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Joginder Singh Nov 2024
सोच जरा।
यदि
नफरत नफे का सौदा होती,
तो
सारी दुनिया
इसे ढो रही होती ।
सोच जरा!
फुर्सत सुख नहीं दुःख देती है ,
फुर्सत
आफत की पुड़िया है,
जिससे पैदा होती गड़बड़ियां हैं ।
सोच जरा !रस का पान कर रहा भंवरा ,
रसिक बना नहीं कि जीवन संवरा ।
सच है रसहीनता जीवन की खुशियां नष्ट करती ।
रस का  ह्रास हुआ नहीं कि
नीरसता भीतर डर पैदा करने लगती।
सोच जरा !
तकदीर भरोसे बैठा रहकर,
आदमी दर-दर भटकता सर्वस्व गंवाकर ।
तकदीर बनाने की खातिर ,
अपना सब सुख चैन भूलाकर ।
दिन-रात परिश्रमी बनना पड़ता ,
सोच जरा !
बस !सोच जरा सा !!
कर्म कर ढेर सारा,
नहीं फिरेगा मारा मारा ।
भीतर रहती सोच
अक्सर यह कहती है ।
'बाहर पलती सोच 'से
यह लड़ना चाहती है ।
यह एक द्वंद्व कथा रचना चाहती है ।
यह अंतर्द्वंद्व व्यथा से बचाना ,जो चाहती है !!
२६/०७/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
टटपुंजिया हूँ।
क्यों टटोलते हो ?
सारी जिंदगी निठल्ला रहा।
अब ढोल की पोल खोलते हो!
मेरे मुंह पर
सच क्यों नहीं कह देते ?
कह ही दो
मन में रखी बात।
अवहेलना के दंश
सहता आया हूं।

एक बार फिर
दर्द सह जाऊंगा।
काश! तुम मेरी व्यथा को
समझो तो सही।
यदि ऐसा हुआ तो निस्संदेह
मैं जिंदगी की दुश्वारियों को सह जाऊंगा।
दुश्मनों से लोहा ले पाऊंगा।
सामने खड़ी हार को
विजय के  उन्माद में बदल जाऊंगा ।
  २६/०७/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
मेरे देश!

एक मुसीबत
जो दुश्मन सी होकर
तुम्हें ललकार रही है ।
उसे हटाना,
जड़ से मिटाना
तुम्हारी आज़ादी है!
बेशक! तुम्हारी नजर में ...
अभी ख़ाना जंगी
समाज की बर्बादी है!!
पर...
वे समझे इसे... तभी न!

मेरे दोस्त!
मुसीबत
जो रह रहकर
तुम्हारे वजूद पर
चोट पहुंचाने को है तत्पर!
उसे दुश्मन समझ
तुम कुचल दो।
फ़न
उठाने से पहले ही
समय रहते
सांप को कुचल दो ।
इसी तरह अपने दुश्मनों को
मसल दो ,
तो ही अच्छा रहेगा।
वरना ... सच्चा भी झूठा!
झूठा तो ... खैर , झूठा ही रहेगा।
झूठे को सच्चा
कोई मूर्ख ही कहेगा ।


मुसीबत
जो आतंक को
मन के भीतर
रह रहकर
भर रही है ,
उस आतंक के सामने
आज़ादी के मायने
कहां रह जाते हैं ?
माना तुम अमन पसंद हो,
अपने को आज़ाद रखना चाहते हो ,
तो लड़ने ,  
संघर्ष करने से
झिझक कैसी  ?
तनिक भी झिझके
तो  दुश्मन करेगा
तुम्हारे सपनों की ऐसी तैसी ।

अतः
उठो मेरे देश !
उठो मेरे दोस्त !
उठो ,उठो ,उठो,
और शत्रु से भिड़ जाओ ।
अपनी मौजूदगी ,
अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति
दिन रात परिश्रम करके करो ।
यूं ही व्यर्थ ही ना डरो।
कर्मठ बनो।
अपने जीवन की
अर्थवत्ता को
संघर्ष करते करते
सिद्ध कर जाओ।
हे देश! हे दोस्त!
उठो ,कुछ करो ।
उठो , कुछ करो।
समय कुर्बानी मांगता है।
नादान ना बने रहो।
१६/०८/२०१६.
किसी के
उकसावे में
आकर बहक जाना
कोई अच्छी बात नहीं।
यह तो बैठे बिठाए
मुसीबत मोल लेना है !
ठीक परवाज़ भरने से पहले
अपने पंखों को घायल कर लेना है !
लोग अक्सर हरदम
अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए
उकसावे को हथियार बना कर
अपना मतलब निकालते हैं !
जैसे ही कोई उनका शिकार बना
वे अपना पल्लू झाड़ लेते हैं !
वे एकदम अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
एकदम भोले भाले बने से
मुसीबत में पड़ चुके
आदमी की बेबसी पर
पर मन ही मन खुश होते हैं।
ऐसे लोग किसके हितचिंतक होते हैं ?
किसी के उकसाने पर
भूले से भी बहक जाना
कोई अक्लमंदी नहीं,
दोस्त ! थोड़ा होशियार बनो तो सही।
अपने को परिस्थितियों के अनुरूप
ढालने का प्रयास करो तो सही।
देखना, धीरे धीरे सब कमियाँ दूर हो जाएंगी।
सुख समृद्धि और संपन्नता भी बढ़ती जाएगी।
किसी के कहने में आने से सौ गुणा अच्छा है ,
अपनी योग्यता और सामर्थ्य पर भरोसा करना ,
जीवन यात्रा के दौरान
अपने प्रयासों को संशोधित करते रहना।
जीवन में मनमौजी बनकर अपनी गति से आगे बढ़ना।
किसी के भी उकसावे में आना अक्ल पर पर्दा पड़ना है।
अतः जीवन में संभल कर चलना बेहद ज़रूरी है ,
अन्यथा आदमी की स्वयं तक से बढ़ जाती दूरी है।
वह धीरे धीरे अजनबियत के अजाब में खो जाता है।
आदमी के हाथ से जीने का उद्देश्य और उत्साह फिसलता जाता है।
उकसावा एक छलावा है बस!
इसे समय रहते समझ!
और अपनी डगर चलता जा!
ताकि अपनी संभावना को सके ढूंढ !!
२६/०३/२०२५.
जीवन में
किसी से अपेक्षा रखना
ठीक नहीं,
यह है
अपने को ठगना।
यदि कोई आदमी
आपकी अपेक्षा पर
खरा उतरता नहीं है,
तो उसकी उपेक्षा करना,
है नितांत सही।
कभी कभी अपेक्षा
आदमी द्वारा
अचानक ही जब
जीवन की कसौटी पर
परखी जाती है
और यह सौ फीसदी
खरी उतरती नहीं है,
तब अपेक्षा उपेक्षा में बदल कर
मन के भीतर विक्षोभ
करती है उत्पन्न !
आदमी रह जाता सन्न !
वह महसूसता है स्वयं को विपन्न !
ऐसे में अनायास
उपेक्षा का जीवन में
हो जाता है प्रवेश!
जीवन पथ के
पग पग पर
होने लगता है कलह क्लेश !!

