय रहते तैयार।
वे करें न कभी आप से
कभी कोई शिकवा और शिकायत।
उन्हें मिलनी ही चाहिए
ऊर्जा भरपूर रवायत ,
परवाज़ भरने की !
मंज़िल वरने की !!
११/०३/२०२५.
49 · Nov 2024
चाँद
Joginder Singh Nov 2024
कितने चाँद
तुम
ढूंढना
चाहते हो
जीवन के
आकाश में ?
तुम रखो याद
जीने की खातिर
एक चाँद ही काफ़ी है ,
सूरज की तरह
जो मन मन्दिर के भीतर
प्रेम जगाए,
रह रह कर झाँके
जीवन कथा को बाँचे।
और साथ ही
जीवन को
ख़ुशी के मोतियों से
जड़कर
इस हद तक
बाँधे,
कोई भी
जीवन रण से
न भागे।
१०/०१/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
वह इस भरेपूरे संसार में
अपनेपन के अहसास के बावजूद
निपट अकेला है ।
वह ढूंढ रहा है सुख
पर...
उससे लिपटते जा रहें हैं दुःख ,
जिन्हें वह अपना समझता है
वे भी मोड़ लेते हैं
उससे मुख ।

काश ! उसे मिल सके
प्यार की खुशबू
ताकि मिट सके
उसके भीतर व्यापी बदबू ।

वह इस भरेपूरे संसार में
निपट अकेला है ,
क्यों कि दुनिया के इस मेले को
समझता आया एक झमेला है
फलत:
अपने अनुभव को
अब तक
बांट नहीं पाया है
अपने गीत
अकेले गाता आया है।
कोई उसे समझ नहीं पाया है।
शायद वह
अभी तक
स्वयं को भी नहीं समझ पाया है!
बस अकेला रह कर ही
वह जीवन जी पाया है।
वह भटकता रहा है अब तक
कोई उसके भीतर झांक नहीं पाया है!
उसके हृदय द्वार पर दस्तक
नहीं दे पाया है !
उसने खुद को खूब भटकाया है।
अब तो उसे भटकाव भाने लगा है!
इस सब की बाबत सोचता हुआ
वह पल पल रीत रहा है।
हाय! यह जीवन बीत चला है।
  १६/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
बेशक जीवन में
धूम धड़ाका
सब को अच्छा लगता है
पर इसका आधिक्य
बाधा भी उत्पन्न करता है।
धूम धड़ाका घूम घूम कर
धड़धड़ाता हुआ
कभी कभार
खूनी साका भी
रच जाता है,
यह तबाही के मंज़र भी
दिखला जाता है।

आदमी एक सीमा के बाद
इसे अपने जीवन में करने से बचे।
कम से कम वह अपनी खुशियों का अपहरण
स्वयं तो न करे , वह थोड़ा सा गुरेज़ करे।

कभी कभी
धूम धड़ाके जैसा आडंबर का सांप
चेतना और विवेक को न डस सके।
आदमी सलीके से
अपने स्वाभाविक ढंग से
इस बहुआयामी दुनिया के मज़े
दिल से ले सके।
उसकी राह में कोई अड़चन न पैदा हो सके।
वह अपने परिवार के संग
ख़ुशी ख़ुशी जीवन का आनंद उठा सके।
वह कभी धूम धड़ाका करने के चक्कर में
घनचक्कर न बने।
उसके सभी क्रिया कलाप
समय रहते सध सकें।
इस सब की खातिर
सभी जीवन में
अनावश्यक
धूम धड़ाका करने से पहले
अच्छी तरह से
सोच विचार करें
और इस से
जितना हो सके , उतना बचें ,
ताकि आदमी का चेहरा मोहरा
धूम धड़ाके की कालिख से बचा रहे।
उसकी पहचान धूमिल होने से बची रहे।
२२/१२/२०२४.
बेशक
आपकी निगाह
कितनी ही
पाक साफ़ हों ,
जाने अनजाने ही सही
यकायक
यदि कोई गुनाह
हो ही जाए तो
यक़ीनन
मन और तन में
तनाव
मतवातर बढ़ता जाता है ,
इस गुनाहगार होने का वज़न
ज़िन्दगी को असंतुलित
करता जाता है।
सच
बोलने से पहले
अपने आप को तोलने से
गुनाह करने के अहसास से
झुके
मन के पलड़े को
संतुलित
करता जाता है।
यह जिंदगी
बगैर मकसद
एकदम बेकार है।
कर्म करना ,
फल की चिंता न करना
जीवन को सार्थकता की ओर
ले जाता है ,
यह निरर्थकता के
अहसास
और गुनाहगार
बनने से भी बचाता है।
ऐसा जीवन ही
हमें जीवन सत्य से
सतत जोड़ता जाता है ,
जीवन पथ को
निष्कंटक बनाता है।
गुनाह का लगातार अहसास
आदमी को
भटकाता रहा है ,
यह मन पर वज़न बढ़ा कर
आत्मविश्वास को
खंडित कर देता है ,
आदमी को
अपरोक्ष ही
दंडित कर देता है।
इस अहसास का शिकार
न केवल कुंठित हो जाता है
बल्कि वह बाहर भीतर तक
कमजोर पड़कर
जीवन रण में हारता जाता है।
१९/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
ਪਿਆਰੇ ਦਾ
ਕਿਹੋ ਜਿਹਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿਰਦਾਰ ‌

