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Joginder Singh Nov 2024
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
Joginder Singh Nov 2024
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
    उड़ान से पूर्व,  बंधु
    ‌ करनी पड़ती तैयारी,
   ताकि न पड़े चुकानी
   जीवन में कीमत भारी।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
विद्यालय के प्रांगण में,
गुरुजन करते लक्ष्य स्पष्ट।
जीवन के समरांगन में,
ताकि श्रम न हो नष्ट।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
शिक्षा आधार जीवन का,
हम इसे नींव बनायेंगे।
यह उत्तम फल जीवन का
इसे जीवन बगिया में उगायेंगे।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
  विपदा देश पर कभी पड़ी,
  हम एकजुट होंगे सभी।
   मातृभूमि की रक्षा में,
   हम प्राण वार देंगे सभी।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
   ‌
Nov 2024 · 56
नायकत्व
Joginder Singh Nov 2024
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
Joginder Singh Nov 2024
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
अब तो बस!
यादों में
खंडहर रह गए।
हम हो बेबस
जिन्दगी में
लूटे, पीटे, ठगे रह गए।
छोटे छोटे गुनाह
करते हुए
वक़्त के
हर सितम को सह गए।

पर...
अब सहन नहीं होता
खड़े खड़े
और
धराशाई गिरे पड़े होने के
बावजूद
हर ऐरा गेरा घड़ी दो घड़ी में
हमें आईना दिखलाए,
शर्मिंदगी का अहसास कराए,
मन के भीतर गहरे उतर नश्तर चुभोए
तो कैसे न कोई तिलमिलाए !
अब तो यह चाहत
भीतर हमारे पल रही है,
जैसे जैसे यह जिंदगी सिमट रही है
कि कोई ऐसा मिले जिंदगी में,
जो हमें सही डगर ले जाए।
बेशक वह
रही सही श्वासों की पूंजी के आगे
विरामचिन्ह,प्रश्नचिन्ह,विस्मयादि बोधक चिन्ह लगा दे ।
बस यह चाहत है,
वह मन के भीतर
जीने ,मरने,लड़ने,भटकने,तड़पने का उन्माद जगा दे।
९/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
मौत को मात
अभी तक
कौन दे पाया?

कोई विरला
इससे पंजे लड़ाकर,
अविचल खड़ा रहकर
लौट आता है
जीवन धारा में
कुछ समय बहने के लिए।

बहुत से सिरफिरे
मौत को मात देना चाहकर भी
इसके सम्मुख घुटने टेक देते हैं।
मौत का आगमन
जीवन धारा के संग
बहने के लिए
अपरिहार्य है!
सब जीवों को
यह घटना स्वीकार्य है!!

कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया।
सब इसे अपने भीतर बसाकर,
जीवन की डोर थाम कर ,
चल रहे हैं...अंत कथा के समानांतर ,
होने अपनी कर्मभूमि से यकायक छूमंतर।

महाकाल के विशालकाय समन्दर में
सम्पूर्ण समर्पण और स्व विसर्जन के
अनूठे क्षण सृजित कर रहे ,
जीवन से प्रस्थान करने की घटना का चित्र
प्रस्तुत करते हुए एक अनोखी अंतर्कथा।
मान्यता है यह पटकथा तो
जन्म के साथ ही लिखी जाती है।
इस बाबत आपकी समझ क्या कहती है?
Joginder Singh Nov 2024
प्रिया!

मैं
तुम्हारे
मन के भावों को चुराकर,
तुम्हारे
कहने से पहले,
तुम्हारे
सम्मुख व्यक्त करना चाहता हूँ।
..... ताकि
तुम्हारी
मुखाकृति पर
होने वाले प्रतिक्षण  
भाव परिवर्तन को
पढ़ सकूँ ,
तुम्हें  हतप्रभ
कर सकूँ ।

तुम्हारे भीतर
उतर सकूँ ।
तुम्हारी और अपनी खातिर ही
बेदर्द ,  बेरहम दुनिया से
लड़ सकूँ ।


तुम्हारा ,
अहसास चोर !!

