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यह ठीक नहीं कि
बदले माहौल में ,
हम पाला बदल कर
कर दें आत्म समर्पण ,
यह तो कायरता है।
अपना पक्ष जरूर साफ़ करें ,
पर खुद को दिग्भ्रमित न करें।

बिना वज़ह का विरोध ठीक नहीं,
अच्छा रहेगा कि हम खुद में सुधार करें।
अपनी दशा और दिशा को
अपने स्वार्थों से ऊपर उठाकर
निज की जीवन शैली को समय रहते
परिवर्तित कर और प्रतिस्पर्धी बनकर
स्वयं को परिष्कृत करें,
जीवन में ज़्यादा देर न रुके रहकर  
जीवन पथ पर अपनी संवेदना को बढ़ाकर
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करें।
हम अहंकार और दुराग्रह से पोषित होकर
जीवन की शुचिता का कभी तिरस्कार न करें ।
हम जीवन की शिक्षा को भीतर तक आत्मसात करें।
०१/०१/२०२५.
To know more about ourselves and surroundings
is our collective responsibility
because there is always a scope to explore our hidden capabilities in life
properly .
So that we can feel the presence of positivity and prosperity in our life style.
For this noble purpose in life ,
utalise your knowledge positively and properly.
So that life can never seems to us ugly and unhealthy.
आजकल देश दुनिया में
जितनी समस्याएं
संकट बनकर चुनौतियां दे रहीं हैं
उसके अनुपात में
विकल्प ढूंढ़ने के लिए
संकल्पना का होना अपरिहार्य है।
इससे कम न अधिक स्वीकार्य है।
हम सबके संकल्प
होने चाहिएं दृढ़ता का आधार लिए
ताकि संतुलित जीवन दृष्टि
हमें सतत् आगे बढ़ाने के लिए
पुरज़ोर प्रोत्साहित करती रहे।
समाज में वैषम्य किसी हद तक
कम किया जा सके।
समस्त बंधु बांधवों में
नई ऊर्जा और उत्साह से निर्मित
उमंग तरंग और चेतना जगाकर
देश दुनिया व समाज को
नित्य नूतन नवीन रास्ते पर
चलने , आगे बढ़ने के लिए
निरंतर प्रयास किए जा सकें।
सबके लिए
संभावना के द्वार खोले जा सकें।
सभी बंधुओं को
जड़ों से जोड़कर
उनका जीवन पथ प्रशस्त किया जा ‌सके।
उनके मन-मस्तिष्क के
भीतर उजास जगाया जा सके।
उन्हें उदास होने से बचाया जा सके।
आज सभी को खोजने होंगे
जीवन में आगे बढ़ने के निमित्त
नित्य नूतन विकल्प,
वह भी दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ
ताकि सभी जीवन में जूझ सकें।
अपने भीतर मनुष्योचित
सूझबूझ और पुरुषार्थ उत्पन्न कर सकें।
जीवन में सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
०१/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन किसी को
कभी भीख में
नहीं मिला,
यही रही है
मेरे सम्मुख
बीते पलों की सीख।
अब जो
समय
गुजारना है,
उसमें अपने आप को
संभालना है,
बीते पलों से सीख लेकर
खुद को
अब निखारना है।
आने वाला कल बेशक अनिश्चित है
पर कभी तो अपने भीतर
पड़ेगा झांकना ,
यह करना पड़ेगा अब
हम सब को सुनिश्चित ,
ताकि तलाश सकें सब
भविष्य में सुरक्षित जीवन धारा के
आगमन की मंगलमयी
संभावना को,
तजकर भीतर सुप्तावस्था में पड़ीं
समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त
दुर्भावनाओं को।

आओ हम सब अपनी मौलिकता को
बरकरार रखकर जोड़ें ,
जीवन को, आमूल चूल परिवर्तन की
अपरिहार्य हवाओं से ,
अतीतोन्मुखी जड़ों से ,
ताकि हम सब मिलकर इस जीवन में
अभिन्नता सिद्ध कर सकें
परम्परा और आधुनिकता के समावेश की।
अंतर्ध्वनियां सुन सकें,
अपने बाहर और भीतर व्यापे परिवेश की।
०१/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
इस संसार में
आपको कुछ लोग
ऐसे मिलेंगे
जो कहेंगे कुछ ,
करेंगे कुछ और !
ऐसे ही लोग
जीवन को अपनी कथनी
और करनी में अंतर कर
बना देते हैं पूर्णतः तुच्छ।
उनकी बातों से लगेगा,
जीवन होना चाहिए
साफ़ सुथरा और स्वच्छ।
असल में स्वर्ग से भी अनुपम
यह जीव जगत और जीवन
बन गया है इस वज़ह से नर्क।
दोहरेपन और दोगलेपन ने ही
चहुं ओर सबका कर दिया है बेड़ा ग़र्क।
आज संबंध शिथिल पड़ गए हैं।
लगता है कि सब
इस स्थिति से थक गए हैं।
यह जीवन का वैचारिक मतभेद ही है,
जिसने जीवन में मनभेद
भीतर तक भर दिया है।
आदमी को बेबसी का दंश दिया है।
उसका दंभ कहीं गहरे तक
चूर चूर कर, चकनाचूर  कर दिया है।
इस सब ने मिलकर मनों में कड़वाहट भर दी है।
जीवन की राह में कांटों को  बिखेरकर
ज़िन्दगी जीना , दुश्वारियों से जूझने जैसी ,
दुष्कर और चुनौतीपूर्ण कर दी है।
ऐसी मनोदशा ने आदमी को
किंकर्तव्यविमूढ़ और अन्यमनस्क बना दिया है।
उसे दोहरी जिंदगी जीने और जिम्मेदारी ने विवश किया है।
जीवन विपर्यय ने आज आदमी की
आकांक्षाओं और स्वप्नों को तहस नहस व ध्वस्त किया है।
३१/१२/२०२४.
जूझने
Dec 2024 · 82
Improvement
Joginder Singh Dec 2024
Arrival of new year
demands always clarity of the mind .
We promise it with an oath of sincerity
and often tries to executive our resolutions in the life .
Till the last day of the previous year,
we collect a lot of dust in our minds
regarding the cleanliness in daily routine of the life.
We always required a lot of improvement to stablise the values in every sector of life.
Dec 2024 · 87
Struggler
Joginder Singh Dec 2024
A struggler
lives a life of layman
who is very sensitive.
He seldom morally dies
even in hard times,
his painful cries
can be rarely heard
here and there
during constantly wandering in
the journey of life.
He remains a pain absorber
through out his life.
Dec 2024 · 81
Passionate Life
Joginder Singh Dec 2024
Only  passionate life
Can survive on earth ,
it has  too some extent  
worth and
a meaningful existence.
Joginder Singh Dec 2024
किसी भी तरह से
किसी किताब पर
लगना नहीं चाहिए
कोई भी प्रतिबंध।
यह सीधे सीधे
व्यक्तिगत आज़ादी पर रोक लगाना है।
बल्कि किताब तो समय के काले दौर को
आईना दिखाना भर है।
यह जरूरी नहीं कि हर कोई
प्रतिबंधित किताब को पढ़ेगा।
कोई जिज्ञासा के वशीभूत होकर इसे पढ़ेगा।
जिज्ञासू कभी नियंत्रण से बाहर नहीं जाएगा।
हां, वह कितना ही अच्छा या फिर बुरा हो,
वह देश ,समाज और दुनिया भर के खिलाफ़
अपनी टिप्पणी का इन्दराज करने से बचना चाहेगा।
कोई किसी के बहकावे और उकसावे में आकर
क्यों अपनी ज़िन्दगी को उलझाएगा ?
अपने शांत और तनाव मुक्त जीवन में आग लगाना चाहेगा।
प्रतिबंधित किताब को पढ़ने की आज़ादी सब को दो।
आदमी के विवेक और अस्मिता पर कभी तो भरोसा करो।
आदमी कभी भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह अपना घर-बार छोड़कर आत्मघाती कदम उठा ले।
यदि कोई ऐसा दुस्साहस करे
तो उसे कोई क्या समझा ले ?
ऐसे आदमी को यमराज अपनी शरण में बुला ले।
३१/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं ?
मन की ऊहापोह
तुम से !

सोचता हूं ,
आदमी ने
सदियों का दर्द
पल भर में सह लिया।
प्यार की बरसात में
जी भरकर नहा लिया।

कैसे कहूं ?
कैसे सहूं ?
मन के भीतर व्याप्त
अंतर्द्वंद्व
अब
तुम से!
तुम्हें देख देख
मन मैंने अपना
बहला लिया।
मन की खुशियों को
फूलों की खुशबू में
कुदरत ने समा लिया।
भ्रमरों के संग भ्रमण कर
जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य
अपने आप को
कुछ हदतक भरमा लिया।

कैसे न कहूं ?
तुम्हें यादों में बसा कर
मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से
संवेदना के लम्हों को पा लिया।
अपने होने का अहसास
लुका छिपी का खेल खेलते हुए,
उगते सूरज...!
उठते धूएं...!
उड़ते बादल सा होकर
मन के अन्दर जगा लिया।
कुछ खोया था
अर्से पहले मैंने
उसे आज अनायास पा लिया!
इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!

