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किसे नहीं जीवन
अच्छा लगेगा ?
जब जीवन के प्रति
मतवातर आकर्षण जगेगा।
मृत्यंजय क्यों कभी कभी
मौत के आगोश में चला जाता है?
जिसका नाम मृत्यु को जीतने वाला हो ,
वह क्यों जीवन के संघर्षों से हार जाता है?
अभी अभी पढ़ी है एक ख़बर कि
मृत्युंजय ने फंदा लगा लिया।
वह जीवन से कुछ निराश और हताश था।
आओ हम करें प्रयास
कि सब पल प्रति पल
बनाए रखें जीवन में
सकारात्मक घटनाक्रम की आस
ताकि आसपास हो सके उजास,
भीतर भी सुख ,समृद्धि और संपन्नता का
सतत होता रहे अहसास।
अचानक शिवशक्ति को
अपने नाम मृत्यंजय में समाहित
करने वाला जीवात्मा
असमय जीवन में न जाए हार।
वह जीवन को अपनी उपस्थिति से
आह्लादित करने में सक्षम बना रहे।
वह अचानक सभी को
शोकाकुल न कर सके।
वह जीवन को हंसते हंसते वर सके।
२०/०१/२०२५.
मन की गति बड़ी तीव्र है !
इसे समझना भी विचित्र है!
मन का अधिवास है कहां ?
शायद तन के किसी कोने में!
या फिर स्वयं के अवचेतन में!
मन इधर उधर भटकता है !
पर कभी कभी यह अटकता है!!
यह मन , मस्तिष्क में वास करता है।
आदमी सतत इस पर काबू पाने के
निमित्त प्रयास करता रहता है।
यदि एक बार यह नियंत्रित हो जाए ,
तो यह आदमी के भीतर बदलाव लाता है।
आदमी बदला लेना तक भूल जाता है।
उसके भीतर बाहर ठहराव जो आ जाता है।
यह जीव को मंत्र मुग्ध करता हुआ
जीवन के प्रति अगाध विश्वास जगाता है।
यह जीवंतता की अनुभूति बन कर
मतवातर जीवन में उजास भरता जाता है
आदमी अपने मन पर नियंत्रण करने पर
मनस्वी और मस्तमौला बन जाता है।
वह हर पल एक तपस्वी सा आता है नज़र,
उसका जीवन  और दृष्टिकोण
आमूल चूल परिवर्तित होकर
नितांत जड़ता को चेतनता में बदल देता है।
वह जीवन में उत्तरोत्तर सहिष्णु बनता चला जाता है।
मन हर पल मग्न रहता है।
वह जीवन की संवेदना और सार्थकता का संस्पर्श करता है।
मन जीवन के अनुभवों और अनुभूतियों से जुड़कर
सदैव
क्रियाशील रहता है।
सक्रिय जीवन ही मन को
स्वस्थ और निर्मल बनाता है।
इस के लिए
अपरिहार्य है कि
मन रहे हर पल कार्यरत और मग्न ,
यह एक खुली किताब होकर
सब को सहज ही शिखर की और ले जाए।
इस दिशा में
आदमी कितना बढ़ पाता है ?
यह मन के ऊपर
स्व के नियंत्रण पर निर्भर करता है ,
वरना निष्क्रियता से मन बेकाबू होकर
जीवन की संभावना तक को
तहस नहस कर देता है।
कभी कभी मन की तीव्र गति
अनियंत्रित होकर जीवन में लाती है बिखराव।
जो जीवन में तनाव की बन जाती है वज़ह ,
फलस्वरूप जीवन में व्याप्त जाती है कलह और क्लेश।
इस मनःस्थिति से बचना है तो मन को रखें हर पल मग्न।


०६/०१/२०२५.
आज भी
अराजकता के
इस दौर में
आम जनमानस
न्याय व्यवस्था पर
पूर्णरूपेण करता है भरोसा।

बेशक प्रशासन तंत्र
कितना ही भ्रष्ट हो जाए ,
आम आदमी
न्याय व्यवस्था में
व्यक्त करता है विश्वास ,
वह पंच परमेश्वर की
न्याय संहिता वाली आस्था के
साथ दूध का दूध , पानी का पानी होना
अब भी देखना चाहता है
और इसे हकीकत में भी देखता है ,
आज भी आम जन मानस के सम्मुख
कभी कभी न्यायिक निर्णय बन जाते हैं नज़ीर और मिसाल
...न्याय व्यवस्था लेकर बढ़ने लगती है जागृति की मशाल।
उसके भीतर हिम्मत और हौंसला
पैदा करती है न्याय व्यवस्था,
त्वरित और समुचित फैसले ,
जिससे कम होते हैं
आम और खास के बीच बढ़ते फासले।
न्यायाधीश
न्याय करता है
सोच समझ कर
वह कभी भी एक पक्ष के हक़ में
अपना फैसला नहीं सुनाता
बल्कि वह संतुलित दृष्टिकोण के साथ
अपना निर्णय सुनाता है ,
जिससे न्याय प्रक्रिया कभी बाधित न हो पाए।
आदमी और समाज की चेतना सोई न रह जाए।
जीवन धारा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ पाए।
०५/०१/२०२५.
54 · Nov 2024
नायकत्व
Joginder Singh Nov 2024
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
54 · Jan 6
दौड़
साला
कोल्हू का बैल
खेल गया खेल !
नियत समय पर
आने की कहकर
हो गया रफूचक्कर !!
आने दो
बनाता हूँ उसे घनचक्कर!
यह सब एक दिन
कोल्हू के बैल के
मालिक ने यह सब सोचा था।
पर कोल्हू का बैल
बड़ी सफ़ाई से
खुद को बचा गया था।
आज वह अपने मालिक को
वक़्त की गति को पूर्णतः
गया है समझ
कि विश्व गया है बदल
अतः उसे भी अब बदलना होगा।
जैसे की तैसे वाली नीति पर चलना होगा।
अब वह मालिक को सबक
सिखाना चाहता है
और मालिक से सीख लेने की बजाय
मालिक को भीख और
अनूठी सीख देना चाहता है।

आज मिस्टर बैल तो
आगे बढ़ा ही है, उसका मालिक भी
अभूतपूर्व गति से गया है बढ़ !
वह कोल्हू के बैल से और सख्ती से लेता है काम।

कोल्हू का बैल
सोचता रहता है अक्सर कि
क्या खरगोश और कछुए की दौड़ में
आज कछुआ जीत भी पाएगा ?
साले खरगोश ने तो
अब तक अपनी यश कथा
पढ़ी ही नहीं होगी,
बल्कि उस दुर्घटना से
जीवन सीख भी ले ली होगी कि
दौड़ में रुके नहीं कि गए काम से !
फिर तो ज़िन्दगी भर रोते रहना आराम से !!
यह सोच वह मुस्कराया और जुट गया
अपने काम में जी जान से।
उसे भी जीवन की दौड़ में
पीछे नहीं रहना है।
समय के बहाव में बहना है।
१४/११/१९९६.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
बनना चाहते तुम ,
सिद्ध करना चाहते तुम
पढ़ें लिखों की भीड़ में
स्वयं को प्रबुद्ध
तो रखिए याद
सदैव यह सच ,
यह याद रखना बेहद जरूरी है
कि अंत:करण बना रहे सदैव शुद्ध ।
अन्यथा व्यापा रहेगा भीतर तम ,
और तुम
अंत:तृष्णाओं के मकड़जाल में फंसकर
सिसकते, सिसकियां भरते रहे जाओगे ।
तुम्हारे भीतर समाया मानव
निरंतर दानव बनता हुआ
गुम होता चला जाएगा ,
वह कभी अपनी जड़ों को खोज नहीं पाएगा ।