आदमी इस समय क्या करे ?
क्या वह निराशा में डूब जाए ?
नहीं ! वह अपना संतुलन बनाए रखे।
वह मतवातर खुद को तराशता जाए।
वह स्वयं को वश में करे !
वह उदास और हताश होने से बचे !
अपने इर्द गिर्द और आसपास से
हर्गिज़ हर्गिज़ उदासीन होने की
उसे जरूरत नहीं।
ऐसी किसी की कुव्वत नहीं कि
उसे उपेक्षा एक जिंदा शव में बदल दे ।
ऐसा होने से पहले ही आदमी अपने में
साहस और हिम्मत पैदा करे ,
वह अपनी आंतरिक मनोदशा को दृढ़ करे।
वह जीवन के उतार चढ़ावों और कठिनाइयों से न डरे।

अच्छा यही रहेगा कि वह कभी भी
अपेक्षा और उपेक्षा के पचड़ों में न ही पड़े ,
ताकि उसे ऐसी कोई अकल्पनीय समस्या
जीवन नदिया में बहते बहते झेलनी ही न पड़े।
मनुष्य को सदैव यह चाहिए कि
वह जीवन में किसी से भी
कभी कोई अपेक्षा न ही करे ,
जिससे समस्त मानवीय संबंध सुरक्षित रहें !
उसके सब संगी साथी जीवन की रणभूमि में डटे रहें !!
१५/०३/२०२५.
तुम्हारे साए में
तुम्हारे आने से
परम सुख मिलता है , अतिथि !
हमारा सौभाग्य है कि
आपके चरण अरविंद इस घर में पड़े ।
तुम्हारे आने से इस घर का कण कण
खिल उठा है।
मन परम आनंद से भर गया है।
इस घर परिवार का
हरेक सदस्य पुलकित और आनंदित हो गया है ।

जब आपका मन करे
आप ख़ुशी ख़ुशी यहाँ
आओ अतिथि !
हम सब के भीतर
जोश और उत्साह भर जाओ।
तुम हम सब के सम्मुख
एक देव ऋषि से कम नहीं हो ,बंधु !
हम सब "अतिथि देवो भव: "के बीज मंत्र को
तन मन से शिरोधार्य कर
जीवन को सार्थक करना चाहते हैं , अतिथि !
तुम्हारे दर्शन से ही
हम प्रभु दर्शन की कर पाते हैं अनुभूति,
हे प्रभु तुल्य अतिथि !!

एक बार आप सब
मेरे देश और समाज में
अतिथि बनकर पधारो जी।
आप आत्मीयता से
इस देश और समाज के कण कण को
सुवासित कर जाओ।
आपकी मौजूदगी और भाव वात्सल्य के
जादू से
यह जीवन और संसार
रमणीय बन सका है, हे अतिथि!
आपके आने से ,
आतिथ्य सुख की कृपा बरसाने से ,
इस सेवक की प्रसन्नता और सम्पन्नता
निरंतर बढ़ी है।
जीवन की यह अविस्मरणीय निधि है।
आप बार बार आओ, अतिथि।
आप की प्रसन्नता से ही
यहां सुख समृद्धि आती है।
वरना जिंदगी अपने रंग और ढंग से
अपने गंतव्य पथ पर बढ़ रही है।
यह सभी को अग्रसर कर रही है।
२५/०८/२००५.
52 · May 10
Stand
"Standing firmly
in the time of adversity is our choice
as well as voice.  ",
says  always  conscious to all ,
big or small .
A common man is all in all in democracy.
Standless never exists in any system ,
related to autocracy ,  
dictatorship , demoncracy and democracy.  
To stand firmly  regarding  wellfare issues
is creditable in today 's world.
10/05/2025.
जो चोर है
वही करता शोर है,
इस दुनिया में
अत्याचार घनघोर है!
साहस दिखाने का
जब समय आता है,
अपना चोर भाई!
पीछे हट जाता है।
शायद तभी
वह शातिर कहलाता है।
अचानक
भीतर से एक आवाज़ आई
सच को उजागर करती हुई,
"पर ,कभी कभी
सेर को सवा सेर
टकरा जाता है।
वह चुपके से
चकमा दे जाता है,
अच्छे भले को
बेवकूफ़ बना जाता है।"
बेचारा चोर भाई !
मन ही मन में
दुखियाता रहता है,
वह कहां सुखी रह पाता है ?
एक दिन वह चुप ही हो जाता है।
वह शोर करना भूल जाता है।
जब समय आता है,
तब वह वही शोर करने से
बाज़ नहीं आता है।
इसमें ही उसे लुत्फ़ और मज़ा आता है।
वह इसी रंग ढंग से ज़िन्दगी जी कर
टाटा बाय बाय कर जाता है।
उसके जाने के बाद सन्नाटा भी
कुछ उदास हुआ सा पसर जाता है।
वह भी चोर के शोर मचाने का
इंतज़ार करने लग जाता है
कि कोई आए और जीवन को करे साकार।
वह भरपूर जिंदगी जीते हुए
लौटाए
जिन्दगी को
चोरी की हुई
जिंदगी की
लूटी हुई बहार ,
जीवन में लेकर आए
सहज रहकर करना सुधार
और निर्मित करना जीवनाधार।



०२/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
' मर ना शीघ्र ,
जीवन वन में घूम ।' ,
जीवन , जीव से , यह सब
पल प्रतिपल कहता है ।

जीवात्मा
जीवन से बेख़बर
शनै : शनै :
रीतती रहती है ।
यथाशीघ्र
जीवन स्वप्न
बीत जाता है ।
जीव अपने उद्गम को
कहां लौट पाता है ?
वह स्वप्निलावस्था में खो जाता है।

०३/१०/२०२४.
हाज़िरजवाब
प्रतिस्पर्धी
किसी खुशकिस्मत को
नसीब होता है ,
वरना
ढीला ढाला प्रतिद्वंद्वी
आदमी को
लापरवाह बना देता है ,
आगे बढ़ने की
दौड़ में
रोड़े अटकाकर
भटका देता है ,
चुपके चुपके से
थका देता है।
वह किसी को न ही मिले तो अच्छा ,
ताकि जीवन में
कोई दे कर गच्चा
कर न सके
दोराहे और चौराहे पर
कभी हक्का बक्का।
अच्छा और सच्चा प्रतिद्वंद्वी
बनने के लिए
आदमी सतत प्रयास करता रहे ,
वह न केवल अथक परिश्रम करे ,
बल्कि समय समय पर
समझौता करने के निमित्त
खुद को तैयार करता रहे।
संयम से काम करना
प्रतिस्पर्धी का गुण है ,
और विरोधी को अपने मन मुताबिक
व्यवहार करने को बाध्य करना
कूटनीतिक सफलता है।

प्रतिस्पर्धा में
कोई हारता और जीतता नहीं,
मन में कोई वैर भाव रखना,
यह किसी को शोभा देता नहीं।
प्रतिद्वंद्विता की होड़ में
यह कतई सही नहीं।
आदमी जीवन पथ की राह में
मिले अनुभवों के आधार पर
स्वयं को परखे तो सही ,
तभी प्रतिभा के समन्वय से
प्रतिस्पर्धा में टिका जाता है ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
प्रगति को गंतव्य तक पहुंचाया जाता है।
०४/०४/२०२५.
समय
कभी रुक नहीं सकता
वह मतवातर
गतिशील रहता है ,
यदि वह रुक जाए ,
तो जीवन में ठहराव आ जाए।
जीवन का क्रम नष्ट भ्रष्ट हो जाए!
इसलिए
समय कभी
रुकता नहीं,
रुक सकता नहीं।
वह चाहता है
प्रकृति की व्यवस्था को
रखना सही।

आदमी का जीवन में
रुक जाना असहनीय होता है,
रुके रहना जैसा अहसास
जीवन को बोझिल कर देता है,
यह जीव के भीतर
थकावट भर देता है।
उसका सारा उत्साह और उमंग
बिखर जाता है ।
आदमी समय में
शीघ्र विलीन हो जाता है।
यही वज़ह है कि
समय कभी रुकता नहीं ।
वह कभी झुकता नहीं ,
बेशक वह जीवन में
उतार चढ़ाव लाकर
गर्व के उन्माद में डूबे आदमी को
झुकने के लिए बाध्य कर दे !
आदमी का जीवन कष्ट साध्य कर दे !!

काश! समय ठहर पाए!
आदमी को चुनौतियों के लिए
तैयार कर
आगे की राह सुगम बना पाए।
समय बेशक ठहरता नहीं,
इसे जितना जीया जाए , उतना कम है।
इसे सलीके से जीना ही
समय को जानने जैसा अति उत्तम है !
समय का ठहराव महज एक दिशा भ्रम है !!
०४/०२/२०२५.
तुम अपने शत्रु को
जड़ से
मिट्टी में मिलाना चाहते हो।
पर हाथ पर हाथ
धरे बैठे हो।
क्या बिना लड़े हार
मान चुके हो ?
तुम
बदला ज़रूर लो
पर कुछ अनूठे रंग ढंग से !
पहले रंग दो
उसे अपने रंग में ,
उसे अपनी सोहबत का
गुलाम बना दो ,
फिर उसे अपने मन माफ़िक
लय और ताल पर
नाचने के काम पर लगा दो।
तुम बदला ले ही लोगे
पर बदले बदले रंग ढंग से !
तुम मारो उसे, प्रेम से,चुपके चुपके!
वह जिंदा रहे पर जीए घुट घुट के !