ਮੈਨੂੰ ਇਹਦਾ
ਰਹਿੰਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ


ਮੈਂ ਪਿਆਰੇ ਨੂੰ ਉਡੀਕਦਾ ਹਾਂ,
ਰਹਿ ਰਹਿ ਕੇ ਸੋਚਦਾ ਹਾਂ,
ਪਿਆਰ ਵਿੱਚ ਕੱਲੀ ਵਾਸਨਾ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ,
ਇਸ ਵਿੱਚ ਤਿਆਗ ਦੀ ਕਥਾ ਵੀ ਹੈ ਰਹਿੰਦੀ
ਜਿਹੜੀ  ਸਾਰੇ ਜਬਰ ਜੁਲਮ ਨੂੰ ਚੁੱਪਚਾਪ ਸਹਿੰਦੀ


ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਪਿਆਰੇ ਦਾ ਹੈ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਜਿਹੜਾ ਦੇਵੇਗਾ ਮੇਰੀ ਨੁਹਾਰ ਨਿਖਾਰ
ਉਸ ਉੱਤੇ ਮੈਂ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਪੂਰਾ ਐਤਬਾਰ
Joginder Singh Nov 2024
गुप्त
देर
तक

गुप्त न रहेगा!
यह नियति है !!
विचित्र स्थिति है!
वह सहजता से  
होता है प्रकट
अपनी संभावना को खोकर।


गुप्त
भेद खुल जाने पर
हो जाता है
लुप्त!
न!न! असलियत यह है कि
वह
अपने भेदों को
मतवातर छुपाता आया है
आज अचानक भेद खुलने से
उसका हुआ है अवसान।  
सारे भेद हुए प्रकट यकायक।
भीतर तक शर्मसार!!
अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!!
कोई अंत की सुई चुभोकर,
कर गया बेचैन।
जगा गया गहरी नींद से,
और स्वयं सो गया गहरी  नींद में।
वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है ,
जिसे गुप्त के अवसान के
नाम से नई पहचान दे दी तुमने
जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन!
तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!
48 · Apr 26
Technique
In the world of invention and research
technique plays a vital role nowadays.
So merely academic qualification
usually fails in life.
One must be skill friendly to exist
in a stressful ,
struggle full ,
competitive world.
To master
the learning regarding technique,
one must remain vigilant towards activities
involved around it.
If you failed
to take initiative intime ,
there is always a possibility to compromise,and than
you have to make adjustments throughout your life ,
so it is better
to understand the working pattern of the machine
which you have to operate  
during production hours.
You must be careful all the time for quick and unique success.
24/04/2087.
Joginder Singh Nov 2024
कहीं गहरे तक
उदास हूँ ,
भीतर अंधेरा
पसरा है।
तुम चुपके से
एक दिया
देह देहरी पर
रख ही दो।
मन भीतर
उजास भरो ।
मैल धोकर
निर्मल करो।
कभी कभार
दो सहला।
जीवन को
दो सजा।
जीवंतता का
दो अहसास।
अब बस सब
तुम्हें रहे देख।
कनखी से देखो,
बेशक रहो चुप।
तुम बस सबब बनो,
नाराज़ ज़रा न हो।
मुक्त नदी सी बहो,
भीतरी उदासी हरो।
यह सब मन कहे,
अब अन्याय कौन सहे?
जो जीवन तुम्हारे अंदर,
मुक्त नदी बनने को कहे।

