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Nov 2024 · 54
लड़ाका
Joginder Singh Nov 2024
मेरे यहां
हक की खातिर
लड़ने वाला
' गांधी ' होता है,
फौलादी हौंसले वाला
एक अदृश्य तूफ़ान होता है,
सच ! जिसके भीतर
आक्रोश भरा रहता  है,
भले वह अहिंसक रास्ते पर चले ,
उसके अंदर बारूद भरा रहता है।
ऐसा आदमी सीधा सादा होता है।
आज के तिकड़म बाज़ नेता उसे खतरनाक बना देते हैं।है।
उसे आग पानी देकर महत्वाकांक्षी बना देते हैं,
किसी हद तक  
उसके आक्रोश को ज्वालामुखी बना
उसे अराजक ही नहीं, विध्वंसक भी बना देते हैं।

उसे धरने, विरोध प्रदर्शन करने,
लड़ने भेजने में लगा देते हैं ,
उसके अंदर के असंतोष को हवा दे
उसे पूर्ण रूपेण अराजक और आतंकी बना देते हैं।
जब वह संघर्ष करते हुए शहादत पा जाता है।
तब उसे बरगलाया हुआ, राह से भटका बताया जाता है।
सच! उसके मर जाने के बाद कोई एक आध ही रोता है। कुछ इस तरह एक संभावना का अंत मेरे यहां होता है।

पर सच ! कभी खोता है।
वह देर सवेर
सबके यहां
हर किसी जगह
दस्तक देता हुआ
कि
किसी नन्हे पौधे सा होकर
अंकुरित होता है ,
और
एक सच का वृक्ष बनकर
पुष्पित और पल्लवित होता है।
इस भांति सभी जगह परिवर्तन होता है।


12/03/2013.
Nov 2024 · 76
Fearfulness
Joginder Singh Nov 2024
A fearful person always cries
loudly or silently!
Let's think about his destiny today.
Because the continuously presence of fear in his mind makes him very insecure.
Sometimes fear brought terror and  tears into eyes.
As a result mind feels disturbance inside.
Mind completely lost his strength
to make balance between ups and downs of the life.
Let us try to taught our terrified friend the strategy of fear management,
so that he can reattain the lost  energy and enthusiasm in his life.

I hope his perfect smile attract you very soon.
The terror of fearfulness will be remain in him as a part of  past life.
energy
Nov 2024 · 85
Appreciation
Joginder Singh Nov 2024
Time  always  appreciates
active persons to bring prosperity in their lives.
And
it also criticises
the persons
who have kept themselves in a passive mode.
Time  regularly keeps an eye to watch their harmful activities.
Time always want to extinguish such lazy and crazy persons from Earth
.

Because they have lost respect due to their inactiveness in life .
Joginder Singh Nov 2024
The creator especially a poet or poetess remains himself or herself always  an ambassador of language.

So ,he or she keep and communicate ideas safely and effectively .
To express his or her believes effectively with a sense of  deep sensitivity.

To write a poem while  addressing to contemporary world is never so  easy.
It also reflects the hidden thoughts of the mind accidentally.

It can bring a warning from  highly
narrow minded traditional society... because of causing a threat to their mind setup and social structure.
All such act is a bit risky.
Nov 2024 · 77
The Power of Pressure
Joginder Singh Nov 2024
When pressure compels a person to resign.
When such happens in surroundings.
It is not a healthy signal for the human society .
It clearly indicates
that the nexus between syndicate  and state
has an upper hand in public life.
The corruption is flourishing day by day.
If all such activities increase,
that means human existence is at stake.
Joginder Singh Nov 2024
आदमी
जो नहीं है,
वह वैसा होने का
दिखावा करता है ,
बस खुद से  
छलावा करता है।
इस सब को
मैं नहीं समझता हूं अच्छा।
क्या ऐसा करने से
वह रह पाएगा सच्चा ?
यह तो है बस है
अपने आप से बोलना झूठ।
कदम कदम पर पीना
ज़हर और अपमान की घूट।
साथ ही है यह
जाने अनजाने
अपने हाथों ही
अपने पर कतरना भी है।
स्वयं को
अनुभूतियों के आसमान में
परवाज़ भरने से रोकना भी है।


आज
आदमी ने
पाल ली है
यह खुशफहमी,
कोई उसकी असलियत
कभी जानेगा नहीं।
पर
नहीं जानता वह बेचारा।
दूसरे भी
उसकी तरह चेहरा छुपाए हैं,
एक मुखौटा चेहरे पर लगाए हैं।
उनसे चेहरा छुपाना मुश्किल है,
नहीं समझता इसे, कम अक्ल है।
सब यहां, मनोरंजन कर रहा है, जैसा कुछ सोच
हरदम मुस्कुराते रहते हैं!
दुनिया के हमाम में नंगे बने रहते हैं!!


अब आदमी
कतई न करे कोई लोक दिखावा।
खुद को च
छलने से अच्छा है ,
वह देखा करें अब ,
समय की धूप में
अपना परछावा!

आजकल
अपना साया ही बेहतर है,
कम से कम
सुख दुःख में साथ देता है,
तपती धूप के दौर में
आदमी जैसा है, उसे वैसे ही दिखाया करता है ।

आदमी जैसे ही
अपना परछावा भूल
आईने से गुफ्तगू करता है,
आईने में अपना मोहक रूप देख
होता है प्रसन्न।
आईने को एक शरारत सूझी है
और वह
आदमी को
उसके रंग ढंग दिखला ,
उसे सच से अवगत करा
कर देता है सन्न !
ऐसे समय में
आदमी मतवातर
आईने  से शर्माता  है।
वह बीच रास्ते
हक्का-बक्का सा
आता है नज़र।
यही है आदमी की वास्तविकता का मंज़र।


आदमी, जो नहीं है, वह वैसा होने का
दिखावा आखिरकार क्यों करता है?
अगर उसे होना पड़ता है अपमानित, इस वज़ह से ;
तो आज का शातिर आदमी
झट से मांग लेता है माफी
और इसे अपनी भूल ठहरा देता है।

जब कभी समय देवता
उसे अचानक बस यूं ही
दिखा देते हैं ,हकीकत का आईना,
तो आदमी बाहर भीतर तक
कर लेता है मौन धारण।
ऐसा आदमी नहीं होता कतई साधारण ।
वह कभी किसी की पकड़ में नहीं आता है,
बल्कि जनसाधारण के बीच , वह नीच!
पहुंचा हुआ आदमी कहलाता है !
सभी के लिए आदर का पात्र
यानी कि आदरणीय बन जाता है।
और एक दिन समाज और सरकार से पुरस्कृत हो जाता है। ऐसे में सच
सचमुच ही तिरस्कृत हो जाता है ।

२२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
चलो
सीधी डगर
न करो तुम
अगर मगर।
कौन सच्चा है
और
कौन है झूठा ?
इस बाबत लड़ो न  अब ,
ढूंढो ,खोजो अपना सच ।
सच बने
आज
एक सुरक्षा कवच।
इस के निमित्त
करो तुम और सभी मिलकर
नियमित प्रयास।

करो न अब
कोई बहाना,
समय सरिता में
सभी को है नहाना।


धोकर अपना मैल मन का ,
तन और मन भी
उज्ज्वल करना है,
लेकर साथ सभी का
हमें अपने लक्ष्यों को वरना है।
इस जगत में लगा रहता
जीना और मरना है,
हम सभी को
अपने अपने भीतर
उजास भरना है।
शुचिता का संस्पर्श करना है।
आज सभी को कर्मठ बनना है।
समय के संग संग चलना है।
२७/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अचानक एक दिन
जब मैं था अधिक परेशान
समय ने कहा था मुझे कुछ
तू बना ना रहे
और अधिक समय तक तुच्छ
इसीलिए तुम्हें बताना चाहता कुछ
जीवन से निस्सृत हुए सच ।
उस समय
समय ने कहा था मुझे,
" यूं ही ना खड़ा रह देर तक ,एक जगह ।
तुम चलोगे मेरे साथ तो यकीनन बनोगे अकलमंद ।
यूं ही एक जगह रुके रहे तो बनोगे तुम अकल बंद ।
फिर तुम कैसे आगे बढ़ोगे?
सपनों को कैसे पूरा करोगे ?

मेरे साथ-साथ चल , अपने को भीतर तक बदल।
मेरे साथ चलते हुए ,मतवातर आगे बढ़ते हुए,
बेशक तुम जाओ थक , चलते जाओगे लगातार,
तो कैसे नहीं , परिवर्तन की धारा से जा जुड़ोगे ?अफसोसजनक अहसासों से फिर न कभी डरोगे ।"

समय ने अचानक संवाद रचाकर
खोल दिया था अपना रहस्य ,मेरे सम्मुख।
आदमी के ख़्यालात को ,
अपने भीतर का हिस्सा बनाते हुए
अचानक मेरी आंखें दीं थीं खोल।
अनायास अस्तित्व को बना दिया अनमोल।
और दिया था
अपने भीतर व्याप्त समन्दर में से मोती निकाल तोल ।
यह सब हुआ था कि
अकस्मात
मुझे सच और झूठ की
अहमियत का हुआ अहसास,
खुद को मैंने हल्का महसूस किया।
अब मैं खुश था कि
चलो ,समय से बतियाने का मौका तो मिला।

०५/०२/२०१२.
Nov 2024 · 42
शरण स्थली
Joginder Singh Nov 2024
जैसे-जैसे
जीवन में
उत्तरोत्तर
बढ़ रही है समझ,
वैसे-वैसे
अपनी नासमझी पर
होता है
बेचारगी का
अहसास ।

सच कहूं ,
आदमी
कभी-कभी
रोना चाहता है ,
पर रो नहीं पाता है ।
वह अकेले में
नितांत अपने लिए
एक शरण स्थली
निर्मित करना चाहता है ।
जहां वह पछता सकें ,
जीवन की बाबत
चिंतन कर सके ,
अपने भीतर
साहस भर सकें ,
ताकि
जीवन में संघर्ष
कर सके।

शुक्र है कि
कभी-कभी
आदमी को
अपने ही घर में
एक उजड़ा कोना
नज़र आता है!
जहां आदमी
अपना ज़्यादा
समय बिताता है ।

