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Apr 2020
थी वो अति कोमल, जैसे नाम था वैसे ही था हृदय भी कोमल

हसती थी, खिललाती थी, जैसे सुबाह की हो कोमल धूप ।

मात पिता की थी वो लाडलि, भाई बहनो की थी वो दुलारि;

उसकी सहेलियां उसे चिढा कर बुलाते थे नाजुक नार

शादी के बाद बदल गया सब कुछ;  ससुरालमें उसपर छुटतेथे तीर अपार;

ससुराल आते ही, रहने लगी वो बुझी बुझी, उदास और बेकरार

कोमल दिल, कोमल काया, और मन भी था अति कोमल जो हो जाता था घायल ।

वाग बाण सुनकर, कोमल के  कोमल हृदय पे लगते थे घाव, जैसे तिक्क्षण तीर  ।

लगती थी नाज़ुक जिगर पे ठेस, पर चुप चाप सेहति रही वो पीड़ ।

मानों कोई नहीं था उसका  भले थी आजू-बाजू स्नेही जनों की भीड़

टुटे सपने, टूटी पायल, कोमल होती रही वाग बाणो से घायल

कब तक जारी रहेगा यह सिल सिला, कब तक ! कब तक ! कब तक !

खुद ही बडबडायि, जब तक है श्वाष तब तक, तब तक, तब तक !

Armin Dutia Motashaw
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