२५/११/२०२४.
व्यक्ति को
विशेष
बनाता है ,
मन के भीतर व्याप्त
जिम्मेदारी का
अहसास!
व्यक्ति
स्वयं को
समझता है खास।
अभी अभी
सुबह सुबह
पढ़ी है एक ख़बर
मेरे शहर का
एक बालक
जूडो की चैंपियनशिप में
जीत कर लाया है
एक सिल्वर मेडल।
वह बड़ा होकर
माँ को देना चाहता है
एक घर की सौगात !
छोटे भाई को
बनाना चाहता है
एक अच्छा इंसान !
उम्र उसकी अभी है
बारह साल ,
वह रखना चाहता है
माँ और छोटे भाई का ख्याल।
जिम्मेदारी की भावना
उसे बना देती है ख़ास।
उसे है जीवन की
मर्यादा का अहसास।
मैं चाहता हूँ कि
मेरा शहर उसके स्वप्न को
पूरा करने में मददगार बने
ताकि विशिष्टता का भाव
उसके भीतर सदैव बना रहे।
जीवन संघर्ष में वह विजयी बने।
सार्थकता के पुष्प
उसके इर्द गिर्द खिलते रहें !
उसे प्रफुल्लित करते रहें !!
विशेष विशिष्ट बने!
जीवन की सुगंध
उसका मार्ग प्रशस्त करती रहे।
२१/०१/२०२५.
भाई भाई
आज आपस में क्यों लड़े ?
इस बाबत
क्या कभी किया है
किसी ने विचार विमर्श ?
भाई भाई
बचपन में  परस्पर लड़ने से
करते थे गुरेज
बल्कि यदि कोई
उन से लड़ने का प्रयास करता
तो वे सहयोग करते ,
विरोधी पर टूट पड़ते।
अब ऐसा क्या हो गया है ,
भाई भाई का वैरी हो गया है।

दो बिल्लियों के बीच
मनभेद होने पर
बन्दर की मौज हो जाती है ,
इसे आज तक भी
वे समझ नहीं पाई हैं।
समसामयिक संदर्भों में
अब इसे समझा जाए ,
दो पड़ोसी देश
जिनका सांझा विरसा है ,
द्विराष्ट्र सिद्धान्त से
जिन्हें पूंजीवादी देश ने
गुलामी के दौर से लेकर
आजतक चाल चलकर
हर रंग ढंग से छला है।
उन्हें कमज़ोर रखने के निमित्त
उनको न केवल विभाजित किया गया
बल्कि उनमें
आपसी समन्वय न होने देने की ग़र्ज से ,
उन्हें प्रगति पथ पर बढ़ने से रोकने के लिए
बरगलाया गया है।
उनके अहम् के गुब्बारे को फुलाकर
उन्हें अक्लबंद बनाया गया है।
यदि वे अक्लमंद बन जाते ,
तो कैसे सरमायेदार देश
उन्हें भरमाते , फुसलाकर,
निर्धनता के जाल में फंसा पाते ?

आज के बदलते दौर में
बन्दर अब
एक न होकर
अनेक हैं ,
यह सच है कि
उनके इरादे
कभी भी नेक नहीं रहे हैं।
वे भाइयों को लड़वा सकते हैं।
जरूरत पड़ने पर
सुलह और समझौता भी
करवा सकते हैं ,
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए
उनको फिर से विभाजन की राह
पर ले जाकर मूर्ख भी बना सकते हैं।