कैसे कहूं ?
संवेदना बिन कैसे जीऊं ?
आज यह अपना सच किस से कहूं ??
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
वैसे तो चेहरा
अपने आप में
होता है आदमी की पहचान।
पर चेहरा विहीन दुनिया के
मायाजाल में उलझते हुए ,
आज का आदमी है
इस हद तक चाहवान
कि मिले उसे इसी जीवन में
उसकी अपनी खोई हुई पहचान।

जब मन में व्याप्त हो जाएं
अमन के रंग और ढंग,
तब तन की पहचान
चेहरा क्यों रहना चाहेगा बदरंग ?
यह प्रेम के रंग में रंगा हुआ
क्यों नहीं इन्द्रधनुष सरीखा होना चाहेगा ?
वह कैसे नहीं ?
स्वाभाविक तौर पर
प्रियतम की स्वप्निल
उपस्थिति को
इसी लौकिक जीवन में
साकार करते हुए,
तन और मन से
प्रफुल्लित होकर,
नाच नाच कर
अपनी दीवानगी को
अभिव्यक्त करना चाहेगा !
वह खुद को पाक-साफ रखने का
कारण बनना चाहेगा !!
कोई उसे
इसे सिद्ध करने का
मौका तो दे दे,
और धोखा तो कतई न दे।
तभी चेहरा अपनी चिर आकांक्षित
पहचान को खोज पाएगा।
क्या स्वार्थ का पुतला बना
आज का आदमी इसे समझ पाएगा ?
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
यह ठीक है कि
फूल आकर्षक हैं और
डालियों पर
खिले हुए ही
सुंदर , मनमोहक
लगते हैं।
जब इन्हें
शाखा प्रशाखा से
अलग करने का
किया जाता है प्रयास
तब ये जाते मुर्झा व कुम्हला।
ये धीरे-धीरे जाते मर
और धूल धूसरित अवस्था में
बिखरकर
इनकी सुगन्ध होती खत्म।
इनका डाल से टूटना
दे देता संवेदना को रिसता हुआ ज़ख्म।
कौन रखेगा इन के ज़ख्मों पर मरहम ?

बंधुवर, इन्हें तुम छेड़ो ही मत।
इन्हें दूर रहकर ही निहारो।
इनसे प्रसन्नता और सुगंधित क्षण लेकर
अपने जीवन को भीतर तक संवारो।
अपनी सुप्त संवेदना को अब उभारो।

ऐसा होने पर
तुम्हारा चेहरा खिल उठेगा
और आकर्षण अनायास बढ़ जाएगा।
जीवन का उद्यान
बिखरने और उजड़ने से बच जाएगा।
यह जीवन तुम्हें पल प्रति पल
चमत्कृत कर पाएगा।

यह सच है कि
फूल सुंदरता के पर्याय हैं।
ये पर्यावरण को संभालने और संवारने का
देते रहते हैं मतवातर संदेश।
मगर तुम्हारे चाहने तक ही
वरना हर कोई इन्हें
तोड़ना चाहता है,
जीवन को झकझोरना चाहता है ,
अतः अब से तुम सब
फूलों को डालियों पर खिलने दो !
उन्हें अपने वजूद की सुगन्ध बिखेरने दो !!
इतने भी स्वार्थी न बनो कि
कुदरत हम सब से नाराज़ हो जाए ।
हमारे आसपास प्रलय का तांडव होता नज़र आए ।

११/०१/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
मन के भीतर
             हद से अधिक
यदि होने लगे कभी कभार उथल पुथल
तो कैसे नहीं हो जाएगा आदमी शिथिल ?
यकीनन वह महसूस करेगा खुद को निर्बल।
              मन के भीतर
              सोए हुए डर
  यदि अचानक एक एक कर जागने लगें ,
कैसे नहीं आदमी थोड़ा चलते ही लगे हांफने ?
यकीनन वह खुद को बेकाबू कर लगेगा कांपने।

              मन के भीतर
              बसा है संसार
जो समय बीतने के साथ बनाता सबको अक्लमंद।
यह उतार चढ़ाव भरी राहों से गुजारकर करता निर्द्वंद्व।
इस संसार की अनुभूतियों से सम्बन्ध होते रहते दृढ़।
               मन के भीतर
               बढ़े जब द्वंद्व
अंत समय को झट से ,अचानक अपने नज़दीक देख ।
आदमी जीवन से रचाना चाहता है संवेदना युक्त संवाद।
हो चुका है वह भीतर से पस्त,इसलिए रह जाता तटस्थ।
               मन के भीतर
               दुविधा न बढ़े
अन्तर्जगत अपनी आंतरिक हलचलों से निराश न करे।
बल्कि वह सकारात्मक विचारों से मन को प्रबुद्ध करे।
जीवन में डर सतत् घटें, इसके लिए मानव संयमी बने।
०९/०१/२००८.
      ‌
Joginder Singh Dec 2024
अजी  जिन्दगी  का  किस्सा  है  अजीबोगरीब,
जैसे  जैसे  दर्द  बढ़ता है , यह आती  है करीब!

दास्तान  ए  जिन्दगी  को  सुलाने  के  लिए
कितनी  साज़िशें  रची  हैं ,  है  न  रकीब !

जिन्दगी  को  जानने  की  होड़  में  लगे  हैं लोग ,
जीतते  हारते  सब  बढ़े  हैं , अपने  अपने  नसीब ।

जिन्दगी  एक  अजब  शह  है , बना  देती  फ़कीर ,
इसमें  उलझा  क्यों   हैं  ? अरे ! सुन ज़रा ऱफ़ीक़ !

यह  वह  पहेली   है  ,  जो  सुलझती  नहीं   कभी ,
खुद  को  चेताना  चाहा ,पर  जेहन  समझता  नहीं।
२१/०६/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
क्या कभी सोचा आपने
आखिर हम क्यों लड़ते हैं ?
छोटी छोटी बातों पर
लड़ने झगड़ने बिगड़ने लगते हैं ।
जिन बातों को नजर अंदाज किया जाना चाहिए ,
उनसे चिपके रहकर
तिल का ताड़ बना देते हैं।
कभी कभी राई को पहाड़ बना देते हैं।
यही नहीं बात का बतंगड़ बनाने से नहीं चूकते।
आखिर क्या हासिल करने के वास्ते
हम अच्छे भले रास्ते से
अपना ध्यान हटा कर
जीवन में भटकते हैं।
कभी कभी अकेले होकर
छुप छुप कर सिसकते हैं।

क्या पाने के लिए हम लड़ते हैं ?
लड़कर हम किससे जीतते हैं ?
उससे , इससे , या फिर स्वयं से !
आखिकार हम सब थकते , टूटते, हारते हैं ,
फिर भी जीवन भर ज़िद्दी बने भटकते रहते हैं ।

क्या हम सभी कभी समझदार होंगे भी ?
या कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ते और बहसते रहेंगे !
लोग हमें अपनी हँसी और स्वार्थपरकता का
शिकार बनाकर
हमें मूर्ख बनाने में कामयाब होते रहेंगे ।
उम्मीद है कि कभी हम
अपने को संभाल खुद के पैरों पर खड़े होंगे।
शायद तभी हमारे लड़ाई झगड़े ख़त्म होंगे।

३०/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन जितना दिखता है सरल ,
उतना ही है यह जटिल।
इसमें जीने की खातिर
चली जाती हैं चालें बड़ी कुटिलता से
ताकि जीवन धारा को सतत्
ज़ारी रखा जा सके।
इसे उपलब्धियों के साथ
आगे ही आगे बढ़ाया जा सके।

जिन्दगी की राह में
यदि अड़चनें आती हैं बार बार
तब भी आप धीरज और सब्र संतोष को
संघर्ष और सूझ बूझ से बनाए रखें।
अपने भीतर सुधार और परिष्कार की
गुंजाइश बनाते हुए
आगे बढ़ने के करते रहें प्रयास,
ताकि क़दम क़दम पर
जिन्दगी की राह हमें
उपहार स्वरूप कराती रहे
आशा और संभावना से जुड़े
समय समय पर
जीवन के सार्थक होने का अहसास।

जिंदगी की राह
मुश्किलों और दुश्वारियों से है भरी हुई,
इस पर चलते हुए
फिसले नहीं कि
सब कुछ तबाह
और नष्ट,
मिलने लगता कष्ट।

इस राह पर आगे बढ़ते हुए
हरएक को रहना चाहिए सतर्क ,
जिन्दगी को सलीके से जीने के लिए
गढ़ने ही पड़ते हैं अपने लिए अनूठे तर्क ,
इनके अभाव में हो सकती है इसकी राह गर्क।
जिन्दगी की राह को आसान करने के लिए दिन रात
करनी पड़ती है मेहनत
और तब कहीं जाकर सफलता मिल पाती है,
अन्यथा कभी कभी इस की राह में रूकावटें बढ़ जाती हैं,
और जिंदगी के तमाम उतार चढ़ावों के बावजूद
हासिल कुछ नहीं होता , आदमी हाथ मलते रह जाते हैं।
३०/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कार्टूनिस्ट
कमाल के साथ रखते हैं
प्रखर करने वाला विचार ,
यह जीवन के किसी भी क्षेत्र से
जुड़ा हो सकता है समाजोपयोगी से लेकर
राजनीतिक परिवर्तन तक।

अभी अभी
एक कार्टून ने
मेरे दिमाग से पूर्वाग्रह और दुराग्रह का
कचरा व कूड़ा कर्कट
कर दिया है साफ़ !