शुक्र है कि
जीवन की
इस आपाधापी में
वह कोना अभी बचा है,
जहां
अपने होने का अहसास
जिंदगी की डोर से
टंगा है,
हर कोई
इस डोर से
बंधा है ।
शरण स्थली के
इस कोने में ही
सब सधा है।

आजकल यह कोना
मेरी शरण स्थली है,
और कर्म स्थली भी,
जहां बाहरी दुनिया से दूर
आदमी अपने लिए कुछ समय
निकाल सकता है,
जीवन की बाबत
सोच विचार कर सकता है,
स्वयं से संवाद रचा सकता है ।

२२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
बच्चो !
नकल यदि तुम करोगे ,
नकली तुम खुद को करोगे।


देता हूं यदि मैं तुम्हें
असलियत से
कोसों दूर
कभी
नकली प्यार दुलार!
तुम्हें लुभाने की खातिर
मतलब की चाशनी से सराबोर
चमक दमक के आवरण से
लिपटा कोई उपहार
तो समझिए
मैंने दिया आपको धोखा।
छीन लिया है तुमसे कुछ करने का मौका।


बच्चो!
कभी न कभी करता है
सौ सौ पर्दों में छुपा झूठ
स्वयं को प्रकट
तब छल कपट
स्वत:
होते उजागर ।
ऐसे में
पहुंचता मन को दुःख।
सामने आ जाता है यकायक ,
नकली उपहार मिलने का सच।
कैसे न मन को पहुंचे ठेस ?
कैसे ना मन में पैदा हो
कलह और क्लेश ?
इस समय
आदमी ही नहीं,
आदमियत तक
लगने लगती
धन लोलुप सौदागर ।


बच्चो !
यदि नकल तुम करोगे।
नकली तुम बनोगे।

तुम मां-बाप ,
देश और समाज को डसोगे ।

आज
तुम खुद से
करो ये
वायदे कि
कभी भी
भूल से भी
नकल नहीं करोगे ।
जिंदगी में  नकली
कभी न बनोगे ।
सच के पथ पर
हमेशा चलोगे।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ोगे।
कभी आपस में नहीं लड़ोगे
और परस्पर गले मिलोगे।

०१/०३/२०१३.
परीक्षा में नकल करने की प्रवृत्ति को रोकने और इस के दुष्परिणामों से बचने,बचाने के नजरिए से लिखी गई कविता।
Joginder Singh Nov 2024
देश
अलगाव
नहीं चाहता ।

देश
विकास को
वरना है चाहता ।


कोई कोई
घटना दुर्घटना
गले की फांस बनकर
देश को तकलीफ़ है देती।
करने लगती
उसके विश्वास पर चोट ,
हर एक चेहरे पर
नज़र आने लगती खोट ।


देश
अलगाव
नहीं चाहता ।


देश
दुराव छिपाव
कतई नहीं चाहता।


काश !
देश के हर बाशिंदे का चेहरा
पाक साफ़ रह पाता ।
फिर कैसे नहीं
हरेक जीवात्मा
प्रसन्नता को वर पाती?
अपनी जड़ों और मंसूबों को समझ पाती ?


काश !
सबने देश की आकांक्षा,
अंतर्व्यथा को समझा होता
तो अलगाव का बखेड़ा
खड़ा ही न होता ।
देश में संतुलित विकास  होता ।

२६/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
तारीफ की चाशनी
सरीखे तार से बंधी है
यहां हर एक की जिंदगी।

तुम हो कि ...
ना चाह कर भी बंधे हो
सिद्धांत के खूंटे से!
चाहकर भी
तारीफ़ के पुल बांधने से
कतराते हो!!
पल पल कसमसाते हो!!!


तारीफ़ कर
तारीफ़ सुन
नहीं रहेगा कभी भी
गुमसुम !
यह था ग़ैबी हुक्म !!


सो उसे मानता हूं ।
तारीफ़ करता हूं,
जाने अनजाने
रीतों में,
गए बीतों में
खुशियां भरता हूं।
जीव जीव के भीतर के
डर हरता हूं ।
तार तार हो चुके
दिलों से जुड़ता हूं ,
छोटे-छोटे क़दम रख
आगे आगे बढ़ता हूं ।

क्या तुम मेरा
अनुसरण नहीं करोगे ?
स्वयं को
तारीफ़ का पात्र
सिद्ध नहीं करोगे ?
या फिर
स्व निर्मित आतंक के
गड़बड़ झाले से
त्रस्त रहोगे ?
खुद की अस्मिता को
तार तार करते
इधर-उधर
कराहते फिरोगे ?
उद्देश्यविहीन से !
तारीफ के जादुई
तिलिस्म से डरे डरे !!


दोस्त !
तारीफ़ का तिलिस्म वर!!
एक नई तारीख का
इंतज़ार निरंतर कर !!

०५/०२/२०१३.
Joginder Singh Nov 2024
अभी मुमकिन नहीं
कम से कम.... मेरे लिए
खुली किताब बन पाऊं!
निर्भीक रहकर
जीवन जी जाऊं !!
समय के साथ
अपने लिए खड़ाऊं हो पाऊं!
उसके साथ अपने अतीत को याद कर पाऊं!!


अभी
मुमकिन है
खुद को जान जाऊं!
अपनी कमियों को सुधारता जाऊं !!
सतत् अपनी कमियों को कम करता जाऊं !!
जो मुमकिन है ,
वह मेरा सच है ।
जो नामुमकिन है
कम से कम.... मेरे लिए
झूठ है।
उतना ही मिथ्या
जितना रात्रि को देखा गया सपना,
जो हकीकत की दुनिया में
खत्म हो जाता है ,
ठीक वैसा ही
जैसे मैं चाहता हूं
सारे काम हों सही-सही।
हकीकत यह है कि
कुछ काम सही ढंग से हो पाते हैं,
और कुछ अधूरे ही रह जाते हैं।

मैं मुमकिन कामों को पूरा करना चाहता हूं ,
भले ही मेरे हिस्से में असफलता हाथ आए ।
बेशक विजयश्री कहीं पीछे छूट जाए !
क़दम दर क़दम नाकामी हाथ आए!!
दोस्तों को मेरी सोहबत भले न भाए !!

मेरी चाहत है,
मुमकिन ही मेरा स्वप्न बने ।
बेशक नामुमकिन
मरने के बाद राह का कांटा बने।

दोस्त,
मुमकिन ही हमारा संवाद बने  ,
नामुमकिन की काली छाया हमसे न जुड़े ।


२७/०८/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
चापलूस
कभी भी चले हुए
कारतूस नहीं होते।
जब वे चलते हैं
तो बड़ी तबाही करते हैं ।

यह यक़ीन जानिए।
वे जिसकी की जी हजूरी करते हैं,
उसे ही सब से पहले चलता करते हैं।
चापलूस से बचिए।
अपना काम संभल कर कीजिए।
मेहनतकश को प्रोत्साहित जरूर कीजिए।
उसे समुचित मेहनताना दीजिए।


जो कुछ आप काम करते हैं।
जिनके दम पर आप आगे बढ़ें हैं।
नाम और दाम कमाते हैं।
वह सारा काम कोल्हू के बैल करते हैं,
दिन रात अविराम मेहनत करते हैं।

चापलूस उनकी राह में रोड़े अटकाते हैं,
मौका मिलने पर निंदा चुगली कर उन्हें भगाते हैं।

आप बेशक चापलूसी करने वाले से खुश रहते हैं।
आप यह भी जानते हैं, वह जिंदा बम भी हैं,
पिस्तौल भी हैं और कारतूस भी।
वे चल भी जाते हैं और चलवा भी देते हैं।
आप कभी एक बम , पिस्तौल,कारतूस में बदल जाते हैं।
अपने वफादार को नुक्सान पहुंचा देते हैं,
इसे आप भी नहीं जान पाते।

आप चापलूसों से बच सकें तो बचिए।
कम से कम खुद को तो न एक कठपुतली बनाएं।

हो सके तो चापलूस की जासूसी करवाएं।
उसके खतरनाक मनसूबों से खुद को समय रहते बचाएं।
चापलूस सब को खुश रखते हैं,
बेशक बढ़िया कारगुज़ारी तो कोहलू के बैल ही कर पाते हैं।

निर्णय आप को करना है।
इन बमों ,पिस्तौलों और कारतूसों का क्या करना है ?
ये चापलूस बड़े शातिर और ख़तरनाक हैं।....
...और साथ अव्वल दर्जे के नाकाबिल,नाबरदाश्त, नालायक जी...वे जी,जी, करने वाले उस्ताद भी।
ये उस्तरे से होते हैं,
देखते ही देखते अपने काम को अंजाम दे देते हैं।
ये बड़ों बड़ों को औंधे मुंह गिरा देते हैं जी ।
Nov 2024 · 80
जीवन धारा
Joginder Singh Nov 2024
जीवन
जिस धरा पर टिका है,
उस पर जिन्दगी के तीन पड़ाव
धूप छांव बने हुए
निरन्तर आते और जाते रहते हैं।
फ़र्क बस इतना है कि
ये पड़ाव कभी भी अपने को नहीं दोहराते हैं।

उमर के ये तीन पड़ाव
जरूरी नहीं कि
सब को नसीब हों।
कुछ पहले,
कुछ पहले और दूसरे,
और कुछ सौभाग्यशाली
तीनों पड़ावों से गुज़र पाते हैं।

सच है
यह जरूरी नहीं कि
ये सभी की जिन्दगी में आएं
और जीवन धारा से जुड़ पाएं ।

लंबी उमर तक
धरा पर बने रहना,
जीवन धारा के संग बहना।
किसी किसी के हिस्से में आता है,
वरना यहां क्षणभंगुर जीवन निरन्तर बदलता है।
Nov 2024 · 85
Conversion
Joginder Singh Nov 2024
Today my mind reminds me .
A fact associated with my past.And it haunts me even today,and may be in future also .

Someone advised me for conversion due to my slowness in life.
But I remain as I was.
I remain same as I haven't learnt crookedness in life.


