Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Nov 2024 · 64
मेरी हसरत
Joginder Singh Nov 2024
आधी दुनिया
भूखी सोती है।
सोचता हूं,
क्या कभी लोग
भूखी नंगी
गुरबत से
जूझ रही दुनिया की
बाबत फ़िक्र करते हैं?

मुझे
थाली में जूठन
छोड़ने वाले अच्छे नहीं लगते।
मुझे
वे लोग
नफरत के लायक़
लगते हैं।
दुनिया खाने का
सलीका
सीख ले,
यही काफ़ी है।
हे अन्न देवता!
कोई जूठन छोड़ कर
आप का अपमान न करें।
यही मेरी हसरत है।
कोई भी खाना बर्बाद  होने न दे,
तो देशभर में बरकत होगी।
यही मानवता के लिए
बेहतर है।
भूखे को अन्न मिल जाए।
उसके प्राण बच जाए,
इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता
क्यों कि
आदमी का जमीर
कभी मर नहीं सकता।
यदि
मूल्य अवमूल्यन के दौर में
आदमी अपने आदर्श ढंग से अपना पाए
तो क्यों न  
सब उसे
सराहना का पात्र मान लें।
Joginder Singh Nov 2024
वेदों, गीता, रामायण, महाभारत की
सृजन स्थली
भारतवर्ष
अब
आज के भागम भाग वाले
काल खंड में
महाभारत का स्वरूप भर
प्रतीत होता है।
हर कहीं छोटे बड़े
खंडित स्वरूपों में महाभारत
देश
और दुनिया में मंचित की
जा रही है।
लगता है महाभारत का युद्ध
अभी तक
जारी है।
यहां वहां चारों ओर
अंधकार फैला हुआ है।
छल प्रपंच के मध्य
यहां हर कोई
एक दूसरे को मार रहा है।
यहां हर कोई धीमी मौत मर रहा है।
अर्जुन सरीखा,जो लड़ने में सक्षम है,
जीवन की युद्धभूमि से भाग रहा है।
यहां हर कोई पार्थ की प्रतीक्षा कर रहा है।
इस सब के बावजूद
हर कोई अपना अपना युद्ध लड़ रहा है।
१५/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
आजकल
सियासत
दूसरे के कंधे पर
बंदूक रखकर
चलाना है।
इसे अब
तथाकथित
आज़ादी के
उपासकों ने
बना लिया
एक बहाना है।

ऐसी
सियासत का
बोझ सब को
उठाना पड़
रहा है,
आदमी
व्यर्थ ही
इससे डर
रहा है।
२१/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
आजतक
स्वयं से
की है प्रीत।
फलत:अब
हूँ भीतर तक
भयभीत।
चाहता हूँ,
करना
औरों से भी
निस्वार्थ प्रीत!
ताकि जीवन में
रह सकूँ सहज।
नित्य सीख सकूँ
कुछ नवीन,
बन सकूँ
प्रवीण
और स्वयं को
लूँ जीत।
रचूँ जीवन में
एक नई रीत।
न रहूँ कभी
भयभीत।
२/६/२०२०.
Nov 2024 · 75
Need
Joginder Singh Nov 2024
Do we need limitless greed?
Inspite  a home,food, clothes and a job.
Engage yourself in search for a
contented life.
Keep your spirit so high,where only limit is sky.
Make constant efforts to attain
a comfortable life .
Nov 2024 · 67
ठग को ठेस
Joginder Singh Nov 2024
कभी कभी
ठग तक को
ठेस पहुँचती है।
यही बात
ठग बाबू को
कचोटती है।
फिर भी
वह ठगने,
मनमानी करने से
आता नहीं बाज़।
वह नित्य नूतन ढंग से
ढूंढता है,वे तरीके कि
शिकार अपनी अनभिज्ञता से
हो जाएं हताश और  निराश,
आखिरकार हार मान कर,
जड़ से भूलें करना प्रतिकार!


ऐसी अवस्था में
यदि कोई साहस कर
ठग का करता है प्रतिकार।
शिकार ,होने लगता है जब,
जागरूक और सतर्क।
ऐसे में
शिकार के गिर कर
खड़े होने से ही
पहुंचती है ठग को ठेस।
और ऐसा होने पर
उसकी ठसक का गुब्बारा फूटता है,
ठग अकेले में फूट फूट कर रोता है,
वह अंदर ही अंदर खुद को कोसता है।
विडंबना है कि
वह कभी ठगी करना नहीं छोड़ता ।
कभी भी
ठगी करने का मौका
नहीं छोड़ता ।
ठग का पुरजोर विरोध ही
ठगी पर रोक लगा सकता है।
ठग को
सकते में ला सकता है।
यदि ऐसा हो जाए
तो क्या ठग
कभी
कोमा में जा सकता है?
शायद नहीं,पर
वह किसी हद तक खुद को
सुधारने की
कोशिश कर सकता है।
Joginder Singh Nov 2024
आज फिर बंदर
दादा जी को छेड़ने
आ पहुंचा।
दादा ने छड़ी दिखाई, कहा,"भाग।"
जब नहीं भागा तो दादू  पुनः चिल्लाए,"भाग, सत्यानाशी...।"
तत्काल,बंदर ने कुलाठी लगाई
और नीम के पेड़ पर चढ़कर
पेड़ के साथ लगी, ग्लो की बेल,
जिसकी लताएं  ,  नीम पर चढ़ी थीं,से एक टहनी तोड़,
दांतों से चबाने लगा।
मुझे लगा, चबाने के साथ,वह कुछ सतर्कता भी
दिखा रहा था।
बूढ़े दादू उस पर लगातार चिल्ला रहे थे ,
उसे भगा रहे थे।
पर वह भी ढीठ था,पेड़ की शाखा पर बैठा रहा,
अपनी ग्लो की डंडी चबाने की क्रिया को सतत करता रहा।
  उसने आराम किया और बंदरों की टोली से जा मिला।

दादू अपने पुत्र और पोते को समझा रहे थे।
ये होते हैं समझदार।
वही खाते हैं,जो स्वास्थ्यवर्धक हो ।
इंसान की तरह   बीमार करने वाला भोजन नहीं करते।

मुझे ध्यान आया,
बस यात्रा के दौरान पढ़ा एक सूचना पट्ट,
जिस पर लिखा था,
"वन क्षेत्र शुरू।
कृपया बंदरों को खाद्य सामग्री न दें,
यह उन्हें बीमार करती है ।"
मुझे अपने बस के कंडक्टर द्वारा
बंदरों के लिए केले खरीदने और बाँटने का भी ध्यान आया।
साथ ही भद्दी से नूरपुरबेदी जाते समय
बंदरों के लिए केले,ब्रेड खरीदने
और बाँटने वाले धार्मिक कृत्य का ख्याल भी।