बन्दर कलन्दर बन कर राज कर रहा है।
वह बन्दर पूंजीवादी भी हो सकता है
और कोई तानाशाह समाजवादी भी।
यह बिल्लियों को देखना है कि
वे किस पाले में जाना पसंद करेंगी ?
या फिर अक्लमंद बन कर सहयोग करेंगी ??
आज ये लड़ने पर आमादा हैं।
पता नहीं ये कब तक लड़ती रहेंगी ?
शत्रु की शतरंजी चालों में फंसकर
अपने सुख ,समृद्धि और सम्पन्नता को
बन्दर बांट करने वालों तक पहुंचाती रहेंगी।
आज भाई परस्पर न लड़ें।
वे समझ लें जीवन का सच कि
लड़ाई तो बस जग हंसाई कराती है।
यह दुनिया भर में निर्धनता को बढ़ाती है।
०९/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
तू अनाप शनाप खर्च न किया कर।
कठिन समय है,कुछ बचत किया कर।
खुदगर्ज़ी छिपाने की मंशा से दान देता है,
बिना वज़ह धन को लुटाने से बचा कर।
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
मत बन बेपरवाह, मितव्ययिता अपना,
अनाप शनाप खर्च से जीवन होता तबाह।
धोखा खाने, पछताने से अपना आप बचा।
देख, कहीं यह जीवन बन न जाए एक सज़ा।।
जीवन में बहुत से
अवसर होते हैं मयस्सर सभी को
परन्तु इसके लिए
व्यक्ति को करनी पड़ती है
प्रतीक्षा।

इस जीवन में
प्रतीक्षा करना है बहुत कठिन।
यह एक किस्म से
व्यक्ति के धैर्य की होती है
परीक्षा।
जो इस में सफल रहता है ,
वहीं जीवन में विजयी कहलाता है।
सच!
प्रतीक्षा
किसी परीक्षा से
कम नहीं।
इसे करते समय
मानसिकता होनी चाहिए
जड़ से शिख तक सही।
१५/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सरे राह
जब कभी भी
किसी की इज़्ज़त
नीलाम होने को होती है ,
तो उसकी देह और घर की देहरी से
निकलती हैं आहें कराहें ।

इसे
शायद ही कोई
सुन पाता है !
इज़्ज़त की नीलामी को
रोक पाता है !!


दोस्त ,
अपने कुकर्मों से
निजात पा ,
सत्कर्मों की राह पर
ख़ुद को लेकर जा
ताकि
अपना घर
नीलाम होने से सके बच
और
जीवन की खुशियों को
कोई
सके न डस ।

दोस्त!
सुन संभल जा ,
खुद और अस्मिता को
नीलाम होने से बचा।  

२१/०२/२०१४.
Joginder Singh Nov 2024
सत्ताधारी  की
कठपुतलियां  बने  हैं  हम !

विद्रोह  करने  से
हिचकते , झिझकते  हैं हम !

फिर  कैसे  दिखाएं?
किसे  दिखाएं ?
नहीं  रहा  भीतर  कोई  दमखम ,
अपने  हिस्से  तो  आए  लड़खड़ाते  क़दम  !

२६/०६/२०२८.
Joginder Singh Nov 2024
जब से जंगल सिकुड़ रहे हैं ,
धड़ाधड़ पेड़ कट रहे हैं,
अब शेर भी बचे खुचे दिन गिन रहे हैं !
वे उदासी की गर्त में खोते जा रहे हैं!!

हाय! टूट फूट गए ,शेरों के दिल ।
जंगल में शिकारी आए खड़े हैं ।
वे समाप्त प्रायः शेरों का करना चाहते शिकार।
या फिर पिंजरे में कैद कर चिड़िया घर की शोभा बढ़ाना।

सच! जब भी जंगल में बढ़ती है हलचल,
आते हैं लकड़हारे ,शिकारी और बहुत सारे दलबल।
शेर उनकी हलचलों को ताकता है रह जाता ।
चाहता है वह ,उन पर हमला करना, पर चुप रह जाता है।

जंगल का राजा यह अच्छी तरह से जानता है,
यदि जंगल सही सलामत रहा, वह जिंदा रहेगा।
जैसे ही स्वार्थ का सर्प ,जंगल को कर लेगा हड़प।
वैसे ही जंगल की बर्बादी हो जाएगी शुरू,
एक-एक कर मरते जाएंगे तब ,जीव जगत और वनस्पति।
आदमी सबसे अंत में तिल तिल करके मरेगा।
ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण से आदमी घुट घुट कर मरेगा।
आदमी सर्प बन ,जंगल ,जंगल के राजा शेर को ले मरेगा।
क्या आदमी कभी अपने दुष्कृत्यों से  कभी डरेगा ?
अब कौन सूरमा शेर और जंगल को बचाने के लिए लड़ेगा?
आज जंगल में रहने वाले जीव और उनका राजा खतरे में है।
शेर का संकट  दिनों दिन विकट होता जा रहा है।
यह सोच , मन घबरा रहा है,दिमाग में अंधेरा भर गया है ।
शेर का अस्तित्व संकट में पड़ गया है, मेरा मन डर गया है।