Conversion is more dangerous than reservation.
Converted mind's are facing still difficulties and inequality after conversion.
Joginder Singh Nov 2024
ਵੀਰੋ, ਕੀਰਤੀਆਂ ਦਾ ਝੰਡਾ ਬੁਲੰਦ ਰਹੇ।
ਹਰ ਵਰ੍ਹੇ ਇੱਕ ਮਈ ਦਾ ਦਿਹਾੜਾ ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਕਹੇ।
ਅਫ਼ਸੋਸ ਇਸ ਸੱਚਾਈ ਨੂੰ ਕੋਈ ਵਿਰਲਾ ਸਾਥੀ ਹੀ ਸੁਣੇ।
ਇੱਕ ਹੋਰ ਵੱਡਾ ਅਫ਼ਸੋਸ ਕੋਈ ਕੋਈ ਇਸ ਤੇ ਅਮਲ ਕਰੇ।


ਵੀਰੋ, ਕੀਰਤੀਆਂ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਰੋਧੀਆਂ ਕੋਲ ਗਿਰਵੀ ਨਾ ਰੱਖੋ।
ਉਨੀਂਦੇ ਮਿਹਨਤ ਕਸ਼ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਜਗਾਈ ਤੁਸੀਂ ਰੱਖੋ।
ਅਜੇ ਸੱਚੇ ਸੁੱਚੇ ਇਨਕਲਾਬ ਨੇ, ਹੋਂਦ ਚ ਆਉਣਾ ਹੈ ਸਮੇਂ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ,
ਤੁਸੀਂ ਕਾਮੇ , ਕੀਰਤੀਆਂ ਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ‌ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਖੁਦ ਨੂੰ ਜਗਾਈ ਰੱਖੋ।


ਝੰਡਾ ਬੁਲੰਦ ਰਹੇ, ਸਮੇਂ ਸਾਨੂੰ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਬਾਬਤ ਸੁਚੇਤ ਕਰੇ।
ਸਾਥੀਓ ,ਸਮੇਂ ਸਾਨੂੰ ਹਰ ਵੇਲੇ ‌ ਦੂਜੇ ਸੱਚ ਵੀ ਕਹਿੰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ।
ਇਸ ਕਾਇਨਾਤ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਵੀ ਜੀਵ ਵੇਲਾ ਨਾ ਰਹੇ।
ਹਰ ਕੋਈ ਮਿਹਨਤ ਚ ਦਿਨ ਰਾਤ ਰੁਝਿਆ ਰਹੇ।
28/04/2017.
Joginder Singh Nov 2024
कभी
किसी
चिड़िया को
चिड़चिड़ाते
देखा है?
नहीं तो!
फिर तो तुम
दिल से चहका करो।
कभी बहका न करो।
ओ चिड़चिड़े! ओए...चि...डे...
भीतर कुछ कुढ़न हुई ,
जैसे अचानक चुभे सूई ।

अचानक
घर के आंगन में
एक चिड़िया कीट खाती हुई
दिख पड़ी।
लगा मुझे कि वह
मुझसे कह रही है,..
'अरे चिड़चिड़े !चहक जरा।
चहकने से , जीवन रहता, महक भरा।
एकदम चहल पहल भरा।'

यह सब मेरा भ्रम था।
शायद मन के भीतर से
कोई चिड़िया चहक उठी थी।
मेरी उदासीनता कुछ खत्म हुई थी ।
मैंने अपने मन की आवाज जो सुन ली थी ।

मैंने अपनी आंखें खोलीं।
घर के आंगन में धूप खिली थी।
वह चिड़िया किसी कल्पना लोक में चली गई थी।

१९/०६/२०१८.
Joginder Singh Nov 2024
झूठ बोलने वाला,
मुझे कतई भाता नहीं ।
ऐसा व्यक्ति मुझे विद्रूप लगता रहा है।
उससे बात करना तो दूर,
उसकी उपस्थिति तक को मैंने
बड़ी मुश्किल से सहा है।

उसका चलना ,फिरना ,नाचना,भागना।
उसकी सद्भावना या दुर्भावना ।
सब कुछ ही तो
मेरे भीतर
गुस्सा जगाती रही हैं।

आज अचानक एहसास हुआ,
कई दिनों से वह
नज़र नहीं आया !
इतना सोचना था कि
वह झट से मेरे सामने
हंसता ,मुस्कुराता, खिलखिलाता आ गया।
मुझ से बोला वह,
"अरे चुटकुले! आईना देख ।
मैं चेहरा हूं तेरा।
मुझसे कब तक नज़र चुरायेगा?
मुझे कदम-कदम पर
अनदेखा करता जाएगा।
झूठ बोलना आजकल ज़रूरी है
आज बना है यह युग धर्म,
कि चोरी सीनाज़ोरी करने वाले
जीवन में आगे बढ़ते हैं!
सत्यवादी तो बस यहां!
दिन-रात भूखे मरते हैं!
सो तू भी झूठ बोला कर,
जी भरकर कुफ्र तोला कर।"

मुझे अपना नामकरण अच्छा लगा था।
आईने को देख मेरा चेहरा खिल उठा था।
आईना भी मुझे इंगित कर बोल उठा था,
"अरे चुटकुले! अपना चेहरा देख।
रोनी सूरत ना बनाया कर।
खुद को कभी चुटकुला ना बनाया कर।
कभी-कभी तो अपना जी बहलाया कर।
किसी में कमियां ना ढूंढा कर,
बल्कि उनकी खूबियों को ढूंढ कर,
सराहा  कर।
उनसे ईर्ष्या भूल कर भी न किया कर।
कभी तो खुलकर जीया कर।
तब तू नहीं लगेगा जोकर।"
यह सब सुनकर मुझे अच्छा लगा।
मैंने खुद को हल्का-फुल्का महसूस किया।
Joginder Singh Nov 2024
मौत
एक दहशत ही तो है
इससे असमय
जिंदगी जाती है सो ,
सुख के अहसास
अनायास
मुरझा जाते हैं,
सारे सपने
कुचले जाते हैं ।

मौत की दहशत
चेतना में
इतनी थी कि
आंखों के सामने
एक चिड़िया मर गई।
वह मरते मरते भी
मौत का अहसास
चेतना के अंदर भर गई।
चुपचाप
मरने की वीडियो क्लिपिंग
मेरे भीतर रख गई।

१९/०६/२०१८.
Joginder Singh Nov 2024
मेरे भीतर गहरे
उतर रही है
मौत से जन्मीं
दहशत।

दुनिया में फैली
क़त्ल ओ' ग़ैरत देख
चेतना
मेरी हुई सन्न!
व्याप गया है
मेरे इर्द-गिर्द सन्नाटा!


लगता है
कोई अदृश्य हाथ
मारेगा मेरे मुंह पर
झट से सन्न करता हुआ
ज़ोर से झापड़ ।

कोई और मुझे
खौफ़जदा करने के लिए
मेरे इर्द-गिर्द
मचाएगा उत्पात।

और कोई उपद्रवी
हाथ में दहशत की तलवार लिए
झट से मेरा सिर कलम कर देगा।
मेरे भीतर की
समस्त चेतना को,
संवेदना से अलग करने के निमित्त
वह हत्यारा मुझे मार कर
मेरी देह से नेह का नाता तोड़ जाएगा।
झट से सिर और धड़ को अलग कर जाएगा ।

सच! उस समय आसपास सन्नाटा पसर जाएगा।
सब के भीतर समय
एक खौफनाक खंज़र बनकर
दहशत का मंज़र भरता जाएगा ।
सच्चे और झूठे का पता
किसे चल पाएगा ?
एक और आदमी अपना सफ़र पूरा कर जाएगा ।
कुछ अर्से बाद वह यादों में ही जिंदा रह पाएगा।

कोई उसे याद करेगा, यह भी जरूरी नहीं।
बिना लड़े मरना,कतई उसे मंजूर नहीं ।
सो खुद को लड़ने के लिए तैयार करो।
  १०/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
आज का आदमी
दौड़ धूप में उलझ
कल और कल के बीच
फंसा हुआ सा
लगा रहा है
अस्तित्व अपने पर ग्रहण।


आज की दुनिया में
नाकामयाब को
लगता है
हर कोई एक जालसाज़!
कुटिल व दग़ाबाज़!!


वज़ह....
आज के आदमी की
धड़कन ,
कलयुग के दौर में
हो चुकी है
एक भटकन भर,
पल पल आज आदमी रहा मर।


आज आदमी
अपने आप में
एक मशीन हो गया है।
'कल' युग में उसका
सुख, चैन,करार
सर्वस्व
भेड़ चाल के कारण
कहीं खो गया है।


ख़ुद को न समझ पाना
उसके सम्मुख
आज
एक  संगीन जुर्म सा
हो गया है।


जिस दिन
वह समय की नदिया की
कल  कल से
खुद को जोड़ेगा,
वह  उस दिन
दुर्दिनों के दौर में भी
सुख,सुविधा, ऐश्वर्य को भोगेगा।
फिर कभी
नहीं
वह लोभ लालच का
शिकार होकर ,
अधिक देर तक
अंधी दौड़ का
अनुसरण कर भागेगा।
Joginder Singh Nov 2024
पहला रंग
शब्दशः/

शब्दशः व्यथा अपनी को
मैंने सहजता से व्यक्त किया ,
फिर भी कुछ कहने को बचा रहा।


      दूसरा रंग

रुलना /

ढोल की पोल
खुलनी थी , खुल गई!
अच्छी खासी ज़िंदगी रुल गई।
मैं अवाक मुंह बाए बैठा रहा।
यह क्या मेरे साथ हुआ !!


    तीसरा रंग


   अंततः/

अंततः अंत आ ही गया ‌!
खिला था जो फूल कल ,
वो आज मुरझा ही गया!!

१४/०५/२०२०.
Nov 2024 · 110
Meaning of failure
Joginder Singh Nov 2024
I have just learnt the meaning of failure in life.
Five months ago,
while visiting a school,
I read all of sudden on the wall....
F.A.I.L.
The narration of failure was dancing in my mind.
I further start reading the lines written on the wall.
F....is first
Be competitive and attain success in life.
It will bring moments of pride in your
miserable life.
So don't cry over petty happenings in life.