मुझे आम आदमी की
बेवजह से की गई
जद्दोजहद और कश्मकश
और
समान हालात में
नेतृत्वकर्ता के
लिए गये फैसले का बोध
कार्टून के माध्यम से
क्रिस्टल क्लियर हद तक
हुआ है स्पष्ट।

पशु को आगे बढ़ाने की
कोशिश में
आम आदमी ने
पशु को मारा , पीटा और लताड़ा ,
जबकि
नेतृत्वकर्ता ने
उसे चारे का लालच देकर ,
उसके सामने खाद्य सामग्री लटकाकर ,
उसे आगे बढ़ने के लिए
बड़ी आसानी से किया प्रोत्साहित।

इस एक कार्टून को देखकर
मुझे एक व्यंग्य चित्र का
आया था ध्यान ,
जो था कुछ इस प्रकार का, कि
भैंस को सूखा चारा खिलाने के निमित्त
ताकि कि उसका लग सके खाने में चित्त ।
भैंस की आंखों पर ,
हरे शीशों वाला चश्मा लगाया गया था।
इस चित्र और आज देखे कार्टून ने
मुझे इतना समझा दिया है कि
कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती ,
उसे हल करने की युक्ति
आदमी के मन मस्तिष्क में होनी चाहिए।

अब अचानक मुझे
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में
सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष द्वारा
जनसाधारण से
मुफ़्त की रेवड़ियां बांटने ,
लोक लुभावन नीतियों की बाबत
अथक प्रयास करने का सच
सहज ही समझ आ गया।
दोनों पक्षों का यह मानना है कि
हम करेंगे
अपने मतदाताओं से
मुफ़्त में
सुखसुविधा और "विटामिन एम " देने का वायदा !
ताकि मिल सके जीवन में सबको हलवा मांडा ज़्यादा !!
२९/१२/२०२४.
Dec 2024 · 59
राजनीति
Joginder Singh Dec 2024
उन्हें शिकवा शिक़ायत है कि आजकल
राजनीति गन्दगी भरपूर होती जा रही है।
मुझे उनका यह मलाल सही लगता है मगर
जेहन में कौंधता है एक ख्याल
जो उठाता रहा है भीतर मेरे बवाल और सवाल।

राजनीति किस कालखंड में शुचिता से जुड़ी रही?
क्या यह आजतक छल बल कपट प्रपंच की बांदी नहीं रही?
राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी  
भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िए रहे हैं,
जो जीवन के सच को आम आदमी की निस्बत
अच्छे से समझते हैं
और वे सलीके से
देश दुनिया को शतरंज की बिसात बनाकर
अपना अद्भुत खेल खेलते हैं,
शह और मात से
निर्लिप्त रहकर अपनी मौजूदगी का अहसास
निरंतर करवाते हैं ,
देश दुनिया को अपना रसूख और असर
दिखाते रहते हैं।
आज आदमी की अस्मिता
राजनीति की दिशा और दशा से
बहुत करीब से जुड़ी हुई है।
हमारे भविष्य की उज्ज्वल संभावना
राजनीतिक परिदृश्य से बंधी हुई है।
यही नहीं
तृतीय विश्व युद्ध तक का आगमन
और विकास के समानांतर विनाश का होना
जैसे वांछित अवांछित घटनाक्रम
राजनीतिक हलचलों से जुड़े हुए हैं ,
जिससे राजा और रंक सब बंधे हुए हैं ,
भले ही वे भला करने के लिए कसमसाते रहते हैं।
राजनीति और राज्यनीति को जोड़े बग़ैर
देश दुनिया में सकारात्मक सोच का लाना असंभव है।
यह जीवन में राजनीतिक हस्तक्षेप करने का दौर है,
भले ही यह सब किसी को अच्छा न लगे।
यहां राजनीति के मैदान में कोई नहीं होते अपने और सगे।
२९/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
देश दुनिया में से
ग़रीबी
तब तक
नहीं हटेगी ,
जब तक
खुद मुफलिसी से
जूझने वाले
नहीं चाहेंगे ।
वे अपने भीतर
इससे लड़ने का साहस नहीं
जुटायेंगे ।
तभी देश दुनिया
ग़रीबी उन्मूलन अभियान
चला पायेंगे।
वैसे हमारे समय का
कड़वा सच है कि
यदि देश दुनिया में ग़रीबी न रहेगी
तो बहुत से
तथाकथित सभ्य समाजों में
खलबली मच जाएगी ,
उनकी तमाम गतिविधियों पर
रोक लग जाएगी।
सच कहूं तो
दुनिया
जो सरहदों में बंटी हुई है
वह एकीकृत होती नज़र आयेगी।
सब लोगों में
आत्मिक विकास एवं आंतरिक शांति की
ललक बढ़ जाएगी।
देश दुनिया सुख समृद्धि संपन्नता सौहार्दपूर्ण माहौल में
अपने को जागृत करती हुई नजर आएंगी।
ज़ंग की चाहत और आकांक्षा पर
पूर्ण रूपेण रोक लग जाएगी।
यह असम्भव दिवास्वप्न नहीं,
इस ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में
सभी एक एक करके बढ़ें तो सही।
२९/१२/२०२४.
Dec 2024 · 69
आजकल
Joginder Singh Dec 2024
अब
सबसे ख़तरनाक आदमी
सच बोलने वाला
हो गया है
और
झूठ का दामन
पकड़कर
आगे बढ़ने वाला
आदर्श
हो गया है।

क्या करें लो
आजकल
ज़मीर
कहीं भागकर
गहरी नींद में
सो गया है
और
सच्चा
झूठों की भीड़ में
खो गया है।

आजकल
सच्चा मानुष
अपने भीतर
मतवातर
डर भरता
रहता है ,
जबकि
झुके मानुष की
सोहबत से
सुख मिलता है।

आजकल
भले ही
आदमी को
अपने साथी की
हकीकत
अच्छे से
पता हो ,
उसके जीवन में
पास रहने से
सुरक्षित होने का
आश्वासन भरा
अहसास
बना रहता है।

बेशक
जीवन मतवातर
समय की चक्की में
पिसता सा लगे
और
आदमी सबकी
निगाहों से
खुद को छुपाते हुए
अंदर ही अंदर
सिसकियां भरता रहे ,
वह चाहकर भी
झूठे का दामन
कभी छोड़ेगा नहीं!
जीवन का पल्लू
कभी झाड़ेगा नहीं!
वह उसे बीच
मझधार
छोड़कर
कभी भागेगा नहीं!

आजकल
यही अहसास बहुत है
जीवन को अच्छे से
जीने के लिए।
कभी-कभी पीने,
खुलकर हंसने के लिए।
बेशक हरेक हंसी के बाद
खुद को ठगने का अहसास
चेतना पर हावी हो जाए।
फलत:
आजकल
आदमी सतत्
झूठे के संग
घिसटता रहता है!
उसके जीवन से
चुपके चुपके से
सच का आधार
खिसकता रहता है!!
वह जीवन में
उत्तरोत्तर अकेला
पड़ता जाता है।
आजकल हर कोई
सच्चे को तिरस्कृत कर
झूठे से प्रीत रचाना
चाहता है क्योंकि जीवन
भावनाओं में बहकर
कब ढंग से चलता है ?
स्वार्थ का वृक्ष ही
अब ज़्यादा फलता-फूलता है।
आदमी आजकल
अल्पकालिक लाभ
अधिक देखता है,
भले ही बहुत जल्दी
जीवन में पछताना पड़े।
सबसे अपना मुंह छिपाना पड़े।
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
आदमी के विवेक का मर जाना ,
बात बात पर उसके द्वारा बहाने बनाना ,
सारी हदें पार करते हुए
अनैतिकता का बिगुल बजाना
क्या आदमी को है शोभता ?
इससे तो अच्छा है वह
शर्म महसूस करे ।
इधर उधर बेशर्मी से कहकहे न लगाता फिरे ।
जीवन धारा में बहते हुए
आदमी का सारी हदें पार कर जाना
रहा है उसका शुगल पुराना।
इसे अच्छे से समझता है यह ज़माना ।


कितना अच्छा हो ,
आदमी नैतिक मूल्यों के साथ खड़ा हो ।

नैतिकता के पथ पर
मतवातर
आदमी चलने का
सदा चाहवान रहे ।
वह जीवन पथ पर
चलते हुए सदैव
नैतिकता का आधार निर्मित करे।

नैतिक जीवन को अपनाकर
नीति चरित्र को श्रृंगार पाती है ।
अनैतिक आचरण करना
यह आज के प्रखर मानुष को
कतई शोभता नहीं है।
फिर भी उसे कोई शुभ चिंतक और सहृदय
रोकता क्यों नहीं है ?
इसके लिए भी साहस चाहिए ।
जो किसी के पास नहीं ,
बेशक धन बल और बाहुबल भले पास हो ,
पर यदि पास स्वाभिमान नहीं ,
तो जीवन में संचित सब कुछ व्यर्थ !
पता नहीं कब बना पाएगा आदमी स्वयं को समर्थ ?

यह सब आदमी के ज़मीर के
सो जाने से होता है घटित ।
इस असहज अवस्था में
सब अट्टहास लगा सकते हैं ।
वे जीवन को विद्रूप बना सकते हैं।
सब  ठहाके लगा सकते हैं,
पर नहीं सकते भूल से भी रो।
सब को यह पढ़ाया गया है ,
गहरे तक यह अहसास कराया गया है ,
...कि रोना बुजदिली है ,
और इस अहसास ने
उन्हें भीगी बिल्ली बना कर रख दिया है।
ऊपर ऊपर से वे शेर नज़र आते हैं,
भीतर तक वे घबराए हुए हैं।
इसके साथ ही भीतर तक
वे स्व निर्मित भ्रम और कुहासे से घिरे हैं ।
उनके जीवन में अस्पष्टता घर कर गई है।

आज ज़माने भर को , है भली भांति विदित
इन्सान और खुद की बुजदिली की बाबत !
इसलिए वे सब मिलकर उड़ाते हैं
अच्छों अच्छों का उपहास।
एक सच के खिलाफ़ बुनी साज़िश के तहत ।
उन्हें अपने बुजदिल होने का है क़दम क़दम पर अहसास।
फिर कैसे न उड़ाएं ?
...अच्छे ही नहीं बुरे और अपनो तक का उपहास।
वे हंसते हंसते, हंसाते हंसाते,समय को काट रहे हैं।
समय उन्हें धीरे धीरे निरर्थकता के अहसास से मार रहा है।
वे इस सच को देखते हैं, महसूस करते हैं,
मगर कहेंगे कुछ नहीं।
यार मार करने के तजुर्बे ने
उन्हें काइयां और चालाक बना दिया है।
बुजदिली के अहसास के साथ जीना सीखा दिया है।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
बहस
एक बिना ब्रेक की
गाड़ी है ,
यदि यह नियंत्रण से
कभी अचानक
हो जाए बाहर
तो दुर्घटना निश्चित है।
यह निश्चिंत जीवन में
अनिश्चितता का कर देती संचार।
यह संसार तक
लगने लगता सारहीन और व्यर्थ।

