Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
May 2
लाभ की उत्कंठा
अपनी सीमा को लांघ कर
लोभ को उत्पन्न कर
व्यक्ति के व्यक्तित्व पर
चुपचाप करती रहती है
आघात प्रतिघात।
जैसे जैसे व्यक्ति लाभान्वित होता है ,
वैसे वैसे लालच भी बढ़ता है
और यह विवेक को भी हर लेता है।
समझिए कि व्यक्ति अक्ल से अंधा हो जाता है।
उसके भीतर अज्ञान का अंधेरा पसरता जाता है।
वह एक दिन सभ्यता का लुटेरा बन जाता है।
वह हर रंग ढंग से लाभ कमाना चाहता है।
बेशक उसे धनार्जन के लिए कुछ भी करना पड़े।
नख से शिखर तक कुत्सित , दुराचारी , अंहकारी  बनना पड़े ।
लाभ और लोभ की खातिर किसी भी हद तक शातिर बनना पड़े।
यहां तक कि अपने आप से भी लड़ना और झगड़ना पड़े।
०२/०५/२०२५.
Written by
Joginder Singh
80
   Purbita
Please log in to view and add comments on poems