A....is attempt.
Think a little about your initiatives taken in life.
And follow the message of success in the sentence,as mentioned here....
To gain try again and again,till you attain gains in life.
I means....in.
The world arround you is like an inn.
You have come here only to win over
the difficulties facing in life.
I can also represent the ego of a person which is  root cause of the failure.
L..... represents the desires to learn in life.
And learning, constantly brings prideful moments in life.

At the same time,
I was mingling the past, present and too some extent my futuristic dreams of life.
I know very well about of my dreams.Some are based on the solid grounds of harsh realities, and some are ground less, totally based on imagination and fancy.

Now my consciousness warns me...
"Don't ignore your failures...
Learn something positive from your unsuccessfulness in life.

So that you should be able to feel,...
What is the secret behind the
unbreakable successes of successful persons in a nation's life.
Always remember  that failures work as the motivations ,which are part and parcel of our lives. "
Joginder Singh Nov 2024
ਬੱਚੇ
ਵੱਡਿਆਂ ਤੋਂ
ਸਿੱਖਦੇ ਹਨ
ਚੰਗੀਆਂ ਮਾੜੀਆਂ ਗੱਲਾਂ।
ਉਹ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ
ਦਿਲੋਂ ਮਿਹਨਤ ਕਰਨਾ
ਹਰ ਸਮੇਂ ਅੱਗੇ ਹੀ ਅੱਗੇ ਵਧਣਾ।
ਸੱਚ
ਕਦੀ ਕਦਾਈਂ
ਬੱਚੇ ਸੋਚਦੇ ਹਨ
ਪਤਾ ਨਹੀਂ
ਕਦੋਂ ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਛੱਡਣਗੇ ਅੰਦਰੋਂ ਬਾਹਰੋਂ ਸੜਨਾ,
ਹਰ ਵੇਲੇ
ਛੋਟੀਆਂ ਛੋਟੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਤੇ ਲੜਨਾ।
01/03/2013.
Joginder Singh Nov 2024
अभी
सपनों की स्याही
उत्तरी भी न थी
कि खुल गई नींद ।


फिर क्या था
चाहकर भी
जल्दी सो न पाया ,
मैं खुद को
जागने वालों ,
जगाने वाले दोस्तों की
सोहबत में पाया ।
सच !  जीवन का लुत्फ़ आया ।
अपने इस जीवन को
एक सपन राग सा पाया ।
अपने इर्द गिर्द की
दुनिया को
मायाजाल में  उलझते पाया ।

वैसे दुनिया
यदि जाग रही हो
तो उतार देती है
जल्दी ही
सपनों की खुमारी से स्याही !
चहुं ओर दिखने लगती तबाही !!

दुनिया जगाती रहे तो...
कर देती है हमें सतर्क ,
फिर उसके आगे नहीं चलते कुतर्क ।
यह दुनिया तर्क वितर्क से चालित है ।
वह सपने लेने वालों को
ज़िंदगी की हक़ीक़त के
रूबरू कराती है ।
दुनिया सभी में
कुछ करने की जुस्तजू जगाती है ।
वह आदमी को, आदमी बनाती है ।
उसमें संघर्ष की खातिर जोश भर जाती है।
यही नहीं दुनिया कभी-कभी
आदमी के सपनों में रंग भर जाती है ।

१२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
शोषण के विरुद्ध
खड़े होने का साहस
कोई विरला ही
कर पाता है ,
अन्याय से जूझने का माद्दा
अपनी भीतर
जगा पाता है ।


तुम अज्ञानता वश
उसके खिलाफ़ हो जाओ ,
यह शोभता नहीं ।
ऐसे तो शोषण रुकेगा नहीं ।


शोषण न करो , न होने दो ।
अन्याय दोहन से लड़ने को ,
आक्रोश के बीजों को भीतर उगने दो ।
क्या पता कोई वटवृक्ष
तुम्हारा संबल बन जाए !
तुम्हें भरा पूरा होने का अहसास करा जाए !
दिग्भ्रम से बाहर निकाल तुम्हें नूतन दिशा दे जाए !!

२१/१०/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
सत्ताधारी  की
कठपुतलियां  बने  हैं  हम !

विद्रोह  करने  से
हिचकते , झिझकते  हैं हम !

फिर  कैसे  दिखाएं?
किसे  दिखाएं ?
नहीं  रहा  भीतर  कोई  दमखम ,
अपने  हिस्से  तो  आए  लड़खड़ाते  क़दम  !

२६/०६/२०२८.
Nov 2024 · 144
Aatanki: ek Gumrah shakhs
Joginder Singh Nov 2024
Aatanki ko,
Alagaavvadi ko
Koi
chetahavni dena
Bahut badi bhul he.


Mauka mile to Mita do uska mool,
Chata do Usko dhul ,
taki jhelna  na paden, aur adhik shul.

Aatanki ek
Gumrah shakhs hota hai , jab vah alag thalag pad jata hai ,
To samaj Ko khandit karna chahta hai.


Vah Apne bhitar ke
Tanashah ko Jinda rakhna chahta hai .
Satta pratishthanon ko
Jhukana chahta hai.
Desh samaj ki
Asmita ko
Dhul mein Milana chahta hai.


Aatanki
Kabhi deshbhakt nahin hota.
Beshak vah hardam ek nakab audhe rakhta hai.
Kabhi kabhi vah
Desh bhakti ka
Chadam aavaran audhe ,
Desh duniya Ko kamjor karna chahta hai.



Tum uske iradon ko samjho.
Apney ko halaton ke mutabik dhalo.
Khush fahmi mein rahakar
Khud Ko musibat mein na dalo.
Nov 2024 · 68
Perfectionist
Joginder Singh Nov 2024
If you are a perfectionist in life.
You are always facing a terror of the marginal errors.
I can understand your agony and dissatisfaction.
To make life perfect,
Always keep yourself enough busy to talk with selfless Self.
Also try yourself to retain self respect in a fast running Life.
Nov 2024 · 167
A Vicious Circle ⭕
Joginder Singh Nov 2024
In a world of full 🌝 time activities
People seems to me ,are trapped in a vicious circle ⭕.
They have lost their way of progress,
peace and prosperity.

As I am also trapped engaging myself in the never ending game of uploading and downloading like the world running parallel to almighty Time.
The Super King  of creativity, construction ,destruction , suppression of lives wandering in the lap of mother Earth 🌎.
Joginder Singh Nov 2024
मन से
करो अपने काम
ताकि उठाना न पड़े
और अधिक नुक्सान।
यदि तुम
बेमन से काम करोगे
तो बेबसी के गर्त में
तुम जा पड़ोगे!
पल प्रति पल
खुद से तुम लड़ोगे!!
जल्द ही तुम जा थकोगे।
बीच रास्ते जा गिरोगे ।
फिर अपनी मंज़िल कैसे वरोगे?
अतः दोस्त,
मन को काबू में रखा करो।
अपने और पराए की परख
सोच समझकर किया करो।
तभी सच को
कहीं गहरे से जान सकोगे।
अपने लिए एक सुरक्षा कवच निर्मित कर पाओगे।
यदि ऐसा तुम कर लेते हो
तो सचमुच!!
तुम मनस्वी बनने की ओर
क़दम उठा पाओगे।
अपने भीतर व्याप्त संभावना का
सहर्ष  संस्पर्श कर पाओगे।
ईर्ष्या की अगन को
निज से दूर रख पाओगे।
हां ,तभी तुम !
जीवन में कुंदन बन पाओगे।
और देखना तुम, खुद तो प्रसन्न चित्त रहोगे ,
बल्कि पड़ोसियों तक को
सुखी कर जाओगे।
अपने इर्द-गिर्द
सुख ,समृद्धि, संपन्नता के बीजों को फैला पाओगे ।
तुम स्वत: अपनी नई पहचान बनाओगे।
२८/०८/२०१५.
Joginder Singh Nov 2024
कहते हैं
कानून के हाथ
बहुत लंबे होते हैं ,
पर ये हाथ
कानून के नियम कायदों से
बंधे होते हैं।

कानून
मौन रहकर
अपना कर्तव्य
निभाता है ,
कानून का उल्लंघन होने पर
अधिवक्ता गुहार लगाता है,
बहस मुबाहिसे,
मनन चिंतन के बाद
माननीय न्यायमूर्ति
अपना फैसला सुनाते हैं।
इसे सभी मानने को बाध्य होते हैं ।


न्याय की देवी की
आंखों पर पट्टी बंधी होती है,
उसे मूर्ति के हाथ में तराजू होता है,
जिसके दो पलड़ों पर
झूठ और सच के प्रतीक
अदृश्य रूप से सवार होते हैं
और जो माननीय न्यायाधीश की सोच के अनुसार
स्वयं ही  संतुलित होते रहते हैं।


एक फ़ैसलाकुन क्षण में
माननीय न्यायाधीश जी की
अंतर्मन की आवाज़
एक फैसले के रूप में सुन पड़ती है।

इस इस फैसले को सभी को मानना पड़ता है।
तभी कानून का एक क्षत्र राज
शासन व्यवस्था पर चलता है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपना कार्य करता है।
कानून के कान बड़े महीन होते हैं
जो फैसले के दूरगामी परिणाम
और प्रभावों पर रखते हैं मतवातर अपनी पैनी नज़र।
यह सुनते रहते हैं
अदालत में उपस्थित और बाहरी व्यवस्था की,
बाहर भीतर की हर आवाज़
ताकि आदमी रख सकें
कानून सम्मत अपने अधिकार मांगते हुए,
अपने एहसासों और अधिकारों की तख्तियां सुरक्षित।
आदमी सिद्ध कर सके
खुद को
नख‌ से शिख तक पाक साफ़!!