हम कितने नासमझ और गलत हैं।
यदि उनका ध्यान ही रखना है तो क्यों नहीं
उनके लिए उनकी प्रकृति के अनुरूप वनस्पति लगाते?
इसके साथ साथ उनके लिए
शेड्स और पीने के पानी का इंतजाम करवाते।
  
भिखारियों को दान देने से
अच्छा है
वन विभाग के सहयोग से
वन्य जीव संरक्षण का काम किया जाए।
प्रकृति मां ने
जो हमें अमूल्य धन  सम्पदा
और जीवन दिया है ,
उससे ऋण मुक्त हुआ जाए।
प्रकृति को बचाने,उसे बढ़ाने के लिए
मानव जीवन में जागरूकता बढ़ाई जाए।
समाज को वनवासियों के जीवन
और उनकी संस्कृति से जोड़ा जाए।
निज जीवन में भी
सकारात्मक सोच विकसित की जाए ,
ताकि जीवन शैली प्रकृति सम्मत हो पाए।
Nov 2024 · 67
Exit
Joginder Singh Nov 2024
If you can enter only.
You have no option to exit.
How can you feel happiness ?
In such an adverse situation,
you will find yourself in stress.
How can a person survive,and
revive to his values and beliefs?
It is extremely painful, dangerous and unpathetic to exist .

Some people put barricades at the exiting point.
Life in such hard times
becomes like a paramount.Where climbing is very difficult,when at the same time,man feel himself hungry as well angry to think his miserable surroundings.
Only there is no escape and no existence at exiting point. Sometimes man starts haunting himself for his imprisonment like situation. He feels that he has been caught and trapped in  a cage.
It can be anybody 's page of the life.
Nov 2024 · 60
अहसास
Joginder Singh Nov 2024
गर्मी में ठंड का अहसास
और
ठंड में गर्मी का अहसास
सुखद होता है,
जीवन में विपर्यय
सदैव आनंददायक होता है।

ठीक
कभी कभी
गर्मी में तेज गर्मी का अहसास
भीतर तक को जला देता है,
यह किसी हद तक
आदमी को रुला देता है।
देता है पहले उमस,
फिर पसीने पसीने होने का अहसास,
जिंदगी एकदम बेकार लगती है,
सब कुछ छोड़ भाग जाने की बातें
दिमाग में न चाहकर भी कर जातीं हैं घर,
आदमी पलायन
करना चाहता है,
यह कहां आसानी से हो पाता है,
वह निरंतर दुविधा में रहता है।
कुछ ऐसे ही
ठंड में ठंडक का अहसास
भीतर की समस्त ऊष्मा और ऊर्जा सोख
आदमी को कठोर और निर्दय बना देता है,
इस अवस्था में भी
आदमी
घर परिवार से पलायन करना चाहता है,
वह अकेला और दुखी रहता है,
मन में अशांति के आगमन को देख
धुर अंदर तक भयभीत रहता है।
उसका यह अहसास कैसे बदले?
आओ, हम करें इस के लिए प्रयास।
संशोधन, सहिष्णुता,साहस,नैतिकता,सकारात्मकता से
आदमी के भीतर बदलते मौसमों को
विकास और संतुलित जीवन दृष्टि के अनुकूल बनाएं।
क्यों उसे बार बार थका कर
जीवन में पलायनवादी बनाएं?

ठंड में गर्मी का अहसास,
गर्मी में ठंड का अहसास,
भरता है जीवों के भीतर सुख।
इसके विपरीत घटित होने पर
मन के भीतर दुःख उपजता है ।
यह सब उमर घटाता है,
इसका अहसास आदमी को
बहुत बाद में होता है।
सोचता है रह रह कर, भावों में बह बह कर
कि अब पछताए क्या होत ,जब चिड़िया चुग गईं खेत।
Joginder Singh Nov 2024
आज देश में
संविधान बचाने के
मुद्दे पर
नेता प्रति पक्ष
और सत्ताधीन नेतृत्व के बीच
एक होड़ा  होड़ी लगी हुई है।
दोनों , संविधान खतरे में है, कहते हैं,
असंख्य लोग अन्याय, शोषण के दंश को सहते हैं।
नेता प्रति पक्ष का कहना है,
सत्ता पक्ष ने
संविधान पढ़ा नहीं, सो वो
संविधान को खोखला बता रहे।
' अगर संविधान पढ़ा होता,
तो उन्होंने अलग नीतियां अपनाईं होतीं।'
सत्ता पक्ष ने भी  
नेता प्रति पक्ष के ऊपर
आरोप लगाया कि
विपक्ष
देश के एक संवेदनशील राज्य में
एक अलग संविधान बनाने की योजना पर
अड़ा हुआ है।
आप ही बताइए
एक देश,एक संविधान,
होना चाहिए कि नहीं।
आप ही फ़ैसला कीजिए,
कौन है सही।
देश में संविधान को लेकर
बहस छेड़ने का मुद्दा गर्म है।
हर कोई बना देश में बेशर्म है।
सब के अपने अपने पाले हैं।
क्या नेतागण
नागरिकों को मूर्ख बना रहे हैं?
आज
देश में संविधान सर्वोपरि रहना चाहिए।
यह देश की अस्मिता का वाहक होना चाहिए।
संविधान को लेकर
पड़ोसी देश में भी विवाद चल रहा है।
यहां वहां,सब जगह
संविधान को विवादित किया जा रहा है।
संविधान से धर्मनिरपेक्ष, समाजवाद, जैसे
अप्रासंगिक हो चुके मुद्दों को
एक परिवर्तनकारी आंदोलन का
आधार बनाया जा रहा है।  
बहुत से देश उलझे हैं, उनके  सुलझाव के लिए
संविधान जरूरी है कि नहीं?
यह देश की तकदीर,दशा, दिशा निर्मित करता है।
इस सच को
देश दुनिया के
समस्त नेताओं को समझना चाहिए,
अपने दुराग्रह, पूर्वाग्रह छोड़ने चाहिएं।
विकास के मौके देश दुनिया में बढ़ने चाहिएं ।
१५/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
कभी
देश में फैला था
एक दंगा।
अर्से बाद हुआ
खुलासा ,
जिससे
नेतृत्व हुआ
नंगा।
सोचता हूँ,
अब
क्या होगा?
नेतृत्व
खुद को
बचा पाएगा
या कुछ
अप्रत्याशित
घट जाएगा।
क्या
समाज
जातियों में
बंट जाएगा?
३/६/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
स्पर्श की भी
अपनी एक स्मृति होती है
जो अवचेतन का हिस्सा बन जाती है।
यदि
दिव्य की अनुभूति
करना चाहते हो तो प्रार्थना करो
पांच तत्वों के सुमेल के लिए !
भीतर के उजास के लिए !
दिव्यता के प्रकाश के लिए!
इस के लिए
संभावना खोजने के प्रयास करो।
हो सके तो दुर्भावना से बचो।
दिव्यता से साक्षात्कार कर पाने के लिए।
वैसे...
धरा पर भटकाव बहुत हैं
पर सब निरर्थक
सार्थक है तो केवल
नैतिकता,
जिस पर हावी होना चाहती अनैतिकता।


दिव्यता का संस्पर्श
हमें साहसी बनाता है।

अन्यथा हम पीड़ित बने रहेंगे।
इस बाबत आप क्या कहेंगे?
Nov 2024 · 74
Chess board
Joginder Singh Nov 2024
I am worried to see the climatic change.
It is beyond my range.
The whole world 🌎 seems me
like a chess board where
ups and downs related to 🌡️☁️🌡️☁️ weather change
is  disturbing to all of us.