बहस
जीवन के प्रवाह को
कर देती है बाधित।
यह इन्सान को
घर व परिवार और समाज के
मोर्चे पर कर देती है तबाह।
अतः इस निगोड़ी
बहस से बचना
बेहद ज़रूरी है ,
इससे जीवन की सुरक्षार्थ
दूरी बनाए रखना
अपरिहार्य है।
क्या यह आज के तनाव भरे जीवन में
सभी को स्वीकार्य है ?
बहस कहीं गहरे तक करती है मार।
इससे बचना स्व विवेक पर निर्भर करता है।
वैसे यह सोलह आने सच है कि
समझदार मानुष इसमें उलझने से बचता है।
२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कहीं सुदूर खिला है पलाश।
कहे है सब से अपनी संभावना तलाश।
रह रह कर दे रहा हो यह सन्देश!
अपनी जड़ों से जुड़ ,जीवन में आगे बढ़!
हो सकता है कि
छोटे शहरों, कस्बों, गांवों में
बड़े दिल वाले,
उदार मानसिकता वाले
मानुष बसेरा करते हों
जो संभावना के स्वागतार्थ
सदैव रहते हों तत्पर।
वे हमेशा मुस्कान बनाए रखते हों,
और सार्थक जीवनचर्या से जुड़े हों।

यह भी संभव है कि
बड़े शहरों,कस्बों और गांवों में तंगदिल,
संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त मानुष हों,
जो स्वयं से
संभावना के आगमन को परे
धकेलते हुए
भीतर तक
जड़ता के अंदर धंसे हों।

अच्छा रहेगा कि
हम सब का जीवन
सकारात्मक सोच से
संचालित होता रहे।
हमारा इर्द गिर्द और परिवेश
सर्वस्व को
सुख सुविधा, समृद्धि और संपन्नता से
जुड़े रहकर ही आह्लादित हो!
जबकि हम व्यर्थ की भाग दौड़ को
जीवन में सुख का मूल समझ कर
स्वयं को नष्ट करने पर तुले हों।
जीवन को जटिल बना रहे हों।
खुद को थका रहे हों
और किसी हद तक
संभावना के आगमन को
अपने जीवन से मतवातर दूर करते हुए
हाशिए से बाहर धकेले जा रहे हों।

आओ हम सब इस
अराजकता के दौर में
अपना ठौर ठिकाना संभालें।
अपनी अपनी संभावना को तलाशें!
कुछ हद तक निज के जीवन को तराशें!!
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कितना अच्छा हो
आदमी सदैव सच्चा बना रहे
वह जीवन में
अपने आदर्श के अनुरूप
स्वयं को उतार चढ़ाव के बीच ढालता रहे।

कितना अच्छा हो
अगर आदमी
अपना जीवन
सत्य और अहिंसा का
अनुसरण करता हुआ
जीवन जिंदादिली से गुजार पाए ,
अपनी चेतना को
शुचिता सम्पन्न बनाकर
दिव्यता के पथ प्रदर्शक के
रूप में बदल पाए।

कितना अच्छा हो
आदमी का चरित्र
जीवन जीने के साथ साथ
उत्तरोत्तर निखरता जाए।
पर आदमी तो आदमी ठहरा ,
उसमें गुण अवगुण ,
अच्छाई और बुराई का होना,
उतार चढ़ाव का आना
एकदम स्वाभाविक है,
बस अस्वाभाविक है तो
उसके प्रियजनों द्वारा सताया जाना ,
उसके चरित्र को कुरेदते रहना ,
हर पल इस ताक में रहना कि कभी तो
उसकी कमियां और कमजोरियां पता चलें
फिर कैसे नहीं उसे पटखनी दे देते ?
...और खोल देते सब के सामने उसकी जीवन की बही।

कितना अच्छा हो
आदमी की चाहतें पूरी होतीं रहें ,
उसे स्वार्थी परिवारजनों और मित्र मंडली की
आवश्यकता कभी नहीं रहे ,
बल्कि उसका जीवन
समय के प्रवाह के साथ साथ बहता रहे।

आदमी का चरित्र उत्तरोत्तर निखरे ,
ताकि स्वप्नों का इंद्रधनुष कभी न बिखरे ।
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
अब
सच का सामना
करने से
लोग कतराते हैं।

सच के
सम्मुख पहुँच कर
उनके पर
जो कतरे जाते हैं।

अच्छे
खासे इज़्ज़तदर
बेपर्दा हो जाते हैं,
इसलिए
हम बहुधा
सच सुनकर
सकपका जाते हैं,
एक दूसरे की
बगलें झांकने लग जाते हैं।

बेशक
हम इतने भी
बेशर्म नहीं हैं,
कि जीवन भर
चिकने घड़े बने रहें।
हम भीतर ही भीतर
मतवातर कराहते रहें।

हमें
विदित है
भली भांति कि
कभी न कभी
सभी को
सच का सामना
करना ही पड़ेगा ,
तभी जीवन
स्वाभाविक गति से
गंतव्य पथ पर
आगे बढ़ पाएगा।
जीवन सुख से भरपूर हो जाएगा।
२८/१२/२०२४.
Dec 2024 · 62
अब तक
Joginder Singh Dec 2024
बस हमने अब तक
जीवन में विवाद ही किया है ,
ढंग से अपना जीवन कहां जिया है ?
यह अच्छा है और वह बुरा है !
छोटी-छोटी बातों पर ही ध्यान देकर
खूब हल्ला गुल्ला करते हुए
जीवन में व्यर्थ ही शोरगुल किया है।
समय आ गया है कि हम परस्पर सहयोग करते हुए
अपनी समझ को सतत् बढ़ाएं ।
जीवन धारा में निरुद्देश्य न बहे जाएं ,
बल्कि समय रहते अपने समस्त विवाद सुलझाएं।
आओ आज हम सब मिलकर जीवन से संवाद रचाएं।

अब तक बेशक हम अपने अपने दायरे में सिमटे हुए ,
एक बंधनों से बंधा , पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से जकड़ा , जीवन जीने को ही मान रहे थे , जीवन यापन का तरीका।
इस जड़ता ने हम सबको कहीं का नहीं है छोड़ा।

अर्से से हम भटक रहे हैं, उठा-पटक करते हुए ,
करते रहे हैं सामाजिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट अब तक।

आओ हम सब स्वयं पर अंकुश लगाएं।
समस्त विवादों को छोड़, परस्पर  संवाद रचाएं।
जीवन धारा में  कर्मठता का समावेश करते हुए ‌,
स्वयं को सार्थक जीवन की गरिमा का अहसास कराएं।
२७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
मुफलिसी के दौर में
ज़िंदगी को
हंसते हंसते हुए जीना
हरदम मुस्कुराते रहना
छोटी छोटी बातों पर
खिलखिलाते हुए
मन को बहलाना
चौड़ा कर देता है सीना ।
ऐसे संघर्षों में
सकारात्मकता के साथ
जीवन को सार्थक दिशा में
आगे ही आगे बढ़ाना
जिजीविषा को दिखाता है।

आदमी का
उधड़ी पतलून को
सीकर पहनना,
फटी कमीज़ में
समय को काट लेना ,
मांग मांगकर
अपना पेट भर लेना,
मजदूरी मिले तो चंद दिनों के लिए
खुशी खुशी दिहाड़ियों को करना,
लैंप पोस्ट की रोशनी में
इधर-उधर से रद्दी हो चुके
अख़बार के पन्नों को जिज्ञासा से पढ़ना ,
उसके भीतर व्यापी जिजीविषा को दर्शाता है।

फिर क्यों अख़बार में
कभी कभी
आदमी के आत्मघात करने,
हत्या, लूटपाट, चोरी, बलात्कारी बनने
जैसी नकारात्मक खबरें
पढ़ने को मिलती हैं ?

आओ ,
आज हम अपने भीतर झांक कर
स्वयं और आसपास के हालात का
करें विश्लेषण
ताकि जीवन में
नकारात्मकता को
रोका जा सके,
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक
पहुंचाया जा सके,
उसे सकारात्मक सोच से जोड़कर
आगे बढ़ने को आतुर
मानवीय जिजीविषा से सज्जित किया जा सके।
यह जीवन प्राकृतिक रूप से गतिमान रह सकें ,
इसे अराजकता के दंश से बचाया जा सके।
२६/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
स्वेच्छा से
किया गया कर्म
हमें कर्मठ बनाकर
धर्म की अनुभूति
कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमारे जीवन के भीतर
ऊब और उदासीनता
पैदा कर
हमारी सोच को
बोझिल व थकाऊ
बनाकर भटकने के लिए
बाध्य करता है।

स्वेच्छा से
किया गया कार्य
हमें शुचिता के मार्ग का
अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित
करता है और यह हमें
जीवन पथ पर
उत्तरोत्तर
स्वच्छ मानसिकता का
धारणी बनाता है ,
हमें पवित्रता की निरंतर
अनुभूति कराता है ,
अन्यथा
जबरन थोपा गया कार्य
हमें अस्वाभाविकता का दंश देकर
पलायनवादी और महत्वाकांक्षी सोच
अपनाने को बाध्य कर
रसविहीन और हृदयहीनता को
बनाए रखता है।

आओ
आज
हम स्वाभाविकता को चुनें
ताकि जीवन में
कभी परेशान होकर
हताशा और निराशा में जकड़े जाकर
अपना सिर न धुनें ।
हम सदैव अपनी अन्तश्चेतना की ही सुनें।
अपनी अंतर्दृष्टि को
प्रखर करते हुए
जीवन पथ पर आगे बढ़ें।
हम सदैव कर्मठता का ही वरण करें।
२५/१२/२०२४.
Dec 2024 · 75
मन पर भार
Joginder Singh Dec 2024
कुछ ग़लत होने पर
हर कोई
और सब कुछ
शक एवं संदेह के
घेरे में आता है।
यहां तक कि जीवन में
बेशुमार रुकावटें
उत्पन्न होना शुरू हो जाती हैं।
इससे न केवल मन का करार
खत्म होता है
और
जीवन टूटने के कगार पर
पहुंच जाता है
बल्कि
धीरे-धीरे
जीने की उमंग तरंग भी
जीवन में मोहभंग व तनाव से
निस्सृत बीज के तले
दबने और बिखरने लगती है।
आदमी की दिनचर्या में
दरारें साफ़ साफ़ दिख पड़ती हैं।
उसे अपना जीवन
फीका और नीरस
लगने लगता है।