८/६/२०१६..
Joginder Singh Nov 2024
सबके भीतर से
बेहतर बहे,
इस के लिए
हर कोई
न केवल दुआ करे,
बल्कि
प्रयास भी करे ,
.....
ताकि
जीवन जीवंत लगे,
जिंदगी
बेहतरी की ओर बढ़े।

हर कोई
दुआ दिल से करे,
न कि खुद और गैरों को छले
ताकि
यह दुनिया
प्यार और विश्वास की
सुरक्षा छतरी बने ।

सब के भीतर से
सच का मोती बहे ,
सब सहिष्णु बनें।
आओ! आज कुछ नया करें।
आशा और विश्वास के संग
जीवन के नित्य नूतन क्षितिज छूएं।
सब सहिष्णु बने।
अब तो सभी पर यह सुरक्षा छतरी तने।
८/६/२०१६.
Nov 2024 · 76
छप्पन भोग
Joginder Singh Nov 2024
देवों को,देवियों को,
छप्पन भोग लगाने का
जीवन के मन मंदिर में
रहा है चलन।
उसका वश चले
तो वह फास्ट फूड को भी
इसमें कर ले शामिल।
वह खुद को नास्तिक कहता है,यही नहीं अराजक भी।
वह जन संवेदना को नकार
बना बैठा है एहसासों का कातिल।
जो दुनिया भर पर कब्जा करना चाहता है।
भविष्य का तानाशाह होना चाहता है।
वह कोई और नहीं, तुम्हारे ही नहीं, सब में मौजूद
घना अज्ञान का अंधेरा है।
इससे छुटकारा पा लोगे
तो ही होगा ज्ञान का सूरज उदित।
मन भी रह पाएगा मुदित।
आदमी के लिए
छप्पन भोग
फास्ट फूड से छुटकारा पा लेना है।
देखिए,कैसे नहीं ,उसकी सेहत सुधरती?
Joginder Singh Nov 2024
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।

अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।

जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।

समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।

मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।

तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।

यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।

एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
E
Joginder Singh Nov 2024
सूरज के उदय और अस्त के
अंतहीन चक्र के बीच
तितली
जिंदगी को
बना रही है आकर्षक।
यह
पुष्पों, लताओं, वृक्षों के
इर्द गिर्द फैली
सुगन्धित बयार के संग
उड़ती
भर रही है
निरन्तर
चेतन प्राणियों के घट भीतर
उत्साह,उमंग, तरंग
ताकि कोई असमय
ना जाए
जीवन के द्वंद्वों, अंतर्द्वंद्वों से हार
और कर दे समर्पण
जीवन रण में मरण वर कर।

तितली को
बेहतर ढंग से
समझा जा सकता है
उस जैसा बन कर।
जैसे ही जीवन को
जानने की चाहत
मन के भीतर जगे
तो आदमी डूबा दे
निज के पूर्वाग्रह को
धुर गहन समंदर अंदर
अपने को जीवन सरिता में
खपा दे,...अपनी सोच को
चिंतन के समन्दर सा
बना दे।


और खुद को
तितली सा उड़ना
और...
उड़ना भर ही
सिखा दे।

वह
अपने समानांतर
उड़ती तितली से
कल्पना के पंख उधार लेकर
अपने लक्ष्यों की ओर
पग बढ़ा दे।
चलते चलते
स्वयं को
इस हद तक थका दे, वह तितली से
प्रेरणा लेकर
अपने भीतर आगे बढ़ने,
जीवन रण में लड़ने,उड़ने का जुनून भर ले।
अपने अंदर प्रेरणा के दीप जगा ले।
जीवन बगिया में खुद को तितली सा बना ले।
Nov 2024 · 64
Waiting
Joginder Singh Nov 2024
Dead bodies are   waiting
for creameation in the battlefield of life.
But nobody is available near them to clean and clear their scattered body parts.
All are busy in their routine activities.
How can they take care of them ?
There is no information regarding their death.There is no rhythm,no movements ,no feelings in their deadly surrounding.
They all are victims.... living or dead...of an insensitive world.


