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Armin Dutia Motashaw
Poems
Jan 2019
वतन हमारा
वतन हमारा
हमारे घर से फेंक दिया बाहर हमें;
सोचो जरा, हम कैसे माफ करें तुम्हे ।
खुद बन बैठे मेजबान; और फिरते हैं हम बनके बेघर, आवारा,
छोड़ कर वह जन्नत, था जो हमे, हमारे जान जीतना प्यारा ।
आप खुश हो के मना रहे हो, आपकी जीत;
और बच्चे हमारे, अपनी संस्कृति से है वंचित ।
जन्नत जैसा घर था हमारा, नैसर्गिक और बहुत प्यारा ।
आज तरस रहे हैं हम, लौटने के लिए वहां, दो बारा ।
हमारी स्थिति पे रो रहे हैं हम, पर आति नहीं तुम्हे दया ।
धरती हमारी छीनके, अब बनाओगे तुम यहां तुम्हारा आशिया ।
भूलना मत, यह माता है हमारी, कभी न बना पाओगे उसे तुम्हारी ।
भूलना नहीं, यह माता हमारी, है हमें, हमारे जान से भी प्यारी ।
उसकी चाह में, उसकी याद में, हम आज है बेकरार;
भले आज रोते हैं हम ज़ार ज़ार, लेे के रहेंगे हम उसे, फिर से एक बार ।
Armin Dutia Motashaw
Written by
Armin Dutia Motashaw
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