Where all human beings,are playing the role of puppets.
Because nowadays
they have lost control over their destiny.
I am in a deep state of worries
from where I can see the finishing point of my planet 's life.
Who will cry 😢 with me to express sorrows for our beautiful mother Earth 🌍🌎🌍🌎!
Climatic changes made us like disturbed helpless souls wandering
here  and there on Earth.
Nov 2024 · 53
मोहरे
Joginder Singh Nov 2024
जीवन की
शतरंज में मोहरे
रणनैतिक योद्धे हैं;
केवल
ऊँट,घोड़े,हाथी,
सिपाही,
वज़ीर, बेग़म, बादशाह नहीं।
वे यथार्थ में
जीवन धारा को
दिशा देना चाहते हैं,
अपने मालिक की रक्षा करना चाहते हैं ।
इस के लिए
अपना बलिदान भी देते हैं।
यथा सामर्थ्य
अपनी जिंदगी जीते हैं,
एक एक करके जीवन रण से
विदा होते हैं।

कभी कभी मोहरे सोचते हैं,
सोचते भर हैं, कुछ कहते नहीं।
वे तो मोहरे हैं,
उन्हें तो जीवन की बिसात पर
चलाया भर जाता है,
आगे,पीछे,दाएं,बाएं,
इधर उधर ले जाया और
सरकाया जाता है।
वे नियमों में बंध कर
अपनी भूमिका निभाते हैं।
बादशाह को बचाना उनका फ़र्ज़ होता है,
प्यादे से लेकर वज़ीर,बेगम सभी बादशाह को
जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
मोहरे तो बस
अपने प्राण न्योछावर करते हैं।
उनके वश में कुछ नहीं,
मालिक की मर्ज़ी ही उनके लिए सही।
वे मालिक की इच्छा को
अपनी इच्छा मानते हैं
क्योंकि वे केवल मोहरे हैं,
मोह से वे बचते हैं,
मरकर  ही वे मोक्ष पा जाते हैं।
इनका जीवन काल कुछ क्षण का होता है,
जब तक खेल जारी रहता है, वे हैं,वरना डिब्बे में कैद!!

जीवन में खेल खेला,
कुछ पल के लिए उतार चढ़ाव,
झंझट,झमेला, मोहरों ने झेला!
और खेल खत्म के साथ ही रीत गए!
समय यात्रा पूरी कर रीत, बीत गए!
दो खिलाड़ी मनोरंजन के लिए खेले।
कभी जीते,कभी हारे,कभी हार न जीत ।

मोहरे तो बस अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
लोग बेवजह शतरंजी चालें चल,
एक दूसरे को निर्वसन करते हैं।

मोहरे इंसानों की तरह
स्वतंत्र सोच नहीं रखते ।
वे तो मोहरे हैं,
वे उसी के हैं,
जिसकी बिसात में वे बिछे हैं।
खिलाड़ी बदला नहीं कि
वे छिछोरे  हो जाते हैं,
वे उसका कहना मानते हैं,
जिसके वे अधीन होते हैं,
एकदम मोह विहीन! निर्मोही!!
  ०९/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
तू अनाप शनाप खर्च न किया कर।
कठिन समय है,कुछ बचत किया कर।
खुदगर्ज़ी छिपाने की मंशा से दान देता है,
बिना वज़ह धन को लुटाने से बचा कर।
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
मत बन बेपरवाह, मितव्ययिता अपना,
अनाप शनाप खर्च से जीवन होता तबाह।
धोखा खाने, पछताने से अपना आप बचा।
देख, कहीं यह जीवन बन न जाए एक सज़ा।।
Joginder Singh Nov 2024
तू जिंदगी की राह में
राहत क्यों ढूंढता ‌है?
तुम्हें उतार चढ़ाव से भरी
डगर पर चलना है।
आखिरकार लक्ष्य हासिल कर
मंज़िल तक पहुंचना है।
सकारात्मक सोचना है।
शोषण को भी रोकना है।
सच से नाता जोड़ना है।
निज अस्मिता को खोजना है।
ताकि मिले खोई हुई पहचान,
बना रहे जीवन में आत्मसम्मान।
Joginder Singh Nov 2024
यदि मेरा
फिर से
कोई मेरा नाम रखना चाहे  
तो मुझे अच्छा लगेगा यह नाम ।
चूंकि भाता नहीं मुझे कोई काम।
श्रीमान जी,
रखिए मेरा नाम निखट्टू,सुबह से शाम तक
सुननी पड़ती
तरह तरह की बातें...!

प्रतिक्रिया देना मैने छोड़ दिया है।
गूंगा बन जीना सीख लिया है।
अकलमंद बन समझौता किया है।
फिर भी बहुत सी
अंतर्ध्वनियों ने मुझे ढेर किया है
सो अब निःशब्द हूं।

आप भी कहेंगे
निखट्टू
निशब्द कैसे हो सकता है?
उत्तर है जी,
यह तो वही जानता है।
जो कुछ अच्छा बुरा खोजने पर
प्रतिक्रिया न कर चुप रहना सीख गया है।
जिसके पास संवेदना के बावजूद चुप्पी है,
वह नि:शब्द नहीं तो क्या है?
है कोई प्रत्युत्तर जी??

अब
निखट्टू को
परिभाषित करता हूँ,
ऐसा व्यक्ति
जो देश काल से
निर्लिप्त रहे,
आदेशों के बावजूद
कुछ भी न करे।
कोई उस पर कितना ही चिल्लाए,
पर वह चुप रहने से बाज़ न आए।
...और जो जरूरत के बावजूद
कुछ न करे,
निष्क्रियता की चादर ओढ़कर
देश, घर,दुनिया में कहीं पड़ा रहे।
ऐसे आदमी को निखट्टू कहते हैं।
जिसके वजूद को सब सहने को मजबूर हैं।
कमल देखिए, उसे सारी समझ है,फिर भी चुप है।
वह निखट्टू नहीं तो क्या है?