Among them
we also are some ones who have completely  forgotten their sincere efforts and sensitiveness.
We have lost our credibility for them...
who has lost their lives for the petty interests of their countrymen.
Joginder Singh Nov 2024
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
Joginder Singh Nov 2024
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
Joginder Singh Nov 2024
अर्थ
शब्द की परछाई भर नहीं
आत्मा भी है
जो विचार सूत्र से जुड़
अनमोल मोती बनती है!
ये
दिन रात
दृश्य अदृश्य से परे जाकर
मनो मस्तिष्क में
हलचलें पैदा करते हैं,
ये मन के भीतर उतर
सूरज की सी रोशनी और ऊर्जा भरते हैं।


अर्थ
कभी अनर्थ नहीं करता!
बेशक यह मुहावरा बन
अर्थ का अनर्थ कर दे!
यह अपना और दूसरों का
जीना व्यर्थ नहीं करता!!
बल्कि यह सदैव
गिरते को उठाता है,
प्रेरक बन आगे बढ़ाने का
कारक बनता है।
इसलिए
मित्रवर!
अर्थ का सत्कार करो।
निरर्थक शब्दों के प्रयोग से
अर्थ की संप्रेषक
ध्वनियों का तिरस्कार न करो।
अर्थ
शब्द ब्रह्म की आत्मा है ,
अर्थानुसंधान सृष्टि की साधना है ,
सर्वोपरि ये सर्वोत्तम का सृजक है।
ये ही मृत्यु और जीवन से
परे की प्रार्थनाएं निर्मित करते हैं।

तुम अर्थ में निहित
विविध रंगों और तरंगों को पहचानो तो सही,
स्वयं को अर्थानुसंधान के पथ का
अलबेला यात्री पाओगे।
अपने भीतर के प्राण स्पर्श करते हुए
परिवर्तित प्रतिस्पर्धी के रूप में पहचान बनाओगे।
Nov 2024 · 50
विवाहिता
Joginder Singh Nov 2024
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
Nov 2024 · 51
तलाश
Joginder Singh Nov 2024
समय को
तलाश है
उस पीढ़ी की ।
जिसने पकड़ी न हो,
आगे बढ़ने की खातिर
भ्रष्टाचार की सीढ़ी।
Joginder Singh Nov 2024
जिस्म
सर्द मौसम में
तपती आग को
ढूंढना है चाहता।

जिस्म
गर्म मौसम में
बर्फ़ सरीखी
शीतलता है चाहता।

जिस्म
अपनी मियाद
पूरी होने पर
टूट कर बिखर है जाता।

नष्ट होने पर
उसे जलाओ या दफनाओ,
चील,गिद्ध, कौओं को खिलाओ।
क्या फ़र्क पड़ता है?
क्यों न उसे दान कर पुण्य कमाओ!
क्या फ़र्क पड़ता है?
जगत तो अपने रंग ढंग से
प्रगति पथ पर बढ़ता है ।
Joginder Singh Nov 2024
शब्द
कुछ कहते हैं सबसे,
हम अनंत काल से
समय सरिता के संग
बह रहे हैं।

कोई
हमें दिल से
पकड़े तो सही,
समझे तो सही।
हम खोल देंगे
उसके सम्मुख
काल चेतना की बही।

कैसे न कर देंगे हम
जीवन में,आमूल चूल कायाकल्प।
भर दें, जीवन घट के भीतर असीम सुख।
२६/१२/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
देह से नेह कर ,
मगर
इस राह में
ख़तरे बहुत हैं !!
यह
कुछ कुछ
मन के परिंदे के
पंख कुतरने जैसा है,
वह उड़ने के दिवास्वप्न ले जरूर,
मगर
परवाज़ पर
पाबंदी लगा दी जाए।