कानून के रखवाले
मौन धारण कर
करते रहते हैं लगातार
अपने अपने कर्म
ताकि बचे रह सकें
मानवीय जिजीविषा से
अस्तित्व मान हुए
आचार, विचार और धर्म।
बच्ची रह सके आंखों में शर्म।

०२/०६/२०१२.
Joginder Singh Nov 2024
मजाक उड़ाना ,
मजे की खातिर
अच्छे भले को मज़ाक का पात्र बनाना ,
कतई नहीं है उचित।

जिसका है मज़ाक उड़ता ,
उसका मूड ठीक ही है उखड़ता।
यही नहीं,
यदि यह दिल को ठेस पहुंचाए ,
तो उमंग तरंग में डूबा आदमी तक
असमय ही बिखर जाए ,
मैं उड़ाना तक भूल जाए ।


मजाक उड़ाना,
मज़े मज़े में मुस्कुराते हुए
किसी को उकसाना ।
उकसाहट को साज़िश में बदलना,
अपनी स्वार्थ को सर्वोपरि रखना,
यह सब है अपने लिए गड्ढा खोदना।


मज़ाक में कोई मज़ा नहीं है ,
बेवजह मज़ाक के बहाने ढूंढना
कभी-कभी आपके भीतर
बौखलाहट भर सकता है ,
जब कोई जिंदा दिल आदमी
आपकी परवाह नहीं करता है
और शहर की आपको नजर अंदाज करता है,
तब आप खुद एक मज़ाक बन जाते हैं ।
लोग आपको इंगित कर ठहाके लगाते हैं !
आप भीतर तक शर्मसार हो जाते हैं

आप मज़ाक उड़ाना और मज़े लेना बिल्कुल भूल जाते हैं।


पता है दोस्त, नकाब यह दुनिया है नकाबपोश,
जहां पर तुम विचरते हो ,
वहां के लोग नितांत तमाशबीन हैं।
दोस्त, भूल कर मजाक में भी मजा न ढूंढ,
यह सब करना मति को बनाता है मूढ़!
ऐसा करने से आदमी जाने अनजाने मूढ़ मति  बनता है।
वह अपने आप में मज़ाक का पात्र बनता है।
हर कोई उस पर रह रह कर हंसता है।
ऐसा होने पर आदमी खिसिया कर रह जाता है।
अपना दुःख दर्द चाह कर भी व्यक्त नहीं कर पाता है।
आदमी हरदम अपने को एक लूटे-पीटे मोहरे सा पाता है।
०९/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
बेटियों का श्राप
कोई बाप
अपनी नवजात बेटी को मार कर,
उसे गंदे नाले में फैंककर
चल दे बगैर किसी डर के
और बगैर शर्मोहया के करें दुर्गा पूजन ।
तो फिर क्यों न मिले ?
उसे श्राप
उस नन्ही मृतक बिटिया का ?
कोई पिता
ठंड के मौसम में
छोड़ जाएं अपनी बिटिया को,
मरने के लिए ,
यह सोचकर
कि कोई सहृदय
उसे उठाकर
कर देगा सुपुर्द ,
किसी के सुरक्षित हाथों में !
और वह
कर ही लेगा
गुज़र बसर ।
ताउम्र गुज़ार लेगा
ग़रीबी में ,
चुप रहकर
प्रायश्चित करता हुआ।
पर
दुर्भाग्यवश
वह बेचारी
'पालना घर' पहुंचने से पहले ही
सदा सदा की नींद जाए सो
तो क्यों न !
ऐसे पिता को भी
मिले
नन्ही बिटिया का श्राप?

सोचता हूं ,
ऐसे पत्थर दिल बाप को
समय दे ,दे
यकायक अधरंग होने की सज़ा।
वह पिता
खुद को समझने लगे
एक पत्थर भर!

चाहता हूं,
यह श्राप
हर उस ‌' नपुंसक ' पिता को भी मिले
जो कि बनता है  पाषाण हृदय ,
अपनी बिटिया के भरण पोषण से गया डर ।
उसे अपनी गरीबी पहाड़ सी दुष्कर लगे।

कुछ बाप
अपनी संकीर्ण मानसिकता की वज़ह से
अपनी बिटिया के इर्द गिर्द
आसपास की रूढ़िवादिता से डरकर
नहीं देते हैं
बिटिया की समुचित परवरिश पर ध्यान,
उनको भी सन्मति दे भगवान्।

बल्कि
पिता कैसा भी हो?
ग़रीब हो या अमीर,
कोई भी रहे , चाहे हो धर्म का पिता,
उन्हें चाहिए कि
वे अपनी गुड़ियाओं के भीतर
जीवन के प्रति
सकारात्मक सोच भरें
नाकि
वे सारी उम्र
अपने अपने  डरों से डरें ,
कम से कम
वे समाज में व्याप्त
मानसिक प्रदूषण से
स्वयं और बेटियों को
अपाहिज तो न करें।


चाहता हूं,
अब तो बस
बेटियां
सहृदय बाप की ही
गोद में खिलें
न कि
भ्रूण हत्या,
दहेज बलि,
हत्या, बलात्कार
जैसी अमानुषिक घटनाओं का
हों शिकार ।
आज समय की मांग है कि
वे अपने भीतरी आत्मबल से करें,
अपने अधिकारों की रक्षा।

अपने भीतर रानी लक्ष्मीबाई,
माता जीजाबाई,
इंदिरा,
मदर टैरेसा,
ज्योति बाई फुले प्रभृति
प्रेरक व्यक्तित्वों से प्रेरणा लेकर
अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए
अथक परिश्रम और प्रयास करें
ताकि उनके भीतर
मनुष्योचित पुरुषार्थ दृष्टिगोचर हो,
इसके साथ साथ
वे अपने लक्ष्य
भीतर ममत्व की विराट संवेदना भरकर पूर्ण करें।
वे जीवन में संपूर्णता का संस्पर्श करें।
Joginder Singh Nov 2024
कहीं गहरे तक
उदास हूँ ,
भीतर अंधेरा
पसरा है।
तुम चुपके से
एक दिया
देह देहरी पर
रख ही दो।
मन भीतर
उजास भरो ।
मैल धोकर
निर्मल करो।
कभी कभार
दो सहला।
जीवन को
दो सजा।
जीवंतता का
दो अहसास।
अब बस सब
तुम्हें रहे देख।
कनखी से देखो,
बेशक रहो चुप।
तुम बस सबब बनो,
नाराज़ ज़रा न हो।
मुक्त नदी सी बहो,
भीतरी उदासी हरो।
यह सब मन कहे,
अब अन्याय कौन सहे?
जो जीवन तुम्हारे अंदर,
मुक्त नदी बनने को कहे।

२५/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया भर में
मैं भटका ज़रूर,
मैंने बहुत जगह ढूंढा उसे
पर मिला नहीं
उसका कोई इशारा!

‌ जब निज के भीतर झांका ,
तो दिख गई उसकी सूरत,
बदल गई मेरी सीरत,
मिला मुझे एक सहारा !!

कुछ कुछ ऐसा महसूस किया कि
ईश्वरीय सत्ता
कहीं बाहर नहीं,
बल्कि मन के भीतर
अवस्थित है,
वह
वर्तमान में
अपनी उपस्थिति
दर्शाती है,
यह अहसास
रूप धारण कर
अपना संवाद रचाती है।


भूतकाल और भविष्यत काल
ब्रह्म यानिकि ईश्वरीय सत्ता की छायाएं भर हैं।
एक दृष्टि अतीत से मानव को जोड़
विगत में भटकाती है,
उसे बीते समय के अनुभव के
संदर्भ में चिंतन करना सिखाती है।

दूसरी दृष्टि
आने वाले कल
के बारे में  
चिंता मुक्त होने
के लिए,
चिंतन मनन करने की
प्रेरणा बन जाती है ।
इस के साथ ही
सुख, समृद्धि, स्वर्णिम जीवन के
स्वप्न दिखाती है।
दोनों ही भ्रम भर हैं ।


यदि
कहीं सच है
तो
वह वर्तमान ही है
बस!
उसे श्रम से
प्रभावित किया जा सकता है,
सतत् मेहनत से वर्तमान को
अपने अनुरूप
किया जाता है,
परन्तु
भूतकाल की बाबत
इतिहास के माध्यम से
अतीत में विचरण किया जा सकता है,
उसे छूना असंभव है।

भविष्य की आहट को
वर्तमान के संदर्भ में
सुना जा सकता है,
मगर इसके लिए भी
बुद्धि और कल्पना की
जरूरत रहती है।

आदमी के सम्मुख
वर्तमान ही एक विकल्प बचता है।
जिसे संभाल कर
जीवन संवारा जा सकता है।
वह भी केवल श्रम करने से।
आज आदमी का सच श्रम है,
जो सदैव बनता सुख का उद्गम है।
और यही सुख का मूल है।
वर्तमान को संभालने,
इसे संवारने, से सुख के उद्गम की
संभावना बनती है।

वर्तमान को
समय रहते संभालने से
सुख मिलने ,बढ़ने की आस बनी रहती है।
वर्तमान के रूप में
समय सरिता आगे बढ़ती रहती है।

२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
सर्वस्व का वर्चस्व
स्थापित करने के निमित्त
हम करेंगे
अपनी तमाम धन संपदा, शक्ति को संचित कर
और यथाशक्ति अपना समय
और अपनी सामर्थ्य भर शक्ति को देकर
करते रहेंगे जन जन से सहयोग।
ताकि
शोषितों, वंचितों के
जीवन को
अपरिहार्य और अनिवार्य सुधारों से
जोड़ा जा सके,
उनके जीवन में बदलाव
लाया जा सके।
उनका जीवन स्तर
सुधारा जा सके।

यदि शोषितों, वंचितों के
जीवन में सुखद परिवर्तन आएगा,
तभी देश आगे बढ़ेगा।
किसी हद तक
शोषण और दमन चक्र रुकेगा।

ऐसा होने से
जन जन में सुरक्षा व सुख का
अहसास जगेगा।

देश और समाज भी
समानता, सहिष्णुता के क्षितिज छूएगा।
और यही नहीं,
देश व समाज में
सुख, समृद्धि, संपन्नता का आगमन होगा।

लग सकेगी रोक
वर्तमान में अपने पैर पसारे
तमाम विद्रूपताओं,  क्षुद्रताओं से
जन्मीं बुराइयों और अक्षमताओं पर।

और साथ ही
स्व और पर को
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
रखा जा सकेगा
अस्तित्वमान।
उनमें नित्य नूतन ऊर्जा पोषित कर
उत्साह, आह्लाद, जिजीविषा जैसे
भावों के दरिया का
कराया जा सकेगा
आगमन।
जीवन से
रचाया जा सकेगा
संवाद
तमाम वाद विवाद
मिटाकर।