या फिर एक ओर तरीका है,
आज की तेज़ तरार दुनिया में
यही एक मुनासिब सलीका है कि
दे दो किसी सुपात्र को
सुपारी शत्रु के खेमे में
सेंधमारी करने की
चुपके चुपके।
इसमें भी नहीं है कोई हर्ज़
यदि दुश्मन का
बैठे बिठाए
निकल जाए अर्क।

इसके लिए
मन सबको
सबसे पहले सुपात्र और विश्वासपात्र को
चुनने की
रखता है शर्त,
ताकि शत्रु को
उसके अंजाम तक
पहुंचाया जा सके।
जीवन की रणभूमि में
मित्रों को प्रोत्साहित
किया जाए
और शत्रुओं को
निरुत्साहित।
जैसे को तैसा ,
सरीखी नीति को
अमल में लाया जाए।
तुम कूटनीति से
शत्रु को पराजित
करना चाहते हो।
इसके लिए
क्या शत्रु के सिर पर
छत्र धर कर
उसे अहंकारी बनाना चाहते हो ?
फिर चुपके से
उसे विकट स्थिति में ले जाकर
चुपके चुपके गिराना चाहते हो !
उसे उल्लू बनाना चाहते हो !!

पर याद रखो , मित्र !
आजकल की दुनिया के
रंग ढंग हैं बड़े विचित्र !
कभी कभी सेर को सवा सेर टकर जाता है,
तब ऐसे में लेने के देने पड़ जाते हैं।
सोचो , कहीं
तुम्हारा शत्रु ही
तुम्हें मूर्ख बना दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
करके सीनाज़ोरी
आँखों में धूल झोंक दे !
उल्टा प्रतिघात कर मिट्टी में रौंद दे !!
अतः बदला लेने का ख्याल ही छोड़ दो।
अपनी समस्त ऊर्जा को
सृजनात्मकता की ओर मोड़ दो।
१६/०२/२०२५.
52 · Mar 12
खरोंच
आज साल शुरू हुए
लगभग इकहत्तर दिन हुए हैं
और नई कार लिए
छियासठ दिन।
अभी अभी अचानक
कार की हैड लाइट के पास
पड़ गई है नज़र।
वहां दिख गई है
एक खरोंच।
मेरे तन और मन पर
अनचाहे पड़ गई है
एक और नई खरोंच ।
जैसे अचानक देह पर
लग गई हो किरच
और वहां पर
रक्त की बूंदें
लगने लगी हो रिसने।
भीतर कुछ लगा हो सिसकने।
यह कैसा बर्ताव है
कि आदमी निर्जीव वस्तुओं पर
खरोंच लगने पर लगता है सिसकने
और किसी हद तक तड़पने ?
वह अपने जीवन में
जाने अनजाने
कितने ही संवेदनशील मुद्दों पर
असहिष्णु होकर
अपने इर्द-गिर्द रहते
प्राणियों पर कर देता है आघात।
सचमुच ! वह अंधा बना रहता ,
उसे आता नहीं नज़र
कुछ भी अपने आसपास !
यदि अचानक निर्जीव पदार्थ और सजीव देह पर
उसे खरोंच दिख जाए तो वह हो जाता है उदास।
क्या आदमी के बहुत से क्रियाकलाप
होते नहीं एकदम बकवास और बेकार ?
१२/०३/२०२५.
संबंध बड़े कोमल होते हैं
ये बनते बनते,बनते हैं
थोड़ी सी गफलत
हुई नहीं कि
धरधराकर
रेत से झर
जाते हैं,
यह
कभी हो
नहीं सकता कि
ये फिर से दृढ़ता की
डोर में बंध जाएं,
हम पूर्ववत
बेतकुल्ल्फी से
एक दूसरे से
खुलकर
मिल पाएं !
अब
आप ही बता दो
हम परस्पर
विश्वास को
दृढ़ करें
कि लड़ें !
क्यों न हम
एक दूसरे से
सहयोग करें ,
परस्पर
पुष्पित पल्लवित
होने के मौके
मयस्सर
करते रहें ,
आगे बढ़ें ,
सुध बुध
लेते रहें,
ताकि
दृढ़ होती रहें
संबंधों की जड़ें !
संबंध नाजुक होते हैं ,
गफलत हुई नहीं कि
ये मुरझा जाते हैं !
ऐसे में
सब तने तने रहते हैं !
भीतर , भीतर कुढ़ते रहते हैं !
न चाहकर भी
अंदर सहम भर जाता है !
अनिष्ट का वहम भरता रहता है !
आदमी हरपल सड़ता रहता है !!
१७/०३/२०२५.
धर्म का अर्थ जीवन को गति देने वाले नियमों और सिद्धांतों को अपनाना है।
उनको बिना किसी विरोध के मानते जाना है।
धार्मिक होना कुछ और ही होना है ,
यह किसी हद तक कांटों के बिछौने पर सोना है।
धार्मिक आदमी कतई सांप्रदायिक नहीं होता है,
उसे कभी इतनी फुर्सत नहीं होती कि किसी शर्त से बंध सके,
समाज में हिंसा और अराजकता फैला कर तनाव भर दे।
उसका रास्ता तो तनाव मुक्ति का पथ अपनाना है।
जो इस राह में रोड़ा बने ,उसे दरकिनार करते हुए अपने को आगे ले जाना है।
इसलिए मैं मानता हूं कि धार्मिक होना सरल नहीं है ,
यह अपने जीते जी जीने की इच्छा का अंत करना है,
यह गरल पीना है और खुल कर खुली किताब बनकर जीना है।
किसी किसी में धार्मिक बनने का जिगरा होता है ,
वरना सांप्रदायिक और अधार्मिक यानिकि नास्तिक हर कोई होता है,
बल्कि कह लीजिए एक भेड़चाल का शिकार होकर
अपने आप को नास्तिक कहना एक फैशन सा हो गया है।
हर प्राणी नचिकेता नहीं हो सकता ,
जो धर्म का मूल जान गया था,
अपने अहंकार को मिटा पाया था,
सच्ची धार्मिक विभूति बन पाया था।
बेशक आज हमें अपने इर्द गिर्द धार्मिकों की भीड़ नहीं जुटानी है,
जीवन धारा आगे गंतव्य पथ पर बढ़ानी है
ताकि आदमी की मनमानी रुके और वह सत्य के सम्मुख ही झुके।
१९/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
विश्वास का टूटना
अप्रत्याशित ही
आदमी का
दुर्घटनाग्रस्त हो जाना है।

और आदमी
यदि जीवन में
विश्वसनीय बना रहे
तो सफलता के पथ पर
आगे बढ़ते जाना है।

हमारे कर्म होने चाहिएं ऐसे
कि विश्वास
कभी विष में न बदले
वरना
अराजकता का दंश
हम सब को
मृतक सदृश बनाएगा।
यह सब के भीतर बेचैनी बढ़ाएगा ।
हमें ही क्या !
प्रकृति के समस्त जीवों को रुलाएगा !