इसलिए
देह से नेह करने पर
नियंत्रण
व्यक्ति के लिए
बेहद ज़रूरी है।
हाँ,यह भी एक सच है
कि देह से नेह रखने पर
उल्लासमय हो जाता है जीवन,
वह
बाहर भीतर से
होता जाता है दृढ़
इस हद तक
कि यदि तमाम सरहदें तोड़ कर
बह निकले
जज़्बात की नदी
तो कर सकता है वह
निर्मित
उस दशा में
अटल रह,
जीवन रण में
जूझने में सक्षम तट बंध
भले ही
देह में नेह रहना चाहे
निर्बंधन !
यानिकि
सर्वथा सर्वथा बन्धन मुक्त!!


देह से नेह
अपनी सोच की सीमा में रह कर,कर।
ताकि झेलना न पड़ें संताप!
करना न पड़े पल प्रति पल प्रलाप!!

वैसे
सच यह है...
यह सब घटित हुआ नहीं, कि तत्काल
मानस अदृश्य बन्धन में बंधता जाता है।
वह
आज़ादी,सुख की सांस लेना तक भूल जाता है।
काल का कपाल उस की चेतना पर हावी होता जाता है।

इसलिए
मनोज और रति का जीवन प्रसंग
हमें अपनी दिनचर्या में
बसाए रखना अपरिहार्य हो जाता है।
नियंत्रित जीवन
देह से नेह में चटक रंग भरता है !
रंगीले चटकीले रंगों से ही यौवन निखरता है!!
   १७/११/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
हे मेरे मन!
अब और न करो निर्मित
बंधनयुक्त घेरे
स्वयं की कैद से
मुझे इस पल
मुक्त करो।
अशांति हरो।

हे मन!
तुमने मुझे खूब भटकाया है,
नित्य नूतन चाहतों को जन्म दे
बहुत सताया है।
अब
मैं कोई
भ्रांति नहीं, शान्ति चाहता हूँ।
जर्जर देह और चेहरे पर
कांति चाहता हूँ।
देश समाज में क्रांति का
आकांक्षी हूँ।

हे मेरे मन!
यदि तुम रहते शांत हो
तो बसता मेरे भीतर विराट है
और यदि रहते कभी अशांत हो
तो आत्म की शरण स्थली में,
देह नेह की दुनिया में
होता हाहाकार है।

हे मन!
सर्वस्व तुम्हें समर्पण!
तुम से एक अनुरोध है
अंतिम श्वास तक
जीवन धारा के प्रति
दृढ़ करते रहो पूर्व संचित विश्वास।
त्याग सकूँ
अपने समस्त दुराग्रह और पूर्वाग्रह ,
ताकि ढूंढ सकूँ
तुम्हारे अनुग्रह और सहयोग से
सनातन का सत्य प्रकाश,
छू सकूँ
दिव्य अनुभूतियुक्त आकाश।

हे मेरे मन!
अकेले में मुझे
कामनाओं के मकड़जाल में
उलझाया न करो।
तुम तो पथ प्रदर्शक हो।
भूले भटकों को राह दिखाया करो।
अंततः तुम से विनम्र प्रार्थना है...
सभी को अपनी दिव्यता और प्रबल शक्ति के
चमत्कार की अनुभूति के रंग में रंग
यह जीवन एक सत्संग है, की प्रतीति कराया करो।
बेवजह अब और अधिक जीवन यात्रा में भटकाया न करो।


हे मेरे मन!
नमो नमः

मन मंदिर में सहजता से
प्रवेश करवाया करो,
सब को सहज बना दरवेश बनाया करो।
सभी का सहजता से साक्षात्कार कराया करो,
हे मन के दरवेश!
Joginder Singh Nov 2024
अब
कभी कभी
झूठ
बोलने की
खुजली
सिर उठाने
लगी है।
जो सरासर
एक ठगी है।

अक्सर
सोचता हूँ,
कौन सा
झूठ कहूँ?
... कि बने न
भूले से कभी भी
झूठ की खुजली
अपमान की वज़ह।
होना न पड़े
बलि का बकरा बन
बेवजह
दिन दिहाड़े
झूठे दंभ का शिकार।
न ही किसी दुष्ट का
कोप भाजन
पड़े बनना
  और कहीं
लग न जाए
घर के सामने
कोई धरना।

अचानक
उठने लगता है
एक ख्याल,
मन में फितूर बन कर

अतः कहता हूँ...
चुपके से , खुद को ही,
एक नेता जी
जो थे अच्छे भले
मंहगाई के मारे
दिन दिहाड़े
चल बसे!
(बतौर झूठ!!)