वह
लापता होने की हद तक
खुद के टूटने की ,
पहचान के रूठने की
प्रतीति होने की बेचैनी व जड़ता से
पैदा होने के दंश झेलने तक
सतत् एक पीड़ा को अपनाते हुए
जीवन की आपाधापी में खोता चला जाएगा।
वह कभी अपनी प्रबुद्धता को प्रकट नहीं कर पाएगा।
फिर वह कैसे अपने से संतुष्ट रह पाएगा?
अतः प्रबुद्ध होने के लिए
अपने भीतर की
यात्रा करने में सक्षम होना
बेहद जरूरी है।
यह कोई मज़बूरी नहीं है ।
०३/१०/२०२४.
पहलगाम के
नृशंस हत्याकांड के बाद
आज के रविवार
पी. एम. सर
अपनी मन की बात को
सुरक्षा के संदर्भ में
आगे बढ़ाएंगे।
देखें , उन द्वारा व्यक्त विचार
घायल राष्ट्र को
कितना मरहम लगाते हैं।
वे देश भक्ति के जज्बात को
किस तरह भविष्य की रणनीति से जोड़ेंगे।
वे राष्ट्र की अस्मिता को
किस दृष्टिकोण से
देश के नागरिकों के सम्मुख रखेंगे।
देश अब भी किसी पड़ोसी देश का अहित
नहीं करना चाहता।
वह तो अपनी सरहदों को
सुरक्षित देखना चाहता।
वह देश दुनिया में अमन चैन का परचम
लहराते देखना चाहता ।
हाँ, देश यह जरूर चाहेगा कि
राष्ट्र के आंतरिक शत्रुओं पर
लगाम कसी जाए
ताकि देश भर में
आंतरिक एकता को दृढ़ किया जा सके,
सुख , समृद्धि और संपन्नता भरपूर
राष्ट्र को बनाया जा सके।
उसका हरेक नागरिक
उसकी आन बान शान को बढ़ा सके।
मन की बात में निहित अंतर्ध्वनि को सब सुनें ,
यहां तक कि पड़ोसी देशों के नागरिक भी ,
ताकि सभी देशों के नागरिक
हालात के अनुरूप खुद को ढाल सकें।
वे अपने अपने राष्ट्र की ढाल बनने में सक्षम हो सकें।
देश में अमन शांति कायम रहें ।
बेशक सब अपने अपने स्तर पर
सजग और चौकन्ने बने रहें।
२७/०४/२०२५.
प्रारब्ध
जीवन और मरण
आरम्भ और अंत
अंत और आरंभ से संप्रकृत
एक घटनाक्रम भर है ,
जो जीवन चक्र का हिस्सा भर है।
यहां अंत में
आरम्भ की संभावना की
खोज करने की लालसा है
और साथ ही
आरम्भ में सुख समृद्धि और संपन्नता की
मंगल कामना निहित रहती है।
सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है।
महज़ दृष्टि परिवर्तन और ऊर्जा का रूपांतरण होता है।


आदमी की सोच में
उपरोक्त विचार कहां से आते हैं ?
यह सच है कि प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
यह सिलसिला है कभी न समाप्त होने वाला
जिससे जुड़े हैं कर्मों के संचित फल और उन्हें भोगना भर ,
कर्मों को भोगते हुए, नए कर्म फलों को निर्मित करना,
सारे कर्म फल एक साथ भोगे नहीं जा सकते ,
ये संग्रहित होते रहते हैं बिल्कुल एक बैंक बैलेंस की तरह।

आरम्भ के अंत की बाबत सोचना
एक आरंभिक स्थिति भर है
और अंत का आरंभ भी एक क्षय का क्षण पकड़ना भर है
प्रारब्ध कथा कहती है कि कुछ नहीं होता नष्ट!
नष्ट होने का होता है आभास मात्र।
प्रारब्ध के मध्य से गुजरने के बाद
जीवात्मा विशिष्टता की ओर बढ़ती है।
यह जीवन यात्रा में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता अर्जित करती है।

प्रारब्ध एक घटनाक्रम भर है।
जिसमें से गतिमान हो रहा यह जीवन चक्र है।
११/०१/२०२५.
53 · Dec 2024
When Life Says
Joginder Singh Dec 2024
Friend concentrate yourself
when Life wants to say you something unique,
while addressing you.

Hold your breath dear !
Nowadays days you are facing a fear of pollution, which is spreading its adversities arround you.

Forget about regret regarding this .
You have no control over it.

You are merely a victim of merciless world,which is dancing arround you.

Observe yourself and your hectic activities,which resulted in destructive reactions in your consciousness.
Think a bit today who is active and responsible for destruction.
Think about reconstruction of life with a presence of common sense in the mind.
Life expresses his own felt truths to motivate all, despite big or small from time to time.

Life demands from us to think and check the reconditioning of mind in the constantly changing circumstances of life.
Joginder Singh Dec 2024
"समय पर
लग गई ब्रेक
वरना छुट्टी निश्चित थी !
कोर्ट , कचहरी , जेल में
हाज़िरी पक्की थी ! "

ड्राइवर की ,
बस के आगे चलती ...,
मोटरसाइकिल ,
मोटरसाइकिल सवार की
क़िस्मत अच्छी थी कि
समय पर लग गई ब्रेक !
नहीं तो झेलना पड़ता
संताप का सेक !!

आप क्या समझते हैं ?
ड्राइवर ने उपरोक्त से
मिलता जुलता कुछ सोचा होगा ??


मेरा ख्याल है --
शायद नहीं !
न ही ड्राइवर ने ,
न ही मोटरसाइकिलिस्ट ने
कुछ दुर्घटनाग्रस्त होने से
बाल बाल बचने की बाबत सोचा होगा।

सड़क पर
वाहन लेकर उतरना
हमेशा से जोखिम मोल लेना रहा है ।
यहाँ  गंतव्य तक पहुंचने, न पहुंचने  का खेल
चलता रहता है दिन रात ।
यह खेल जिंदगी और मौत के
परस्पर शतरंज की बाज़ी खेलने जैसा है ।
ट्रैफिक लाइटों से लेकर
ट्रैफिक जाम तक
सभी करते हैं एक सवाल
जिसमें छिपा है जीवन का मर्म
जब जीना मरना लगने लगे  
बढ़ते ट्रैफिक की वज़ह से
एक सामान्य घटनाक्रम!
तब कुछ भी
हतप्रभ और
शोकाकुल करने जैसा नहीं।
सड़क भागती है दिन रात अथक
या फिर मोटर गाड़ियां ?
या फिर उनमें बैठी सवारियां, ...!
कौन भागता है सड़क पर ?
लारियां , सवारियां या फिर समय ?


दोस्त , सड़क पर
बहुत कुछ घटित होता है
यहाँ कोई जीतता है तो कोई हारता है।
कोई जिन्दा बच जाता है तो कोई
अपनी जिन्दगी को असमय खो देता है।
कोई सकुशल घर पहुंचता है,
तो कोई अपना अंतिम सफ़र पूर्ण करता है।
इस बाबत कभी नहीं सोचती सड़क, न ही ड्राइवर ।
यह सब कुछ सोचता है...!
वही‌ सोच सकता है
जो निठल्ला है
और अपनी मर्ज़ी का मालिक है ,
कविताएं लिखता है,
वह ताउम्र बस में यात्रा करता है
और हर समय जीवन के रंगों के बारे में सोच सकता है।
वह अपने आसपास से बहुत नज़दीक से जुड़ा होता है।

२०/०३/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
सार  सार  को  ग्रहण  करने वाला !
सब  से  सच ,  सच  कहने  वाला !
होता  नहीं  कतई मूर्ख  कभी  भी  !
झूठे   का   साथ  ‌निभाने  ‌‌वाला   !
छल  कपट , मक्कारी करने  वाला !
पहुंचाता पल पल  निरीहों  को  दुःख !
बना  देता   है  ‌ ‌‌ज़िंदगी ‌ ‌को  नरक  !
तुम  ही  बतलाओ  आज ‌, बंधुवर  !
एक  झूठ  को  हवा   देता   है   और
दूसरा  सच  को  बचाकर  रखता  है ।
तुम  अब ‌ किसका  समर्थन  करोगे  ?
क्या  फिर  से   भेड़  चाल  चलोगे  ?
क्या इंसानियत  को  शर्मसार  करोगे ?
क्या  तुम   प्रश्नचिह्न    लगा  पाओगे ?
तुम जीवन के इस चक्रव्यूह से बच जाओगे?
  ०४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
भीतर के प्रश्न
क्या अब हो गए हैं समाप्त?  
क्या इन प्रश्नों में निहित
जिज्ञासाओं को
मिले कोई संतुष्टिप्रद उत्तर ?
क्या वे हैं अब संतुष्ट ?


कभी-कभी
उत्तर
करने लगते हैं प्रश्न !
वे हमें
करने लगते हैं
निरुत्तर!

आज
कर रहें हैं
वे प्रश्न,
' भले आदमी,
तुम कब से हो मृत?
तुमने चिंतन करना
क्यों छोड़ दिया है ?
तुम तो अमृतकुंड की
तलाश में
सृष्टि कणों के
भीतर से निकले थे।
फिर आज क्यों
रुक गए?
अपनी यात्रा पर
आगे बढ़ो, यूं ही
रुक न रहो। '
३०/११/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
तुम
आनन फानन में
लोक के हितार्थ
फैसला सुनना
चाहते हो ।
भला यह
मुमकिन है क्या ?
याद रखो यह तथ्य
बेशक जीवन में व्याप्त है सत्य ,
परन्तु कथ्य की निर्मिति में
लग सकता है कुछ अधिक समय ।
फिर यह तो जग ज़ाहिर है
कि चिंतन मनन में समय लगना
बिल्कुल स्वाभाविक है।

तुम
संवेदनशील मुद्दों को
फ़िलहाल दबा ही रहने दो।
जनता जनार्दन को
कुछ और संघर्षशील बन जाने दो।

जब उपयुक्त समय आएगा ,
दबे- कुचले, वंचितों - शोषितों, पीड़ितों के हक़ में
फैसला भी आ ही जाएगा।
जो न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया में
जनता जनार्दन के विश्वास को ,
उत्तरोत्तर दृढ़ करता जाएगा।

बंधुवर !
सही समय आने पर ,
अनुकुलता का अहसास हो जाने पर ,
जन जन के सपनों को , पर लग जाने पर ,
सभी अपनी -अपनी उड़ान भरेंगे !
सभी अपने-अपने सपने साकार करेंगे !!
सभी अपने भीतर अदम्य साहस व ऊर्जा भरेंगे !!!