दुनिया - जहान में
सभी की विश्वसनीयता बनी रहे
और हम सब अपनी अंतर्रात्मा की
आवाज़ सुनते रहें ,
ऐसे सब कर्म करते रहें
ताकि चारों ओर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की
बयार बहती रहे।

दोस्त !
अपना और उसका विश्वास
बचा कर रख
ताकि सभी को
मयस्सर हो सके सुख ,
किसी विरले को ही
झेलना पड़े दुःख - दर्द ।

१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
रचनाकार के पास एक सत्य था ।
उसका अपना ही अनूठा कथ्य था ।
उसने इसे जीवन का हिस्सा बनाया।
और अपनी जिंदगी की कहानी को ,
एक किस्सा बनाकर लिख दिया।



जब यह किस्सा, संपादक के संपर्क में आया।
तब सत्य ही , संपादक ने इसे अपनी नजरिये से देखा।
और उसने अपनी दृष्टिकोण की कैंची से, किया दुरुस्त।
फिर उसने इस किस्से को, पाठकों को दिया सौंप।


पाठक ने इसे पढ़कर, गुना और सराहा।
परंतु रचनाकार में पनप रहा था असंतोष।
उसे लगा कि संपादक ने किया है अन्याय।
रचनाकार खुद को महसूस कर रहा था असहाय।,


संपादक की जिम्मेदारी उसे एक सीमा में बांधे थी।
पाठक वर्ग  और कुछ नीति निर्देशों से संपादक बंधा था।
वह रचनाओं की कांट, छांट, सोच समझ कर करता था ।
और रचनाकार को संपादक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता था।


समय चक्र बदला, अचानक रचनाकार बना एक संपादक।
अब अपने ढंग से रचना को असरकारी बनाने के निमित्त,
किया करता है, सोच और समझ की कैंची से काट छांट।
सच ही अब, उसे हो चुका है, संपादन शैली का अहसास।

अब एक रचनाकार के तौर पर, वह गया है समझ।
रचनाकार भावुक ,संवेदनशील हो ,जाता है भावों में बह।
उसके समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह चुके हैं धुल अब।
जान चुका है भली भांति , संपादक की कैंची की ताकत।


बेशक रचनाकार के पास अपना सत्य और कथ्य होता है।
पर संपादक के पास एक नजरिया ,अनूठी समझ होती है।
वह रचना पर कैंची चलाने से पूर्व अच्छे से जांचता है।
तत्पश्चात वह रचना को संप्रेषणीय बनाने की सोचता है।


जब जब  संपादक ने  कैंची से एक सीमा रेखा खींची।
तब तब रचना का कथ्य और सत्य असरकारक बना।
आज रचनाकार, संपादक और पाठक की ना टूटे कड़ी।
करो प्रयास, नेह स्नेह के बंधन से सृजन की डोर रहे बंधी।
न उठे  रचनाकार के मानस में, दुःख ,बेबसी की आंधी।

२९/०८/२००५.
घर और परिवार में
न हो कभी क्लेश
इसलिए
वे दोनों
उम्र बढ़ने के साथ साथ
एक दूसरे को
ठेस
पहुंचाने की
पुरानी आदत को
रहे हैं
धीरे धीरे छोड़।
यह उनके जीवन में
आया है एक नया मोड़।

आजकल
दोनों मनमानियाँ
करना
पूर्णरूपेण गए हैं भूल।
बस
दोनों तन्हा रहते हैं,
चुप रहकर
अपना दुखड़ा कहते हैं !
कभी कभी
आमना सामना होने पर
मुस्करा कर रह जाते हैं !!

उनके दाम्पत्य जीवन में
हर क्षण बढ़ रही है समझ ,
वे छोड़ चुके हैं करना बहस।

वे परस्पर
घर तोड़ने की बजाय
चुप रहना पसंद करते हैं ,
शायद इसे ही
समझौता कहते हैं ,
वे पीड़ाओं से घिरे
फिर भी
एक दूसरे की
दिनचर्या को देखने भर को
बुढ़ापे का सुख मानते हैं।

उनकी संवेदना और सहृदयता
दिन पर दिन रही है बढ़।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ने और हवा में उड़ने की ललक
थोड़ी सी गई है रुक।
वे अब अपने में ठहराव देख रहे हैं।
अपने अपने घेरे में सिमट कर रह गए हैं।

घर और परिवार में अब न बढ़े क्लेश
इसलिए अब वे हरदम चुप रहते हैं।
पहले वे बातूनी थे,
पर अब उनके परिचित
उन्हें गूंगा कहते हैं।
वे यह सुन कर, अब जलते भुनते नहीं,
बहरे बन कर रह जाते हैं !
कहीं गहरे तक
अपने आप में डूब जाते हैं !!
वे डांटते नहीं, डांट खाना सीख चुके हैं !!
फलत: खुद को सुखी मानते हैं।
और इसे जीवन में सही मानते भी हैं
ताकि जीवन में वजूद बचा रहे ,
जीवन अपनी गति से आगे बढ़ता रहे।
२९/०४/२००५.
लोग
कितना भी
जीवन में
खुलेपन पर
चर्चा परिचर्चा
कर लें ,
उनके हृदय में
कहीं न कहीं
गहरे तक
संकीर्णता रहती है ,
जिससे
जीवन में
व्याप्त खुशबू
फलने फूलने फैलने की
बजाय मतवातर
बदबू में
बदलती रहती है
जो धीरे-धीरे
तड़प में बदल कर
भटकाती है।
आओ ,
हम सब परस्पर
मिलजुल कर रहें।
हम सब जीवन पर्यन्त
संकीर्णता से बचें ,
दिल और दिमाग से
खुलापन अपनाते हुए
समानता से जुड़ें ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि और शांति के
बलबूते सकारात्मक सोच से
सतत सहर्ष आगे  बढ़ें।
संघर्षरत रहकर
जीवन के सच को
अनूभूत करें,
सब नव्यता का !
भव्यता का !!
आह्वान करें !!
सृजन पथ चुनें,
कभी भी विनाशक न बनें।
हमेशा सत्य के आराधक बनें।
२३/०४/२०२५.
इस दुनिया में
बहुत से लोग
श्रम करने से कतराते हैं ,
वे जीवन में
बिना संघर्ष किए
पिछड़ जाते हैं ,
फलत: क़दम क़दम पर
पछताते हैं ,
सुख सुविधा, सम्पन्नता से
रह जाते हैं वंचित !
बिना आलस्य त्यागे
कैसे सुख के लिए ,
भौतिक जीवन में उपलब्ध
विलासिता से जुड़े पदार्थ !
जीवन के मूलभूत साधन !
किए जा सकते हैं संचित?
इसीलिए
कर्मठता ज़रूरी है !
कर्मठ होने के लिए श्रम अपरिहार्य है ।
क्या यह जीवन सत्य तुम्हे स्वीकार्य है ?

श्रम करने में
कैसी शर्म ?
यह है जीवन का
मूलभूत धर्म !

आदमी
जो इससे कतराता है ,
वह जीवन पथ पर
सदैव थका हारा ,
हताश व निराश
नजर आता है।

श्रम के मायने क्या हैं ?
यह साधारण काम करना नहीं ,
बल्कि खुद को सही रखते हुए
सतत  कठोर  मेहनत करते रहना है।
यह जिजीविषा , सहानुभूति के बलबूते
जीवंतता और भविष्य को
वर्तमान को
अपनी मुठ्ठी में
बंद करने की कोशिश करना है।
सुख दुःख से निर्लेप रह कर
आगे ही आगे बढ़ना भी है।

श्रम के प्रति अगाध निष्ठा से
जीवन धारा को गति मिलती है !
इस सब की अंतिम परिणति
सद्गति के रूप में
परिलक्षित होती है !!

सही मायने में
श्रम ही जीवन का मर्म है।
यह ही अब युगीन धर्म है।
अतः श्रम करने में
कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
इसे करने में नहीं होनी चाहिए
किसी भी किस्म की झिझक और शर्म।

सभी श्रम साधना को
अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं !
सहजता से खेल ही खेल में
अपने जीवन को
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
अलंकृत कर जाएं  !!
सभी संभावना को टटोलते हुए
श्रम के आभूषण से
न केवल स्वयं को
बल्कि  अपने आसपास को भी सजाएं !!
सजना संवरना एकदम प्राकृतिक  वृत्ति है।
यदि श्रम करते हुए
जीवन को सजा लिया जाए ,
जीवन को सार्थक बना लिया ‌जाए ,
तो इस जैसा अनुपम आभूषण
कोई दूसरा नहीं ।
जीव इसे अवश्य धारण करें।
जीवन को कृतार्थ  
हर हाल में
श्रम साधना के बलबूते
इसको धारण करें ,
अपने आंतरिक सौंदर्य को द्विगुणित करें,
ताकि मानवता आगे बढ़ती लगे।
यह जीवों को उनके लक्ष्य तक पहुंचा सके।
२४/०४/२०२५.
52 · Apr 25
तमाशबीन
बेशक
तमाशा देखना
सदैव सुखदाई होता है
परन्तु कभी कभी
तमाशबीन को
तमाचा लग
जाता है
जब कोई
शिकार व्यक्ति
अपनी जगहंसाई से
खफा होकर
प्रतिक्रिया वश
धुनाई कर देता है।
ऐसे में
तमाशबीन
अपने आप में
एक तमाशा
बन जाता है ,
उस पर स्वत:
हालात का
तमाचा पड़ जाता है।
उसका सारा उत्साह
ठंडा पड़ जाता है।
२५/०४/२०२५.
52 · Nov 2024
लड़ाका
Joginder Singh Nov 2024
मेरे यहां
हक की खातिर
लड़ने वाला
' गांधी ' होता है,
फौलादी हौंसले वाला
एक अदृश्य तूफ़ान होता है,
सच ! जिसके भीतर
आक्रोश भरा रहता  है,
भले वह अहिंसक रास्ते पर चले ,
उसके अंदर बारूद भरा रहता है।
ऐसा आदमी सीधा सादा होता है।
आज के तिकड़म बाज़ नेता उसे खतरनाक बना देते हैं।है।
उसे आग पानी देकर महत्वाकांक्षी बना देते हैं,
किसी हद तक  
उसके आक्रोश को ज्वालामुखी बना
उसे अराजक ही नहीं, विध्वंसक भी बना देते हैं।