मुझे विदित है कि निखट्टू
आदतन
लिखती, निखट्टू रह जाते हैं।
वरना,मौका मिले तो वह सब के कान कतर दें।
यदि किसी व्यक्ति  को जीवन में उद्देश्य न मिले,
तो वह धीरे धीरे  एक निखट्टू में तब्दील हो जाता है।
एक दिन चिकना घड़ा बन जाता है,
जिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
कोई कितना ही अपनी खीझ उस पर निकाले,
निखट्टू हर दम हंसता मुस्कुराता रहता है।
निखट्टू  तो निखट्टू है,
वह तो बेअसर है।
उसे अपने तरीके से जिंदगी जीनी है, भले ही
किसी को वह एकदम
सिर से पैर तक   ढीठ लगे,
बेशर्मी का ताज उसके सिर ही सजे।
भई वाह!निखट्टू के मजे ही मजे!!
Joginder Singh Nov 2024
अभी अभी
टेलीविजन पर
एक कार्यक्रम देखते हुए,
ब्रेक के दौरान
विज्ञापन देखते हुए
आया एक ख्याल
कि श्रीमती को
दिया जाए एक उपहार।
विज्ञापित सामग्री खरीदी जाए,
और एक टिप्पणी के साथ
श्रीमती जी को सहर्ष
सौंप दी जाए।
विज्ञापन कुछ यूं प्रदर्शित था,
मक्खन सी मुलामियत वाली
पांच सौंदर्य साबुन के  पैक के साथ
एक बॉलपेन फ्री।

श्रीमती की लेखन प्रतिभा का  
करते हुए सम्मान
उन्हें
उपरोक्त विज्ञापन वाली
सामग्री दी जाए,
साथ ही किया जाए
टिप्पणी सहित अनुरोध,
" ....यह सौंदर्य सामग्री बॉलपेन की
ऑफ़र के साथ प्राप्त हुई है जी।
आप  इसका उपयोग करें,
सौंदर्य साबुन से
मल मल कर स्नान कीजिए।
साबुनों के साथ मिले
फ्री के पैन से  कविताएं लिखें
और सुनाएं,
निखार के साथ भी, निखार के बाद भी,मन बहलाएं जी।"

विज्ञापित सामग्री मैं बाज़ार से
ले आया हूं,
सोचता हूँ,
दूं या न दूं,
दूं तो डांट, फटकार के लिए
खुद को तैयार करूँ।
आप से मार्ग दर्शन अपेक्षित है।
वैसे अनुरोधकर्ता घर बाहर उपेक्षित है,
एक दम भोंदू,
रोंदू पति की तरह,
जो तीन में है न तेरह में।
ढूंढता है मजा जीने में,
कभी कभार की सजा में।
Nov 2024 · 78
Protection
Joginder Singh Nov 2024
One is rightist
and another is leftist.
Their tussle for power
makes the world
pathetic and miserable.

Common man
must keep a choice
for protection and survival of life.
So he must lead a responsible simple life to survive.
He must keep check  himself on his income and
expenditure.
Otherwise capitalistic forces
are very active to write stories of destruction,suppression for a common man who has  no interest for politics,
possibly can create hurdles on the pathway of his progress.

Protection is necessary for all
powerful as well as small.
No body has right to create walls among person to person
with a motive of restrictions.
That' s why
we need protection in our lives to survive safely, neatly  and smoothly.
Joginder Singh Nov 2024
व्यथित मन
आजकल मनमानियों पर
उतारू है,
इस ने बनाया हुआ
बहुतों को
बीमारू है।
उसके अंदर व्याप्त
प्रदूषण पर कैसे रोक लगे।
आओ,इस बाबत जरा बात करें ।
मन के भीतर का
सूख चुका जंगल तनिक हो सके हरा भरा।

मन के प्रदूषण पर रोक लगे,
कुछ तो हो कि
मानव का व्यक्तित्व
आकर्षण का केंद्र बने ।

जब मन
मनमानियां करने लगे,
और आदमी
अनुशासन भंग करने लगे ,
तो कैसे नहीं ?
आदमी औंधे मुँह गिरे!
फिर तो मतवातर
भीतर डर भरे।
अब सब सोचें,
मन की मनमानी कैसे रुके?

मन की उच्छृंखलता पर
लगाम कसने की
सब कोशिश करें,
ताकि आदमी
सच से नाता जोड़ सके,
और वह पूर्ववत के
अपने अधूरे छूट चुके कामों को
निष्पादित करने का यत्न करे।

इसी प्रक्रिया से आदमी निज को गुजारे।
उसके भीतर
खोया हुआ आत्मविश्वास लौटे
और शनै: शनै:
उसकी मनोदशा में सुधार हो,
वह आगे बढ़ने के लिए तैयार हो।

उसके मन की संपन्नता बढ़े,
और मन में जो मुफलिसी के ख्यालात भर चुके हैं,
वे धीरे धीरे से समाप्त हों।
मन के आकाश में से
दुश्चिंतता,अनिश्चितता, अस्पष्टता,
अंधेरे के बादल
छंटने लगें,
मन के भीतर
फिर से
उजास भर जाए।
सब आगे बढ़ने के प्रयास करते जाएं।

मन का उदास जंगल
फिर से खिल उठे,
सब इस खातिर प्रयास करें।
आओ,इस मुरझाए
मन के जंगल में
हरियाली के बीज फैलाएं।
यह हरा भरा होता चला जाए।

आओ,
मन के जंगल में
कुछ
प्रसन्नता, संपन्नता की खाद डालकर ,
वहां अंकुरित बीजों को
सुरक्षा का आवरण प्रदान करें,
ताकि वहां शांति वन बनाया जा सके।

कालांतर में
यही वन
व्यक्ति,समाज,देश को
अशांति, दुःख,दर्द, मुफलिसी के दौर में
तेज तीखी धूप में
छाया देते प्रतीत हों।
मन में कुछ ठंडक महसूस हो।

जब मन के भीतर खुशियां भर जाती हैं,
तब मन को नियंत्रित करना सरल है,
मन के भीतर से कड़वाहट खत्म होती जाती है,
एक पल सुख सुकून का भी आता है,
उस समय मन की मनमानी पर रोक लग ही जाती है।
और मन का वातावरण
हरियाली के बढ़ने,
पुष्पों के खिलने,
परिंदों के चहकने,
बयार के चलने से
सुवासित हो जाता है।
मन के भीतर कमल खिल जाता है!
आदमी स्वत: खिल खिल जाता है।!!
यह सब कुछ
भीतर के ताप को
कम कर देता है।
आदमी शीतलता की अनुभूति करता है।
धीरे धीरे मन के प्रदूषण पर रोक लग जाती है।
मन के भीतर सकारात्मकता भर जाती है।
आदमी  के मन की मरुभूमि
नखलिस्तान सरीखी हो जाती है।
हर किसी की सोच बदल जाती है।
मन का प्रदूषण दूर हुआ तो
अमन चैन की दुनिया घर में बस जाती है।
ऐसे में
संपन्नता की खनक भी सुनी जाती है।
Joginder Singh Nov 2024
समय कभी कभी
उवाचता है अपनी
गहरी पैठी अनुभव जनित
अनुभूति को
अभिव्यक्ति देता हुआ,
" अगर सभी चेतना प्राप्त
अपने  भीतर गहरे उतर
निज की खूबियों को जान पाएं,
अपनी सीमाएं पहचान जाएं
तो वे सभी एकजुट होकर
व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"