१२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
तारीफ की चाशनी
सरीखे तार से बंधी है
यहां हर एक की जिंदगी।

तुम हो कि ...
ना चाह कर भी बंधे हो
सिद्धांत के खूंटे से!
चाहकर भी
तारीफ़ के पुल बांधने से
कतराते हो!!
पल पल कसमसाते हो!!!


तारीफ़ कर
तारीफ़ सुन
नहीं रहेगा कभी भी
गुमसुम !
यह था ग़ैबी हुक्म !!


सो उसे मानता हूं ।
तारीफ़ करता हूं,
जाने अनजाने
रीतों में,
गए बीतों में
खुशियां भरता हूं।
जीव जीव के भीतर के
डर हरता हूं ।
तार तार हो चुके
दिलों से जुड़ता हूं ,
छोटे-छोटे क़दम रख
आगे आगे बढ़ता हूं ।

क्या तुम मेरा
अनुसरण नहीं करोगे ?
स्वयं को
तारीफ़ का पात्र
सिद्ध नहीं करोगे ?
या फिर
स्व निर्मित आतंक के
गड़बड़ झाले से
त्रस्त रहोगे ?
खुद की अस्मिता को
तार तार करते
इधर-उधर
कराहते फिरोगे ?
उद्देश्यविहीन से !
तारीफ के जादुई
तिलिस्म से डरे डरे !!


दोस्त !
तारीफ़ का तिलिस्म वर!!
एक नई तारीख का
इंतज़ार निरंतर कर !!

०५/०२/२०१३.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
बब्बन
भूरो भैंस को
पानी पिलाया
और चारा खिलाया
करता है बड़े प्यार से।
बब्बन
लगातार
दो साल से
परीक्षा में
अनुत्तीर्ण हो रहा है ,
फिर भी
वह करता है
'भूरो देवी' की देखभाल
और सेवा बड़े प्यार से।

बब्बन
कभी कभी
उतारता है अपनी खीझ
पेड़ पर
बिना किसी वज़ह
पत्थर मारकर ,
फिर भी मन नहीं भरा
तो खीझा रीझा वह बहस करता है
अपने छोटे भाई से,
अंततः उससे डांट डपट कर,
मन ही मन
अपने अड़ियल मास्टर की तरफ़
मुक्का तानने का अभिनय करता हुआ
उठ खड़ा होता है
अचानक।
परन्तु
नहीं कहता कुछ भी
अपनी प्यारी
मोटी मुटृली भूरों भैंस को।
वह तो बस
उसे जुगाली करते  हुए
चुपचाप देखता रहता है ,
मन ही मन
सोचता रहता है ,
दुनिया भर की बातें ।
और कभी कभी स्कूल में पढ़ी,सुनी सुनाई
मुहावरे और कहावतें ।

बेचारी भूरों देवी
खूंटे से बंधी , बब्बन के पास खड़ी
जुगाली के मज़े लेती रहती है,
थकती है तो बैठ जाती है,
भूख लगे तो चारे में मुंह मारती है ,
थोड़ी थोड़ी देर के बाद
अपनी पूंछ हिला हिला कर
मक्खी मच्छर भगाती रहती है
और गोबर करती व मूतियाती रहती है ,
भूरों भैंस बब्बन के लिए
भरपूर मात्रा में देती है दूध।
बब्बन की सच्ची दोस्त है भूरों भैंस।


सावन में
जीवन के
मनभावन दौर में
झमाझम बारिश के दौरान
भूरों होती है परम आनन्दित
क्यों कि बारिश में जी भर कर भीगने का
अपना ही है मजा।
यही नहीं भूरो बब्बन के संग
जोहड़ स्नान का
अक्सर
लेती रहती है आनंद।
कभी-कभी
दोनों दोस्त बारिश के पानी में भीगकर
अपने  निर्थकता भरे जीवन को
जीवनोत्सव सरीखा बना कर
होते हैं अत्यंत आनंदित, हर्षित, प्रफुल्लित।

जब बड़ी देर तक
बब्बन भूरों रानी के संग
नहाने की मनमानी करता है ,
तब कभी कभी
दादू लगाते हैं बब्बन को डांट डपट और फटकार,
" अरे मूर्ख, ज्यादा भीगेगा
तो हो जाएगा बीमार ,
चढ़ जाएगा ज्वर --
तो भूरों का रखेगा
कौन ख्याल ? "

कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ पर
होकर सवार
गांव की सैर पर
निकल जाता है,
वह भूरों को चरागाह की
नरम मुलायम घास खिलाता है।

और कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ से
कौओं को उड़ाता है ,
उसे अपना अधिकार
लुटता नजर आता है।


सावन में
कभी कभार
जब रिमझिम रिमझिम बारिश के दौरान
तेज़ हो जाती है बौछारें
और घनघोर घटा बादल बरसने के दौर में
कोई बिगड़ैल बादल
लगता है दहाड़ने तो धरा पर पहले पहल
फैलती है दूधिया सफेद रोशनी !
इधर उधर जाती है बिखर !!
फिर सुन पड़ती तेज गड़गड़ाहट!!!

बब्बन कह उठता है
अचानक ,
' अरे ! वाह भई वाह!!
दीवाली का मजा आ गया!'
ऐसे समय में
सावन का बादल
अचानक
अप्रत्याशित रूप से
प्रतिक्रिया करता सा
एक बार फिर से गर्ज उठता है,
जंगल के भूखे शेर सरीखा होकर,
अनायास
बब्बन मियां
भूरो भैंस को संबोधित करते हुए
कह उठता है,
' वाह ! मजा आ गया !!
बादल नगाड़ा बजा गया !
आ , भूरो, झूम लें !
थोड़ा थोड़ा नाच लें !! '

भूरो रहती है चुप ,
उसे तो झमाझम बारिश के बीच
खड़ी रहकर मिल रहा है
परम सुख व अतीव आनंद !!

बब्बन
यदि बादलों की
गर्जन  और गड़गड़ाहट में
ढूंढ सकता है
सावन में ‌दीवाली का सुख
तो उसे क्या !

वह तो ‌भैंस है ,
दुधारू पशु मात्र।
एक निश्चित अंतराल पर
जीवन की बोली बोलती है ,
तो उसकी क्षुधा मिटाने का
किया जाता है प्रबंध !
ताकि वह दूध देती रहे ।
परिवार का भरण-पोषण करती रहे।

वह दूध देने से हटी नहीं,
कि खूंटे से इतर
जाने के लिए
वह बिकी  कसाई के पास
जाने के लिए।

या फिर
उसे लावारिस कर
छोड़ देगा
इधर-उधर फिरने के लिए।

वह भूरो भैंस है
न कि बब्बन की बहन!
दूध देने में असफल रही
तो कर दी जाएगी घर से बाहर !

बब्बन भइया
अनुत्तीर्ण होता भी रहे
तो उसे मिल ही जाएगी
कोई भूरो सी भैंस !
बच्चे जनने के लिए !
वंश वृद्धि करने के लिए !!

०४/०८/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
लोग सोचते हैं कि
आपको सब कुछ पता है ,
आसपास का सब कुछ --
नहीं है आपकी आंखों से
ओझल कुछ भी कहीं।

पर आप जानते हैं --
स्वयं को अच्छी तरह से ,
फलत: आप चुप रहते हैं ,
अपना सिर झुका कर
हर क्षण,हर पल, चुपचाप
चिंतन मनन करते रहते हैं।
अपना सिर झुकाए हुए
सोचते हैं ,निज से कहते हैं कि...,
" कैसे कहूं अपना सच !
किस विधि रखूं अपने
जीवन में प्राप्त निष्कर्ष
जनता जनार्दन के सम्मुख।
सतत् परिश्रम बना हुआ है
उत्कृष्टता का केन्द्र
और जीवन का आधार!"
" इस के अतिरिक्त
और नहीं कुछ मुझे विदित ,
दुनिया न खुद के बारे में ।
बहुत सा सच है अंधियारे में।"

आप कहते कुछ नहीं,
आजकल सुनते भर हैं।
आप कहें भी किस से ?
सब समय की चक्की तले
मतवातर पिस रहें।