उसे धरने, विरोध प्रदर्शन करने,
लड़ने भेजने में लगा देते हैं ,
उसके अंदर के असंतोष को हवा दे
उसे पूर्ण रूपेण अराजक और आतंकी बना देते हैं।
जब वह संघर्ष करते हुए शहादत पा जाता है।
तब उसे बरगलाया हुआ, राह से भटका बताया जाता है।
सच! उसके मर जाने के बाद कोई एक आध ही रोता है। कुछ इस तरह एक संभावना का अंत मेरे यहां होता है।

पर सच ! कभी खोता है।
वह देर सवेर
सबके यहां
हर किसी जगह
दस्तक देता हुआ
कि
किसी नन्हे पौधे सा होकर
अंकुरित होता है ,
और
एक सच का वृक्ष बनकर
पुष्पित और पल्लवित होता है।
इस भांति सभी जगह परिवर्तन होता है।


12/03/2013.
Joginder Singh Dec 2024
बहस
एक बिना ब्रेक की
गाड़ी है ,
यदि यह नियंत्रण से
कभी अचानक
हो जाए बाहर
तो दुर्घटना निश्चित है।
यह निश्चिंत जीवन में
अनिश्चितता का कर देती संचार।
यह संसार तक
लगने लगता सारहीन और व्यर्थ।

बहस
जीवन के प्रवाह को
कर देती है बाधित।
यह इन्सान को
घर व परिवार और समाज के
मोर्चे पर कर देती है तबाह।
अतः इस निगोड़ी
बहस से बचना
बेहद ज़रूरी है ,
इससे जीवन की सुरक्षार्थ
दूरी बनाए रखना
अपरिहार्य है।
क्या यह आज के तनाव भरे जीवन में
सभी को स्वीकार्य है ?
बहस कहीं गहरे तक करती है मार।
इससे बचना स्व विवेक पर निर्भर करता है।
वैसे यह सोलह आने सच है कि
समझदार मानुष इसमें उलझने से बचता है।
२५/१२/२०२४.
हरेक क्षेत्र में
हरेक जगह एक मसखरा मौजूद है
जो ढूंढना चाहता
अपना वजूद है
वह कोई भी हो सकता है
कोई ‌मसखरा
या फिर
कोई तानाशाह
जो चाहे बस यही
सब करें उसकी वाह! वाह!
अराजकता की डोर से बंधे
तमाम मसखरे और तानाशाह
लगने लगे हैं आज के दौर के शहंशाह!
जिन्हें देखकर
तमाशबीन भीड़
भरने को बाध्य होगी
आह और कराह!
शहंशाह को सुन पड़ेगी
यह आह भरी कराहने की आवाजें
वाह! वाह!! ...के स्वर से युक्त
करतल ध्वनियों में बदलती हुईं !
तानाशाह के
अहंकार को पल्लवित पुष्पित करती हुईं !!
०१/०४/२०२५.
धन्य है वह समाज
जहां कन्या पूजन
किया जाता है,
यही है वह दिया
जहां से जीवन शक्ति का
होता है जागरण।
हिंदू समाज पर व्यर्थ ही
नारी अपमान का
लगाया जाता है आक्षेप,
यह वह उर्वर धरा है
जहां से संजीवनी का
उद्भव हुआ है,
मानव ने चेतना को
साक्षात जिया है।
यह वह समाज है
जहां हर पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और स्त्री जगत जननी माता सिया है।

२४/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
पापी था ,
पाप कर गया,
धुर अंदर तक धार्मिक भी था,
इसलिए शीघ्र ही
डर भी गया।
सो मैं आंतरिक चेतना की
भगवत कृपा से ,
पश्चातापी बन गया।
मेरा जीवन नरकमय
होने से बच गया।
कभी कभी अज्ञान वश
आदमी एक शव
जैसा लगने लग जाता है
और दुराग्रह ,पूर्वाग्रह की वजह से
करने लगता है
किसी भाषा विशेष का विरोध।
ऐसे मनुष्य से है अनुरोध
वह अपनी भाषा की
सुंदर और प्रभावशाली कृतियों को
अनुवाद के माध्यम से
करे प्रस्तुत और अभिव्यक्त
ताकि जीवन बने सशक्त।
भाषा विचार अभिव्यक्ति का साधन है।
यह सुनने ,बोलने,पढ़ने और लिखने से
अपना समुचित आकार ग्रहण करती है।
सभी को मातृ भाषा अच्छी लगती है ?
पर क्या इस एक भाषा के ज्ञान से
जीवन चल सकता है ?
आदमी आगे बढ़ना चाहता है।
यदि वह रोज़गार को ध्यान में रख कर
और भाषाएं सीख ले तो क्या हर्ज़ है ?
बल्कि आप जितनी अधिक भाषाएं सीखते हैं ,
उतने ही आप प्रखर बनते हैं।
अतः आप व्यर्थ का भाषा विरोध छोड़िए ।
हो सके तो कोई नई भाषा सीखिए।
आपको पता है कि हमारी लापरवाही से
बहुत सी भाषाएं दिन प्रति दिन हो रहीं हैं लुप्त।
उनकी खातिर आप अपने जीवन में
कुछ भूली बिसरीं भाषाएं भी जोड़िए।
ये विस्मृत भाषाएं
आप की मातृ भाषा का
बन सकती हैं श्रृंगार।
इससे क्या आप करेंगे इंकार ?
हो सके तो आप मेरे क्षेत्र विशेष में आकर
अपनी मातृभाषा के जीवन सौंदर्य का परिचय करवाइए।
अपनी मातृभाषा को पूरे मनोयोग से पढ़ाइएगा।
हमें ‌ज्ञान का दान देकर उपकृत कर जाइएगा।
१२/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जब
देशद्रोही अराजकता को
बढ़ावा देने के मंतव्य से
एक पोस्टरवार का
आगाज़ करते हैं,
और
समाज का
पोस्टमार्टम करने की ग़र्ज से
लगवाते हैं पोस्टर,
तब
होता है महसूस,
मैं आजाद
भले ही हूं,
पर
हूं एक कठपुतली ही,
जिसे
कोई देशद्रोही
नचाना चाहता है,
मेरी अस्मिता को
कटघरे में खड़ा करना चाहता है,
अपनी मनमर्ज़ी से
दहलाना चाहता है,
मेरे अस्तित्व को
दहलाना चाहता है।

मैं
देशद्रोही से
सहानुभूति नहीं रखती।

मैं
उसे देशभक्त का
मुखौटा पहने
नहीं देख सकती।

मैं
देशद्रोही को
साथियों सहित
कुचले जाते
देखना चाहती हूं।

मेरे भीतर
मध्यकालीन बर्बरता है,
सिर के बदले सिर ,
आंख के बदले आंख,
ख़ून के बदले ख़ून
सरीखी
मानसिकता है,
रूढ़ियों से बंधी हुई
दासता है।
चूंकि
मैं एक कठपुतली
खुद दूसरे के हाथ से
नचाई जाती रही हूं,
मैं भी
देशद्रोहियों को
अपनी तरह
नाचते देखना चाहती हूं।