यदि
जीवन में
कुछ ग़लत घटित हो ही जाए ,
तो आदमी को चाहिए
तत्काल
वह अपने को जागृत करें
और अपनी ग़लती को ले समय रहते सुधार।
वरना सतत् पछतावे का अहसास
मन के भीतर बढ़ा देता है अत्याधिक भार ।
आदमी परेशान होकर इधर-उधर भटकता नज़र आता है।
उसे कभी भी सुख समृद्धि ,
संपन्नता और चैन नही मिल पाता है।
२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कभी सोचा है आपने ?
यह कि शब्द
सहमत में
सहम भी छिपा है
जिसकी आड़ लेकर
लोगों ने
कभी न कभी  
परस्पर
एक दूसरे को छला है।
छल की छलनी और छलावे से
प्यार और विश्वास
बहुधा जीवन छल बल का हुआ शिकार।
कई बार
आज के खुदगर्ज इन्सान
सहम कर ही
हैं  सहमत होते।
वरना वे भरोसा तोड़ने में  
कभी देरी न करते।
Joginder Singh Dec 2024
बहस करती है मन की शांति भंग
यह मतवातर भटकाती है जीवन की ऊर्जा को
इस हद तक कि भीतर से मजबूत शख़्स भी
टूटना कर देता है शुरू और मन के दर्पण में
नज़र आने लगती हैं खरोचें और दरारें !
इसलिए कहता हूँ सब से ...
जितना हो सके, बचो बहस से ।
इससे पहले कि
बहस उत्तरोत्तर तीखी और लम्बी हो जाए ,
यह ढलती शाम के सायों सी लंबी से लंबी हो जाए ,
किसी भी तरह से बहसने से बचा जाए ,
अपनी ऊर्जा और समय को सृजन की ओर मोड़ा जाए ,
अपने भीतर जीवन के सार्थक एहसासों को भरा जाए।

इससे पहले कि
बात बढ़ जाए,
अपने क़दम पीछे खींच लो ,
प्रतिद्वंद्वी से हार मानने का अभिनय ही कर लो
ताकि असमय ही कालकवलित होने से बच पाओ।
एक संभावित दुर्घटना से स्वयं को बचा जाओ।
आप ही बताएं
भला बहस से कोई जीता है कभी
बल्कि उल्टा यह अहंकार को बढ़ा देती है
भले हमें कुछ पल यह भ्रम पालने का मौका मिले
कि मैं जीत गया, असल में आदमी हारता है,
यह एक लत सरीखी है,
एक बार बहस में
जीतने के बाद
आदमी
किसी और से बहसने का मौका
तलाशता है।
सही मायने में
यह बला है
जो एक बार देह से चिपक गई
तो इससे से पीछा छुड़ाना एकदम मुश्किल !
यह कभी कभी
अचानक अप्रत्याशित अवांछित
हादसे और घटनाक्रम की
बन जाती है वज़ह
जिससे आदमी भीतर ही भीतर
कर लेता है खुद को बीमार ।
उसकी भले आदमी की जिन्दगी हो जाती है तबाह ,
जीवन धारा रुक और भटक जाती है
जिंदादिली हो जाती मृत प्राय:
यह बन जाती है जीते जी नरक जैसी।
हमेशा तनी रहने वाली गर्दन  
झुकने को हो जाती है विवश।
हरपल बहस का सैलाब
सर्वस्व को तहस नहस कर
जिजीविषा को बहा ले जाता है।
यह मानव जीवन के सम्मुख
अंकित कर देता है प्रश्नचिह्न ?
बचो बहस से ,असमय के अज़ाब से।
बचो बहस से , इसमें बहने से
कभी कभी यह
आदमी को एकदम अप्रासंगिक बनाकर
कर देती है हाशिए से बाहर
और घर जैसे शांत व सुरक्षित ठिकाने से।
फिर कहीं मिलती नहीं कोई ठौर,
मन को टिकाने और समझाने के लिए।
Joginder Singh Dec 2024
इस बार
लगभग दो महीने तक
हुई नहीं थी बारिश
सोचा था आनेवाला मौसम पता नहीं
कैसा रहने वाला है ?
शायद सर्दियों का लुत्फ़
और क्रिसमस का जश्न फीका रहने वाला है।

परन्तु
प्रभु इच्छा
इंसान के मनमाफ़िक रही
क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर
अच्छी खासी खुशियों का आगमन लाने वाली
प्रचुर मात्रा में बर्फबारी हुई
क्रिसमस और नए साल के आगाज़ से पूर्व ही
तन,मन और जोशोखरोश से
क्रिसमस की तैयारी
सकारात्मक सोच के साथ की।

मन के भीतर रहने वाला
घर भर को खुशियों की सौगात देकर जाने वाला
सांता क्लॉस  आप सभी को खुशामदीद कहता है ,
वह आने वाले सालों में
आपकी ख्वाइशों को पूर्ण करने का अनुरोध प्रभु से करता है।
आप भी जीसस के आगमन पर्व पर
विश्व शांति और सौहार्दपूर्ण सहृदयता के लिए कीजिए
मंगल कामनाएं!
ऐसा आज आपका प्रिय भजन गाता हुआ
सांता क्लॉस चाहता है।
वह आपके जीवन के हरेक पड़ाव पर
सफलता हासिल करने का आकांक्षी है।

२५/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
वाह!
परिवर्तन की हवा
देने लगी है
हमारे जीवन में दस्तक ।
आओ , इसके स्वागत के निमित्त
हम खुद को विनम्र बनाएं।
अपने मन और मस्तिष्क के भीतर
सोच की खिड़कियों को खोलें।
स्वयं को भी लें आज टटोल।
हम चाहते क्या हैं ?
फिर बाहर भीतर तक
निष्पक्ष होकर
एक बार स्पष्ट हो लें।
ताकि यह जीवन
परिवर्तन की हवा का स्वागत
अपने विगत के अनुभवों की
रोशनी में
दिल और दिमाग को
खुले रखकर
खुले मन से कर ले।
यही बदलाव की हवा
बनेगी अशांत मनों की
रामबाण दवा।

परिवर्तन की हवा
पहुंचने वाली है
सभी सहृदय मानवों के द्वार पर
आओ हम इस के स्वागत के निमित्त
स्वयं को तैयार कर लें।
अपने मनों से पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों की
मैल को अच्छे से साफ कर लें।
अपने जीवन को तनिक समायोजित कर लें।
अपने भीतर संभावना के दीप जगा लें।
२४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
अगड़ों पिछड़ों
वंचितों शोषितों के बीच
मतभेद और मनभेद बढ़ाकर
कुछ लोग और नेता
कर रहे हैं राजनीति
बेशक इसकी खातिर
उन्हें अराजकता फैलानी पड़े ,
देशभर में अशांति, हिंसा, मनमुटाव,
नफ़रत, दंगें फ़साद, नक्सलवादी सोच अपनानी पड़े।
इस ओर राजनीति नहीं जानी चाहिए।
कभी तो स्वार्थ की राजनीति पर रोक लगनी चाहिए।
राजनीति राज्यनीति से जुड़नी चाहिए।
इसमें सकारात्मकता दिखनी चाहिए।
सभ्यता और संस्कृति से तटस्थ रहकर
देश समाज और दुनिया में
राजनीतिक माहौल बनाया जाना चाहिए।
टूची राजनीतिक सोच को
राज्य के संचालन हेतु
राजनीतिक परिदृश्य से अलगाया जाना चाहिए।
आम जनजीवन और जनता को राजनीति प्रताड़ित न करे,
इस बाबत बदलाव की हवा राजनीति में आनी चाहिए।
समय आ गया है कि स्वार्थ से ऊपर उठकर
राजनीति राज्यनीति से जुड़ी रहकर आगे बढ़नी चाहिए।
२४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
बेबस आदमी
अक्सर
अराजकता  के माहौल में
हो जाता है
आसानी से
धोखाधड़ी और ठगीठौरी का शिकार।

बार बार
ठगे जाने पर
अपनी बाबत
गहराई से विचार
करने के बाद
मतवातर
सोच विचार करने पर
आदमी के अंदर
स्वत : भर ही जाता है
संदेह और अविश्वास !
वह कभी खुलकर
नहीं ले पाता उच्छवास !!

आदमी धीरे धीरे
अपने आसपास से
कटता जाता है ,
वह चुप रहता हुआ ,
सबसे अलग-थलग पड़कर
उत्तरोत्तर अकेला होता जाता है।
संशय और संदेह के बीज
अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं ,
जो भीतर तक असंतोष को बढ़ाते हैं।


यही नहीं कभी कभी
आदमी अराजक सोच का
समर्थन भी करने लगे जाता है।
उसकी बुद्धि पर
अविवेक हावी हो जाता है।
वह अपने सभी कामों में
जल्दबाजी करता है ,
जीवन में औंधे मुंह गिरता है।
ऐसी मनोदशा में
अधिक समय बिताते हुए
वह खुद को लुंज-पुंज कर लेता है।
वह क्रोधाग्नि से
स्वयं को असंतुष्ट बना लेता है।
वह कभी भी अपने भीतर को
समझ नहीं पाता है।
यही नहीं वह अन्याय सहता है,
पर विरोध करने का हौसला
चाहकर भी जुटा नहीं पाता है।
और अंततः अचानक
एक दिन धराशायी हो जाता है।
ऐसा होने पर भी
उसका आक्रोश
कभी बाहर नहीं निकल पाता है।
वह अपनी संततियो को भी
किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है।
वे भी अनिर्णय का दंश
झेलने के निमित्त
लावारिस हालत में तड़पते हुए
अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं।
वे मतवातर यथास्थिति बनाए
अशांत और बेचैनी से भरे
भीतर तक कसमसाते रहते हैं।

आप ही बताइए कि
लावारिस शख्स देश दुनिया में
अराजकता नहीं फैलाएंगे ,
तो क्या वे सद्भावना का उजास
अपने भीतर से
कभी उदित होता देख पाएंगे ?
...या वे सब जीवन भर भटकते जाएंगे !!
कभी तो वे अपने जीवन में सुधार लाएंगे !!
कभी तो वे समर्थ और प्रबुद्ध नागरिक कहलाएंगे !!