आप सोचेंगे
एक बार जरूर
... कि नेता मंहगाई से
लाभ उठाते हैं,
वे भ्रष्टाचार के बूते
माया बटोर कर
मंहगाई को लगाते हैं पर!
फिर वे कैसे
मंहगाई की वज़ह से
चल बसे।

मैं झूठ बोलकर
अपनी खारिश
मिटाना चाहता था
कुछ इस तरह कि...
लाठी भी न टूटे,
भैंस भी बच जाए,
और चोर भी मर जाए।

इस ख्याल ने
रह रह कर सिर उठाया।
मैंने भी मंहगाई की आड़ ले
तथा कथित नेता जी को
जहन्नुम जा पहुंचाया।
कभी कभी
झूठ भी अच्छा लगता है
सच की तरह।
(है कि नहीं?)
बहुत से मंहगाई त्रस्त
जरूर चाहते होंगे कि...
आदमी झूठ तो बोले
मगर उसकी टांगें
छुटभैये नेता के
गुर्गों के हाथों न टूटें!
बल्कि मन को मिले
कैफ़ियत, खैरियत के झूले।


अब जब कभी भी
झूठ बोलने की खुजली
सिर उठाने लगती है,
मुझे बेशर्म मानस को
शिकार बनाने का
करने लगती है इशारा।
मैं खुद को काबू में करता हूँ।
मुझे भली भांति विदित है,
झूठ हमेशा मारक होता है,
भले वह युद्ध के मैदान में
किसी धर्मात्मा के मुखारविंद से निकला हो।
झूठ के बाद की ठोकरें
झूठे सच्चे को सहज ही
अकलबंद से अकलमंद बना देती हैं,
झूठ की खुजली पर लगाम लगा देती हैं।
Joginder Singh Nov 2024
किसे लिखें ?
अपने हाल ए दर्द की तफ़्सील।
महंगाई ने कर दिया
अवाम का फटे हाल।


पिछले साल तक
चार पैसे खर्च के बावजूद
बच जाते थे!
तीज त्योहार भी
मन को भाते थे!!

अब त्योहार की आमद पर
होने लगी है घबराहट
सब रह गए ठाठ बाठ!
डर दिल ओ दिमाग पर
हावी हो कर, करता है
मन की शांति भंग!
राकेट सी बढ़ती महंगाई ने
किया अब सचमुच नंग!
अब वेतनभोगी, क्या व्यापारी
सब महंगाई से त्रस्त एवं तंग!!
किस से कहें?
अपनी बदहाली का हाल!
अब तो इस महंगाई ने
बिगाड़ दी है अच्छे अच्छों की चाल!
सब लड़खड़ाते से, दुर्दिनों को कोसते हैं
सब लाचारी के मारे हैं!
बहुत जल्दी बन बैठे बेचारे हैं!!
सब लगने लगे थके हारे हैं!!
कोई उनका दामन थाम लो।
कहीं तो इस मंहगाई रानी पर लगाम लगे ।
सब में सुख चैन की आस जगे।
  १६/०२/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
वक़्त से पहले
गुनाहगार
कब जागते हैं?
वे तो निरंतर
जुर्म करने,
मुजरिम बनने की खातिर
दिन रात शातिर बने से भागते हैं।

वक़्त आने पर
वे सुधरते हैं,
नेक राह पर
चलने की खातिर
पल पल तड़पते हैं!