मैं परंपरा का
सम्मान करती हूं,
साथ ही
आधुनिकता को
तन मन से स्वीकारती हूं ।

यदि
आधुनिकता
हमें देशद्रोही
बनाती है ,
तब यह कतई नहीं
भाती है ।
ऐसे में
आधुनिकता मुसीबत
बन जाती है !
यह स्थिति
मुझे हारने की
प्रतीति कराती है ।

मैं
देशद्रोही बनाने वाली
पोस्टर में अंकित,
अधिकारों से वंचित ,
भ्रष्टाचार करके संचित
धन संपदा को एकत्रित करने
और निरंकुश बेशर्मी के
रही सदा खिलाफ हूं ।
मैं इस खातिर
अपना वजूद भी
दांव पर लगा सकती हूं ।
जरूरत पड़े तो हथियार भी
उठा सकती हूं ।

भले ही
अब तक मैं
हथियार विहीन
जिंदगी
जिंदादिली से
जीती आई हूं ।
एक अच्छे नागरिक के
समस्त कर्तव्य
निभाती आई हूं ।

यदि कोई
आंखों के सम्मुख
देशद्रोह की
गुस्ताखी करेगा,
तो प्रतिक्रिया वश
यह गुस्ताख कठपुतली
उसे बदतमीजी की
बेझिझक सजा देगी।
साथ ही उसकी
अकल ठिकाने लगाएगी ।

उसे पश्चाताप करने के लिए
बाध्य करेगी ।

जब कोई देशद्रोही
अपने उन्माद में
अट्टहास करता है ,
तब वह अनजाने ही
शत्रु बनाता है!
वह एक कठपुतली में
असंतोष जगा जाता है !
वह कठपुतली के भीतर
प्रमाद के सुर भर जाता है !!


क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
कठपुतली विद्रोह पर आमादा हो जाए!!
वह देशद्रोहियों के लिए
जी का जंजाल बन जाए !
वह देशद्रोहियों में खौफ भर पाए!!

कठपुतली को कभी छोटा न समझो।
वह भी अपना रूप दिखा सकती है।
वह कभी भी अपने भीतर
बदले के भाव जगा सकती है
और घमंडी को नीचा दिखा सकती है।
वह सच की पहरेदारी भी बन सकती है।
देश !
तुम सतर्क रहना।
युद्ध विराम
विनम्रता से
तो कर लिया स्वीकार।
देखना कहीं हो न जाए
तुम्हारी स्वायत्तता पर प्रहार।
कहीं छिन न जाए
आम क्या खास के अधिकार।

वे शातिराना तरीके से
तुम्हें दबाव में रखकर
समझौते के लिए
कर दें बाध्य।
यदि ऐसी स्थिति आए
तो देखना देश !
युद्ध है एकमात्र उपाय !
कोई कभी भी
तुम्हारे पुत्रों और पुत्रियों को
कायर न कह पाय ।

तुम्हारी स्वायत्तता और अस्मिता के लिए
हम मर मिटने के लिए तैयार हैं ।
हम जानते हैं भली भांति
तुम्हारा जीवन दर्शन कि  
समस्त विश्व एक परिवार है ।
वे इस शाश्वत सत्य को
समझें तो सही ।
हम शांति चाहते हैं ,
युद्ध के माध्यम से।
शांति ,
समझौता करके मिले ,
यह देशवासियों को स्वीकार्य नहीं।

१०/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
स्पर्श की भी
अपनी एक स्मृति होती है
जो अवचेतन का हिस्सा बन जाती है।
यदि
दिव्य की अनुभूति
करना चाहते हो तो प्रार्थना करो
पांच तत्वों के सुमेल के लिए !
भीतर के उजास के लिए !
दिव्यता के प्रकाश के लिए!
इस के लिए
संभावना खोजने के प्रयास करो।
हो सके तो दुर्भावना से बचो।
दिव्यता से साक्षात्कार कर पाने के लिए।
वैसे...
धरा पर भटकाव बहुत हैं
पर सब निरर्थक
सार्थक है तो केवल
नैतिकता,
जिस पर हावी होना चाहती अनैतिकता।


दिव्यता का संस्पर्श
हमें साहसी बनाता है।

अन्यथा हम पीड़ित बने रहेंगे।
इस बाबत आप क्या कहेंगे?
कभी कभी
नींद
देरी से
खुलती है,
दुनिया
जगी होती है।
सुबह सुबह
अख़बार पढ़ने की
तलब उठती है
पर
अख़बार  पढ़ने को
न मिले ,
उसे कोई उठा ले।
अख़बार ढूंढ़ने पर भी न मिल सके
तो मन में
बढ़ जाती है बेचैनी ,
होने लगती है परेशानी।

अख़बार की चोरी
धन बल की चोरी से
लगने लगती है बड़ी ,
दुनिया लगती है रुकी हुई
और ज़िन्दगी होती है प्रतीत
बाहर भीतर से थकी हुई।
ऐसे में
कुछ कुछ पछतावा होता है,
मन में फिर कभी देरी से
न उठने का ख्याल उभरता है,
मन में जो खालीपन का भाव पैदा हुआ था,
वह धीरे-धीरे भरने लगता है ,
जीवन पूर्ववत चलने लगता है।
अख़बार चोरी का अहसास
कम होने लगता है।
०३/०१/२०२५.
नया साल इस बार
अच्छे से तैयार होकर आया है।
सबके लिए सकारात्मक सोच से भरे
नए नए विचारों को जीवन धारा में
संयोजित करने का संकल्प लेकर आया है।
अभी अभी पढ़े है मैंने दो मन के भीतर
भरोसा जगाने वाले दो समाचार।
पहला समाचार कुछ इस प्रकार है कि
"अब जेलों में कैदियों और उनके बच्चों को
शिक्षित करेंगे जेबीटी अध्यापक,
(बेरोज़गारी के दौर में ) १५ को मिली नियमित नियुक्ति "
इससे पहले इन पदों पर अस्थाई नियुक्ति होती थी,
अब हुई है नियमित भर्ती।
उम्मीद है देश दुनिया में कार्यरत सरकारें
ऐसी सकारात्मक सोच और योजनाओं को
अपने यहां भी लागू कर पाएंगी,
बेरोज़गारी के खिलाफ़ अपने नागरिकों में
जन चेतना की अलख जगाएंगी ।
देश दुनिया और समाज को जागरूक करते हुए
' वसुधैव कुटुम्बकम् ' के उज्ज्वल पथ पर आगे बढ़ाएंगी।

दूसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार है कि
पंचनद प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे
मिड-डे-मील योजना के तहत
सर्दियों के अवकाश के बाद
जनवरी माह के लिए
कड़ाके की ठंड से बचने को ध्यान में रखते हुए
देसी घी से तैयार हलवे और पौष्टिकता से भरपूर खीर का
लुत्फ़ उठा पाएंगे।
अपने भीतर उमंग तरंग और व्यवस्था के सम्मान भाव
जगाते हुए स्वास्थ्यवर्धक योजना का लाभ उठा पाएंगे।

तीसरा समाचार भी कुछ इस प्रकार रहना चाहिए कि
सभी लोग नख से शिख तक जागरूक हो गए हैं,
वे अपने भीतर लक्ष्य सिद्धि के भाव जगा कर
देश, दुनिया और समाज को
सुख समृद्धि, संपन्नता और सौहार्दपूर्ण माहौल की
निर्मित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
हालांकि यह समाचार मेरे बावरे मन की उपज है।
यह कपोल कल्पित है ।
क्या पता कोई चमत्कार हो जाए !
एक दिन यह भी सच्चाई में बदल जाए !!
फिर कैसे कोई जीवन धारा में पिछड़ जाए ?.... और...
जीवन में अराजकता की आंधी को फैलाने की सोच पाए ?
काश! सभी अपने भीतर सकारात्मक होने की
लग्न और चाहत जगा पाएं।
इसी जीवन में समरसता के साथ जीवन यापन कर पाएं।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
वाह!
परिवर्तन की हवा
देने लगी है
हमारे जीवन में दस्तक ।
आओ , इसके स्वागत के निमित्त
हम खुद को विनम्र बनाएं।
अपने मन और मस्तिष्क के भीतर
सोच की खिड़कियों को खोलें।
स्वयं को भी लें आज टटोल।
हम चाहते क्या हैं ?
फिर बाहर भीतर तक
निष्पक्ष होकर
एक बार स्पष्ट हो लें।
ताकि यह जीवन
परिवर्तन की हवा का स्वागत
अपने विगत के अनुभवों की
रोशनी में
दिल और दिमाग को
खुले रखकर
खुले मन से कर ले।
यही बदलाव की हवा
बनेगी अशांत मनों की
रामबाण दवा।