देश भर में
व्यापी
परंपरावादी सामाजिक व्यवस्था को
समसामयिकता, आधुनिकता
और समग्रता से
जा सकेगा
जोड़ा।

आओ आज हम यह शपथ लें कि
सर्वस्व का वर्चस्व स्थापित करने हेतु
हम निर्मित करेंगे
जन जन को जोड़ने में सक्षम  
आस्था, विश्वास, सद्भावना, सांत्वना,
प्राच्यविद्या और आधुनिक शिक्षा से प्रेरित
अविस्मरणीय,
अद्भुत, अनोखा,
सेतु।
.......और इस सेतु पर से
दो विपरीत विचार धाराएं भी
बेरोक टोक आ जा सकें।

उन्हें सांझे मंच पर लाकर
पारस्परिक समन्वय व सामंजस्य
स्थापित करने में
महत्वपूर्ण योगदान
यह नवनिर्मित सेतु कर पाएगा।
ऐसे भरोसे के साथ
सभी को आगे बढ़ना होगा
तभी देश दुनिया को आदर्श बनाया जा सकेगा।
अपनी संततियों को
इस नव निर्मित सेतु से
विकास पथ की ओर
ले जाया जा सकेगा।
सर्वस्व के वर्चस्व हेतु
इस सेतु को निर्मित करना ज़रूरी है,
ताकि नई और पुरानी पीढ़ियों में
जागरूकता फैलाई जा सके।
२५/११/२०२५.
Nov 2024 · 64
यात्रा पथ
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
समय
यात्री से
सांझा करता है
अपने अनुभव
यात्री के ख़्वाब में आकर।

कहता है वह उससे,
" नपे तुले सधे कदमों से
किया जाना चाहिए तय
यात्रा पथ ,
बने रहकर अथक
बगैर किसी वैर भाव के
एक सैर की तरह ,
जीवन पथ पर
खुद को आगे बढ़ाकर
अपने क़दमों में गति लाकर
स्वयं के भीतर
उत्साह और जोश जगाकर ।


यात्री
सदैव आगे बढ़ें ,
अपनी पथ पर
सजग और सतर्क होकर ।
वे सतत् चलते रहें ,
भीतर अपने
मोक्ष और मुक्ति की
चाहत के भाव जगा कर ।
वे अपने लक्ष्य तक
पहुंचने की खातिर
मतवातर चलते रहें ।
जीवन पथ की राह
कभी नहीं होती आसान,
इस मार्ग में
आते हैं कई
उतार चढ़ाव।
कभी राह होती है
सीधी सपाट
और
कभी एकदम
उबड़ खाबड़ ,
इस पथ पर
मिलते हैं कभी
सर्पिल मोड़।
यात्रा यदि निर्विघ्न
करनी हो संपन्न ,
तो यात्री रखें ,
स्वयं को तटस्थ।
एकदम मोह माया से
हो जाएं निर्लिप्त।"

यात्री को हुआ
ऐसा कुछ प्रतीत,
मानो समय
कहना चाहता हो
उससे कि वह
चले अपने यात्रा पथ पर ,
सोच संभलकर।
नपे तुले सधे कदमों से
वह बिना रुके, चलता चले।
जब तक मंज़िल न मिले।

यात्री मन के भीतर
यह सोच रहा था कि
समय, जिसे ईश्वर भी कहते हैं।
सब पर बहा जा रहा है ,
काल का बहाव
सभी को
अपनी भीतर बहाकर
ले जा रहा है,
उन्हें उनकी नियति तक
चुपचाप लेकर जा रहा है।

सो वह आगे बढ़ता रहेगा,
सुबह ,दोपहर ,शाम
और यहां तक
रात्रि को
सोने से पहले
परमेश्वर को याद करता रहेगा।
यात्रा की स्मृतियों के दीपक को
अपनी चेतना में जाजवल्यमान रखकर।


यात्री को यह भी लगा कि
कभी-कभी खुद समय भी
उसके सम्मुख
एक बाधा बन कर
खड़ा हो जाता है।
कभी यह अनुकूल
तो कभी यह
प्रतिकूल हो जाता है।
ऐसे में आदमी
अपना मूल भूल जाता है।
कभी-कभी
पथिक
बगैर ध्यान दिए चलने से
घायल भी हो जाता है।

उसे  हर समय यात्रा पथ पर
स्वयं को आगे बढ़ाना है।
कभी-कभी
यह यात्रा पथ
अति मुश्किल लगने लग जाता है,
मन के भीतर
दुःख ,पीड़ा ,दर्द की
लहरें उठने लगती हैं ,
जो यात्रा पथ में
बाधाएं
पैदा करती हैं।


समय
पथिक की दुविधा को
झट से समझ गया
और
ऐसे में
तत्क्षण
उसने यात्री को
संबोधित कर कहा,
"अपनों या परायों के संग
या फिर उनके बगैर
रहकर निस्संग
जीवन धारा के साथ बह।
अन्याय, पीड़ा ,उत्पीड़न को
सतत् सहते सहते, सभी को
तय करना होता है , जीवन पथ।"

समय के मुखारविंद से
ये दिशा निर्देश सुनकर ,
समय के रूबरू होकर ,
पथिक ने किया यह विचार कि
' अब मैं चलूंगा निरंतर
अपने जीवन पथ पर ,संभल कर।'


पथिक समय के समानांतर
अपने क़दम बढ़ाकर
चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर।
उसे लगा यह जीवन है ,
एक अद्भुत संघर्ष कथा ,
जहां व्याप्त है मानवीय व्यथा।
नपे तुले सधे कदमों के बल पर,
लड़ा जाना चाहिए ,जीवन रण यहां पर ।

यात्री अपने पथ पर चलते-चलते
कर रहा था विचार कि अब उसे सजगता से
अपनी राह चलना होगा, हताशा निराशा को कुचलना होगा।
तभी वह अपनी मंज़िल तक निर्विघ्न पहुंच पाएगा।
अपनी यात्रा सुख पूर्वक सहजता से संपन्न कर पाएगा।


समय करना चाहता है,
जीवन पथ पर चल रहे यात्रियों को आगाह,
अपनी यात्रा करते समय ,वे हों न कभी ,बेपरवाह,
समय का दरिया , महाकाल के विशालकाय समंदर में
करता रहा है अपनी को लीन,
मानव समझे आज, उसके ,
स्वयं के कारण, कभी न बाधित हो,
समय चेतना का प्रवाह।

समय की नदी से ही गुज़र कर,
इंसान बनते प्रबुद्ध, शुद्ध, एकदम खालिस जी ।
फिर ही हो सकते हैं वे, काल संबंधी चिंतन में शामिल जी।

अब समय नपे तुले सधे क़दम आगे बढ़ाकर।
संघर्ष की ज्वालाओं को,
सोए हुओं में जगा कर ।
तोड़ेगा अंधविश्वासों के बंधन,
ताकि रुके क्रंदन जीवन पथ पर।
समय अपना राग पथिकों को सुनाकर,
कर सके मानवीय जिजीविषा का अभिनंदन।

०९/१२/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
सच
अनुभूति बनकर
सुख  फैलाता है।

श्रम
केवल परिश्रम ही
सच को प्रत्यक्ष करने का ,
बन पाता है
माध्यम।

सच और श्रम,
दोनों
अनुभूति का अंश बनकर
कर देते हैं
जीवन में कायाकल्प।

यदि तुम जीवन में
आमूल चूल परिवर्तन देखना चाहते
तो जीवन में शुचिता को वर्षों,
उतार-चढ़ावों के बीच
बहती

इस जीवन सरिता पर
तनिक
चिंतन मनन करो,

सच और श्रम के सहारे
जीवन मार्ग को करो
प्रशस्त।

तुम विनम्र बनो।
निज देह को
शुचिता  की
कराओ प्रतीति।
ताकि
सच  और श्रम
अंतर्मन में
उजास भर सकें,
जीवन में
सुख की छतरी सके तन,
तन और मन रहें प्रसन्न।
सब
दुःख , दर्द , निर्दयता की
बारिश से बच सकें।
जीवन रण में
विजय के हेतु
डट सकें
और आगे बढ़ सकें।
२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
Nov 2024 · 59
मेहमान
Joginder Singh Nov 2024
बंदर  के   घर   बंदर   आया ,

आते  ही  उसने  उत्पात  मचाया ।

बंदरिया और    बच्चे  थे  , डर  गए।

वे   चुपके   से   बिस्तर   में   घुस  गए  ।

मेहमान   के   जाने     के     बाद    ,

किया  सबने   मेहमान   को    याद   ।

सारे    खिलखिला  कर   हँस    पड़े   ।

सूरज  ने   भी   इसका  आनंद  उठाया  ।
बंदर कवि खुद है जी!
Joginder Singh Nov 2024
बहुत बार
नौकर होने का आतंक
जाने अनजाने
चेतन पर छाया है ,
जिसने अंदर बाहर
रह रहकर तड़पाया है ।

बहुत बार
अब और अधिक समय
नौकरी न करने के ख़्याल ने ,
नौकर जोकर न होने की ज़िद्द ने
दिल के भीतर
अपना सिर उठाया है ,
इस चाहत ने
एक अवांछित अतिथि सरीखा होकर
भीतर मेरे बवाल मचाया है ,
मुझे भीतर मतवातर चलने वाले
कोहराम के रूबरू कराया है।


कभी-कभी कोई
अंतर्घट का वासी
उदासी तोड़ने के निमित्त
पूछता है धीरे से ,
इतना धीरे से ,
कि न  लगे भनक ,
तुम्हारे भीतर
क्या गोलमाल चल रहा है?
क्यों चल रहा है?
कब से चल रहा है?