कभी कभी
अपने गुनाहों के साए से
लड़ते हैं,
अकेले में सिसकते हैं।

पर वक़्त
उनकी ज़बान पर
ताला जड़
उन्हें गूंगे बनाए रखता है।
सच सुनने की ताकत से
मरहूम रखकर
उन्हें बहरा करता है।

वक़्त आने पर,
सच है...
वे भीतर तक
खुद को
बदल पाते हैं

अक्सर
वे स्वयं को
अविश्वास से
घिरा पाते हैं।
वे पल पल पछताते हैं,
वे दिन रात एक कर के
पाक दामन शख़्स ढूंढते हैं,
जो उन्हें  मुआफ़ करवा सके,
दिल के चिरागों को
रोशन कर सकें,
जीवन के सफ़र में
साथ साथ चल सकें।
आखिरकार
खुद और खुदा पर यक़ीन करना
उनके भीतर आत्मविश्ववास भरता है
जो क़यामत तक  
उनके भीतर जीवन ऊर्जा
बनाए रखता है,
उन्हें जिंदा रखता है,
ताकि वे जी भर कर पछता सकें!
वे खुद को कुंदन बना सकें !!

२१/०४/२००९
Nov 2024 · 74
खेला
Joginder Singh Nov 2024
सन २०२३और २०२४ के दौर में राजनीति
नित्य नूतन खेल ,खेल रही है।  
मेरे शब्दकोश में एक नया शब्द " खेला" शामिल हुआ है। समसामयिक परिदृश्य में राजनीति करने वाले सभी दल
उठा पटक के खेल में मशगूल हैं।
सन २००५ में
लिखे शब्द उद्धृत कर रहा हूँ....,
"इन दिनों
एक अजब खेल खेलता हूँ...
जिन्हें/ मैं/दिल से/चाहता नहीं ,
उनके संग/सुबह और शाम
जिंदगी की गाड़ी ठेलता हूँ!
अपनी बाट मेल ता हूँ।"

आप ही बतलाइए
२००५ से लेकर २०२४ में क्या परिवर्तन हुआ है ?
या बस / व्यक्ति,परिवार,समाज और राजनीति में/
नर्तन ही हुआ है ।
उम्मीद है ,यह सब ज़ारी रहने वाला है।
याद रखें,अच्छा समय आने वाला है।
Joginder Singh Nov 2024
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
Joginder Singh Nov 2024
कैसी
नासमझी भरी
सियासत है यह।
भीड़ भरी
दुनिया के अंदर तक
जन साधारण को
महंगाई से भीतर ही भीतर
त्रस्त कर
भयभीत करो
इस हद तक कि
जिंदगी लगने लगे
एक हिरासत भर।


कैसी
नासमझी भरी
हकीकत है यह कि
विकास के साथ साथ
महंगाई का आना
निहायत जरूरी है।

कैसी
शतरंज के बिसात पर
अपना वजूद
जिंदा रखने की कश्मकश के
दौर में
नेता और अफसरशाही की
मूक सहमति से
गण तंत्र दिवस के अवसर पर
बस किराया
यकायक बढ़ा दिया जाता है।
आम आदमी को लगता है कि
उसकी आज़ादी को काबू में करने के लिए
उसकी आर्थिकता पर
अधिभार लगा दिया गया है।

शर्म ओ हया के पर्दे
सत्ता की दुल्हनिया सरीखे
झट से गिराने को तत्पर
नेतृत्व शक्तियां!
किश्तीनुमा टोपियां!!
धूमिल और उज्ज्वल पगडंडियां!!!
कुछ तो शर्म करो।
गणतंत्र के मौके पर
मंहगाई का तोहफ़ा तो न दो।
तोहफ़ा देना ही है
तो एक दिन आगे पीछे कर के दे दो!
ताकि टीस ज़्यादा तीव्र महसूस न हो।
महसूस करना,
शिद्दत से महसूस कराना,
एक अजब तोहफ़ा नहीं तो क्या है?
यहां सियासत के आगे सब सियाह है, स्वाह है जी!
Joginder Singh Nov 2024
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
Joginder Singh Nov 2024
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी ने
मुझे अक्सर
क़दम क़दम पर
झिंझोड़ा है
यह कहकर,
"वक़त तो
अरबी घोड़ा है,
वह सब पर
सवार रहता है,
कोई विरला
उसे
समझ पाता है।
जो समझा,वह कामयाब
कहलाता है,और....
नासमझ उम्रभर
धक्के खाता है,
ज़ुल्म और ज़लालत सहता है।"