जंगल का शेर ,आज सचमुच गया है डर।
वह तो बस आजकल, ऊपर ऊपर से दहाड़ता है।
पर भीतर उसका, अंदर ही  अंदर कांपता है ।
यह सच कि वह खतरे में है, शेर को भारी भांति है विदित।
यदि  जंगल  बचा रहेगा,  तभी  शेर  रह ‌पाएगा  प्रमुदित।
१३/०१/२०११.
Joginder Singh Dec 2024
समय की बोली बोलकर
यदि समझे कोई ,
कर्तव्यों से इतिश्री हुई
तो जान  ले वह
अच्छी तरह से
कर गया है वह  ग़लती ,
भले ही
अन्तस को झकझोरता सा
भीतर उत्पन्न हो जाए
कोई तल्ख़ अहसास
बहुत देर बाद
अचानक नींद में।
आदमी को यह बना दे
अनिद्रा का शिकार।

समय की बोली बोलकर ,
सच्चा -झूठा बोलकर ,
यदा-कदा
जीवन के तराजू पर
कम तोलकर ,
समय को धक्का लगाने की
खुशफहमी पाली जा सकती है ,
मन के भीतर
गलतफहमी को छुपाया जा सकता है
कुछ देर तक ही।
जिस सच को हम
अपने जीवन में छुपाने का
करते हैं प्रयास,
पर , वह सच अनायास
सब कुछ कर जाता है प्रकट ,
जिसे छुपाने की
कोशिशें हमने निरंतर जारी  रखीं।
ऐसे में
आदमी रह जाता हतप्रभ।
परन्तु समय रहते
स्वयं को संतुलित रखते हुए
शर्मिंदगी से
किया जा सकता है
इस सब से अपना बचाव ।


समय की बोली बोल रहे हैं
अवसरवादी बड़ी देर से
कथनी और करनी में अंतर करने वाले
लगने लगते हैं
एक समय
कूड़े कर्कट के ढेर से ।

जीवन की गतिविधियों पर
गिद्ध नज़र रखने वालों से
सविनय अनुरोध है कि
वे समय की बोली बोलें ज़रूर
मगर , कुछ कहने से पहले
अपना बयान दें बहुत सोच समझकर
कहीं हो न जाए गड़बड़ !
मन में पैदा हो जाए बड़बड़ !!
अचानक से ठोकर लग जाए!
आदमी घर और घाट का रास्ता भूल जाए !!
जीवन की भूल भुलैया में ,
जिंदगी के किसी अंधे मोड़ पर ,
जीवन में संचित आत्मीयता
कहीं अचानक ! एकदम अप्रत्याशित !!
आदमी को जीवन में अकेला छोड़ कर
कहीं दूर यात्रा पर निकल जाए !
आदमी अकेलेपन
और अजनबियत का हो जाए शिकार।
वह स्वयं की बाबत  करने लगे महसूस
कि वह जीवन में बनकर रह गया है एक 'जोकर' भर ।