कभी कभी आप
सुनते भर नहीं ,
अविराम सोचते समझते हैं ,
भीतरी अंधेरे को
उलीचते भर हैं ।
ताकि जीवन के सच का
उजास जीवन में मिलता रहे।
इससे जीवन - पथ प्रकाशित होता रहे।
लोग सोचते हैं कि आपको सब पता है ,
आप सोचते हैं कि लोगों को सब पता है ,
सच्चाई यह है -- आप और भीड़ , दोनों लापता हैं,
और आप सब कुछ कहे बिना
अपने अपने ‌ढंग से ढूंढते अपने घर का पता हैं ।

०४/०८/२००८.
ज़िंदगी भर
मैं बगैर सोच विचार किए
बोलता ही गया।
कभी नहीं बोलने से पीछे हटा,
फलत: अपनी ऊर्जा को
नष्ट करता रहा,
निज की राह
बाधित करता रहा।
निरंतर निरंकुश होकर
स्वयं को रह रह कर
कष्ट में डाले रहा।
आज मैं कल की
निस्बत कुछ समझदार हूं।
कल मैं एक क्षण भी
चुपचाप नहीं बैठ सका था ,
मैंने अपना पर्दाफाश
साक्षात्कार कर्त्ता के सम्मुख
कर दिया था।
मैं वह सब भी कह गया
जिसे लोग छिपाते हैं,
और कामयाब कहलाते हैं।
ज़्यादा बोलना
किसी कमअक्ली से
कम नहीं।
यह कतई सही नहीं।
आदमी को चुप रहना चाहिए,
उसे चुपचाप बने रहने का
सतत प्रयास करना चाहिए
ताकि आदमी जीवन की अर्थवत्ता को जान ले,
स्वयं की संभावना को समय रहते पहचान ले।
आज
अभी अभी
बस यात्रा के दौरान
मैंने मौन रहने का महत्व जाना है।
सोशल मीडिया के माध्यम से
मौन के फ़ायदे के बारे में
ज्ञानार्जन किया है,
अपने जीवन में
ज्ञान की बाबत
चिंतन मनन कर
अपने आप से संवाद रचाया है।
अभी अभी
मैंने मौन को
अपनाने का फैसला किया है कि
अब से मैं कम बोलूंगा,
अपनी ऊर्जा से
खिलवाड़ नहीं ‌करूंगा ,
जीवन में मौन रहकर
आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा,
कभी तो जीवन में अर्थवत्ता को अनुभूत कर सकूंगा,
सच के पथ पर अग्रसर होने से पीछे नहीं हटूंगा।
जीवन रण में मैं सदैव डटा रहूंगा।
कभी भी भूलकर किसी की शिकायत नहीं करूंगा।
कल और आज के
जीवन में घटित हुए घटनाक्रम ने
मुझे तनिक अक्लमंद बनाया है,
जीवन में अक्लबंद बने रहने के लिए चेताया है।
यही जीवन की सीख है,
जो यात्रा पथ पर
क़दम क़दम पर
अग्रसर होने से मिलती है,
यह आदमी के अंतर्घट में
चेतना की अमृत तुल्य बूंदें भरती है ,
जीवन में आकर्षण का संचार करती है।
३२/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
औपचारिकता
लेती है जब
सर्प सी होकर
डस।
आदमी का
अपने आसपास पर
नहीं
चलता कोई
वश।

तुम
अनौपचारिकता को
धारण कर,
उससे
अकेले में
संवाद रचा कर,
आदमी की
समसामयिक
चुप्पी  को तोड़ो।
उसे
जिंदगी के
रोमांच से
जोड़ो ।

तुम
जोड़ो
उसे जीवन से
ताकि
वह भी
निर्मल
जल धारा सा
होकर बहे ,
नाकि
अब और अधिक
अकेला रहे
और
अजनबियत का
अज़ाब सहे।

१०/०१/२००९.
53 · Jan 16
कैलेंडर
उन्होंने मुझे देना चाहा
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ
एक आकर्षक कैलेंडर
परंतु मैंने शुभ कामनाओं को
अपने पास संभाल कर रख लिया और
कैलेंडर विनम्रता से लौटा दिया।
वज़ह छोटी व साफ़ थी कि
कैलेंडर पर आराध्य प्रभु की छवि अंकित थी।
साल ख़त्म हुआ नहीं कि
कैलेंडर अनुपयोगी हुआ।
वह शीघ्र अतिशीघ्र कूड़े कचरे के हवाले हुआ।
यह संभव नहीं कि उसे फ्रेम करवा कर संभाला जाए।
फिर क्यों जाने अनजाने
अपने आराध्य देवियों और देवताओं का
अपमान किया जाए ?
अच्छा रहेगा कि कैलेंडरों पर
धार्मिक और आस्था के स्मृति चिन्हों को
प्रकाशित न किया जाए।
उन पर रंगीन पेड़ पौधे,पुष्प,पक्षी,पशु और
बहुत कुछ सार्थकता से भरपूर जीवन धारा को
इंगित करता मनमोहक दृश्वावलियों को छापा जाए।
जो जीवन की सार्थकता का अहसास करवाए ,
मन में मतवातर प्रसन्नता के भावों को जगाए ।
१६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हे मेरे मन!
अब और न करो निर्मित
बंधनयुक्त घेरे
स्वयं की कैद से
मुझे इस पल
मुक्त करो।
अशांति हरो।

हे मन!
तुमने मुझे खूब भटकाया है,
नित्य नूतन चाहतों को जन्म दे
बहुत सताया है।
अब
मैं कोई
भ्रांति नहीं, शान्ति चाहता हूँ।
जर्जर देह और चेहरे पर
कांति चाहता हूँ।
देश समाज में क्रांति का
आकांक्षी हूँ।

हे मेरे मन!
यदि तुम रहते शांत हो
तो बसता मेरे भीतर विराट है
और यदि रहते कभी अशांत हो
तो आत्म की शरण स्थली में,
देह नेह की दुनिया में
होता हाहाकार है।

हे मन!
सर्वस्व तुम्हें समर्पण!
तुम से एक अनुरोध है
अंतिम श्वास तक
जीवन धारा के प्रति
दृढ़ करते रहो पूर्व संचित विश्वास।
त्याग सकूँ
अपने समस्त दुराग्रह और पूर्वाग्रह ,
ताकि ढूंढ सकूँ
तुम्हारे अनुग्रह और सहयोग से
सनातन का सत्य प्रकाश,
छू सकूँ
दिव्य अनुभूतियुक्त आकाश।

हे मेरे मन!
अकेले में मुझे
कामनाओं के मकड़जाल में
उलझाया न करो।
तुम तो पथ प्रदर्शक हो।
भूले भटकों को राह दिखाया करो।
अंततः तुम से विनम्र प्रार्थना है...
सभी को अपनी दिव्यता और प्रबल शक्ति के
चमत्कार की अनुभूति के रंग में रंग
यह जीवन एक सत्संग है, की प्रतीति कराया करो।
बेवजह अब और अधिक जीवन यात्रा में भटकाया न करो।


हे मेरे मन!
नमो नमः

मन मंदिर में सहजता से
प्रवेश करवाया करो,
सब को सहज बना दरवेश बनाया करो।
सभी का सहजता से साक्षात्कार कराया करो,
हे मन के दरवेश!
53 · Dec 2024
इंतज़ार
Joginder Singh Dec 2024
करने दो
उसे इंतज़ार।
इंतज़ार में
समय कट जाता है !
युग तक रीत जाता है!!
२१/१२/२०१६.
बेशक
कटाक्ष काटता है!
यह कभी कभी क्या अक्सर
दिल और दिमाग पर खरोचें लगाकर
घायल करता है !
पर स्वार्थ रंगी दुनिया में
क्या इसके बगैर कोई काम सम्पन्न होता है ?
आप कटाक्ष करिए ज़रुर !
मगर एक सीमा में रहकर !!
यदि कटाक्ष ज्यादा ही काम कर गया
तो कटाक्ष का पैनापन सहने के लिए
संयम के साथ
स्वयं को रखिए तैयार !
ताकि जीवन यात्रा का
कभी छूटे न आधार।
कभी क्रोधवश
आदमी करने लगे उत्पात।
२६/०२/२०२५.
संसार में कौन भला और कौन बुरा ?
यहाँ जीवन का ताना बाना,
संघर्षों के इर्द गिर्द
है गया बुना।
इस जीवन में
पल पल
जन्म मरण का
सिलसिला है चलता आया।
यहाँ कोई अपना नहीं,न ही पराया !
जीवन के संघर्षों में बना रहना चाहिए
हमसाया!
जिसकी सोहबत से
और मतवातर सहयोग से
आदमी जीवनधारा को
चलायमान कर पाया।
जीवन का ताना बाना बड़ा अलबेला है ,
यहाँ हार जीत,सुख दुःख भरे क्षण
आते और जाते रहते हैं !
जीवन के रंगमंच पर
सब सब अपनी भूमिका निभाते हैं,
सब अपने समय में
आगमन और प्रस्थान का खेल,खेल
समय के समन्दर में खो जाते हैं !
काल के गाल में समा जाते हैं !!
अनंत काल से
यह सिलसिला है चल रहा !
जीवन मरण का खेल
जादुई सम्मोहन से लिपटा
जीवन का ताना बना बुन रहा।
इस डगर पर हर कोई मतवातर चलकर
जन्म दर जनम स्वयं को परिमार्जित कर रहा।
२५/०३/२०२५.
आज
जीवन के मार्ग पर
निपट अकेले होते जाने का
हम दर्द
झेल रहे हैं
तो इसकी वज़ह
क्या हो सकती है?
इस बाबत कभी
सोचा होगा
आपने
कभी न कभी
और विचारों ने
इंगित किया भी होगा कि
क्या रह गई कमी ?
क्यों रह गई कमी ?