आजकल भले ही आदमी अपनी बेबसी से जूझ रहा है ,
उसकी बेबस ज़िंदगी इतनी भी उबाऊ और टिकाऊ नहीं
कि वह इस यथास्थिति को झेलती रहे।
रह रह कर असंतोष की ज्वाला भीतर धधकती रहे।
अविश्वास के दंश सहकर अविराम कराहती हुई
अचानक अप्रत्याशित घटनाक्रम का शिकार बनकर
हाशिए से हो जाए बाहर।
आदमी और उसकी आदमियत को
सिरे से नकार कर
एक दम अप्रासंगिक बनाती हुई !
आदमी को अपनी ही नज़रों में गिराती हुई !!
कहीं देखनी पड़ें आदमी की आंखें शर्मिंदगी से झुकीं हुईं !!


बेबसी का चाबुक
कभी तो पीछे हटेगा,
तभी आदमी जीवन पथ पर
निर्विघ्न आगे बढ़ सकेगा।
अपनी हसरतें पूरी कर सकेगा।

कभी तो यथास्थिति बदलेगी।
व्यवस्था
परिवर्तन की लहरों से
टकराकर अपने घुटने टेकेगी।
जीवन धरा फिर से स्वयं को उर्वर बनाएगी।
जीवन धारा महकती इठलाती
अपनी शोख हंसी बिखेरती देखी जाएगी।
इस परिवर्तित परिस्थितियों में
प्रतिकूलता विषमता तज कर
आदमी के विकास के अनुकूल होकर
जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाएगी।
सच ! ऐसे में बेबसी की दुर्गन्ध आदमी के भीतर से हटेगी।

२१/१२/२०२४.
Dec 2024 · 76
बच्चा चोर
Joginder Singh Dec 2024
अभी अभी पढ़ा है
पत्रिका में प्रकाशित हुआ
संपादकीय
जिसके भीतर बच्चों को चोरी करने
और उन से  हाथ पांव तोड़ भीख मंगवाने,
उन्हें निस्संतान दम्पत्तियों को सौंपने,
उन मासूमों से अनैतिक और आपराधिक कृत्य करवाने का
किया गया है ज़िक्र,
इसे पढ़कर हुई फ़िक्र!

मुझे आया
कलपते बिलखते
मां-बाप और बच्चों का ध्यान।
मैं हुआ परेशान!

क्या हमारी नैतिकता
हो चुकी है अपाहिज और कलंकित
कि समाज और शासन-प्रशासन व्यवस्था
तनिक भी नहीं है इस बाबत चिंतित ?
उन पर परिस्थितियों का बोझ है लदा हुआ,
इस वज़ह से अदालतों में लंबित मामलों का है ढेर
इधर-उधर बिखरे रिश्तों सरीखा है पड़ा हुआ।
स्वार्थपरकता कहती सी लगती है,
उसकी गूंज अनुगूंज सुन पड़ती है , पीड़ा को बढ़ाती हुई,
' फिर क्या हुआ?...सब ठीक-ठाक हो जाएगा।'
मन में पैदा हुआ है एक ख्याल,
पैदा कर देता है भीतर बवाल और सवाल ,
' ख़ाक ठीक होगा देश समाज और दुनिया का हाल।
जब तक कि सब लोग
अपनी दिनचर्या और सोच नहीं सुधारते ?
क्या प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था और
बच्चों की चोरी करने और करवाने वालों को
सख़्त से सख़्त सजा नहीं दे सकते ?

मुझे अपने भाई वासुदेव का ध्यान आया था
जो खुशकिस्मत था, अपनी सूझबूझ और बहादुरी से
बच्चों को चुराने वाले गिरोह से बचकर  
सकुशल लौट पाया था,
पर  भीतर व्याप चुके इसके दुष्प्रभाव
अब भी सालों बाद दुस्वप्न बनकर सताते होंगे।

मुझे अपने सुदूर मध्य भारत में
भतीजे के अपहरण और हत्या होने का भी आया ध्यान,
जो जीवन भर के लिए परिवार को असहनीय दुःख दे गया।
क्या ऐसे दुखी परिवारों की पीड़ा को कोई दूर करेगा?

बच्चों को चुराने वाली इस  मानसिकता के खिलाफ़
सभी को देर सवेर बुलन्द करनी होगी अपनी-अपनी आवाज़
तभी बच्चा चोरी का सिलसिला  
किसी हद तक रुक पायेगा।
देश-समाज सुख-समृद्धि से रह रहे नज़र आएंगे।
वरना देश दुनिया के घर घर में
बच्चा - चोर उत्पात मचाते देखे जाएंगे।
फिर भी क्या हम इसके दंश झेल पाएंगे ?

२३/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
कोई कोई पल
बगैर कोई कोशिश किए
सुखद अहसास
बनकर आता है।
सच! इस पल
आदमी
अपने विगत के
कड़वे कसैले अनुभवों को
भूल पाता है।

यदि कभी अचानक
बेबसी का बोझ
किसी एक पल
अगर दिमाग से
निकल जाए
और
दिल अपने भीतर
हल्कापन
महसूस कर पाएं
तो आदमी
अधिक देर तक
तनाव से निर्मित वजन
नहीं सहता
बल्कि
उसे अपने जीवन में
जिजीविषा और ऊर्जा की
उपस्थिति होती है अनुभूत।
ऐसे में
जीवन एक खिले फूल सा
लगता है
और
कोई  कोई पल
अनपेक्षित वरदान सरीखा होकर
जीवन को
पुष्पित, पल्लवित और सुगंधित कर
ईश्वरीय अनुकंपा की
प्रतीति कराता है।
यह सब जब घटता है ,
तब जीवन
तनाव मुक्त हो जाता है
यही चिरप्रतीक्षित पल
जीवन में
आनंद और सार्थकता की
अनुभूति बन जाता है।

सभी को
अपने जीवन काल में
इन्हीं पलों के
जीवनोपहार का
इंतज़ार रहता है।
समय
मौन रहकर
इन्हीं पलों का
साक्षी बनता है।
इन्हीं पलों को याद कर
आदमी स्मृति पटल में
जीवन धारा को
जीवंतता से सज्जित करता है!
मतवातर जीवन पथ पर आगे बढ़ता है !!
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
इस देश में
अब सब को शिखर
छूने का है
हक़।
शिखर पर पहुंचने के लिए
अथक मेहनत करनी
पड़ती है
बेशक।
देश में दंगा फ़साद
क्यों होता रहे ?
अब सब को
तालीम मिले
ताकि
सभी को निर्विवाद रूप से
शिखर पर पहुंचने की
संभावना दिखे !
सभी इसके
लिए
प्रयास करें
और एक दिन
शेख साहिब शिखर को छूएं !
मेरी आंखें
उन्हें सफलता का दामन थामते हुए देखें ।

यह छोटी सी अर्ज़ है
कि तालीम की ताली से
सफलता का ताला
सब को खोलने का अवसर मिले।
इसकी खातिर सम्मिलित
प्रयास करना
हम सब का फर्ज़ है।
यह कुदरत का सब पर कर्ज़ है।
क्यों न सब इस के लिए
प्रयास करें ?
ताकि
देश समाज में
शांतिपूर्वक संपन्नता और सौहार्दपूर्ण वातावरण बने
और
जीवन गुलाब सा गुलज़ार रहे !
कोई भी साज़िश का शिकार न बने।
सब आगे बढ़ें, कोई भी तिरस्कृत न रहे।
कोई भी दंगा फ़साद न करे।
बेशक कोई भी अपनी योग्यता के कारण
जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचकर
राष्ट्र और समाज का नेतृत्व करे ।
देश दुनिया को सुरक्षित करे ।
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कोई चीख
रात के अंधेरे में से
उभरी है
और
अज्ञान का अंधेरा
इसे कर गया है जज़्ब।

कोई , एक ओर चीख
अंतर्मन के बियाबान में से
उभरी है
और व्यस्त सभ्यता
इसे कर गई है नजरअंदाज।

कोई , और ज़्यादा चीखें
धरा के साम्राज्य में से
रह रह कर उभर रहीं हैं
और अस्त व्यस्त
दार्शनिकता ने
इन चीखों को
दे दिया है
इनकी पहचान के निमित्त
एक नाम "समानांतर चीखें" ।

क्या ये आप तक
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद
आप के पास गुहार लगा रहीं हैं ?
श्रीमंत !
अपनी सामंतवादी सोच को विराम दो ।
उनके लिए कुछ सार्थक काम करो
ताकि कहीं तो
आज की आपाधापी के बीच
अशांत मनों को
सुख चैन और सुकून के अहसास मिलें ।
ये चीखें
हमारे अपनों की
कातर पुकार हो सकती हैं ।
कोई तो इन्हें सुने ।
इनके भीतर आशा और आत्मविश्वास जगे ।
१७/०७/१९९६ .
Joginder Singh Dec 2024
बेशक जीवन में
धूम धड़ाका
सब को अच्छा लगता है
पर इसका आधिक्य
बाधा भी उत्पन्न करता है।
धूम धड़ाका घूम घूम कर
धड़धड़ाता हुआ
कभी कभार
खूनी साका भी
रच जाता है,
यह तबाही के मंज़र भी
दिखला जाता है।

आदमी एक सीमा के बाद
इसे अपने जीवन में करने से बचे।
कम से कम वह अपनी खुशियों का अपहरण
स्वयं तो न करे , वह थोड़ा सा गुरेज़ करे।