यह सुनना भर था कि
बग़ैर देर किए
बरबस मैं
जिन्दगी के साए को महसूस
वक़्त को
संबोधित करते हुए
अदना सी गुस्ताख़ी कर बैठा ,
"तुम भी बाकमाल हो,यही नहीं लाजवाब हो,
हरेक सवाल के जवाब हो ।"
वक़्त ने मुझे घूरा।
फिर अचानक न जाने मैं कह गया,
सितम ए वक़्त सह गया...!,
"तुम सदाबहार सी जिन्दगी के अद्भुत श्रृंगार हो।
यही नहीं तुम एक अरबी घोड़े की रफ्तार सरीखे
मतवातर भाग रहे हो ।तुम चाह कर भी रुक न पाओगे।जानते हो भली भांति कि रुके नहीं कि
धरा पर विनाश, विध्वंस हुआ समझो । "
महसूस कर रहा हूं कि वक़्त एक शहंशाह है ...
और वह एक दरिया सा सब के अंदर बह रहा है...
......

धरा पर वक़्त एक अरबी घोड़े सा भाग रहा है।
हर पल वो , अंतर्मन का आईना बना हुआ
सर्वस्व के भीतर झांक रहा है।

सब को खालीपन के रु ब रु करा रहा है।

११/८/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
Joginder Singh Nov 2024
खाक अच्छा लगता है
जब अचानक बड़ा धक्का लगता है
भीड़ भरे चौराहे पर
जिंदगी यकायक अकेला छोड़ दे !
वह संभलने का मौका तक न दे!!
पहले पहल आदमी घबरा जाता है ,
फिर वह संभल कर,
आसपास भीड़ का अभ्यस्त हो जाता है,
और खुद को संभालना सीख जाता है।
जिंदगी दिन भर तेज रफ्तार से भाग रही है।
आदमी इस भागम भाग से तंग आ कर
क्या जिन्दगी जीना छोड़ दे ?
क्यों ना वह समय के संग आगे बढ़े!
आतंक के साए के निशान पीछे छोड़ दे!
जब तक जीवनधारा नया मोड़ न ले !
जिंदगी की फितरत रही है...
पहले आदमी को भंवरजाल में फंसाना,
तत्पश्चात उसे नख से शिखर तक उलझाना।
सच यह है... आदमी की हसरत रही है,
भीतर के आदमी को जिंदादिल बनाए रखना।
उसे आदमियत की राह पर लेकर जाना।
थके हारे को मंज़िल के पार पहुंचाना।
बड़ा अच्छा लगता है ....
पहले पहल आदमी का लड़खड़ाना,
फिर गिरने से पहले ही, खुद को पतंग सा उठाना
....और मुसीबतों की हवा से लड़ते हुए ... उड़ते जाना।
१५/०२/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
Joginder Singh Nov 2024
यह कतई झूठ नहीं
कि अधिकार पात्र व्यक्ति को मिलते हैं।
तुम्हीं बताओ...
कितने लोग
अधिकारी बनने के वास्ते
सतत संघर्ष करते हैं?