२०/०३/२००६.
ਆਦਮੀ ਜਦੋਂ ਮਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਕੀ ਉਸ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ
ਮੇਰਾ ਮੰਨਨਾ ਹੈ
ਉਸ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਇੱਛਾ ਪੂਰੀ ਕਰਨ ਦਿਓ
ਜੇਕਰ ਉਹ ਰੱਬ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਚ ਹੀ ਜਾਣਾ ਚਾਹੇਗਾ
ਤਾਂ ਕੀ ਉਹ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ ।
ਰੱਬ ਕਿਥੇ ਹੋਰ ਨਹੀਂ
ਸਾਡੇ ਮਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ ,
ਇਸ ਸੱਚ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਵਿੱਚ
ਕਿਉਂ ਹਰ ਕੋਈ ਡਰਦਾ ਹੈ।
ਬੇਵਕਤ ਮਰਨ ਨਾਲੋਂ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕਸ਼ਟ ਝੱਲਣਾ ਚੰਗਾ ਹੈ।
ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ ਬੰਦਾ ਹੈ ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੀ ਇੱਕ ਫੰਦਾ ਹੈ।
ਜਿੰਦਗੀ ਖੁੱਲ ਕੇ ਜੀਓ ,ਐਵੇਂ ਹੀ ਨਾ ਰੋਂਦੇ ਰਹੋ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਇੱਕ ਝਮੇਲਾ ਨਹੀਂ
ਇਹ ਇੱਕ ਬਹੂ ਰੰਗੀ ਮੇਲਾ ਹੈ
ਆਓ ਇਸ ਮੇਲੇ ਦਾ ਆਨੰਦ ਮਾਨੀਏ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪਹਿਚਾਣੀਏ

ਜੇਕਰ ਕੋਈ ਮਰਨਾ ਹੀ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇੱਕ ਵਾਰ ਰੱਜ ਕੇ ਉਸ ਨਾਲ
ਖੁੱਲੇ ਦਿਲ ਨਾਲ ਵਿਚਾਰ ਵਟਾਂਦਰਾ ਕਰੀਏ।
ਉਸ ਨਾਲ ਜੀ ਭਰ ਕੇ ਗੱਲਾਂ ਕਰੀਏ ,
ਉਸਦੇ ਅੰਦਰ ਚੜਦੀ ਕਲਾ ਚ
ਰਹਿਣ ਦੇ ਵਿਚਰਨ ਦੀ
ਚਾਹਤ ਭਰੀਏ ।
ਮੌਤ ਇੱਕ ਸੱਚਾਈ ਹੈ
ਪਰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੇ ਇਸ ਦੀ
ਆਪਣੀ ਰੰਗਾਂ ਤੇ ਖੂਬਸੂਰਤੀ ਨਾਲ
ਮਰਨ ਦੀ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਭਰਪਾਈ ਹੈ ,
ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੀ ਇੱਛਾ ਕਰਨਾ
ਇੱਕ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਬੁਰਾਈ ਹੈ ।
ਸਮੈ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੇ ਬਾਬਤ
ਕਦੇ ਵੀ ਨਾ ਸੋਚੋ, ‌ ਬਲਕਿ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਬਾਰੇ
ਇਸ ਨੂੰ ਗੁਲਜ਼ਾਰ ਕਰਨ ਬਾਰੇ ਸੋਚੋ।
ਐਵੇਂ ਨਹੀਂ ਦੁੱਖਾਂ ਭਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਕੁਰੀਦਦੇ ਰਹੋ।
Joginder Singh Dec 2024
अब और नहीं
यह दुनिया
मजहबों , धर्मों के बलबूते
बांटो ।

पागलपन को रोको !
भले ही
पागलपन को ,
पागलपन से काटो ।

अब और नहीं
खुद को
मुखौटों में
बांटो।

अब और नहीं
कोई साज़िश
रचो।
कम अज कम
अपनी खुशियों को
वरो।
अब और अधिक
अत्याचार ,
अनाचार
करने से
डरो।

ओ ' तानाशाह!
तुम्हारे पागलपन ने
आज
दुनिया कर दी
तबाह।
१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
सच है!
जब जब
भीतर
ढेर सा दर्द
इक्ट्ठा होता है,
तब तब
जीवन की मरुभूमि में  
अचानक
एकदम अप्रत्याशित
कैक्टस उगता है।
जहां पर
रेत का समन्दर हो,
वहां कैक्टस का उगना।
अच्छा लगता है।

मुझे विदित नहीं था कि
ढेर सारा दुःख, दर्द
तुम्हारे भीतर भरा होगा।


और एक दिन
यह बाहर छलकेगा
कैक्टस के खिले फूल बनकर,
जो जीवन में रह जाएगा
ऊबड़-खाबड़ मरूभूमि का होकर।

यह कतई ठीक नहीं,
हम बिना लड़े और डटे
जीवन रण में
मरूभूमि में
जीवन बसर करने से
निसृत दर्दके आगे
घुटने टेक दें,  
मान लें  हार,यह नहीं हमें स्वीकार।


क्यों न हम!
इस दर्द को  
भूल जाने का
करें नाटक ।

और
कैक्टस सरीखे होकर
जीवन की बगिया में
फूल खिलाएं!
जीवन धारा के संग
आगे बढ़ते जाएं !!
थोड़ा सा
अपने अभावों को भूलकर
जी भरकर खिलखिलाएं!