वह मेरे अंतर्घट का वासी
कभी-कभी
ज़हर सने तीर
मेरे सीने को निशाना रख
छोड़ता है।
और कभी-कभी वह
प्रश्नों का सिलसिला ज़ारी रखते हुए ,
अंतर्मन के भीतर
ढेर सारे प्रश्न उत्पन्न कर
मेरी थाह  लेने की ग़र्ज से
मुझे टटोलना शुरू कर देता है ,
मेरे भीतर वितृष्णा पैदा कर देता है ।


मेरे शुभचिंतक मुझे  अक्सर ‌कहते हैं ।
चुपचाप नौकरी करते रहो।
बाहर बेरोजगारों की लाइन देखते हो।
एक आदर्श नौकरी के लिए लोग मारे मारे घूमते हैं।
तुम किस्मत वाले हो कि नौकरी तुम्हें मिली है ।

उनका मानना है कि
दुनिया का सबसे आसान काम है,
नौकरी करना, नौकर बनना।
किसी के निर्देश अनुसार चलना।
फिर तुम ही क्यों चाहते हो?
... हवा के ख़िलाफ़ चलना ।

दिन दिहाड़े , मंडी के इस दौर में
नौकरी छोड़ने की  सोचना ,
बिल्कुल है ,
एक महापाप करना।

जरूर तेरे अंदर कुछ खोट है ,
पड़ी नहीं अभी तक तुझ पर
समय की चोट है, जरूर ,जरूर, तुम्हारे अंदर खोट है ।
अच्छी खासी नौकरी मिली हुई है न!
बच्चू नौकरी छोड़ेगा तो मारा मारा फिरेगा ।
किसकी मां को मौसी कहेगा ।
तुम अपने आप को समझते क्या हो?

यह तो गनीमत है कि  नौकरी
एक बेवकूफ प्रेमिका सी
तुमसे चिपकी हुई है।
बच्चू! यह है तो
तुम्हारे घर की चूल्हा चक्की
चल रही है ,
वरना अपने आसपास देख,
दुनिया भूख ,बेरोजगारी ,गरीबी से मर रही है ।

याद रख,
जिस दिन नौकरी ने
तुम्हें झटका दे दिया,
समझो जिंदगी का आधार
तुमने घुप अंधेरे में फेंक दिया।
तुम सारी उम्र पछताते नज़र आओगे।
एक बार यह छूट गई तो उम्र भर पछताओगे।
पता नहीं कब, तुम्हारे दिमाग तक
कभी रोशनी की किरण पहुंच पाएगी।

यदि तुमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी,
तो तुम्हारी कीमत आधी भी न रह जाएगी ।
यह जो तुम्हारी आदर्शवादी सोच है न ,
तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।
न रहोगे घर के , न घाट के।
कैसे रहोगे ठाठ से ?
फिर गुजारा चलाओगे बंदर बांट से ।


इतनी सारी डांट डपट
मुझे सहन करनी पड़ी थी।
सच! यह मेरे लिए दुःख की घड़ी थी।
मेरी यह चाहत धूल में मिली पड़ी थी।

मेरे अंतर्मन ने भी मुझे डांट लगाई।
उसने कहा,"अरे नासमझ! अपनी बढ़ती उम्र का
कुछ तो ख्याल कर,
बेवजह तू बवाल न कर।
नौकरी छोड़ने की सोच कर,
तूं भर लेगा अपने अंदर डर।
मारा  मारा फिरेगा डगर डगर।
अपनी नहीं तो
घरवाली और बच्चों की फ़िक्र कर ।

तुमसे तो
चिलचिलाती तेज धूप में
माल असबाब से भरी रिक्शा,
और उसे पर लदी सवारियां तक
ढंग से खींचीं न जाएगी।
यह पेट में जो हवा भर रखी है,
सारी पंचर होकर
बाहर निकल जाएगी।
फिर तुम्हें शूं शूं शूं  शू शूंशूंश...!!!
जैसी आवाज ही सुनाई देगी ,
तुम्हारी सारी फूंक निकल जाएगी।
हूं !बड़ा आया है नौकरी छोड़ने वाला !
बात करता है नौकरी छोड़ने की !
गुलामी से निजात पाने की!!
हर समय यह याद रखना ,....
चालीस साल
पार करने के बाद
ढलती शाम के दौर में
शरीर कमज़ोर हो जाता है
और कभी-कभी तो
यह ज़वाब देने लगता है।
इस उम्र में यदि काम धंधा छूट जाए,
तो बड़ी मुश्किल होती है।
एक अदद नौकरी पाने के लिए
पसीने छूट जाते हैं।


यह सच है कि
बाज़ दफा
अब भी कभी-कभी
एक दौरा सा उठता है
और ज्यादा देर तक
नौकरी न करने का ख़्याल
पागलपन, सिरफ़िरेपन की हद तक
सिर उठाता है ।
पर अलबेला अंतर्घट का वासी वह
कर देता है करना शुरू,
रह रहकर, कुछ उलझे सुलझे सवाल ।
वह इन सवालों को
तब तक लगातार दोहराता है,
जब तक मैं मान न लूं उससे हार ।
यही सवाल
मां-बाप जिंदा थे,
तो बड़े प्यार और लिहाज़ से
मुझसे पूछा करते थे।
वे नहीं रहे तो अब
मेरे भीतर रहने वाला,
अंतर्घट का वासी
आजकल पूछने लगा है।
सच पूछो तो, मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि
उसके सामने
मेरा जोश और होश
ठंड पड़ जाता है,
ललाट पर पसीना आ जाता है।
अतः अपनी हार मानकर
मैं चुप कर जाता हूं।
अपना सा मुंह लेकर रह जाता हूं ।


मुझे अपना अंत आ गया लगता है ,
अंतस तक
दिशाहीन और भयभीत करता सा लगता है।

सच है...
कई बार
आप बाह्य तौर पर
नज़र आते हैं
निडर व आज़ाद
पर
आप अदृश्य रस्सियों से
बंधे होते हैं ,
आप कुछ नया नहीं
कर पाते हैं,
बस !अंदर बाहर तिलमिलाते हैं ,
आपके डर अट्टहास करते जाते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
अकेलेपन में
ढूंढता है
अरे बुद्धू  !
अलबेलापन।
जो
तू खो चुका है ,
सुख की नींद सो चुका है ।

अब
जीवन की भोर
बीत चुकी है।

समय के
बीतते बीतते ,‌
ज़िंदगी के
रीतते रीतते ,
अलबेलापन
अकेलेपन में
गया है बदल ।

चाहता हूं
अब
जाऊं संभल!
पर
अकेलापन ,
बन चुका है
जीने का संबल।
रह रह कर
सोचता हूँ ,
अकेलापन
अब बन गया है
काल का काला कंबल।
जो जीवन को
बुराइयों और काली शक्तियों से
न केवल बचाता है ,
बल्कि
दुःख सुख की अनुभूतियों ,
जीवन धारा में
मिले अनुभवों को
अपने भीतर लेता है  समो ,
और
आदमी
अकेलेपन के आंसुओं से
खुद को लेता है भिगो ।


सोचता हूँ
कभी कभार
अकेलापन करता है
आदमी को बीमार।

आदमी है एक घुड़सवार  
जो अर्से है ,
अकेलेपन के घोड़े पर सवार !

कहां रीत गया
यह अलबेलापन ?
कैसे बीत जाएगा
रीतते रीतते ,
आंसू सींचते सींचते,
यह अकेलापन ?

अब तो प्रस्थान वेला है ,
जिंदगी लगने लगी एक झमेला है!
हिम्मत संजोकर,
आगे बढ़ाने की ठानूंगा !


जैसा करता आया हूं  
अब तक ,‌
अपने अकेलेपन से
लड़ता आया हूं अब तक ।

देकर
सतत्
अनुभूति के द्वार पर दस्तक।

अपने मस्त-मस्त ,
मस्तमौला से
अलबेलेपन को
कहां छोड़ पाया हूं ?


अपने अलबेलेपन के
बलबूते पर
अकेलेपन की सलीब को
ढोता आया हूं !
अकेलेपन की नियति से
जूझता आया हूं !!


२१/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
मुख मुरझा गया अचानक
जब सुख की जगह पर पहुंच दुःख
सोचता रहा बड़ी देर तक
कि कहां हुई मुझ से भूल ?
अब कदम कदम पर चुप रहे हैं शूल।


उसी समय
रखकर मुखौटा अपने मुख से अति दूर
मैं कर रहा था अपने विगत पर विचार,
ऐसा करने से
मुझे मिला
अप्रत्याशित ही
सुख चैन और सुकून।
सच !उस समय
मैंने पाया स्वयं को तनाव मुक्त ।


दोस्त,
मुद्दत हुए
मैं अपनी पहचान खो चुका था।
अपनी दिशा भूल गया था।
हुआ मैं किंकर्तव्यविमूढ़,
असमंजस का हुआ शिकार ,
था मैं भीतर तक बीमार,
खो चुका था अपने जीवन का आधार।
ऐसे में
मेरे साथ एक अजब घटना घटी ।
अचानक
मैंने एक फिल्म देखी, आया मन में एक ख्याल।
मन के भीतर दुःख ,दर्द ,चिंता और तनाव लिए
क्यों भटक रहे हो?
क्यों तड़प रहे हो?
तुम्हें अपने टूटे बिखरे जीवन को जोड़ना है ना !
तुम विदूषक बनो ।
अपने दुःख दर्द भूलकर ,
औरों को प्रसन्न करो।
ऐसा करने से
शायद तुम
अपनी को
चिंता फिक्रों के मकड़ जाल से मुक्त कर पाओ।
जाओ, अपने लिए ,
कहीं से एक मुखौटा लेकर आओ।
यह मुखौटा ही है
जो इंसान को सुखी करता है,
वरना सच कहने वाले इंसान से
सारा जमाना डरता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं ,
अपनी जिंदगी अपने ढंग से जियो।
खुद को
तनाव रहित करो ,
तनाव की नाव पर ना बहो।
तो फिर
सर्कस के जोकर की तरह अपने को करो।
भीतर की तकलीफ भूल कर, हंसो और खिलखिलाओ।
दूसरों के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव जगाओ।


उसे दिन के बाद
मैं खुद को बदल चुका हूं।

सदैव
एक मुखौटा पहने रखता हूं,
ताकि
निज को सुरक्षित रख सकूं।

दोस्त,
अभी-अभी
मैं अपना प्यारा मुखौटा
रख कर गया हूं भूल।

यदि वह तुमको मिले
तो उसे मुझ को दो सौंप,
वरना मुखौटा खोने का ऋण
एक सांप में बदल
मुझे लेगा डस,
जीवन यात्रा थम जाएगी
और वेब सी मेरे भीतर
करने के बाद भी भरती जाएगी,
जो मुझे एक प्रेत सरीखा बनाएगी।