परिवर्तन की हवा
पहुंचने वाली है
सभी सहृदय मानवों के द्वार पर
आओ हम इस के स्वागत के निमित्त
स्वयं को तैयार कर लें।
अपने मनों से पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों की
मैल को अच्छे से साफ कर लें।
अपने जीवन को तनिक समायोजित कर लें।
अपने भीतर संभावना के दीप जगा लें।
२४/१२/२०२४.
आदमी
अपने इर्द गिर्द के
घटना चक्र को
जानने के निमित्त
कभी कभी
हो जाता है व्यग्र और बेचैन।
भूल जाता है
सुख चैन।
हर पल इधर उधर
न जाने किधर किधर
भटकते रहते नैन।
यदि वह स्वयं की
अंतर्निहित
संभावनाओं को
जान ले ,
उसका जीवन
नया मोड़ ले ले।
आदमी
बस
सब कुछ भटकना छोड़ कर
खुद को जानने का
प्रयास करे !
ताकि जीवन में
सकारात्मक घटनाक्रम
उजास बन कर
पथ प्रदर्शित कर सके !
मन के भीतर से
अंधेरा छंट सके!!
२५/०२/२०२५.
यदि आदमी कभी
अपनी जेहादी मानसिकता को भूल जाए ,
तो कितना अच्छा हो
उसका रोम रोम भीतर तक
कमल सा खिल जाए !
वह बगैर किसी कुंठा और तनाव के
जीवन पथ पर आगे बढ़ पाए !
कितना अच्छा हो
आदमी बस खुद को समझ जाए ,
तो उसका जीवन स्वयंमेव सुधर जाए।
वह निर्मलता का मूल जान जाए ।
वह मन की मलिनता को दूर कर पाए।
वह बाहर और भीतर के प्रदूषण से लड़ पाए।
वह जीवन में कुंदन बन जाए।
२१/०२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
न कर अब
अधिक देर तक
निज को झकझोरती
स्व से ज़ोर आजमाइश।
पता नहीं कब
सपने धूल में मिल जाएं?
अचानक
दम तोड़ दे
सुख से सनी,
रंगों से रंगी,
जीवन की रंगीनियों से सजीं ,
अन्तर्मन से जुड़ीं
ख्वाहिशें।


जीवन अनिश्चित है
सो अब न कर
अपने आप से ज़ोर आजमाइश।
नियंत्रित रहेगा तो ही
पूरी होंगी एक एक करके ख्वाहिशें।
इन ख्वाहिशों और ख्वाबों की खातिर
न बना खुद को,
अब और अधिक शातिर ।
कभी तो बाज आ, स्व नियंत्रण की जद में आ जा।
ज़्यादा हील हुज्जत न कर, खुद को काबू में किया कर।
यह जीवन अपनी शर्तों पर, अपने ढंग से जीया कर।
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में होती नहीं
जब कोई बनावट ।
मन मस्तिष्क में भी
जब तब सफल होने की ,
होने लगती है आहट ।

ऐसे में
चेहरे की बढ़ जाती है रौनक ,
होठों पर आन विराजती
रह रह कर मुस्कुराहट !
जो लेती हर , हरेक थकावट !!
२१/१२/२०१६.
51 · Dec 2024
संकल्प
Joginder Singh Dec 2024
नये साल की चार तारीख को
खुल गई ‌नींद ठीक ‌भोर के चार बजे।
निश्चय किया अब मैं पुनः सोऊंगा नहीं !
अधिक देर सोया रहकर, अपने भविष्य को धोऊंगा नहीं !!
  ०४/०१/२०१७.
इस बार का बजट
क्या ग़ज़ब का है जी!
टैक्स देने वालों की मौज हो गई।
उन्हें भारी भरकम छूट मिली।
पहले मैं लाख के करीब टैक्स अदा करता था।
अगले साल यह शून्य पर आ जाएगा।
जीवन में होता है
कभी कभी करिश्मा ।
यह बजट कुछ ऐसा ही
जलवा दिखा गया।
इस बार का बजट
ऐसा कुछ
अहसास करा गया।
लगता है ,
आने वाले चुनावों में
यह भरोसेमंद सत्ता पक्ष के हाथों
ताकतवर विपक्ष की  
विकेट उड़ा गया ,
कहीं भीतर तक
अराजकता की राजनीति में
सहम भर गया !
हारने की आशंका भर गया !!
मुफ़्त के उपहारों से भी
बेहतरीन तोहफ़ा
जन साधारण को दे गया।

उम्मीद है ,
यह बजट विकास को गति देगा।
अगली बार का बजट भी
चुनावों में
मुफ्तखोरी पर
अंकुश लगाएगा।
तभी देश सालों से
चली आ रही
वित्तीय घाटे की रीति  और नीति पर
न चलकर
वित्तीय संतुलन की राह को
अपनाने की परंपरा पर आगे बढ़ पाएगा।
उम्मीद है कि
मेरा जैसा आम व्यक्ति
जो अभी अभी के बजट से
टैक्स मुक्त हुआ है ,
जो टैक्स फ्री नहीं रहना चाहता,
जैसा नागरिक भी
निकट भविष्य में,
आगामी सालों में
टैक्स  फिर से दे पाएगा ,
देश की आर्थिकता में
पहले की तरह
अपना अंशदान दे पाएगा।
साथ ही
यह भी उम्मीद है कि
समाज का सबसे गरीब व्यक्ति भी
जिसे लोग अक्सर
गया गुजरा आदमी  कह देते हैं,
वह भी कभी
आगामी सालों में
अपनी मेहनत से
और अपने वित्तीय कौशल में सुधार कर
निकट भविष्य में
हरेक नागरिक
फिर से टैक्स के दायरे में
आना चाहेगा ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि संपन्नता का आगमन लाएगा।
इस बार का बजट
किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम से कम नहीं,
जिसने सब को
अचरज में ला दिया।
बजट में भरपूर बचत का तड़का लगा दिया।
इस बार के बजट ने
सच में ही
आम और ख़ास तक को चौंका दिया।
०२/०१/२०२५.
साल २०२५-२०२६ का भारत सरकार के वित्तीय बजट पर एक प्रतिक्रिया वश।
Joginder Singh Nov 2024
देश तुम सोए हो गहरी नींद में ,
लुटेरे लूट रहे हैं तुम्हारा वैभव हाकिमों के वेश में ।

सत्ता बनी आज विपदा ,
रही जनसाधारण को सता,जनादेश जैसे भावावेगों से।

देश तुम जागो ,सोए क्यों हो ?
निद्रा सुख में खोये खोये से क्यों हो ?

उठो देश,धधक उठो आग होकर ,
बोल उठो, देश,आज युग-धर्म की आवाज़ होकर ।

देश उठो, वंचितों में जोश भरो,
शोषितों पीड़ितों की बेचारगी कुछ तो कम करो ।
Joginder Singh Nov 2024
दोस्त!
अपने भीतर की
नफ़रत का नाश कर,  
उल्फत के जज़्बात
अपने भीतर भरा कर ,
अपनी वासना से न डरा कर,
देशऔर दुनिया के सपनों को,
सतत् मेहनत और लगन से
साकार किया कर ।


ऐसा कुछ कहती हैं,
देश के अंदर
और
सरहद पार
रहने वाले बाशिंदों के
दिलों  से निकली
सदा।
समय पाकर
जो बनतीं जातीं
अवाम की दुआएं।
ऐसा
हमने समझ लिया है
इस दुनिया में रहकर,
समय की हवाओं के
संग बहकर।

फिर क्यों न हम
अपने और परायों को
कुछ जोश भरे,कुछ होश भरे
रास्तों पर
आगे बढ़ना सिखलाएं ,
उन्हें मंज़िल तक लेकर जाएं ।

९/५/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
आज  भी ,
कल  भी  ,  और  आगे भी
समाज  में  आग  लगी  रहेगी  न  !
हमारे  यहां  के  समय   में
समाजवाद  का  हो   चुका  है   आगमन  !
दमन  ,  वमन  ,  रमन  , चमन , गबन  और  गमन
आदि  सब  अपने  अपने  काम  धंधों  में  मग्न !
यदि   कोई  निठल्ला बैठा  है  तो  वह  है...
परिवेश  का  कोलाज ,
जो  समाज  और  समाजवादी  रंग  रूप
पर  रह  रह  कर
कहना  चाहता  है   अपवाद   स्वरूप  
कुछ मन के उद्गार!
आप के सम्मुख
रखना चाहता है मन की बात।
सुनिए   इस   बाबत  
आसपास   से   उठनेवाली  कुछ  ध्वनियां  !!