आजकल
आदमी स्वयं की
बाबत संजीदगी से
सोचता है ,
वह पर सुख की
बाबत सोच नहीं
पाता है ,
इस सब स्वार्थ की
आग ने
उसे झुलसा दिया है,
वह अपना भला,
अपना लाभ ही
सोचता है।
कोई दूसरा
जीये या मरे,
रजा रहे या भूखा मरे ,
मुझे क्या?...
जैसी अमानुषिक सोच ने
आज जन-जीवन को
पंगु और अपाहिज कर
दिया है,
बिन बाती और तेल के
दिया कैसे
आसपास को
रोशन कर सकता है ?
क्या कभी यह सब
कभी मन में
ठहराव लाकर
सोच विचार किया है कभी ?
बस इसी कमी ने
आदमी का जीना दुश्वार किया है।
आज आदमी भटकता फिर रहा है।
स्वार्थ के सर्प ने सबको डस लिया है।

मन के भीतर
हद से ज्यादा होने
लगी है उथल-पुथल
फलत: आज
आदमी
बाहर भीतर से
हुआ है शिथिल
और डरा हुआ।
वह सोचने को हुआ है मजबूर !
कभी कभी जीवन क्यों
लगता है रुका हुआ !!
इस मनो व्यथा से
यदि आदमी से
बचना चाहता है
तो यह जरूरी है कि
वह संयमी बने,
धैर्य धन धारण करें।

१०/०१/२०२५.
आजकल देश दुनिया में
जितनी समस्याएं
संकट बनकर चुनौतियां दे रहीं हैं
उसके अनुपात में
विकल्प ढूंढ़ने के लिए
संकल्पना का होना अपरिहार्य है।
इससे कम न अधिक स्वीकार्य है।
हम सबके संकल्प
होने चाहिएं दृढ़ता का आधार लिए
ताकि संतुलित जीवन दृष्टि
हमें सतत् आगे बढ़ाने के लिए
पुरज़ोर प्रोत्साहित करती रहे।
समाज में वैषम्य किसी हद तक
कम किया जा सके।
समस्त बंधु बांधवों में
नई ऊर्जा और उत्साह से निर्मित
उमंग तरंग और चेतना जगाकर
देश दुनिया व समाज को
नित्य नूतन नवीन रास्ते पर
चलने , आगे बढ़ने के लिए
निरंतर प्रयास किए जा सकें।
सबके लिए
संभावना के द्वार खोले जा सकें।
सभी बंधुओं को
जड़ों से जोड़कर
उनका जीवन पथ प्रशस्त किया जा ‌सके।
उनके मन-मस्तिष्क के
भीतर उजास जगाया जा सके।
उन्हें उदास होने से बचाया जा सके।
आज सभी को खोजने होंगे
जीवन में आगे बढ़ने के निमित्त
नित्य नूतन विकल्प,
वह भी दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ
ताकि सभी जीवन में जूझ सकें।
अपने भीतर मनुष्योचित
सूझबूझ और पुरुषार्थ उत्पन्न कर सकें।
जीवन में सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
०१/०१/२०२५.
आदमी की नियति
अकेला रहना है।
यदि आदमी अकेलापन अनुभूत न करे,
तो वह कभी जीवन पथ पर आगे न बढ़े।
वह प्रेम पाश में बंधा हुआ
जीवन की स्वाभाविक गति को रोक दे ।

मुझे कभी अपना अकेलापन खटकता था,
अब प्रेम फांस में हूँ ...
तो जड़ हूं , अर्से से अटका हुआ हूँ ,
अपनी जड़ता तोड़ने के निमित्त
कहां कहां नहीं भटका हूँ ?
कामदेव की कृपा दृष्टि होने पर
आदमी अकेला न रहकर
दुकेला हो जाता है ,
स्वतंत्र न रहकर परतंत्र हो जाता है।

पहले पहल
आदमी प्रेम में पड़कर
आनन्दित होता है ,
फिर इसे पाकर
कभी कभी परेशान होता है।
उसे यह सब एक झमेला प्रतीत होता है।

प्रेम से मुक्ति पाने पर
आदमी नितांत अकेला रह जाता है ,
जीवन का मर्म समय रहते समझ जाता है ,
फिर वह इस प्रेम पाश
और जी के जंजाल से बचना चाहता है ,
इसी कशमकश में
वह जीवन में उत्तरोत्तर अकेला पड़ता जाता है !
एक दिन अचानक से जीवन का पटाक्षेप हो जाता है !!आदमी अकेला ही कर्मों का लेखा जोखा करने
धर्मराज के दरबार में हाज़िर हो जाता है !
वहाँ भी वह अकेला होता जाता है !!
पर अजीब विडंबना है ,
वह यहां अकेलापन कतई नहीं चाहता है,
किसी का साथ हरदम चाहता है !!
१२/०२/२०२५.
53 · Nov 2024
पथ की खोज
Joginder Singh Nov 2024
यह सच है कि
समय की घड़ी की
टिक टिक टिक के साथ,
वह कभी न चल सका ,
बीच रास्ते हांफने लगा ।
एक सच यह भी है
कि अपनी सफलता को लेकर
सदैव रहा आशंकित और डरा हुआ,
लगता रहा है उसे,
अब घर ,परिवार ,
समाज में
केवल
बचा रह गया है छल कपट ।
दिल और दिमाग में
छाया हुआ है डर ,
जो अंधेरे में रहकर,
मतवातर हो रहा है सघन ।
एक भयभीत करने वाली धुंध
पल प्रति पल कर रही भीतर घर,
बाहर भीतर सब कुछ अस्पष्ट !
वह हरदम है भटकने को विवश!!
फलत: वह है पग पग पर है
हैरान और परेशान !


सोचता हूं कि  
क्या वह
घर से बेघर होकर ,
एक ख़ानाबदोश बना हुआ ,
भटकता  रहेगा जीवन भर ?
क्या यही उसके जीवन का सच है?
क्या कोई बन पाएगा
उसका मुक्ति पथ का साथी ?
जिसे खोजते खोजते सारी उम्र खपा दी !०६/०१/२००९.
मेरा पुत्र
जो है पूरा देसी
पर नाम है जिसका
अंग्रेज सिंह।
कुछ समय पहले
ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जाने की
थी जिसकी ख्वाइश!
बहुत सारा धन कमाने का
था जिसका ख्वाब!
घर पर अपने ही ढंग से रहता था ।
जिस का रहन सहन
उसके मां बाप को तनिक नहीं भाता था।
आजकल थोड़ा अक्लमंद बन गया है।

जब से अमेरिका से
मेरे भारतीय भाई लोग
डोनाल्ड ट्रंप की
अमेरिका फर्स्ट की
नीति की वज़ह से
भारत वापसी को हुए हैं
मजबूर !
जो अच्छे मज़दूर और
कामयाब व्यापारी बनने की
योग्यता रखते हैं !
उम्मीद है
वे अब सही राह चलेंगे ,
भारत की तरक्की के लिए
दिन रात उद्यम करेंगे !
भारत को
भारत प्रथम की नीति पर
चलने की राह दिखा कर
फिर से
सुख , समृद्धि और संपन्नता की
ओर ले जाने का प्रयास करेंगे।

अंग्रेज सिंह
अब भारत में रहकर
अपना काम धंधा जमाना चाहता है,
वह ज़माने के पीछे न भाग
अपना दिमाग लगा
जीवन में
कुछ करना चाहता है ,
मेहनत कर के कुछ निखरना चाहता है।

अपने अंग्रेज सिंह के
दादा स्वदेश सिंह
अब उसे कहते हैं कि
अंग्रेज !तुम इतना धन संचित करो
कि डोनाल्ड ट्रंप के देश ही नहीं ,
दुनिया भर के देशों में
टूरिस्ट बन सैर सपाटा करो।
उनकी आर्थिकता को अपने ढंग से बढ़ाओ।
यह नहीं कि विदेश से शर्मिंदा हो कर
अपने देश में लौट के आओ।
बल्कि अपने साथ
एक विदेशी नौकर
मेहनत मशक्कत करने के लिए
लेकर आओ।
भारत का आदर और सम्मान
फिर से बढ़ाओ।
२०/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दीन ओ धर्म के नाम पर
जब अवाम को
बरगलाया जाता है,
तब क्या ईश्वर को
भुलाया नहीं जाता है?