कभी कभी
धूम धड़ाके जैसा आडंबर का सांप
चेतना और विवेक को न डस सके।
आदमी सलीके से
अपने स्वाभाविक ढंग से
इस बहुआयामी दुनिया के मज़े
दिल से ले सके।
उसकी राह में कोई अड़चन न पैदा हो सके।
वह अपने परिवार के संग
ख़ुशी ख़ुशी जीवन का आनंद उठा सके।
वह कभी धूम धड़ाका करने के चक्कर में
घनचक्कर न बने।
उसके सभी क्रिया कलाप
समय रहते सध सकें।
इस सब की खातिर
सभी जीवन में
अनावश्यक
धूम धड़ाका करने से पहले
अच्छी तरह से
सोच विचार करें
और इस से
जितना हो सके , उतना बचें ,
ताकि आदमी का चेहरा मोहरा
धूम धड़ाके की कालिख से बचा रहे।
उसकी पहचान धूमिल होने से बची रहे।
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
जब तक खग
नभचर बना रहेगा
और
स्वयं के लिए
उड़ने की ललक को
अपने भीतर
ज़िन्दा रखेगा ,
तब तक ही
वह आजीवन  
संभावना के गगन में
स्वच्छंदता से उड़ान भरता रहेगा।
जैसे ही
वह अपने भीतर
उड़ने की चाहत को
जगाना भूलेगा ,
वैसे ही वह
अचानक
जाएगा थक
और
किसी षड्यंत्र का
हो जाएगा शिकार ,
वह खुद को
एक खुली कैद में
करेगा महसूस
और एक परकटे
परिन्दे सा होकर
भूलेगा चहकना ,
कभी
भूले से चहकेगा भी ,
तो अनजाने ही
अपने भीतर
भर लेगा दर्द ,
एकदम भीतर तक
होकर बर्फ़
रह जाएगा उदासीन।

वह धीरे धीरे
दिख पड़ेगा मरणासन्न ,
यही नहीं
वह इस जीवन में
असमय अकालग्रस्त होकर
कर जाएगा प्रस्थान।

क्या
तुम अब भी
उसे
किसी दरिन्दे
या फिर
किसी बहेलिए के
जाल में फंसते हुए
देखना चाहते हो ?
उसकी अस्मिता को ,
आज़ाद रहकर
निज की संभावना को तलाशते
नहीं ‌देखना चाहते हो ?

०४/०८/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
बब्बन
भूरो भैंस को
पानी पिलाया
और चारा खिलाया
करता है बड़े प्यार से।
बब्बन
लगातार
दो साल से
परीक्षा में
अनुत्तीर्ण हो रहा है ,
फिर भी
वह करता है
'भूरो देवी' की देखभाल
और सेवा बड़े प्यार से।

बब्बन
कभी कभी
उतारता है अपनी खीझ
पेड़ पर
बिना किसी वज़ह
पत्थर मारकर ,
फिर भी मन नहीं भरा
तो खीझा रीझा वह बहस करता है
अपने छोटे भाई से,
अंततः उससे डांट डपट कर,
मन ही मन
अपने अड़ियल मास्टर की तरफ़
मुक्का तानने का अभिनय करता हुआ
उठ खड़ा होता है
अचानक।
परन्तु
नहीं कहता कुछ भी
अपनी प्यारी
मोटी मुटृली भूरों भैंस को।
वह तो बस
उसे जुगाली करते  हुए
चुपचाप देखता रहता है ,
मन ही मन
सोचता रहता है ,
दुनिया भर की बातें ।
और कभी कभी स्कूल में पढ़ी,सुनी सुनाई
मुहावरे और कहावतें ।

बेचारी भूरों देवी
खूंटे से बंधी , बब्बन के पास खड़ी
जुगाली के मज़े लेती रहती है,
थकती है तो बैठ जाती है,
भूख लगे तो चारे में मुंह मारती है ,
थोड़ी थोड़ी देर के बाद
अपनी पूंछ हिला हिला कर
मक्खी मच्छर भगाती रहती है
और गोबर करती व मूतियाती रहती है ,
भूरों भैंस बब्बन के लिए
भरपूर मात्रा में देती है दूध।
बब्बन की सच्ची दोस्त है भूरों भैंस।


सावन में
जीवन के
मनभावन दौर में
झमाझम बारिश के दौरान
भूरों होती है परम आनन्दित
क्यों कि बारिश में जी भर कर भीगने का
अपना ही है मजा।
यही नहीं भूरो बब्बन के संग
जोहड़ स्नान का
अक्सर
लेती रहती है आनंद।
कभी-कभी
दोनों दोस्त बारिश के पानी में भीगकर
अपने  निर्थकता भरे जीवन को
जीवनोत्सव सरीखा बना कर
होते हैं अत्यंत आनंदित, हर्षित, प्रफुल्लित।

जब बड़ी देर तक
बब्बन भूरों रानी के संग
नहाने की मनमानी करता है ,
तब कभी कभी
दादू लगाते हैं बब्बन को डांट डपट और फटकार,
" अरे मूर्ख, ज्यादा भीगेगा
तो हो जाएगा बीमार ,
चढ़ जाएगा ज्वर --
तो भूरों का रखेगा
कौन ख्याल ? "

कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ पर
होकर सवार
गांव की सैर पर
निकल जाता है,
वह भूरों को चरागाह की
नरम मुलायम घास खिलाता है।

और कभी कभी
बब्बन भूरों की पीठ से
कौओं को उड़ाता है ,
उसे अपना अधिकार
लुटता नजर आता है।


सावन में
कभी कभार
जब रिमझिम रिमझिम बारिश के दौरान
तेज़ हो जाती है बौछारें
और घनघोर घटा बादल बरसने के दौर में
कोई बिगड़ैल बादल
लगता है दहाड़ने तो धरा पर पहले पहल
फैलती है दूधिया सफेद रोशनी !
इधर उधर जाती है बिखर !!
फिर सुन पड़ती तेज गड़गड़ाहट!!!

बब्बन कह उठता है
अचानक ,
' अरे ! वाह भई वाह!!
दीवाली का मजा आ गया!'
ऐसे समय में
सावन का बादल
अचानक
अप्रत्याशित रूप से
प्रतिक्रिया करता सा
एक बार फिर से गर्ज उठता है,
जंगल के भूखे शेर सरीखा होकर,
अनायास
बब्बन मियां
भूरो भैंस को संबोधित करते हुए
कह उठता है,
' वाह ! मजा आ गया !!
बादल नगाड़ा बजा गया !
आ , भूरो, झूम लें !
थोड़ा थोड़ा नाच लें !! '

भूरो रहती है चुप ,
उसे तो झमाझम बारिश के बीच
खड़ी रहकर मिल रहा है
परम सुख व अतीव आनंद !!

बब्बन
यदि बादलों की
गर्जन  और गड़गड़ाहट में
ढूंढ सकता है
सावन में ‌दीवाली का सुख
तो उसे क्या !

वह तो ‌भैंस है ,
दुधारू पशु मात्र।
एक निश्चित अंतराल पर
जीवन की बोली बोलती है ,
तो उसकी क्षुधा मिटाने का
किया जाता है प्रबंध !
ताकि वह दूध देती रहे ।
परिवार का भरण-पोषण करती रहे।

वह दूध देने से हटी नहीं,
कि खूंटे से इतर
जाने के लिए
वह बिकी  कसाई के पास
जाने के लिए।

या फिर
उसे लावारिस कर
छोड़ देगा
इधर-उधर फिरने के लिए।

वह भूरो भैंस है
न कि बब्बन की बहन!
दूध देने में असफल रही
तो कर दी जाएगी घर से बाहर !

बब्बन भइया
अनुत्तीर्ण होता भी रहे
तो उसे मिल ही जाएगी
कोई भूरो सी भैंस !
बच्चे जनने के लिए !
वंश वृद्धि करने के लिए !!

०४/०८/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
तुमने बहुत दफा
बहुत से कुत्तों को
दफा करने की ग़र्ज से
उन पर परिस्थितियों वश
पत्थर फैंके होंगे।
और वे भी
परिस्थितियों वश
खूब चीखे चिल्लाए होंगे।

पर
आज
यह न समझना कि
तुम्हारी
दुत्कार फटकार
मुझे भागने को
बाध्य करेगी।
अलबेला श्वान हूं ,
भले ही...  इंसानी निर्दयता से परेशान हूं।
अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं ।
अपने रंग ढंग से जीने का आदी हूं ।
मैं , न कि कोई
ज़ुल्म ओ सितम का सताया
कोई मजलूम या अपराधी हूं!
कुत्ता हूं ,
ज्यादा घुड़कियां दीं
तो काट खाऊंगा।
तुम्हें ख़ास से आम आदमी
बना जाऊंगा।
जानवर बेशक हूं ,
पर कोई भेदभाव नहीं करता।
कोई छेड़े तो सही ,
तुरन्त काट खाता हूं।
फिर तो कभी कभी
खूब मार खाता हूं!
पर अपनी फितरत
कहां छोड़ पाया हूं ।
कभी कभी ‌तो
अपने बदले की भावना की
वज़ह से मारा भी जाता हूं ,
अपना वजूद गंवाता हूं।
आदमी के हाथों मारा जाता हूं।

मैं सरेआम
अपने समस्त काम निधड़क करता हूं ,
खाना पीना, मूतना और बहुत कुछ !
पर मेरी वफादारी के आगे
तुम्हारे समस्त क्रिया कलाप तुच्छ !!


मैं / यह जो तुम्हें
पूंछ हिलाता दिखाई दे रहा हूं ,
यह सब मैंने मनुष्यों के साहचर्य में
रहते रहते ही सीखा है !
आप जैसे मनुष्य
स्वार्थ पूर्ति की खातिर
कुछ भी कर सकते हैं ,
यहां तक कि
अपने प्रियजनों को भी
अपने जीवन से बेदखल कर सकते हैं !