"खुद को समझ पाना,
फिर जन जन की समझ बढ़ाना,
कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन।
अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर।
जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस।
जड़ से यथास्थिति के बने शिकार,
नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।"
समय मतवातर कह रहा,
" देखो,समझो, काल का पहिया
उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा।
मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर
जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर
पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"

" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में
परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत
वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार।
यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे,
तो सदैव अपने भीतर
एक त्रिशंकु व्यथा को
पैर पसारते पाओगे।
फिर कभी नहीं
दुष्चक्रों के मकड़जाल से
निकल पाओगे।
तुम तो बस , खुद को
हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।"
  १४/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
वत्स का उत्स
उत्सव में छिपा है!
समय और उसने
कहीं कुछ छिपाया नहीं!!
आगे बढ़ने की ललक
बराबर भीतर बनी रही,
इसे कभी दबाया नहीं।
बस आप इसे समझिए सही।
जीवन में गड़बड़ी न होगी कभी।
००५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
सुना है,
वह धमकी बहादुर है।
उम्मीद है,
पूरा पूरा भरोसा है
वह अपने शब्दों पर
एकदम खरा उतरेगा,
गहरी मार करेगा,
चूंकि वह धमकी बहादुर है,
जिसे वह धमकी दे रहा है,
वह सिरे का कायर हो,
यह भला यकीन से
कैसे कहा जा सकता है?
कभी कभी
शेर को सवा शेर
मिल ही जाया करता है।
जिस से पराजित होने वाला डरता है।
न केवल डरता है, बल्कि दबता भी है।

मुझे यकीन है कि वह
गीदड़ भभकी नहीं दे रहा!
दिल से दहशत को हवा दे रहा !!

अब मेरी भी सुन लीजिए,
धमकी बहादुर को
हवा न दीजिए।
बल्कि उसका सामना कीजिए।
सौ बातों की एक बात कर रहा हूँ,
न कि भीतर डर भर रहा हूँ।
यहाँ
सब स्वाभिमानी हैं,
समय आने पर बनते बलिदानी हैं।
प्रतिक्रिया स्वरूप
हम भी
धमकी बहादुर और उसके गुर्गों पर
करना चाहते प्रबल प्रहार ।
हम उन पर
करेंगे
दिमाग से
घात प्रतिघात
और संहार...!
लौटाएंगे
उनको उनका उपहार
उनके ही अंदाज़ में।
हम उनसे उनकी बोली में
करेंगे संवाद।
निज भाषा का अपना स्वाद!!
हम चाहते हैं करना सामना
अपनी अतीत की पराजय को भूल कर
धमकी बहादुरों की आसुरी शक्तियों से दो दो हाथ।
हमारी रही है कामना,
सदैव शोषितों वंचितों को समय रहते थामना।
हम  मूलतः अहिंसक हैं,
नहीं चाहते मरना और मारना।
न ही चाहते कभी, धमकियों के आकाओं से ...
लड़ना, भिड़ना,मरना,डरना,
अपने सुकून को
खत्म होते देखना, बेशक
कभी धमकियों के बूते आगे बढ़ना पड़े,
कभी कभी समझौता करना पड़े।
१३/०५/२०२०
Nov 2024 · 61
थूकिए मत
Joginder Singh Nov 2024
जनाब
यहां थूकिए मत।

थू!थू! थूक ना!
जीवन में
आपात काल आ चुका है।
अगर
किसी ने देख लिया
आफत आ जाएगी ।
जान बचानी
मुश्किल हो जाएगी।
जुर्माना तो देना ही होगा,
बल्कि हवालात की
सैर भी करनी पड़ सकती है।
जीवन में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अच्छा होगा
भूल कर भी न थूक।
यह बन सकती है एक
सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चूक।
१४/०५/२०२०.क
कोरोना काल के भयभीत करने वाले काल खंड को ध्यान में रखते हुए कविता को पढ़ा जाए।
Joginder Singh Nov 2024
श्री मान,
सुनिए,
दिल से निकली बात ,
जिसने
मानस पटल पर
छोड़ा अमिट प्रभाव।
  
बहुत सी समस्याओं का समाधान,
लेकर आता जीवन में मान सम्मान।
और
बहुधा
समस्या का हल
सीधा और सरल
होता है।
समस्या को सुलझाने के
प्रयासों की वज़ह से
कभी कभी
हम उलझ जाते हैं,
उलझन में पड़ते जाते हैं।
समाधान
कुछ ऐसा है,
समस्या को
बिल्कुल समस्या न समझें,
बल्कि
समस्या के संग
जीवन जीने का तरीका सीखें।
देखना,समस्या छूमंतर हो जाएगी।
वह कुछ सकारात्मकता उत्पन्न कर
जीवन में बदलाव लाकर
जन जन में उमंग तरंग भर जाएगी।
  ११/०५/२०२०.
Nov 2024 · 61
काश!कोई...
Joginder Singh Nov 2024
काश!
कोई समय रहते
अपनी कर्मठता से
वसुंधरा पर
सुख के बीज
बिखेर जाए!
ताकि
सुख का वृक्ष
फलता फूलता
नज़र आए!!

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी में
तना तनी,
छीन लेती
सुख की नागमणि!
२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी को
चाहने वाले
कभी
जल्दी नहीं करते,
वे तो बस
अपने भीतर
मतवातर
तब तक
सब्र को हैं भरते,
सदा जोश और मस्ती में
हैं हर पल रहते
जब तक
बाहर
कुछ छलक न जाए !

अचानक
आंखों से
कुछ निकल कर
बाहर न आ जाए!

तन मन को नम कर जाए!!
  २५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
सुख की खोज,
दुःख की खीझ,

सचमुच!

रूप बदल देती।

यह दर्द भी है देती!