दीन ओ धर्म
तब तक बचा रहेगा ,
जब तक आदमी का किरदार
सच्चा बना रहेगा ।

दीन ओ धर्म
तभी तक असरकारी है,
जब तक आदमी की
आंखों में
शर्म ओ हया के
जज़्बात जिंदा रहते हैं,
अन्यथा लोग हेराफेरी,
चोरी सीनाज़ोरी में
संलिप्त रहते हैं,
अंहकारी बने रहते हैं,
जो धर्म और कर्म को
दिखावा ही नहीं,
बल्कि छलावा तक मानते हैं।
ऐसे लोग
धर्म की रक्षा के नाम पर
देश, समाज, दुनिया को बांटते हैं,
नफ़रत फैला कर
अपनी दुकान चलाते हैं,
भोले भाले और भले आदमी
उनके झांसे में आकर
बेमौत मारे जाते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਨਾਲ ਕੰਮ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ
ਹਰ ਵੇਲੇ ਵਿਹਲੇ ਬੈਠੇ ਹੋਏ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ
ਜਾਂ ਫਿਰ ਕਦੇ ਕਦੇ
ਇਧਰ ਉਧਰ ਬੰਦਰਾਂ ਵਾਂਗ ਟਪੂਸੀਆਂ ਭਰਦੇ ਹੋ ।

ਕਦੇ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ,
ਉਹ ਵੀ ਵਾਰ ਵਾਰ ਟੋਕਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ,
ਇਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ , ਕਾਕਾ ਜੀ,
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਲਗਾ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੋ,
ਮਾਰੋ ਨਾ ਹੁਣ ਡਾਕਾ ਜੀ।

ਤੁਸੀਂ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਦਿਆਂ ਹੀ
ਬਦਨ ਢਿੱਲਾ ਛੱਡ ਕੇ
ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਥੱਕ ਜਾਣ ਦੀ
ਕਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ ਸ਼ਿਕਾਇਤ,
ਇਹ ਵਤੀਰਾ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜਾਇਜ਼।

ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਵਿਹਲਾ ਬੈਠਣਾ ਸਿੱਖ ਜਾਵੇ,
ਉਹ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਵੀ ਨਾ ਭਾਵੇ।
ਅਜਿਹੀਆ ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਦਿਨ ਭਰ
ਦੁਨਿਆਵੀ ਕਿਰਿਆ ਕਲਾਪਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖਦਾ ਰਹੇ ,
ਕੋਈ ਵੀ ਕੰਮ ਨਾ ਕਰੇ,
ਤਾਂ ਵੀ ਛੇਤੀ ਹੀ ਥੱਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ
ਅਤੇ ਕਦੇ ਕਦੇ ਤਾਂ ਉਸਦੀ
ਵਾਰ ਵਾਰ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਬਕਵਾਸ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਸੁਆਦਾਂ ਨੂੰ ਕਸੈਲਾ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ।

ਵਧੀਆ ਰਹੇਗਾ ਅਸੀਂ ,
ਸਮੇਂ ਸਮੇਂ ਤੇ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਦੀ ਕਰੀਏ ਪੜਚੋਲ।

ਸੱਚ ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਕਿ
ਕੰਮ ਕੋਈ ਸਜ਼ਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜੀ।
ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ
ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਧਨ, ਦੌਲਤ, ਸ਼ੋਹਰਤ।
ਇਹ ਰੱਬ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਹੈ ਕਿ
ਬੰਦਾ ਦਿਨ ਰਾਤ ਰੱਜ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇ,
ਉਹ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਾ ਹਟੇ।
Joginder Singh Nov 2024
बेबी डॉल
डाल डाल पर
जीवन से
लाड लड़ाती हुई
आँखें झपका रही है।
जीवन में
सुन्दरता, मनमोहकता के
रंग बिखेर रही है।
बेबी डॉल
आकर्षण का जादू
नस नस में
जगा रही है।
वह अपने ही सम्मोहन से
मंत्र मुग्ध हुई
जीवन से संवाद
रचा रही है।

आजकल
वह खोई खोई रहती है!
दिन रात विरह के गीत गाती है!!
दिनों दिन
अकेलेपन में
खोती जाती है।


हमें
एक बेबी डॉल की तलाश है
जिस में बसती जीवन की श्वास हो!
उसके पास ही कहीं
खिला पलाश हो!!
जिसके इर्द गिर्द
मंडराता मधुमास हो!!!
२८/०२/२०१
Joginder Singh Nov 2024
कभी प्यार के इर्द-गिर्द
मंडराया करती थीं
मनमोहक ,रंग बिरंगी ,
अलबेली उड़ान भरतीं
तितलियां।
अब वहां बची हैं
तो तल्ख़ियां ही तल्ख़ियां ।

कभी उनसे
मिलने और मिलाने का ,
अखियां मिलाने और छुपाने का
सिलसिला
अच्छा खासा रहा था चल
फिर अचानक हमारे बीच
आ गया था चंचल मन
मचाया था उसने उत्पात
किया था उसने हुड़दंग ।


बस फिर क्या था
यह सिलसिला गया था थम
समझो सब कुछ हुआ खत्म
फिर हमारे बीच तकरार आ गई
यह संबंधों को खा गई
प्यार के वसंत के बाद
अचानक एक काली अंधेरी आ गई
जो मेरे और उनके बीच एक दीवार उठा गई।


अभी हम मिलते हैं,
पर दिल की बात नहीं कह पाते हैं,
अपने बीच एक दीवार,
उस दीवार पर भी एक दरार
देख पाते हैं,
हमें अपने हुजूर के आसपास
मकड़ी के जाले लगे नजर आते हैं,
हम उस मकड़ जाल में फंसते चले जाते हैं।

अब यह दीवार
और ऊंची उठती जा रही है ।
कभी-कभी
मैं इस दीवार के इधर
और वह इस दीवार के उधर
या फिर इससे उल्ट।

जब इस स्थिति  को पलटते हैं ,
तो वह इस दीवार के इधर ,
और मैं इस दीवार के उधर ,
आते हैं नज़र ।
हम ना मिल सकते के लिए
हैं अब अभिशप्त
तो अब हमारे घरों में
तल्ख़ियां आ गईं हैं,
और हम चुप रहते हैं,
अंदर ही अंदर सड़ते रहते हैं ।

आज हमारे जीवन में अब
कहां चली गई है मौज मस्ती ?
अब तो बस हमारे संबंधों में
तल्ख़ियां और कड़वाहट ही बचीं हैं।
जीवन में मौज मस्ती बीती बात हुई।
यह कहीं उम्र बढ़ने के साथ पीछे छूटती गई।
अब तो बस मन में
तल्ख़ियां और कड़वाहटें भरती जा रहीं हैं।
यह हमें हर रोज़ की ज़िंदगी में घुटनों के बल ला  रही हैं ।
हाय ! प्यार में तल्खियां बढ़ती जा रहीं हैं।
यह दिन रात हमारे अस्तित्व को खा रहीं हैं।
53 · Nov 2024
मेहमान
Joginder Singh Nov 2024
बंदर  के   घर   बंदर   आया ,

आते  ही  उसने  उत्पात  मचाया ।

बंदरिया और    बच्चे  थे  , डर  गए।

वे   चुपके   से   बिस्तर   में   घुस  गए  ।

मेहमान   के   जाने     के     बाद    ,

किया  सबने   मेहमान   को    याद   ।

सारे    खिलखिला  कर   हँस    पड़े   ।

सूरज  ने   भी   इसका  आनंद  उठाया  ।
बंदर कवि खुद है जी!
तुम अपने शत्रु को
जड़ से
मिट्टी में मिलाना चाहते हो।
पर हाथ पर हाथ
धरे बैठे हो।
क्या बिना लड़े हार
मान चुके हो ?
तुम
बदला ज़रूर लो
पर कुछ अनूठे रंग ढंग से !
पहले रंग दो
उसे अपने रंग में ,
उसे अपनी सोहबत का
गुलाम बना दो ,
फिर उसे अपने मन माफ़िक
लय और ताल पर
नाचने के काम पर लगा दो।
तुम बदला ले ही लोगे
पर बदले बदले रंग ढंग से !
तुम मारो उसे, प्रेम से,चुपके चुपके!
वह जिंदा रहे पर जीए घुट घुट के !