सच है!
कैक्टस पर फूल भी खिलते हैं।
जीवन की मरूभूमि में
मुसाफ़िर
अपने दुःख,दर्द,तकलीफें
अंदर ही अंदर समेटे
सुदूर रेगिस्तान में
यात्राएं करते हैं
नखलिस्तान खोजने ‌के लिए।
जीवन में मृग मरीचिका और
अपनी तृष्णा, वितृष्णा को
शांत करने के लिए।
कैक्टस के खिले फूल
खोजने के निमित्त,
ताकि शांत रहे चित्त।
कैक्टस पर खिले फूल
मुरझाए कुम्हलाए मानव चित्त को
कर दिया करते हैं आह्लादित,
आनंदित, प्रफुल्लित, मुदित, हर्षित।
धर्म क्या है ?
यह जीवन में अच्छे और सच्चे
मूल्यों को धारण करना है ,
स्वयं को संतुलित रखना
और शुचिता के पथ पर अग्रसर करना है।
आप निरपेक्ष रहकर
जीवन में
भले ही आगे बढ़ने का
भ्रम पाल लें ,
भले ही मन को
समझा लें
कि आप सुरक्षित हैं ,
असलियत है कि
आप धर्मनिरपेक्षता के
आवरण में
पहले की निस्बत
अधिक असुरक्षित हैं।

आज
धर्म निरपेक्षता का
छद्म मुखौटा ओढ़े
लोग और दल
देश दुनिया और समाज को
दलदल में धकेल रहे हैं ,
अपनी रोजी रोटी ढूंढ रहे हैं।
यह मुखौटा ओढ़ने से
किसी भी मामले में ‌कम नहीं।
यह कतई सही नहीं है।
आप मुखौटा कब ओढ़ते हैं ?
आप मुखौटा क्यों ‌ओढ़ते हैं ?
अपनी ‌पहचान छुपाने के लिए !
किसी मकसद को हासिल करने के लिए !!
या कभी कभी विशुद्ध मनोरंजन करने के लिए !!!

मुखौटा ओढ़ कर
इधर उधर विचरण करना
खुद और सबसे
धोखा देना नहीं है क्या ?
यह सच से छिपना नहीं है क्या ?

धर्म निरपेक्षता एक छलावा है।
पंथ निरपेक्षता जीवन धारा को देना बढ़ावा है।
आदमी पंथ निरपेक्ष बने,
ताकि वह रोजमर्रा के जीवन में
निरंतर निर्विघ्न आगे बढ़ सके।
धर्म निरपेक्षता के सच को उजागर कर सके।
इतिहास के संदर्भ में धर्म निरपेक्षता को समझ सके।
०८/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
बहस करती है मन की शांति भंग
यह मतवातर भटकाती है जीवन की ऊर्जा को
इस हद तक कि भीतर से मजबूत शख़्स भी
टूटना कर देता है शुरू और मन के दर्पण में
नज़र आने लगती हैं खरोचें और दरारें !
इसलिए कहता हूँ सब से ...
जितना हो सके, बचो बहस से ।
इससे पहले कि
बहस उत्तरोत्तर तीखी और लम्बी हो जाए ,
यह ढलती शाम के सायों सी लंबी से लंबी हो जाए ,
किसी भी तरह से बहसने से बचा जाए ,
अपनी ऊर्जा और समय को सृजन की ओर मोड़ा जाए ,
अपने भीतर जीवन के सार्थक एहसासों को भरा जाए।