मैं श्वान हूं , इंसान नहीं
मुझे दुत्कारो मत ,
वरना आ सकती कभी भी शामत।
गुर्राहट करते हुए आत्म रक्षा करने का
प्रकृति प्रदत्त वरदान मिला है मुझे।
गुर्रा कर स्वयं को बचाना ,
साथ ही मतवातर पूंछ हिलाना ,
और अड़ना, लड़ना, भिड़ना,
सब कुछ भली भांति जानता हूं,
और इस पर अमल भी करता हूं ।

पर कभी कभी
जब कोई
अड़ियल , कडियल , मरियल , सड़ियल आदमी
मुसीबत बनने की चुनौती देने
ढीठपन
पर उतर आए
तो क्यों न उसे
अपने दांतों से
मज़ा चखाया जाए !
अपने भीतर की ढेर सारी कुढ़न
और गुस्से को भड़का कर
देर देर तक, रह रह कर
गुर्राहट करते  करते चुनौती दी जाए ।
आदमी को
भीतर  तक घबराहट भरने में सक्षम
कोई कर्कश स्वर-व्यंजन की ध्वनियों से तैयार
गीत संगीत रचा और सुनाया जाए।
ऐसा कभी कभी
श्वान सभी से कहना चाहता है।

क्यों नहीं ऐसी विषम परिस्थितियों को
उत्पन्न होने देने से बचा जाए ?
अपने जीवन के भीतर करुणा व दया भाव को भरा जाए।

२०/१२/२०२४.
Dec 2024 · 66
कष्ट न दे
Joginder Singh Dec 2024
कष्ट
हद की दहलीज़ को
लांघ कर
आदमी को
पत्थर बना देता है ,
आंसुओं को सुखा देता है ।


कष्ट
उतने ही दे
किसी प्रियजन को
जितने वह
खुशी खुशी सह सके ।
कहीं
कष्ट का आधिक्य
चेतना को कर न दें
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
Joginder Singh Dec 2024
लोग सोचते हैं कि
आपको सब कुछ पता है ,
आसपास का सब कुछ --
नहीं है आपकी आंखों से
ओझल कुछ भी कहीं।

पर आप जानते हैं --
स्वयं को अच्छी तरह से ,
फलत: आप चुप रहते हैं ,
अपना सिर झुका कर
हर क्षण,हर पल, चुपचाप
चिंतन मनन करते रहते हैं।
अपना सिर झुकाए हुए
सोचते हैं ,निज से कहते हैं कि...,
" कैसे कहूं अपना सच !
किस विधि रखूं अपने
जीवन में प्राप्त निष्कर्ष
जनता जनार्दन के सम्मुख।
सतत् परिश्रम बना हुआ है
उत्कृष्टता का केन्द्र
और जीवन का आधार!"
" इस के अतिरिक्त
और नहीं कुछ मुझे विदित ,
दुनिया न खुद के बारे में ।
बहुत सा सच है अंधियारे में।"

आप कहते कुछ नहीं,
आजकल सुनते भर हैं।
आप कहें भी किस से ?
सब समय की चक्की तले
मतवातर पिस रहें।

कभी कभी आप
सुनते भर नहीं ,
अविराम सोचते समझते हैं ,
भीतरी अंधेरे को
उलीचते भर हैं ।
ताकि जीवन के सच का
उजास जीवन में मिलता रहे।
इससे जीवन - पथ प्रकाशित होता रहे।
लोग सोचते हैं कि आपको सब पता है ,
आप सोचते हैं कि लोगों को सब पता है ,
सच्चाई यह है -- आप और भीड़ , दोनों लापता हैं,
और आप सब कुछ कहे बिना
अपने अपने ‌ढंग से ढूंढते अपने घर का पता हैं ।

०४/०८/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
भले ही कोई
उतारना चाहे
दूध का कर्ज़ ,
अदा कर अपने फर्ज़।
यह कभी उतर नहीं सकता ,
कोई इतिहास की धारा को
कतई मोड़ नहीं सकता।
भले ही वह धर्म-कर्म और शक्ति से
सम्पन्न श्री राम चन्द्र जी प्रभृति
मर्यादा पुरुषोत्तम ही क्यों न हों ?
उनके भीतर योगेश्वर श्रीकृष्ण सी
'चाणक्य बुद्धि 'ही क्यों न रही हो !

मां संतान को दुग्धपान कराकर
उसमें अच्छे संस्कार और चेतना जगाकर
देती है अनमोल जीवन, और जीवन में संघर्ष हेतु ऊर्जा।
ऐसी ममता की जीवंत मूर्ति के ऋण से
पुत्र सर्वस्व न्योछावर कर के भी नहीं हो सकता उऋण।
माता चाहे जन्मदात्री हो,या फिर धाय मां अथवा गऊ माता,
दूध प्रदान करने वाली बकरी,ऊंटनी या कोई भी माताश्री।

दूध का कर्ज़ उतारना असंभव है।
इसे मातृभूमि और मातृ सेवा सुश्रुषा से
सदैव स्मरणीय बनाया जाना चाहिए।
मां का अंश सदैव जीवात्मा के भीतर है विद्यमान रहता।
फिर कौन सा ऐसा जीव है,
जो इससे उऋण होने की बालहठ करेगा ?
यदि कोई ऐसा करने की कुचेष्टा करें भी
तो माता श्री का हृदय सदैव दुःख में डूबा रहता!
कोई शूल मतवातर चुभने लगता,
मां की महिमा से
समस्त जीवन धारा
और जीव जगत अनुपम उजास ग्रहण है करता।
ममत्व भरी मां ही है सृष्टि की दृष्टि और कर्ताधर्ता !!
०३/०८/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
आज
आदमी ने
अपने भीतर
गुस्सा
इस हद तक
भर लिया है कि
वह बात बेबात पर
असहिष्णु बनकर
मरने और मारने पर
हो जाता है उतारू ,
उसकी यह मनोदशा
आदमी को भटका रही है।
निरंतर उसे बीमार बना ‌रही है।
Dec 2024 · 74
सार्थकता
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
कुछ भी बेकार नहीं होता ,
यहां तक कि
कवायद या कोई शिकवा शिक़ायत भी नहीं ,
आखिर हम इस सब के पीछे की
कहानी को समझें तो सही ।

कभी किसी की
शिकायत करें तो सही ,
कैसे नहीं अक्ल ठिकाने लगा दी जाती?
ज़िंदगी की पेचीदगियों की समझ,
समझ में समा जाती !
यह शिकायत,
शिकायत के निपटारे की
कवायद ही है ,
जो जीवन में
आदमी को
निरंतर समझदार
बना रही है,
सोये हुए को
जगा रही है।

जीवन में हर पल की
क्रिया प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
होने वाली कवायदें
जीवन में सार्थकता का
संस्पर्श करा रही हैं।
ये जीवन धारा में
बदलाव की वज़ह
बनती जा रही हैं।
१९/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
यह कैसा अपनापन ?
...कि आदमी का अचानक
अपमान हो
और अपनापन
परायापन सरीखा लगने लगे।
कोई क्रोध, नाराजगी जताने की
बजाय अपनापन दिखलाने वाला
खामोशी ओढ़ ले।

यह ठीक नहीं है।
इससे अच्छा तो वह अजनबी है ,
जो आदमी की पीड़ा को
सहानुभूति दर्शाते हुए सुन ले।
उसे दिलासा और तसल्ली दे
आदमी के भीतर हौसला और हिम्मत भर दे ।

इसे बढ़ावा देने वाले से क्या कहूं?
अपनेपन का दिखावा न करे ,
कम अज कम
बेवजह बेवकूफ बनाना बंद कर दे ।
इस सब से अच्छा तो परायापन ,
जो कभी कभार
शिष्टाचार वश
इज़्ज़त ,मान सम्मान प्रदर्शित कर दे ,
और तन मन के भीतर जिजीविषा भर दे ,
आदमी में जीने की ललक भरने का चमत्कार कर दे ।
अतः दोस्त सभी से सद्व्यवहार करो।
भूले से भी किसी का तिरस्कार न करो।
दुखी आदमी इस हद तक चला जाए
कि वह गुस्से से ही सही ,
हिसाब किताब की गर्ज से
ज़िंदगी की बही में बदला दर्ज कर जाए ,
ताकि अपमान और परायेपन का दर्द कम हो पाए।

१८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
टैलीविजन पर
समसामयिक जीवन और समाज से
संबंधित चर्चा परिचर्चा देख व सुन कर
आज अचानक आ गया
एक विस्मृत देशभक्त वीर सावरकर जी का ध्यान।

जिन्हें ‌आज तक देश की
आज़ाद फिजा के बावजूद
विवादित बनाए रखा गया।
उन्हें क्यों नहीं
भारत रत्न से सम्मानित किया जा सका ?
मन ने उन को ‌नमन किया।
मन के भीतर एक विचार आया कि
आज जरूरत है
उनकी अस्मिता को
दूर सुदूर समन्दर से घिरे
आज़ादी की वीर गाथा कहते
अंडेमान निकोबार द्वीपसमूह में
स्थित सैल्यूलर जेल की क़ैद से
आज़ाद करवाने की।
वे किसी हद तक
आज़ाद भारत में अभी भी एक निर्वासित जीवन
जीने को हैं अभिशप्त।
अब उन्हें काले पानी के बंधनों से मुक्त
करवाया जाना चाहिए।
उनके मन-मस्तिष्क में चले अंतर्द्वंद्व
और संघर्षशील दिनचर्या को
सत्ता के प्रतिष्ठान से जुड़े
नेतृत्वकर्ताओं के मन मस्तिष्क तक
पहुंचाया जाना चाहिए
ताकि अराजकता के दौर में
वे राष्ट्र सर्वोपरि के आधार पर
अपने निर्णय ले सकें,
कभी तो देश हित को दलगत निष्ठाओं से
अलग रख सकें।
वीर सावरकर संसद के गलियारों में
एक स्वच्छंद और स्वच्छ चर्चा परिचर्चा के
रूप में जनप्रतिनिधियों के रूबरू हो सकें।
कभी सोये हुए लोगों को जागरूक कर सकें।

सच तो यह है कि
भारत भूमि के हितों की रक्षार्थ
जिन देशी विदेशी विभूतियों ने
अपना जीवन समर्पित कर दिया हो ,
उन सभी का हृदय से मान सम्मान किया जाना चाहिए।

हरेक जीवात्मा
जिसने देश दुनिया को जगाने के लिए
अपने जीवनोत्सर्ग किया,
स्वयं को समर्पित कर दिया,
उन्हें सदैव याद रखना चाहिए।
ऐसी दिव्यात्माओं की प्रेरणा से
समस्त देशवासियों को
अपना जीवन देश दुनिया के हितार्थ
समर्पित करना चाहिए।
समस्त देश की शासन व्यवस्था
' वसुधैव कुटुम्बकम् 'के बीज मंत्र से
सतत् प्रकाशित होती रहनी चाहिए।
१८/१२/२०२४.
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