मुझे अच्छी तरह से पता है
कि यदि मैं मुखौटा ओढ़ता हूं,
तो तुम भी कम नहीं हो,
हमेशा एक नक़ाब पहने  रहते-रहते
बन चुके हो एक शातिर ।
हरदम इस फ़िराक़ में रहते हो,
कब कोई नजरों से गिरे,
और मैं उसका उपहास उड़ाऊं।
मेरे नकाबपोश दोस्त,
अब और ना मुझे भरमाओ।
जल्दी से मेरा मुखौटा ढूंढ कर लाओ।
मुझे अब और ज़्यादा न सताओ।
तुम मुझे भली भांति पहचानते हो!
मेरे उत्स तक के मूल को जानते हो।

मेरा सच है कि
अब मुखौटे में निहित है अस्तित्व का मूल।
दोस्त , नक़ाब तुम्हारी तक पर
पहुंच चुकी है मेरे मुखौटे की धूल।
तुमने ही मुझसे मेरा मुखौटा चुराया है।
अभी-अभी मुझे यह समझ आया है।
तुम इस समय नकाब छोड़ , मेरा मुखौटा ओढ़े हो।
मेरे मुखौटे की बू, अब तुम्हारे भीतर रच चुकी है।
मेरी तरह ,अब तुम्हारी
नक़ाब पहनने की
जिंदगी का खुल गया है भेद।


मुझे विदित हो चुका है कि
कृत्रिमता की जिंदगी जी कर
व्यक्ति जीवन में
छेदों वाली नौका की सवारी करता है
और पता नहीं,
कब उसकी नौका
जीवन के भंवर में जाए डूब।
कुछ ऐसा तुम्हारे साथ घटित होने वाला है।
यह सुनना था कि
मेरे नकाबपोश मित्र ने
झट से
मेरा मुखौटा दिया फैंक।

उस उसे मुखौटे को अब मैं पहनता नहीं हूं ।
उसे पहन कर मुझे घिन आती है।
इसीलिए मैंने मुखौटे का
अर्से से नहीं किया है इस्तेमाल।

आज बड़े दिनों के बाद
मुझे मुखौटे का ख्याल आया है।
सोचता हूं कि
मुखौटा मुझ से
अभी तक
अलहदा नहीं हो पाया है।

आज भी
कभी-कभी
मुखौटा मेरे साथ
अजब से खेल खेलता है।

शायद उसे भी डर है कि
कहीं मैं उसे जीवन में अनुपयोगी न समझने लगूं।

कभी-कभी वह
तुम्हारी नक़ाब के
इशारे पर
नाचता  नाचता
चला जाना चाहता है
मुझ से बहुत दूर
ताकि हो सके
मेरा स्व सम्मोहन
शीशे सा चकनाचूर ।

हकीकत है...
अब मैं उसके बगैर
हर पल रहता हूं बेचैन
कमबख़्त,
दिन रात जागते रहते हैं
अब उसे दिन मेरे नैन।

कभी-कभी जब भी मेरा मुखौटा
मुझे छोड़ कहीं दूर भाग जाता है
तू रह रहकर मुझे तुम्हारा ख्याल आता है।

मैं सनकी सा होकर
बार-बार दोहराने लगता हूं।
दोस्त , मेरा मुखौटा मुझे लौटा दो।
मेरे सच को मुझ से मिला दो ।
अन्यथा मुझे शहर से कर दो निर्वासित ।
दे दो मुझे वनवास,
ताकि कर सकूं मैं
आत्म चिंतन।

मैं दोनों, मुखौटे और सच से
मुखातिब होना चाहता हूं ।
कहीं ऐसा न हो जाए कभी ।
दोनों के अभाव में,
कि कर न सकूं
मैं अपना अस्तित्व साबित।
बस कराहता ही नज़र आऊं !
फिर कभी अपनी परवाज़ न भर पाऊं !!

१७/०३/२००६. मूल प्रारूप।
संशोधन ३०/११/२००८.
और २४/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
हम लिखेंगे जरूर
काल के फलक पर
नित्य नूतन अनोखी पटकथाएं
खुद को संकटों में आजमाने की !


हम पढ़ेंगे जरूर
महाकाल की संवेदना में जीवित
जन जन की व्यथित करतीं
जिंदगी में लड़कर हार जाने की कथाएं।


हम करेंगे पहल और कोशिशें जरूर
जीवन के विशाल पटल पर
हारे हुए योद्धाओं ,लाचारों के  
दर्द को पढ़ पाने की,
उनके मन से भार हटाने की ।
जीवन में आगे बढ़ पाने की ।


हम जानते हैं जीवन का यह सच
कि अपना वज़न सभी उठाते हैं !
पर जो गैरों का वज़न उठा पाएं,
वही जीवन की राह सुझाते हैं !
जीवन की गुत्थी समझ पाते हैं!
जीवन में अपनी पहचान बनाते हैं!
थके हारे में उत्साह भर, आगे बढ़ाते हैं।


फिर आप , वह और मैं इसी पल
जीवन में कुछ सार्थक करने की,
जीवन की मलिनता को साफ करने की,
क़दम दर क़दम आगे बढ़ने की,
लगातार कोशिशें क्यों नहीं करते ?
जीवन के चौराहे पर असमंजस में हैं क्यों खड़े?


हम जानते हैं भली भांति ,
नहीं है भीतर कोई भ्रांति ,
हम लिखेंगे काल के फलक पर
नित्य नूतन नवीन पटकथाएं ।


हम समझेंगे इसी जीवन में संघर्ष करते
निर्बलों, शोषितो, वंचितों की व्यथाएं।
हम बनना चाहते हैं सभी का सहारा,
हम ज्ञान दान देकर, उनके भीतर आलोक जगाएंगे।
उनको जीवन की सुंदरता का अहसास कराएंगे।

हम परस्पर सहयोग करते हुए,
सब में उत्साह ,उमंग ,जोश भरते हुए,
पूरे मनोयोग से जीवन पथ पर आगे बढ़ेंगे।
कभी काली अंधेरी घटाओं से नहीं डरेंगे।
साथी, हम मरते दम तक, करते रहेंगे संघर्ष,
ताकि ढूंढ सकें कर्मठ रहकर, जीवन में उत्कर्ष सहर्ष !

०४/०१/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जब संबंध शिथिल हो चुके हैं,
अपनी गर्माहट खो चुके हैं,
तब अर्से से न मिलने मिलाने का शिकवा तक,
हो चुका होता है बेअसर,
खो चुका होता है अपने अर्थ।
ऐसे में लगता है
कि अब सब कुछ है व्यर्थ।
कैसे कहूं  ?
किस से कहूं ?
क्यों ही कहूं?
क्यों न अपने  में सिमट कर रहूं ?
क्यों धौंस पट्टी सब की सहूं ?
अच्छा रहेगा ,अब मैं
चुप रहकर
अकेलेपन का दर्द सहूं।
वक्त की हवा के संग बहूं।


कभी-कभी
अपने मन को समझाता हूं,
यदि मन जल्दी ही समझ लेता है ,
जीवन का हश्र
एकदम से ,
तो हवा में
मैं उड़ पाता हूं !
वरना पर कटे परिंदे सा होकर
पल प्रति पल
कल्पना के आकाश से ,
मतवातर नीचे गिरता जाता हूं ,
जिंदगी के कैदखाने में
दफन हो जाता हूं।


मित्र मेरे,
पर कटे परिंदे का दर्द
परवाज़  न भर पाने की वज़ह से
रह रह कर काटता है मुझे ,
अपनी साथ उड़ने के लिए
कैसे तुमसे कहूं?
इस पीड़ा को
निरंतर मैं सहता रहूं ।
मन में पीड़ा के गीत गुनगुनाता रहूं ।
रह रह कर
अपने पर कटे होने से
मिले दर्द को सहलाता रहूं।
पर कटे परिंदे के दर्द सा होकर
ताउम्र याद आता रहूं।

१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
भीतर के प्रश्न
क्या अब हो गए हैं समाप्त?  
क्या इन प्रश्नों में निहित
जिज्ञासाओं को
मिले कोई संतुष्टिप्रद उत्तर ?
क्या वे हैं अब संतुष्ट ?


कभी-कभी
उत्तर
करने लगते हैं प्रश्न !
वे हमें
करने लगते हैं
निरुत्तर!

आज
कर रहें हैं
वे प्रश्न,
' भले आदमी,
तुम कब से हो मृत?
तुमने चिंतन करना
क्यों छोड़ दिया है ?
तुम तो अमृतकुंड की
तलाश में
सृष्टि कणों के
भीतर से निकले थे।
फिर आज क्यों
रुक गए?
अपनी यात्रा पर
आगे बढ़ो, यूं ही
रुक न रहो। '
३०/११/२००८.
Nov 2024 · 49
चाँद
Joginder Singh Nov 2024
कितने चाँद
तुम
ढूंढना
चाहते हो
जीवन के
आकाश में ?
तुम रखो याद
जीने की खातिर
एक चाँद ही काफ़ी है ,
सूरज की तरह
जो मन मन्दिर के भीतर
प्रेम जगाए,
रह रह कर झाँके
जीवन कथा को बाँचे।
और साथ ही
जीवन को
ख़ुशी के मोतियों से
जड़कर
इस हद तक
बाँधे,
कोई भी
जीवन रण से
न भागे।
१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
औपचारिकता
लेती है जब
सर्प सी होकर
डस।
आदमी का
अपने आसपास पर
नहीं
चलता कोई
वश।

तुम
अनौपचारिकता को
धारण कर,
उससे
अकेले में
संवाद रचा कर,
आदमी की
समसामयिक
चुप्पी  को तोड़ो।
उसे
जिंदगी के
रोमांच से
जोड़ो ।

तुम
जोड़ो
उसे जीवन से
ताकि
वह भी
निर्मल
जल धारा सा
होकर बहे ,
नाकि
अब और अधिक
अकेला रहे
और
अजनबियत का
अज़ाब सहे।

१०/०१/२००९.
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