इससे पहले कि
बात बढ़ जाए,
अपने क़दम पीछे खींच लो ,
प्रतिद्वंद्वी से हार मानने का अभिनय ही कर लो
ताकि असमय ही कालकवलित होने से बच पाओ।
एक संभावित दुर्घटना से स्वयं को बचा जाओ।
आप ही बताएं
भला बहस से कोई जीता है कभी
बल्कि उल्टा यह अहंकार को बढ़ा देती है
भले हमें कुछ पल यह भ्रम पालने का मौका मिले
कि मैं जीत गया, असल में आदमी हारता है,
यह एक लत सरीखी है,
एक बार बहस में
जीतने के बाद
आदमी
किसी और से बहसने का मौका
तलाशता है।
सही मायने में
यह बला है
जो एक बार देह से चिपक गई
तो इससे से पीछा छुड़ाना एकदम मुश्किल !
यह कभी कभी
अचानक अप्रत्याशित अवांछित
हादसे और घटनाक्रम की
बन जाती है वज़ह
जिससे आदमी भीतर ही भीतर
कर लेता है खुद को बीमार ।
उसकी भले आदमी की जिन्दगी हो जाती है तबाह ,
जीवन धारा रुक और भटक जाती है
जिंदादिली हो जाती मृत प्राय:
यह बन जाती है जीते जी नरक जैसी।
हमेशा तनी रहने वाली गर्दन  
झुकने को हो जाती है विवश।
हरपल बहस का सैलाब
सर्वस्व को तहस नहस कर
जिजीविषा को बहा ले जाता है।
यह मानव जीवन के सम्मुख
अंकित कर देता है प्रश्नचिह्न ?
बचो बहस से ,असमय के अज़ाब से।
बचो बहस से , इसमें बहने से
कभी कभी यह
आदमी को एकदम अप्रासंगिक बनाकर
कर देती है हाशिए से बाहर
और घर जैसे शांत व सुरक्षित ठिकाने से।
फिर कहीं मिलती नहीं कोई ठौर,
मन को टिकाने और समझाने के लिए।
तुम कभी
बहुत ताकतवर रहे होंगें कभी ,
समय आगे बढ़ा ,
तुम ने भी तरक्की की होगी कभी ,
जैसे जैसे उम्र बढ़ी ,
वैसे वैसे शक्ति का क्षय ,
सामर्थ्य का अपव्यय
महसूस हुआ हो कभी !
बरबस आंखों में से
झरने सा बन कर
अश्रु टप टप टपकने
लगने लगे हों कभी।
अपनी सहृदयता ही
कभी लगने  लगी हो
अपनी कमज़ोरी और कमी।
इसके विपरीत
धुर विरोधियों ने
कमीना कह कर
सतत् चिढ़ाया हो
और भावावेश में आकर
भीतर बाहर
यकायक
गुस्सा आन समाया हो।
इस बेबसी ने
समर्थवान को आन रुलाया हो।

समर्थ के आंसू
पत्थर को
पिघलाने का
सामर्थ्य रखते हैं ,
पर जनता के बीच होने के
बावजूद
ये आंसू
समर्थ को सतत्
असुरक्षित करते रहते हैं ,
सत्तासीन सर्वशक्तिमान होने पर भी
निष्ठुर बने रहते हैं।
वे स्वयं असुरक्षित होने का बहाना
बना लेते हैं ,
वे बस जाने अनजाने
अपना उपहास उड़वा लेते हैं ,
मगर उन पर
अक्सर
कोई हंसता नहीं ,
उन्हें
अपने किरदार की
अच्छे से
समझ है कि
यदि कोई  
स्वभावतया भी हंस पड़ता है
तो झट से धड़
अलग हुआ नहीं ,
सब वधिक को ,
उसके आका को
ठहरायेंगे सही।
समर्थ को सतत् सक्रिय रहकर
आगे बढ़ना पड़ता है ,
क़दम क़दम पर
जीवन के विरोधाभासों से
निरंतर लड़ना पड़ता है।
समर्थ के आंसू
कभी बेबसी का
समर्थन नहीं करते हैं।
ये तो सहजता से
बरबस निकल पड़ते हैं।
हां,ये जरूर
मन के भीतर पड़े
गर्दोगुब्बार को धोकर
एक हद तक शांत करते हैं।
वरना समर्थ जीवन पर्यन्त
समर्थ न बना रहे।
वह अपने अंतर्विरोधों का
स्वयं ही शिकार हो जाए।
आप ही बताइए कि
वह कहां जाए ?
वह कहां ठौर ठिकाना पाए ?
०१/०४/२०२५.
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