यह मृगतृष्णा बनकर
सतत चुभती रहती।

२५/०४/२०२०
Joginder Singh Nov 2024
जब दोस्त
बात बात पर
मारने लगें ताना,
तब टूट ही जाता है
दोस्ताना।
अतः
दोस्त!
दोस्ती
बचाने की खातिर
अपने आप को
संतुलित करना सीख।
अरे भाई!
तुम दोस्त हो
दोस्तों पर
तानाकशी से बच,
कभी कभी तो
बोला करो
खुद से ही सच।


२५/०४/२०२०.
Nov 2024 · 58
रंगीला
Joginder Singh Nov 2024
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
Joginder Singh Nov 2024
आज कल
इंसान होना बहुत मुश्किल है  
क्यों कि
उसके सामने
मुश्किलें बढ़ाने वाला कल है।
सो, यदि इंसान कहलाना चाहते हो
तो यह भी समझ लो,
तेज भागते समय को
अच्छे से समझ लो।

क्रोध करने से पहले
आदमी के पास
सच सुनने का जिगरा होना चाहिए
और साथ ही
उस के पास
झूठ को झुठलाने का  
हुनर होना चाहिए।

कभी कभार
दिल की जुस्तजू को पीछे रख
खुद से गुफ्तगू करते हुए
दिल को बहलाने का भी
हुनर होना चाहिए।
यदा कदा दिल
बहलाते रहना चाहिए।
उसे हल्के हल्के
मुस्कराते रहना चाहिए।




अब तो
मुस्करा प्यारे
तुझे जीवन भर
अपनों से सम्मान मिलेगा,
जिससे स्वत:
जीवन धारा में निखार दिखेगा।
देश और समाज को
स्वस्थ,साधन, सम्पन्न
संसार मिलेगा।
मुस्करा प्यारे मुस्करा।
अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ा।
१६/०७/२०२२
Nov 2024 · 80
Antique
Joginder Singh Nov 2024
My friend is very liberal.
He likes his antique collection and his selection of classic books.
But my philosophy of life is totally anti to his tastes.
He warns me not to interfere in his life, otherwise he will change me into an antique.
Guide me regarding this unhumantic behaviour.
At present I am planning to steal all his antique collection and to present this to someone who anticipates his ideas time to time.

Am I right or wrong?
At present,I am angry with his attitude toward me.
All this compels me to do some mischievous action.
Joginder Singh Nov 2024
बड़े बुजुर्ग
अक्सर कहते हैं ,
बच्चे मस्तमौला होते हैं,
उनका खेल तो शरारत है,
अगर बचपन में न कोई शरारत की
तो ज़िन्दगी ख़ाक जी!
अभी अभी
एक बंदर
एकदम मस्त खिलंदर
दादा जी के चश्मे को
सलीके से लगा कर इधर उधर देख
उधम मचाने की फिराक में था
कि देख लिया
दादा ने अचानक

वे अपनी छड़ी उठा कर चिल्लाए, बोले," भाग।"
बंदर भी
आज्ञाकारी बच्चे की तरह
भाग गया।
उसने कोई प्रतिकार नहीं किया।
इससे पहले
कई बार उसने
बूढ़े दादू को खूब खिजाया था।
यही नहीं
कई खाद्य पदार्थों को कब्जाया था।
आज
कुछ ख़ास नहीं हुआ।
उसने बस चश्मे को छुआ
और पल भर को आंखों पर लगाया बस!
और दादा की घुड़की सुन भाग गया।
चश्मा नीचे गिरा
और उसके शीशे पर
खरोंच आ गई।
शुक्र है
चश्मा ठीक ही था
दादा जी
अखबार पढ़ने बैठ गए,
बंदर किसी दूसरे मकान की छत पर
धमाचौकड़ी कर रहा था।
पास ही बंदर का बच्चा
अपनी मां की गोद से लिपटा पड़ा था,
बंदरिया उसे साथ लेकर
मकानों की दूसरी कतार की ओर निकल गई थी।
यह घटनाक्रम देख मेरी हँसी निकल गई।
दादा जी ने मुझे घूर कर देखा,
तो मैं सकपका गया।
एक बार फिर से डांट खाने से बच गया।
१३/११/२०२४.
Nov 2024 · 57
संतुष्टि
Joginder Singh Nov 2024
सब्र,संतोष
भीतर
व्याप जाएं,
इसके लिए
कर्मठता जरूरी है।
कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए ।
इसे ढंग से निष्पादित किया जाए।
इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए।
सतत
सब्र, संतोष, सहृदयता,
व्यक्ति को संत सरीखा
कर देती है,
लालसा और वासना तक
हर लेती है।
कभी कभी
देह में से नेह और संतुष्टि का
नहीं होना,
मन को अशांत
कर देता है।
अतः
जीवन में संतुष्टि का होना
निहायत जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा
रह जाती अधूरी है,
जिससे
रिश्तों में
बढ़ जाती दूरी है,
इसी वज़ह से मन भटकता है,
आदमी क़दम क़दम पर अटकता है,
और जीव जीवन भर
संतुष्टि के द्वार पर
दस्तक देने की कोशिश करता है,
अपने भीतर कशिश भरना चाहता है,
परन्तु
कभो कभी ही
आदमी सफल हो पाता है,
हर कोई संतुष्टि को
अनुभव करना चाहता है।
Nov 2024 · 90
Adversity
Joginder Singh Nov 2024
Whole world is busy to face
numerous challenges.
One of these is adversity.
Poverty, unemployment, instability,chaos,communal killings,illiteracy and many more adversities are running to win this unhumantic  race .

Friends,keep your eyes and windows of mind open to welcome the changes which will become our fate.

Your mind is like a gateway of universe.
Please educate it from time to time.
So that we all can create beautiful as well as timeless songs.
I am sure
that our forthcoming generation will sing such self written songs
to show and prove that anarchists always failed to execute their concipracies.
.
Joginder Singh Nov 2024
अर्से पहले
मेरे मुहल्ले में
आया करते थे कभी कभी
तमाशा दिखलाने
मदारी और बाज़ीगर
मनोरंजन करने
और धन कमाने
ताकि परिवार का
हो सके भरण पोषण।

मैं उस समय बच्चा था
उनके साथ चल पड़ता था
किसी और कूचे गली में
तमाशा देखने के निमित्त।
उस समय जीवन लगता था
एकदम शांत चित्त।
आसपास,देश समाज की हलचलों से अनभिज्ञ।

अब समय बदल चुका है
रंग तमाशे का दौर हो चुका समाप्त।
उस समय का बालक
अब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा
वरिष्ठ नागरिक हो चुका है,
एक भरपूर जीवन जी चुका है।

अब गली कूचे मुहल्ले
पहले सी हलचलों से
हो चुके हैं मुक्त,
शहर और कस्बे में,
यहां तक कि गांवों में भी
संयुक्त परिवार  
कोई विरले,विरले बचे हैं
एकल परिवार उनका स्थान ले चुके हैं।
इन छोटे और एकाकी परिवारों में
रिश्ते और रास्ते बिखर गए हैं
स्वार्थ का सर्प अपना फन उठाए
अब व्यक्ति व्यक्ति को भयभीत रहा है कर
और कभी कभी कष्ट,दर्द के रूबरू देता है कर।


