"चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात," सचमे, बड़ी सच निकली यह बात । चांद आया था, लेके तारों की बारात, पर, आया न कुछ भी उस बिचारे के हाथ । उसकी दुल्हन, आयी न उसके साथ थामा न प्रिये ने प्रीतम का हाथ ; होके निराश, लौट आई बारात । प्यार ने फिर एक बार, खाई मात । हे विधाता समझ में आती नहीं यह बात; क्यों होता है यह, बिचारे प्रेमीओ के साथ ? हंसिल होता नहीं प्यार, लग जाता है आघात । पूनम की आश में उसने फैलाए थे दोनों हाथ, क्यों छा जाती है जीवन में अमावस की काली रात ?