मुठ्ठी भर लोग
भूल कर दुःख,  दर्द , शोक
जीवन में तपस्या कर पाते हैं;
वे निज को खरा सिद्ध कर
कुंदन बन पाते हैं।
    
ये चन्द मानस
रखें हैं अपने भीतर अदम्य साहस
और समय आने पर
तमाशबीनों का
उड़ा पाते हैं उपहास।

सच है, तमाशबीन मानस
अधिकारों को
नहीं कर पाते हैं प्राप्त।
वे समय आने पर
निज दृष्टि में
सतत गिरते जाते हैं,
कभी उठ नहीं पाते हैं,
जीवन को नरक बनाते हैं,
सदा बने रहते हैं,
अधिकार वंचित।
जीवन में नहीं कर पाते
पर्याप्त सुख सुविधाएं संचित।

उठो, गिरने से न डरो,
आगे बढ़ने का साहस भीतर भरो।
सतत बढ़ो ,आगे ही आगे।
अपने अधिकारों की आवश्यकता के वास्ते ।
इसके साथ साथ कर्तव्यों का पालन कर,
खोजो,समरसता, सामंजस्य, सद्भावना के रक्षार्थ
नित्य नूतन रास्ते।

तभी अधिकार बचेंगे
अन्यथा
एक दिन
सभी यतीमों सरीखे होकर
दर बदर ठोकरें खाकर
गुलाम बने हुए
शत्रुओं का घट भरते फिरेंगे।
फिर हम कैसे खुद को विजयपथ पर आगे बढ़ाएंगे?
Joginder Singh Nov 2024
"दंभ से भरा मानस
नरक ही तो भोगता है, ... । "
इसका अहसास
दंभी होने पर ही हुआ।
वरना इससे पहले मैं
नासमझी से भरा
जीवन को समझता फिरा
महज़ एक जुआ।
अब मानता हूँ,
"जब जब हार मिली,
तब तब आत्मविश्वास की चूल हिली ।"
  १७/१०/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
प्रवास की चाहत
बेशक भीतर छुपी है,
परन्तु प्रयास
कुछ नहीं किया,
जहां था, वहीं रुका रहा।
दोष किस पर लगाऊं?
अपनी अकर्मण्यता पर..?
या फिर अपने हालात पर?
सच तो यह है कि
असफलता
बहानेबाजी का सबब भी बनती है।
सब कुछ समझते बूझते हुए भी
भृकुटी  तनती है।
    १७/१०/२०२४
Joginder Singh Nov 2024
निज के रक्षार्थ
दूर रखिए
स्वयं से स्वार्थ।
कैसे नहीं अनुभूत होगा परमार्थ?
Joginder Singh Nov 2024
निजता को
यदि बचाना है
तो कीजिए एक काम।
मोबाइल तंत्र से
प्रतिदिन
कुछ घंटों के लिए
ले लीजिए विश्राम।
ताकि तनाव भी
तन से दूर रहे,
निज देह में
नेह और संवेदना बनी रहे।
Joginder Singh Nov 2024
कभी कभी
अप्रत्याशित घट जाता है
आदमी इसकी वज़ह तक
जान नहीं पाता है,
वह संयम को खुद से अलहदा पाता है
फलत: वह खुद को बहस करने में
उलझाता रहता है,वह बंदी सा जकड़ा जाता है।

कभी कभी
अच्छे भले की अकल घास
चरने चली जाती है
और काम के बिगड़ते चले जाने,
भीतर तक तड़पने के बाद
उदासी
भीतर प्रवेश कर जाती है।
कभी कभी की चूक
हृदय की उमंग तरंग पर
प्रश्नचिन्ह अंकित कर जाती है ।
यही नहीं
अभिव्यक्ति तक
बाधित हो जाती है।
सुख और चैन की आकांक्षी
जिंदगी ढंग से
कुछ भी नहीं कर पाती है।
वह स्वयं को
निरीह और निराश,
मूक, एकदम जड़ से रुका पाती है।

कभी कभी
अचानक हुई चूक
खुद की बहुत बड़ी कमी
सरीखी नज़र आती है,
जो इंसान को
दर बदर कर, ठोकरें दे जाती है।
यही भटकन और ठोकरें
उसे एकदम
बाहर भीतर से
दयनीय और हास्यास्पद बनाती है।
फलत: अकल्पनीय अप्रत्याशित दुर्घटनाएं
सिलसिलेवार घटती जाती हैं।
   १६ /१०/२०२४.

— The End —