आजकल
मेरे देश,घर,समाज, परिवार के सिर पर
हर पल लटकी रहती तलवार
मतवातर कर्ज़,मर्ज का बोझ
लगातार रहा है बढ़
मन में फैला रहता डर
असमय व्यवस्था के दरकने की व्यापी है शंका,आशंका।

ऐसे में
आप ही बताएं,
देश ,समाज , परिवार को
एकजुट, इकठ्ठा रखने का
कोई कारगर उपाय।

डीप स्टेट का आतंक
चारों और फैल रहा है ,
विपक्ष मदारी बना हुआ
खेल रहा है खेल,
रच रहा है सतत साज़िश,
सत्ता पर आसीन नेतृत्व को
धूल चटाने के लिए
कर रहा है षडयंत्र
ताकि रहे न कोई स्वतंत्र
और देश पर फिर से
विदेशी ताकतें करने लगें राज।
वे साधन सम्पन्न लोग
वर्तमान
सत्ता के सिंहासन पर आसीन
नेता का अक्स
एक तानाशाह के रूप में
करने लगे हैं चित्रित।

अब आगे क्या कहूँ?
पीठासीन तानाशाह,
और सत्ता से हटाए तानाशाह की
आपसी तकरार पर
कोई ढंग का फैसला कीजिए।
लोकतंत्र को ठगतंत्र से मुक्ति दिलवाइए।
आओ !सब मिलकर
इन हालातों को अपने अनुकूल बनाएं।
वैसे तानाशाहों का तमाशा ज़ारी है।
लगता है ...
अब तक तो
अपने प्यारे वतन पर
गैरों ने कब्ज़ा करने की,की हुई तैयारी है।
जनता के संघर्ष करने की अब आई बारी है।
उम्मीद है...
इस तमाशे से देश,समाज
बहुत जल्दी बाहर आएगा।
आम आदमी निकट भविष्य में
अपने भीतर सोए विजेता को बाहर लाएगा,
देश और  दुनिया पर
मंडराते संकट से
निजात दिलवाएगा।
कोई न कोई
इस आपातकाल को नेस्तनाबूद करने का
साहस जुटाएगा।
तभी सांस में सांस आएगा।
समय
इस दौर की कहानी
इतिहास का हिस्सा बन
सभी को सुनाएगा ताकि लोग
स्वार्थ की आंधी से
अपने अपने घर,परिवार बचा सकें।
निर्विघ्न कहीं भी आ जा सकें।
Joginder Singh Nov 2024
निठल्ले बैठे रह कर
हम कहां पहुंचेंगे ?
अपने भीतर व्याप्त विचारों को  
कब साकार करेंगे?
आज
सुख का पौधा
सूख गया है,
अहंकार जनित गर्मी ने
दिया है उसे सुखा।
आज का मानस
आता है नज़र
तन,मन,धन से भूखा!
कैसे नहीं उसकी जीवन बगिया में पड़ेगा सूखा?
आज दिख रहा वह,लालच के दरिया में बह रहा।
बाहर भीतर से मुरझाया हुआ, सूखा, कुमलहाया सा।

सुन मेरे भाई!
लोभ लालच की प्रवृति ने
नैसर्गिक सुख तुम से छीन लिए हैं ,
आज सब असमंजस में पड़े हुए हैं।

चेतना
सुख का वह बीज है ,
जो मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है।
मनुष्यता का परचम लहराए रखती है।

यह बने हमारी आस्था का केंद्र।
यह सुख की चाहत सब में भर,
करे सभी को संचालित
नहीं जानते कि सुखी रहने की चाहत,से ही
मनुष्य की क्रियाएं,प्रतिक्रियाएं, कामनाएं होती हैं चालित।
लेने परीक्षा तुम्हारी
वासना के कांटे
सुख की राह में बिछाए गए हैं।
भांति भांति के लोभ, लालच दे कर
लोग यहां भरमाए  गए हैं।
नहीं है अच्छी बात,
चेतना को विस्मृति के गर्त में पहुंचा कर,
पहचान छिपाना
और अच्छी भली राह से भटक जाना ।

अच्छा रहेगा, अब
शनै:शनै:
अपनी लोलुपता को घटाना,
धीरे धीरे
अपनी अहंकार जनित
जिद को जड़ से मिटाना।
जिससे रोक लग सके
मनुष्य की  अपनी जड़ें भूलने की प्रवृत्ति पर।

बहुत जरूरी है कि
मनुष्य वृक्ष होने से पहले ही
अपना मूल पहचाने,
वह अपनी जड़ों को जाने।

यही सार्थक रहेगा कि आज मानव
विचारों की कंकरियों के ढेर के मध्य
अपनी जीवंतता से साक्षात्कार  कर पाए।
Joginder Singh Nov 2024
चेतना
कभी नहीं कहती
किसी से
कभी भी
कि ढूंढों,
सभी में कमी।
बल्कि वह तो कमियों को  
दूर करती है,
भीतर और बाहर से
दृढ़ करती है।

चेतना ने
कभी न कहा,
  "चेत ना। "
वह तो हर पल
कहती रहती है,
" रहो चेतन,
ताकि तन रहे
हर पल प्रसन्न।"

सुनो,
सदैव जीवन से निकली
जीवंतता की
ध्वनियों को।

खोजो,
अपनी अन्तश्चेतना की
ध्वनियों को,
ताकि हर पल
चेतना के संग
महसूस कर सको,
आगे बढ़ सको,
जीवन धारा से
निकलीं उमंग भरी
तरंगों को,पल पल,
जीवन धारा की कल कल को
सुनकर
तुम निकल पड़ो
साधना के पथ पर
जीव मर्म,युग धर्म
आत्मसात कर
अंतर्द्वंद्वों से दूर रह
स्वयं को तटस्थ कर
महसूस करो
अंतर्ध्वनियों को,  
चेतना की उपस्थिति को।

अब सब कुछ
भूल भाल कर
ढूंढ लो निज की विकास स्थली।
शक्ति तुम्हारे भीतर वास कर रही।
उस की महता को जानो।
सनातन की महिमा का गुणगान करो।
अपने भीतर को  गेरूआ से रंग दो।
नाचो,खूब नाचो।
अपने भीतर को
अनायास
उजास से भर दो।
साथ ही
जीवन के रंगों से
होली खेलकर
अपनी मातृभूमि को
शक्ति से सज्जित कर दो।
ताकि जीवन बदरंग न लगे!
हर रंग जीवन धारा में फबे!!

१७/०७/२०१६.
Nov 2024 · 65
Salute
Joginder Singh Nov 2024
To make life easy and smooth
Parents, guardians are keeping themselves busy from early morning to till late night.
So I salute them all.
Because,they are all in all next to God.They are our true survivors.


Can you heard the mesmerizing sound of wonderful flute?