या फिर एक ओर तरीका है,
आज की तेज़ तरार दुनिया में
यही एक मुनासिब सलीका है कि
दे दो किसी सुपात्र को
सुपारी शत्रु के खेमे में
सेंधमारी करने की
चुपके चुपके।
इसमें भी नहीं है कोई हर्ज़
यदि दुश्मन का
बैठे बिठाए
निकल जाए अर्क।

इसके लिए
मन सबको
सबसे पहले सुपात्र और विश्वासपात्र को
चुनने की
रखता है शर्त,
ताकि शत्रु को
उसके अंजाम तक
पहुंचाया जा सके।
जीवन की रणभूमि में
मित्रों को प्रोत्साहित
किया जाए
और शत्रुओं को
निरुत्साहित।
जैसे को तैसा ,
सरीखी नीति को
अमल में लाया जाए।
तुम कूटनीति से
शत्रु को पराजित
करना चाहते हो।
इसके लिए
क्या शत्रु के सिर पर
छत्र धर कर
उसे अहंकारी बनाना चाहते हो ?
फिर चुपके से
उसे विकट स्थिति में ले जाकर
चुपके चुपके गिराना चाहते हो !
उसे उल्लू बनाना चाहते हो !!

पर याद रखो , मित्र !
आजकल की दुनिया के
रंग ढंग हैं बड़े विचित्र !
कभी कभी सेर को सवा सेर टकर जाता है,
तब ऐसे में लेने के देने पड़ जाते हैं।
सोचो , कहीं
तुम्हारा शत्रु ही
तुम्हें मूर्ख बना दे।
चुपके चुपके चोरी चोरी
करके सीनाज़ोरी
आँखों में धूल झोंक दे !
उल्टा प्रतिघात कर मिट्टी में रौंद दे !!
अतः बदला लेने का ख्याल ही छोड़ दो।
अपनी समस्त ऊर्जा को
सृजनात्मकता की ओर मोड़ दो।
१६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
जीवन में
किसी से अपेक्षा रखना
ठीक नहीं,
यह है
अपने को ठगना।
यदि कोई आदमी
आपकी अपेक्षा पर
खरा उतरता नहीं है,
तो उसकी उपेक्षा करना,
है नितांत सही।
कभी कभी अपेक्षा
आदमी द्वारा
अचानक ही जब
जीवन की कसौटी पर
परखी जाती है
और यह सौ फीसदी
खरी उतरती नहीं है,
तब अपेक्षा उपेक्षा में बदल कर
मन के भीतर विक्षोभ
करती है उत्पन्न !
आदमी रह जाता सन्न !
वह महसूसता है स्वयं को विपन्न !
ऐसे में अनायास
उपेक्षा का जीवन में
हो जाता है प्रवेश!
जीवन पथ के
पग पग पर
होने लगता है कलह क्लेश !!

आदमी इस समय क्या करे ?
क्या वह निराशा में डूब जाए ?
नहीं ! वह अपना संतुलन बनाए रखे।
वह मतवातर खुद को तराशता जाए।
वह स्वयं को वश में करे !
वह उदास और हताश होने से बचे !
अपने इर्द गिर्द और आसपास से
हर्गिज़ हर्गिज़ उदासीन होने की
उसे जरूरत नहीं।
ऐसी किसी की कुव्वत नहीं कि
उसे उपेक्षा एक जिंदा शव में बदल दे ।
ऐसा होने से पहले ही आदमी अपने में
साहस और हिम्मत पैदा करे ,
वह अपनी आंतरिक मनोदशा को दृढ़ करे।
वह जीवन के उतार चढ़ावों और कठिनाइयों से न डरे।

अच्छा यही रहेगा कि वह कभी भी
अपेक्षा और उपेक्षा के पचड़ों में न ही पड़े ,
ताकि उसे ऐसी कोई अकल्पनीय समस्या
जीवन नदिया में बहते बहते झेलनी ही न पड़े।
मनुष्य को सदैव यह चाहिए कि
वह जीवन में किसी से भी
कभी कोई अपेक्षा न ही करे ,
जिससे समस्त मानवीय संबंध सुरक्षित रहें !
उसके सब संगी साथी जीवन की रणभूमि में डटे रहें !!
१५/०३/२०२५.
52 · Apr 25
तमाशबीन
बेशक
तमाशा देखना
सदैव सुखदाई होता है
परन्तु कभी कभी
तमाशबीन को
तमाचा लग
जाता है
जब कोई
शिकार व्यक्ति
अपनी जगहंसाई से
खफा होकर
प्रतिक्रिया वश
धुनाई कर देता है।
ऐसे में
तमाशबीन
अपने आप में
एक तमाशा
बन जाता है ,
उस पर स्वत:
हालात का
तमाचा पड़ जाता है।
उसका सारा उत्साह
ठंडा पड़ जाता है।
२५/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
लोग
कितना भी
जीवन में
खुलेपन पर
चर्चा परिचर्चा
कर लें ,
उनके हृदय में
कहीं न कहीं
गहरे तक
संकीर्णता रहती है ,
जिससे
जीवन में
व्याप्त खुशबू
फलने फूलने फैलने की
बजाय मतवातर
बदबू में
बदलती रहती है
जो धीरे-धीरे
तड़प में बदल कर
भटकाती है।
आओ ,
हम सब परस्पर
मिलजुल कर रहें।
हम सब जीवन पर्यन्त
संकीर्णता से बचें ,
दिल और दिमाग से
खुलापन अपनाते हुए
समानता से जुड़ें ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि और शांति के
बलबूते सकारात्मक सोच से
सतत सहर्ष आगे  बढ़ें।
संघर्षरत रहकर
जीवन के सच को
अनूभूत करें,
सब नव्यता का !
भव्यता का !!
आह्वान करें !!
सृजन पथ चुनें,
कभी भी विनाशक न बनें।
हमेशा सत्य के आराधक बनें।
२३/०४/२०२५.
तुम्हारे साए में
तुम्हारे आने से
परम सुख मिलता है , अतिथि !
हमारा सौभाग्य है कि
आपके चरण अरविंद इस घर में पड़े ।
तुम्हारे आने से इस घर का कण कण
खिल उठा है।
मन परम आनंद से भर गया है।
इस घर परिवार का
हरेक सदस्य पुलकित और आनंदित हो गया है ।

जब आपका मन करे
आप ख़ुशी ख़ुशी यहाँ
आओ अतिथि !
हम सब के भीतर
जोश और उत्साह भर जाओ।
तुम हम सब के सम्मुख
एक देव ऋषि से कम नहीं हो ,बंधु !
हम सब "अतिथि देवो भव: "के बीज मंत्र को
तन मन से शिरोधार्य कर
जीवन को सार्थक करना चाहते हैं , अतिथि !
तुम्हारे दर्शन से ही
हम प्रभु दर्शन की कर पाते हैं अनुभूति,
हे प्रभु तुल्य अतिथि !!

एक बार आप सब
मेरे देश और समाज में
अतिथि बनकर पधारो जी।
आप आत्मीयता से
इस देश और समाज के कण कण को
सुवासित कर जाओ।
आपकी मौजूदगी और भाव वात्सल्य के
जादू से
यह जीवन और संसार
रमणीय बन सका है, हे अतिथि!
आपके आने से ,
आतिथ्य सुख की कृपा बरसाने से ,
इस सेवक की प्रसन्नता और सम्पन्नता
निरंतर बढ़ी है।
जीवन की यह अविस्मरणीय निधि है।
आप बार बार आओ, अतिथि।
आप की प्रसन्नता से ही
यहां सुख समृद्धि आती है।
वरना जिंदगी अपने रंग और ढंग से
अपने गंतव्य पथ पर बढ़ रही है।
यह सभी को अग्रसर कर रही है।
२५/०८/२००५.
Joginder Singh Nov 2024
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
52 · Nov 2024
लड़ाका
Joginder Singh Nov 2024
मेरे यहां
हक की खातिर
लड़ने वाला
' गांधी ' होता है,
फौलादी हौंसले वाला
एक अदृश्य तूफ़ान होता है,
सच ! जिसके भीतर
आक्रोश भरा रहता  है,
भले वह अहिंसक रास्ते पर चले ,
उसके अंदर बारूद भरा रहता है।
ऐसा आदमी सीधा सादा होता है।
आज के तिकड़म बाज़ नेता उसे खतरनाक बना देते हैं।है।
उसे आग पानी देकर महत्वाकांक्षी बना देते हैं,
किसी हद तक  
उसके आक्रोश को ज्वालामुखी बना
उसे अराजक ही नहीं, विध्वंसक भी बना देते हैं।

उसे धरने, विरोध प्रदर्शन करने,
लड़ने भेजने में लगा देते हैं ,
उसके अंदर के असंतोष को हवा दे
उसे पूर्ण रूपेण अराजक और आतंकी बना देते हैं।
जब वह संघर्ष करते हुए शहादत पा जाता है।
तब उसे बरगलाया हुआ, राह से भटका बताया जाता है।
सच! उसके मर जाने के बाद कोई एक आध ही रोता है। कुछ इस तरह एक संभावना का अंत मेरे यहां होता है।

पर सच ! कभी खोता है।
वह देर सवेर
सबके यहां
हर किसी जगह
दस्तक देता हुआ
कि
किसी नन्हे पौधे सा होकर
अंकुरित होता है ,
और
एक सच का वृक्ष बनकर
पुष्पित और पल्लवित होता है।
इस भांति सभी जगह परिवर्तन होता है।