' निजता ' ,
' इज़्ज़त '  गईं   अब   तेल   लेने  !
ये  तो  बड़े  लोगों  की
बांदियां  हैं
और
छोटे-छोटे   लोगों   के   लिए
बर्बादियां  हैं   !!

अब   कहीं   भी   और   कभी   भी
निजता  बचनी   नहीं   चाहिए  ।
कहीं  कोई  इज़्ज़त   करनी  और   इज़्ज़त ‌  करवाने  की
परिपाटी   व  परम्परा   नहीं   होनी   चाहिए  ।


हर   घर   में   रोटी   पानी   चाहिए  ।
ज़िंदगी   में  अमन  चैन   बची  रहनी   चाहिए  ।
जीवन   अपनी   रफ्तार   और   शर्तों  से  
आगे   बढ़ना   चाहिए  ।
जी  भरकर  मनमर्ज़ियां  और  मनमानियां  की  
जानी   चाहिएं  ।
ज़िंदगी   खुलकर  जीनी   चाहिए  ।

अब   समाजवाद   आ   ही  जाएगा  ।
हर  कोई  समाजवादी  बन  ही  जाएगा  ।
जीवन   से  अज्ञानता  का  अंधेरा   छंट  ही  जाएगा  ।

कहीं  गहरे  से  एक  आगाह  करती
अंतर्ध्वनि  सुन  पड़ती  है ...,
'  वह  तो  आया  हुआ  है  जी  ! '
अब   उसे   मैं    क्या   कहूं    ?
रोऊं  या  हंसते हंसते रो पडूं ?

१६/१२/२०२४.
अचानक
किसी भावावेग में
आकर
आदमी
क्रूरता की
सभी हदें
पार कर जाए
और होश में आने के बाद
भागता फिरे
निरन्तर
वह बेशक पछताए,
परंतु
गुजरा समय लौट कर न आए।
इससे बचने का
ढूंढना चाहे कोई उपाय।
उसका बचना मुश्किल है।
वह कैसे अपना बचाव करे ?
अच्छा है कि वह किसी दुर्ग में
छुपने की बजाय
परिस्थितियों का सामना करे।
कानून और न्याय व्यवस्था के सम्मुख
आत्म समर्पण करे।

अगर छिपने के लिए
मिल भी जाए कोई दुर्ग जैसी सुरक्षित जगह का अहसास
तब भी एक पछतावा सदा करता रहता है पीछा।
एक सवाल मन में रह रह कर करता रहेगा बवाल ,
अब बचाव करूं या भागने की फिराक में रहूं ?
अच्छा रहेगा कि
आदमी खुद को निडर करे
और सजा के लिए खुद को तैयार करे ।
आत्म समर्पण एक बेहतर विकल्प है ,
अपनी गलती को सुधारने का प्रयास ही बेहतर है
जिससे एक बेहतर कल मिल सके ,
ताकि आदमी भविष्य में खुल कर जी सके।
१९/०१/२०२५.
सचमुच
पहाड़ पर ‌जिन्दगी
पहाड़ सरीखी होती है
देखने में सरल
पर
उतनी ही कठिन
और संघर्षशील।
पहाड़ी मानस की
दिनचर्या
पहाड़ के वैभव को
अपने में
समेटे रहती है
और पहाड़ भी
पहाड़ी मानस से
बतियाता रहता है
कभी-कभी
ताकि
जीवन ऊर्जा और शक्ति,
जीवन के प्रति श्रद्धा और जिजीविषा
बनी रहे,
पहाड़ी मानस में
संघर्ष का संगीत
सदैव पल पल रचा बसा रहे।
पहाड़ी मानस मस्त मौला बना रहे।
जीवन में हर पल डटा रहे।

मैदान का आदमी
पहाड़ के सौंदर्य और वैभव के प्रति
होता रहा है आकर्षित,
वह पर्यटक बन
पहाड़ को समझना और जानना चाहता है
जबकि पहाड़ी मानस
पहाड़ को अपने भीतर समेटे
घर परिवार और रोज़गार के लिए
सुदूर मैदानों, मरूस्थलों और समन्दरों को ओर जाना।
कुदरत आदमी और अन्य जीवों के इर्द-गिर्द
चुपचाप सतत् सक्रिय रहकर
बुना करती है प्रवास का ताना-बाना,
उसके आगे नहीं चलता कोई ‌बहाना।
सब को किस्मत की सलीब ढोना पड़ती है,
जीवन धारा आगे ही आगे बढ़ती रहती है।
१०/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सुख की खोज,
दुःख की खीझ,

सचमुच!

रूप बदल देती।

यह दर्द भी है देती!

यह मृगतृष्णा बनकर
सतत चुभती रहती।

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
उम्मीद है
इस बार तुम
हंगामा नहीं करोगे,
सरे राह
अपने और गैरों को नंगा नहीं करोगे।


उम्मीद है
इस बार तुम
नई रोशनी का
दिल से स्वागत करोगे,
अपनों और गैरों को
नूतनता के रू-ब-रू कराकर
नाउम्मीदी से
मुरझाए चेहरों में
ताजगी भरोगे!
उनमें प्रसन्नता भरी चमक लाओगे!!


उम्मीद है
इस बार तुम
बेवजह ड्रामा नहीं करोगे,
बल्कि एक नया मील पत्थर
सदैव की भांति
परिश्रम करते हुए खड़ा करोगे!


उम्मीद है
इस बार तुम
सच से नहीं डरोगे,
बल्कि
असफलता को भी मात दे सकोगे !
कामयाबी के लिए झूठ बोलने से बचोगे !

२४/११/२००८.
50 · Dec 2024
झूमना
Joginder Singh Dec 2024
संवाद
अंतर्मन से
जब हुआ ,
समस्त
विवाद भूल गया !
सचमुच !
मैं झूम उठा !!

२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
अभी मुमकिन नहीं
कम से कम.... मेरे लिए
खुली किताब बन पाऊं!
निर्भीक रहकर
जीवन जी जाऊं !!
समय के साथ
अपने लिए खड़ाऊं हो पाऊं!
उसके साथ अपने अतीत को याद कर पाऊं!!


अभी
मुमकिन है
खुद को जान जाऊं!
अपनी कमियों को सुधारता जाऊं !!
सतत् अपनी कमियों को कम करता जाऊं !!
जो मुमकिन है ,
वह मेरा सच है ।
जो नामुमकिन है
कम से कम.... मेरे लिए
झूठ है।
उतना ही मिथ्या
जितना रात्रि को देखा गया सपना,
जो हकीकत की दुनिया में
खत्म हो जाता है ,
ठीक वैसा ही
जैसे मैं चाहता हूं
सारे काम हों सही-सही।
हकीकत यह है कि
कुछ काम सही ढंग से हो पाते हैं,
और कुछ अधूरे ही रह जाते हैं।

मैं मुमकिन कामों को पूरा करना चाहता हूं ,
भले ही मेरे हिस्से में असफलता हाथ आए ।
बेशक विजयश्री कहीं पीछे छूट जाए !
क़दम दर क़दम नाकामी हाथ आए!!
दोस्तों को मेरी सोहबत भले न भाए !!

मेरी चाहत है,
मुमकिन ही मेरा स्वप्न बने ।
बेशक नामुमकिन
मरने के बाद राह का कांटा बने।

दोस्त,
मुमकिन ही हमारा संवाद बने  ,
नामुमकिन की काली छाया हमसे न जुड़े ।


२७/०८/२०१६.
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