Answer is in yes or no.
Parent's constantly working ability play  a special role in our lives.
So dear!
Let us salute to
them
for providing rhythm and stability in life.
Joginder Singh Nov 2024
उस्ताद जी,
माना कि आप अपने काम में व्यस्त रहते हो,
खूब मेहनत करते हो,
जीवन में मस्त रहते हो।
पर कभी कभी तो
अपने कस्टमर की
जली कटी सुनते हो।
आप कारसाज हो,
बड़ी बेकरारी से काम निपटाते हो,
काम बिगड़ जाने पर
सिर धुनते हो, पछताते हो।

ऐसा क्यों?
बड़े जल्दबाज हो।
क्षमा करना जी ।
मेरे उस्ताद हो।
मुआफ करना , चेला करने चला, गुस्ताखी जी।
अब नहीं देखी जाती,खाना  खराबी जी।
काम के दौरान आप बने न शराबी जी।
अब अपनी बात कहता हूं।
दिन रात गाली गलौज सुनता हूं।
कभी कभी तो बिना गलती किए पिटता हूं।
आप के साथ साथ मैं भी सिर धुनता हूं।
अंदर ही अंदर खुद को भुनता हूं।


सुनिए उस्ताद, कभी कभी खाद पानी देने में कंजूसी न करें,
वरना चेला...हाथ से गया समझो ,जी ।
कौन सुने ? ‌‌
रोज की खिच खिच,चील,पों जी।
आप के मेहरबान ने...आफर दिया है जी।

समय कम है उस्ताद
अब जलेबी की तरह
साफ़ साफ़ सीधी बात जी।


जल्दबाजी में न लिया करें
कोई फ़ैसला।
जो कर दे
जीभ का स्वाद कसैला।

हरदम  चेले चपटे  के नट बोल्ट न कसें।
वो भी इन्सान है,,....बेशक कांगड़ी पहलवान है।

सुनो, उस्ताद...
जल्दबाजी काम बिगाड़े
इससे तो जीती बाजी भी हार में बदल जाती है जी।
विजयोन्माद और खुमारी तक उतर जाती है।
उस्ताद साहब,
सौ बातों की एक बात...
जल्दबाजी होवे है अंधी दौड़ जी।
यदि धीमी शुरुआत कर ली जाए,
तो आदमी जीत लिया करता, हार के कगार पर पहुंची बाजी...!

आपका अपना बेटा
भौंदूंमल।
Joginder Singh Nov 2024
गुनाह
जाने अनजाने हो जाए
तो आदमी करे क्या?
मन पर
बोझ पड़ जाए
तो आदमी करे क्या?
वो पगला जाए क्या??

आदमी
आदमियत का परिचय दे ।
अपने गुनाह
स्वीकार लें
तो ही अच्छा!
समय रहते
अपने आप को संभाल ले,
तो ही अच्छा!
गुनाह
आदमी को
रहने नहीं देते सच्चा।

यह ठीक नहीं
आदमी गुनाह करे
और चिकना घड़ा बन जाए ।
वह कतई न पछताए
बल्कि चोरी सीनाज़ोरी पर उतर आए
तो भी बुरा,
आदमी
बना रहता ताउम्र अधूरा।
अरे भाई!
तुम बेशक गुनाहगार हो,
पर मेरे दोस्त हो।
मित्र वर, सुनो एक अर्ज़
हम भूले न अपने फ़र्ज़
आजकल भूले जा रहे दायित्व
इनको निभाया जाना चाहिए।
सो समय रहते
हम गलती सुधार लें।

सुन, संभलना सीख
यह जीवन नहीं कोई भीख

यह मौका है बंदगी का,
यह अवसर है दरिंदगी से
निजात पाने का ।
परम के आगे शीश नवाने का।
आओ, प्रार्थना कर लें।
जाने अनजाने जो गुनाह हुए हैं हम से ,
उनके लिए आज प्रायश्चित कर लें ।
अपने सीने के अंदर दबे पड़े बोझ को हल्का कर लें।
   ९/६/२०१६.

Written by
Joginder Singh Nov 2024
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
आईना
जो दीवार से सटा था ,
अर्से से उपेक्षित सा टंगा था ।
जिस पर धूल मिट्टी पड़ती रही ,
संगी दीवार से पपड़ियां उतरती रहीं ।
आजकल बेहद उदासीन है ,
उसका भीतर अब हुआ गमगीन है ।
बेशक आसपास उसका बेहिसाब रंगीन है ।

आज बीते समय की याद में खोया है।


रूप
जो मनोहारी था,
मंत्र मुग्ध करता था ।
जो था कभी
सचमुच
आकर्षण से भरा हुआ,
अब हुआ फीका और मटमैला सा ।
Joginder Singh Nov 2024
तुम:  नाम में क्या रखा है?

मैं :सब कुछ!
   यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है।
    यह नाम ही तो है।
तुम: ‌ठीक ।
  ‌    काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है।
      यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है।
    ‌‌  जो सब को भटकाता है।
      ‌ ‌यह बेसब्री का बनता सबब।
मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है।
‌     उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है।
      ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है।
  तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!!
        किसी काम धाम का नहीं जी!
        करो उसकी अस्मिता की खोज जी।
     ‌    कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी।
   मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए ।
        उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए।
        यही है उस   की मानसिकता में बदलाव लाने का
         तरीक़ा।
    तुम: सब कुछ सच सच कहा जी।
          क्या वह इसके लिए होगा राजी?
      मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे ।
         इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े ।
           ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा।
              वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
झूठ मजबूर होकर
बोला जाता है,
उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है।
और कोई जब
इसे सुनने, मानने से
कर देता इन्कार,
तब उस पर  दबाव बनाया जाता है,
शिकंजा कसा जाता है।

ऐसे में
बचाव का
झट  से   एकमात्र उपाय
झूठ का सहारा  नजर आता है ,
ऐसा होने पर,
झूठ डूबते का सहारा होता है।
आदमी
जान हथेली पर रखकर
बेहिसाब दबाव से जूझते हुए
जान लेता है
जीवन का सच!
विडंबना देखिए!!
यह सच
नख से शिखा तक
झूठ से होता है
पूर्णतः सराबोर,
चाहकर भी आप जिसका
ओर छोर पकड़ नहीं पाते ,
भले ही आप कितने रहे हों विचलित।
कभी-कभी
झूठ,सच से ज़्यादा
रसूख और असर रखता है,
जब वह प्राण रक्षक बनता है।
आदमी झूठ का असर महसूस करता है।
ऐसे दौर में
झूठ,सच पर हावी होकर
विवेक तक को धुंधला देता है।
आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।

सोचता हूं ...
आजकल कभी कभी
आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी?
अच्छा भला, कमाता खाता ,
आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?

रख रहा हूं ,
अपने आसपास का घटनाक्रम।
जब झूठ
सच को
पूर्णतः ढकता है,
आदमी भीतर तक थकता है
और तब  तब
अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।

आजकल
लोग लोभी होकर
बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं,
अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.
Next page