12/03/2013.
समय समर्थ है
यह सदैव गतिशील रहता है
जीवन में यात्रा करने के दौरान
रुके रहने का अहसास
हद से ज्यादा अखरता है
यह न केवल प्रगति के  न होने का दंश दे जाता है
बल्कि नारकीय जीवन जीने की
प्रतीति भी कराता है।
जीवन में रुके रहने का अहसास
असाधारण उपलब्धियों की प्राप्ति तक को
आम बना देता है।
यह आदमी को
भीतर तक हिला देता है ,
उसे कहीं गहरे तक
थका देता है।

रुके रहने से बेहतर है कि
आदमी स्वयं को गतिशील रखें
ताकि वह असमय न थके,
जीवन में आगे बढ़ कर
अपनी मंजिल को वरता रहे।
२६/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
' मर ना शीघ्र ,
जीवन वन में घूम ।' ,
जीवन , जीव से , यह सब
पल प्रतिपल कहता है ।

जीवात्मा
जीवन से बेख़बर
शनै : शनै :
रीतती रहती है ।
यथाशीघ्र
जीवन स्वप्न
बीत जाता है ।
जीव अपने उद्गम को
कहां लौट पाता है ?
वह स्वप्निलावस्था में खो जाता है।

०३/१०/२०२४.
हाज़िरजवाब
प्रतिस्पर्धी
किसी खुशकिस्मत को
नसीब होता है ,
वरना
ढीला ढाला प्रतिद्वंद्वी
आदमी को
लापरवाह बना देता है ,
आगे बढ़ने की
दौड़ में
रोड़े अटकाकर
भटका देता है ,
चुपके चुपके से
थका देता है।
वह किसी को न ही मिले तो अच्छा ,
ताकि जीवन में
कोई दे कर गच्चा
कर न सके
दोराहे और चौराहे पर
कभी हक्का बक्का।
अच्छा और सच्चा प्रतिद्वंद्वी
बनने के लिए
आदमी सतत प्रयास करता रहे ,
वह न केवल अथक परिश्रम करे ,
बल्कि समय समय पर
समझौता करने के निमित्त
खुद को तैयार करता रहे।
संयम से काम करना
प्रतिस्पर्धी का गुण है ,
और विरोधी को अपने मन मुताबिक
व्यवहार करने को बाध्य करना
कूटनीतिक सफलता है।

प्रतिस्पर्धा में
कोई हारता और जीतता नहीं,
मन में कोई वैर भाव रखना,
यह किसी को शोभा देता नहीं।
प्रतिद्वंद्विता की होड़ में
यह कतई सही नहीं।
आदमी जीवन पथ की राह में
मिले अनुभवों के आधार पर
स्वयं को परखे तो सही ,
तभी प्रतिभा के समन्वय से
प्रतिस्पर्धा में टिका जाता है ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
प्रगति को गंतव्य तक पहुंचाया जाता है।
०४/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
विश्वास का टूटना
अप्रत्याशित ही
आदमी का
दुर्घटनाग्रस्त हो जाना है।

और आदमी
यदि जीवन में
विश्वसनीय बना रहे
तो सफलता के पथ पर
आगे बढ़ते जाना है।

हमारे कर्म होने चाहिएं ऐसे
कि विश्वास
कभी विष में न बदले
वरना
अराजकता का दंश
हम सब को
मृतक सदृश बनाएगा।
यह सब के भीतर बेचैनी बढ़ाएगा ।
हमें ही क्या !
प्रकृति के समस्त जीवों को रुलाएगा !

दुनिया - जहान में
सभी की विश्वसनीयता बनी रहे
और हम सब अपनी अंतर्रात्मा की
आवाज़ सुनते रहें ,
ऐसे सब कर्म करते रहें
ताकि चारों ओर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की
बयार बहती रहे।

दोस्त !
अपना और उसका विश्वास
बचा कर रख
ताकि सभी को
मयस्सर हो सके सुख ,
किसी विरले को ही
झेलना पड़े दुःख - दर्द ।

१७/०१/२०१७.
हरेक क्षेत्र में
हरेक जगह एक मसखरा मौजूद है
जो ढूंढना चाहता
अपना वजूद है
वह कोई भी हो सकता है
कोई ‌मसखरा
या फिर
कोई तानाशाह
जो चाहे बस यही
सब करें उसकी वाह! वाह!
अराजकता की डोर से बंधे
तमाम मसखरे और तानाशाह
लगने लगे हैं आज के दौर के शहंशाह!
जिन्हें देखकर
तमाशबीन भीड़
भरने को बाध्य होगी
आह और कराह!
शहंशाह को सुन पड़ेगी
यह आह भरी कराहने की आवाजें
वाह! वाह!! ...के स्वर से युक्त
करतल ध्वनियों में बदलती हुईं !
तानाशाह के
अहंकार को पल्लवित पुष्पित करती हुईं !!
०१/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
बहस
एक बिना ब्रेक की
गाड़ी है ,
यदि यह नियंत्रण से
कभी अचानक
हो जाए बाहर
तो दुर्घटना निश्चित है।
यह निश्चिंत जीवन में
अनिश्चितता का कर देती संचार।
यह संसार तक
लगने लगता सारहीन और व्यर्थ।

बहस
जीवन के प्रवाह को
कर देती है बाधित।
यह इन्सान को
घर व परिवार और समाज के
मोर्चे पर कर देती है तबाह।
अतः इस निगोड़ी
बहस से बचना
बेहद ज़रूरी है ,
इससे जीवन की सुरक्षार्थ
दूरी बनाए रखना
अपरिहार्य है।
क्या यह आज के तनाव भरे जीवन में
सभी को स्वीकार्य है ?
बहस कहीं गहरे तक करती है मार।
इससे बचना स्व विवेक पर निर्भर करता है।
वैसे यह सोलह आने सच है कि
समझदार मानुष इसमें उलझने से बचता है।
२५/१२/२०२४.
धर्म का अर्थ जीवन को गति देने वाले नियमों और सिद्धांतों को अपनाना है।
उनको बिना किसी विरोध के मानते जाना है।
धार्मिक होना कुछ और ही होना है ,
यह किसी हद तक कांटों के बिछौने पर सोना है।
धार्मिक आदमी कतई सांप्रदायिक नहीं होता है,
उसे कभी इतनी फुर्सत नहीं होती कि किसी शर्त से बंध सके,
समाज में हिंसा और अराजकता फैला कर तनाव भर दे।
उसका रास्ता तो तनाव मुक्ति का पथ अपनाना है।
जो इस राह में रोड़ा बने ,उसे दरकिनार करते हुए अपने को आगे ले जाना है।
इसलिए मैं मानता हूं कि धार्मिक होना सरल नहीं है ,
यह अपने जीते जी जीने की इच्छा का अंत करना है,
यह गरल पीना है और खुल कर खुली किताब बनकर जीना है।
किसी किसी में धार्मिक बनने का जिगरा होता है ,
वरना सांप्रदायिक और अधार्मिक यानिकि नास्तिक हर कोई होता है,
बल्कि कह लीजिए एक भेड़चाल का शिकार होकर
अपने आप को नास्तिक कहना एक फैशन सा हो गया है।
हर प्राणी नचिकेता नहीं हो सकता ,
जो धर्म का मूल जान गया था,
अपने अहंकार को मिटा पाया था,
सच्ची धार्मिक विभूति बन पाया था।
बेशक आज हमें अपने इर्द गिर्द धार्मिकों की भीड़ नहीं जुटानी है,
जीवन धारा आगे गंतव्य पथ पर बढ़ानी है
ताकि आदमी की मनमानी रुके और वह सत्य के सम्मुख ही झुके।
१९/०३/२०२५.
संबंध बड़े कोमल होते हैं
ये बनते बनते,बनते हैं
थोड़ी सी गफलत
हुई नहीं कि
धरधराकर
रेत से झर
जाते हैं,
यह
कभी हो
नहीं सकता कि
ये फिर से दृढ़ता की
डोर में बंध जाएं,
हम पूर्ववत
बेतकुल्ल्फी से
एक दूसरे से
खुलकर
मिल पाएं !
अब
आप ही बता दो
हम परस्पर
विश्वास को
दृढ़ करें
कि लड़ें !
क्यों न हम
एक दूसरे से
सहयोग करें ,
परस्पर
पुष्पित पल्लवित
होने के मौके
मयस्सर
करते रहें ,
आगे बढ़ें ,
सुध बुध
लेते रहें,
ताकि
दृढ़ होती रहें
संबंधों की जड़ें !
संबंध नाजुक होते हैं ,
गफलत हुई नहीं कि
ये मुरझा जाते हैं !
ऐसे में
सब तने तने रहते हैं !
भीतर , भीतर कुढ़ते रहते हैं !
न चाहकर भी
अंदर सहम भर जाता है !
अनिष्ट का वहम भरता रहता है !
आदमी हरपल सड़ता रहता है !!
१७/०३/२०२५.
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